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अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे पर नयी पीठ करेगी फैसला: न्यायालय
08-Nov-2024 8:20 PM
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे पर नयी पीठ करेगी फैसला: न्यायालय

नयी दिल्ली, 8 नवंबर। उच्चतम न्यायालय ने शुक्रवार को अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के अल्पसंख्यक दर्जे संबंधी मामले को नयी पीठ के पास भेजने का निर्णय लिया और 1967 के उस फैसले को खारिज कर दिया जिसमें कहा गया था कि विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता क्योंकि इसकी स्थापना केंद्रीय कानून के तहत की गई थी।

प्रधान न्यायाधीश (सीजेआई) डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने 4:3 के बहुमत के फैसले में कहा, कोई कानून या कार्यकारी कार्रवाई जो शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना या प्रशासन में धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों के खिलाफ भेदभाव करती है, संविधान के अनुच्छेद 30(1) के विरुद्ध है।

अनुच्छेद 30 अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रशासन करने के अधिकार से संबंधित है। अनुच्छेद 30 (1) कहता है कि सभी अल्पसंख्यकों को, चाहे वे धर्म या भाषा पर आधारित हों, अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रशासन करने का अधिकार होगा।

प्रधान न्यायाधीश ने न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की ओर से भी 118 पृष्ठ का फैसला लिखा। उन्होंने कहा, ‘‘अजीज बाशा (1967 के फैसले) में अपनाया गया यह दृष्टिकोण कि यदि कोई शैक्षणिक संस्थान किसी कानून के माध्यम से अपना वैधानिक चरित्र प्राप्त करता है तो वह अल्पसंख्यक द्वारा स्थापित नहीं है, खारिज किया जाता है।’’

पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने 1967 में एस. अजीज बाशा बनाम भारत संघ मामले में फैसला दिया था कि एएमयू एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है इसलिए इसे अल्पसंख्यक संस्थान नहीं माना जा सकता।

बहुमत के पैसले में कहा गया, “इसके अतिरिक्त, भाषाई या धार्मिक अल्पसंख्यक जिसने कोई शैक्षणिक संस्थान स्थापित किया है, उसे प्रशासन में अधिक स्वायत्तता की गारंटी मिलती है। इसे प्रावधान से जुड़े ‘विशेष अधिकार’ के तौर पर पढ़ा जाना चाहिए।”

न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने कहा कि धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यकों को यह साबित करना होगा कि उन्होंने समुदाय के लिए शैक्षणिक संस्थान की स्थापना की है, जो अनुच्छेद 30(1) के प्रयोजनों के लिए अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान है।

उन्होंने कहा, “अनुच्छेद 30(1) द्वारा गारंटीकृत अधिकार संविधान लागू होने से पहले स्थापित विश्वविद्यालयों पर लागू है।”

सीजेआई ने उन कारकों को रेखांकित किया जिनका उपयोग यह निर्धारित करने के लिए किया जाना चाहिए कि क्या किसी अल्पसंख्यक ने कोई शैक्षणिक संस्थान “स्थापित” किया है।

उन्होंने लिखा, “विचार, उद्देश्य और कार्यान्वयन के संकेत संतुष्ट करने वाले होने चाहिए। किसी शैक्षणिक संस्थान की स्थापना का विचार अल्पसंख्यक समुदाय से संबंधित किसी व्यक्ति या समूह से उत्पन्न हुआ होना चाहिए तथा शैक्षणिक संस्थान मुख्य रूप से अल्पसंख्यक समुदाय के लाभ के लिए स्थापित किया जाना चाहिए।”

इस विचार का क्रियान्वयन अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों द्वारा उठाया गया एक अन्य महत्वपूर्ण कारक बताया गया।

उन्होंने कहा, “शैक्षणिक संस्थान की प्रशासनिक व्यवस्था में (1.) शैक्षणिक संस्थान के अल्पसंख्यक चरित्र को स्पष्ट और पुष्ट किया जाना चाहिए; तथा (2.) कि इसकी स्थापना अल्पसंख्यक समुदाय के हितों की रक्षा और संवर्धन के लिए की गई थी।”

प्रधान न्यायाधीश ने कहा, ‘‘एएमयू अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान है या नहीं, इस पर फैसला इस निर्णय में निर्धारित सिद्धांतों के आधार पर किया जाना चाहिए।’’

निवर्तमान प्रधान न्यायाधीश ने न्यायिक रिकॉर्ड को नियमित पीठ के समक्ष प्रस्तुत करने को कहा ताकि अल्पसंख्यक दर्जे के मुद्दे पर निर्णय लेने के अलावा इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2006 के फैसले के खिलाफ अपीलों पर निर्णय लिया जा सके।

जनवरी 2006 में उच्च न्यायालय ने 1981 के कानून के उस प्रावधान को रद्द कर दिया था जिसके तहत एएमयू को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया था।

बहुमत के फैसले में 1981 में दो न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिया गया संदर्भ भी वैध माना गया, जिसमें 1967 के फैसले की सत्यता पर सवाल उठाया गया था और मामले को सात न्यायाधीशों की पीठ को भेज दिया गया था।

सात न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ के तीन अन्य न्यायाधीशों - न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा - ने अलग राय लिखी।

न्यायमूर्ति कांत ने कहा कि 1967 के निर्णय पर पुनर्विचार के लिए 1981 में भेजा गया संदर्भ “कानून की दृष्टि से गलत है और इसे खारिज कर दिया जाना चाहिए”।

उन्होंने 102 पन्नों के अलग फैसले में कहा, “अंजुमन (1981 में) में दो न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिया गया संदर्भ और कुछ नहीं, बल्कि भारत के प्रधान न्यायाधीश के ‘मास्टर ऑफ रोस्टर’ होने के अधिकार को चुनौती देना तथा संविधान के अनुच्छेद 145 के तहत प्राप्त विशेष शक्तियों का हनन है...।”

न्यायमूर्ति दत्ता ने अपने 88 पृष्ठ के फैसले में एएमयू को अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान घोषित नहीं किया।

उन्होंने लिखा, “मुझे आश्चर्य हो रहा है कि अंजुमन-ए-रहमानिया मामले में दो न्यायाधीशों की पीठ यह अनुरोध कैसे कर सकती है कि मामले को कम से कम सात न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष रखा जाए।”

न्यायमूर्ति दत्ता ने कहा, “मुझे डर है कि कल दो न्यायाधीशों की पीठ, न्यायविदों की राय का हवाला देते हुए, ‘मूल ढांचे’ के सिद्धांत पर संदेह कर सकती है और भारत के प्रधान न्यायाधीश से 15 न्यायाधीशों की पीठ गठित करने का अनुरोध कर सकती है।”

न्यायमूर्ति शर्मा ने 193 पृष्ठों के फैसले में कहा कि दो न्यायाधीशों की पीठ प्रधान न्यायाधीश के पीठ का हिस्सा न होने की स्थिति में मामले को सीधे सात न्यायाधीशों की पीठ को संदर्भित नहीं कर सकती थी।

शीर्ष अदालत ने 12 फरवरी 2019 को विवादास्पद मुद्दे को सात न्यायाधीशों की पीठ को सौंप दिया था और इससे पहले 1981 में भी इसी तरह का संदर्भ दिया गया था।

इस संस्थान को 1981 में संसद द्वारा एएमयू (संशोधन) अधिनियम पारित किये जाने पर अपना अल्पसंख्यक दर्जा पुनः मिल गया था।

केंद्र की कांग्रेस नीत संप्रग सरकार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2006 के फैसले के खिलाफ अपील दायर की थी, जबकि विश्वविद्यालय ने इसके खिलाफ एक अलग याचिका दायर की थी।

भाजपा नीत राजग सरकार ने 2016 में उच्चतम न्यायालय को सूचित किया कि वह पूर्ववर्ती संप्रग सरकार द्वारा दायर अपील वापस लेगी।

उसने बाशा मामले में सर्वोच्च न्यायालय के 1967 के फैसले का हवाला देते हुए दावा किया था कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है क्योंकि यह सरकार द्वारा वित्तपोषित एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है। (भाषा)

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