तस्वीर / सोशल मीडिया
बस्तर के दंतेवाड़ा जिले में एक छात्रावासी स्कूल के आठवीं के लडक़े ने कुछ दिन पहले वहीं पर खुदकुशी कर ली। लाश की कलाई पर हर-हर महादेव, ओम नम: शिवाय, लिखा हुआ था, और उसके पास के कुछ कागजों में भगवान से शिकायतें लिखी हुई थीं, और गायत्री मंत्र लिखे हुए थे। यह लडक़ा क्लास का मॉनीटर भी था, और धर्म में इस तरह डूबे हुए उसकी खुदकुशी हैरान भी करती है क्योंकि आदिवासी इलाकों में लोगों की एक अलग किस्म की संस्कृति रहते आई है। एक दूसरा मामला छत्तीसगढ़ के ही सक्ती में सामने आया है जिसमें ग्यारहवीं की एक छात्रा ने अपनी जीभ काटकर एक मंदिर में भगवान शिव को चढ़ा दी, और चारों तरफ खून फैला हुआ था, जीभ काटने के बाद छात्रा ने अपने को मंदिर में बंद कर लिया, और साधना करने की बात कहती रही। गांव वाले भी आसपास बाहर इकट्ठा हो गए। इस छात्रा के घरवालों का भी कहना था कि वह दो दिनों तक साधना करती रहेगी, और छात्रा ने एक कागज पर लिख छोड़ा था कि अगर वह साधना से उठ जाएगी तो उसकी हत्या हो जाएगी। इसे देखकर गांव वालों ने पुलिस को भी मंदिर तक नहीं जाने दिया था, और पुलिस और डॉक्टरों के समझाने पर भी लडक़ी को अस्पताल नहीं ले जाने दिया।
दोनों घटनाएं अलग-अलग भी, और मिलकर भी बहुत परेशान करती हैं। दस-पन्द्रह बरस की उम्र के बच्चों को पढ़ाई-लिखाई, खेलकूद, और जिंदगी की बाकी चीजों में व्यस्त रहना चाहिए। लेकिन इस उम्र के बच्चों को जब धार्मिक रीति-रिवाजों से लेकर धार्मिक अंधविश्वास तक में झोंक दिया जाता है, जब उन्हें कोई प्रवचनकर्ता यह समझा जाता है कि बेलपत्री पर चंदन या शहद लगाकर शिवलिंग पर चढ़ा देने के बाद दुनिया की कोई भी इम्तिहान बिना पढ़े बच्चे को भी फेल नहीं कर सकती, तो वह अंधविश्वास कई तरह की शक्ल लेने लगता है। जिस तरह बदन के भीतर कैंसर जब फैलना शुरू होता है, तो वह किस तरफ कितनी दूर तक चलता है, कहां-कहां फैल जाता है, इसका कोई ठिकाना नहीं रहता, और ठीक यही हाल अंधविश्वास का भी रहता है, बच्चों के भीतर उनके नर्म दिल पर अंधविश्वास मानो गर्म लोहे से दाग लगा जाता है। यह सिलसिला बहुत बड़े पैमाने पर बहुत खतरनाक है, और इसका सही-सही अंदाज इसलिए नहीं लग पाता कि सिर्फ मौत के ही आंकड़े सामने आते हैं, अंधविश्वास में डूबे हुए, मानसिक विकास रूक जाने वाले बच्चों का अंदाज नहीं लग पाता कि वे कितने हैं, और उनका मानसिक विकास किस हद तक प्रभावित हुआ है।
जाहिर है कि आज दुनिया में सबसे अधिक असर डालने वाला सामान धर्म ही है। लोगों को संविधान, लोकतंत्र, कानून, मानवाधिकार, महिला-अधिकार से लेकर सामाजिक न्याय तक सब कुछ धर्म के नीचे ही लगते हैं। धर्म और धर्मान्धता के बीच कोई सीमा रेखा नहीं रह गई है। गांधी और विवेकानंद के धर्म सरीखा धर्म आज नहीं रह गया है, वह बहुत आक्रामक हो चुका है, और उसकी धार बढ़ती ही चली जा रही है। बच्चे भी चारों तरफ सडक़ों पर, कानों में रात-दिन पहुंचने वाले धार्मिक शोरगुल के मार्फत धर्म के सबसे ही आक्रामक तेवरों तले दब रहे हैं। एक निजी आस्था की तरह न रहकर धर्म सार्वजनिक शक्ति प्रदर्शन हो चुका है, और बहुत सारे मामलों में यह दूसरे धर्म के लोगों के खिलाफ नफरत का सामान भी बन चुका है। बच्चे अपने आसपास के लोगों को जिस तरह की हिंसक बातचीत करते देखते हैं, धर्म की बुनियादी कुछ बातें अगर भली भी होंगी, तो भी उनसे परे उसके हिंसक और नफरती तेवरों से वे अधिक प्रभावित हो रहे हैं, और उन्हें धर्म शांति पाने के एक जरिए के बजाय एक हथियार की तरह लगने लगा है। ऐसी दिमागी हालत में अंधविश्वास को जगह बनाना आसान हो जाता है, और बच्चों से लेकर बड़ों तक कई पीढिय़ों में ऐसा अंधविश्वास साथ-साथ चल रहा है।
किसी समाज में बच्चों के बौद्धिक विकास के लिए कलात्मकता, रचनात्मकता, कल्पनाशीलता की बड़ी जरूरत रहती है। सामाजिक और सांस्कृतिक विविधता भी विकास में मददगार होती है। बच्चों में एक जिज्ञासा जरूरी होती है, और सवाल पूछने का उनमें उत्साह जरूरी होता है। अब अगर हम धर्म के कारोबार को देखें, तो उसमें इनमें से किसी भी बात की कोई गुंजाइश नहीं रहती है। धर्म हजारों बरस से एक ही धारणा पर चल रहा, बिना किसी फेरबदल की गुंजाइश वाला, और लगातार कट्टरता की तरफ बढ़ता हुआ एक ऐसा माध्यम है जिसमें किसी उत्सुकता, जिज्ञासा, और सवालों की गुंजाइश नहीं है। छत्तीसगढ़ में कुछ ही दिनों के फासले में एक आत्महत्या, और एक जीभ काटकर चढ़ा देने की घटना बहुत हैरान तो नहीं करती है, क्योंकि बच्चों के बीच भी धर्मान्धता और अंधविश्वास की जड़ें कैंसर की तरह फैल चुकी हैं, लेकिन ये दो घटनाएं दुखी बहुत करती हैं कि आज की नई पीढ़ी को धर्म के नाम पर यह किस गड्ढे में डाला जा रहा है! इतना गहरा गड्ढा कि किसी अंधेरे गहरे कुएं की तरह, और जिससे निकल पाना मुमकिन नहीं है। इस खतरे को भी समझने की जरूरत है कि आज का जो बचपन धार्मिक अंधविश्वास में इस हद तक डूब गया है, उसकी तो जिंदगी अभी अगर बची है, तो वह 90-100 साल तक भी चल सकती है, और अगली कम से कम दो-तीन पीढिय़ों को यह अंधविश्वास दे ही सकती है। जो बच्चे इस तरह जान खो रहे हैं, वे तो गिनती के हैं, लेकिन उन्हीं की बराबरी से अंधविश्वास में डूबे हुए बच्चे उनके मुकाबले लाखों की संख्या में हैं, और वह पूरी पीढ़ी समाज को योगदान तो नहीं के बराबर दे पाएगी, लेकिन इन दिनों धर्म में प्रचलित आम हिंसा में इजाफा जरूर कर जाएगी। इम्तिहान के पर्चों में सवालों के जवाब लिखने के बजाय जिन बच्चों को धार्मिक अपील लिखना सूझ रहा है, जिन्हें समाज में यह दिख रहा है कि धर्म ही सब कुछ है, और कर्म से कुछ हासिल नहीं होना है, तो उनके आगे बढऩे की संभावना वैसे भी खत्म हो जाती है।
आज दुनिया में बहुत से देश ऐसे हैं जो बच्चों के वैज्ञानिक सोच देकर आगे बढ़ा रहे हैं। ऐसे में अपने बच्चों के गले में धर्म नाम की चट्टान को बांध देने से वे उसी के इर्द-गिर्द बंधे जरूर रह जाएंगे, लेकिन वो आगे नहीं जा पाएंगे। जिनको अंधविश्वासी बच्चे अच्छे लग रहे हैं, उन्हें जीवन में धर्म की भूमिका के लिए गांधी और विवेकानंद सरीखे कुछ लोगों को भी पढऩा चाहिए, धर्म को अफीम बताकर चले जाने वाले कार्ल माक्र्स, और भगत सिंह सरीखों को पढऩा तो उनके लिए मुमकिन नहीं होगा।