-राजीव
देश में कामकाज के घंटों पर छिड़ी बहस के पीछे क्या आपने सोचा है क्यों कॉर्पोरेट के मुखिया (सरगना लिखना चाहता था) इतनी बड़ी बात कर पा रहे हैं ? वह इसलिए की उन्हें इस बात का आभास है की सरकार कॉर्पोरेट संस्थाओं और पैसे की तरफ झुकी हुई है। बहुत सी ऐसी संस्थाएं जो अपने कामगारों को जड़ खरीद गुलाम समझती हैं वह बोलना तो यही चाहती हैं लेकिन लोक लॉज के कारण वह ये बात बोल नहीं पा रहीं हैं लेकिन मन तो हफ्ते में सत्तर या नब्बे घंटे काम कराने का उनका भी करता होगा।
इस पर एक दिलचस्प टिप्पणी सोशल मीडिया पर अंकित है कि पैसों की नजर से दुनिया को देखने वाले लोग प्रेम और परिवार को नहीं समझ पाएंगे।
मजदूर संगठन और मजदूरों की क्षीण हुई एकता ने ऐसे तमाम लोगों को इस तरह बेलगाम बोलने का अवसर दे दिया है। एक दिलचस्प किस्सा छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले का है जो वर्षों पुराना है लेकिन निरंकुश सरकारों नकेल कसने का एक बहुत सटीक उदाहरण है।
बिलासपुर से नगर निगम के सफाई कर्मचारियों का मजदूर नेता सरदारी लाल गुप्ता (मेरे पिताजी) को बुलावा आया। सफाई कर्मचारी अपनी मांगों को लेकर आंदोलन करना चाहते थे। पिताजी और सत्येंद्र साधु जो कि मजदूर आंदोलन का एक और जाना पहचाना नाम था बिलासपुर पहुंचे। आंदोलन एक दिन पहले शुरू हो चुका था। वहां पहुंचने पर सभी सफाई कर्मचारियों (स्वीपर) लोगों ने आग्रह किया की आप दोनों नेता हमारी बस्ती के बीच जो मंदिर हैं उसी में रुक जाइए। बाहर कहीं भी रहने पर गिरफ्तारी का खतरा था। उस समय अधिकतर घरों में सूखा पैखाना हुआ करता था जिसको प्रतिदिन स्वीपर साफ करते थे इसलिए सभी को पता था की आंदोलन बहुत ज्यादा दिन खींच जाने की स्थिति में बहुत गंभीर परिणाम होंगे। प्रशासन तो आंदोलन को एक दिन से ज्यादा भी बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं था क्योंकि ऐसे पैखानों की सफाई प्रतिदिन आवश्यक थी।
पिताजी और सत्येंद्र साधु उनके आग्रह पर सफाई कर्मियों की बस्ती के मंदिर में ही रुक गए। अब खाने का क्या किया जाए? दोनों नेताओ ने खुद से कहा की जो तुम लोग खिला दोगे वही हम खाएंगे। इस एक बात ने आंदोलन और सफाई कर्मचारियों में जान भर दी कोई आज के समय में भी जिनको लोग छूने से बचते हैं दोनों नेताओं ने उनके हाथ का बना खाना खाना शुरु कर दिया। सभी आंदोलनरत लोगों को भरोसा हो गया कि यह लोग हमारे लिए लड़ाई लड़ेंगे। मजदूर और उसका आंदोलन करते उसके नेताओं के बीच का यह भरोसा अब लगभग खत्म हो गया है।
दूसरी एक बात जिसने आंदोलन में जान भरी वह इनके बीच वह भाषण था जिसमें मजदूर नेताओं ने एलान किया की नगर निगम के अध्यक्ष को हम 42 रूपये प्रतिदिन देंगे अगर वह सफाई करने को तैयार हो जायेंगे। नगर निगम के अध्यक्ष उस समय एक पूर्व मंत्री थे और स्वर्ण समाज से थे। उस समय सफाई कर्मचारियों की तनख्वाह 21 रूपये प्रतिदिन हुआ करती थी। आंदोलन को मुश्किल से 3 दिन ही हुए थे डीआईजी ने आंदोलनकारियों को बातचीत के लिए बुलाया। सफाई कर्मचारियों के बीच के ही पांच लोग डीआईजी से चर्चा करने पहुंचे। प्रशासन को आंदोलन की गहराई का अंदाजा नहीं था। बात-बात में डीआईजी साहब ने कुछ अपशब्द कह दिए, बातचीत करने गए लोगों में से एक महिला ने चप्पल निकालकर डीआईजी साहब को मार दी। बात बहुत बिगड़ गई और कुल 157 लोगों की गिरफ्तारी हुई और कर्फ्यू लगा दिया गया।
नगर निगम बिलासपुर ने सफाई करने के लिए उड़ीसा से सफाई कर्मचारी बुलवा लिए लेकिन बाहर बचे लोगों ने बहुत दमदारी से इसका विरोध किया और उड़ीसा से आए हुए लोगों को काम नहीं करने दिया। पांच दिन बाद पूरा प्रशासन इन आंदोलनरत सफाई कर्मचारियों के सामने हाथ जोड़े खड़ा था। लगभग सभी मांगे पांच दिन के आंदोलन में मान ली गई।
सत्ता इसलिए भी निरंकुश हो गई हैं कि पूरे देश से मजदूरों का कोई बड़ा संगठन नहीं है और मजदूरों की गतिशीलता लगभग इस देश में खत्म हो गई है। पहले यह आम धारणा थी कि अदालत में दर्ज मुकदमों में अदालतों का झुकाव विद्यार्थियों और मजदूर के पक्ष में होता है। एक स्वाभाविक सहानुभूति इन अदालतों की इन दोनों वर्ग की तरफ रहती है लेकिन हालिया अदालती फैसलों ने यह धारणा भी तोड़ दी है। मजदूरों से जुड़े कानून को सरकारों ने नियोक्ता की तरफ झुका दिया है। मजदूर संगठन और मजदूरों को गतिशील रहना होगा ताकि सरकारें मजदूरों से जुड़े कानूनों को और तोड़मरोड़ ना सकें। पिछले कुछ सालों में मजदूरों से जुड़े कानून को बहुत ज्यादा शिथिल कर दिया है लेकिन कोई मजबूत आवाज इनके पक्ष में खड़ी नहीं दिखी। कामगारों के हक की बात इस राष्ट्र के विमर्श से गायब है।