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हिन्दी के पहले थिसॉरस बनने की कथा
20-Dec-2025 7:50 PM
हिन्दी के पहले थिसॉरस  बनने की कथा

कुसुम कुमार और अरविन्द कुमार


-अशोक पांडे

मशहूर फिल्मी पत्रिका ‘माधुरी’ का सम्पादन करते हुए अरविन्द कुमार को दस साल बीत चुके थे। कम्पनी ने नेपियन सी रोड पर रहने को घर दिया हुआ था, कम्पनी के ही दिए लोन से एम्बेसेडर गाड़ी खरीद रखी थी। दिन भर खूब काम करना होता और रातों को अक्सर पार्टियों में जाना होता। हफ्ते में नियमित रूप से एक-दो फिल्मों के प्रीमियर भी देखने होते।

‘माधुरी’ का जलवा था इसलिए तमाम फि़ल्मी हस्तियों में अरविन्द कुमार से दोस्ती करने की होड़ रहती। यूं दिन में अठारह-अठारह घंटे व्यस्त रहने के बावजूद बंबई में अपनी पत्नी, एक बेटे और एक बेटी के साथ रह रहे अरविन्द कुमार का जीवन ख़ासा सफल कहा जा सकता था।

दिसंबर 1973 का दिन था। वे हस्बे-मामूल सुबह की सैर के वास्ते अपनी पत्नी कुसुम के साथ छह बजे हैंगिंग गार्डन पहुँच गए। दोनों ने नियमपूर्वक रोज इस गार्डन के पांच फेरे लगाने को दिनचर्या का हिस्सा बनाया हुआ था।

मॉर्निंग वॉक करते हुए उनकी निगाहें एक पेड़ की टहनी पर अटकी सुनहरी रोशनी पर पड़ीं। सूरज उग रहा था। तभी वह निर्णायक पल घटा। पिछली रात वे देर तक किसी पार्टी में थे। आँखों से नींद गायब थी। मन में अजीब सी वितृष्णा थी। यूँ दिन के अठारह घंटे रोज़ खर्च करते रहना अचानक व्यर्थ लगने लगा। खुद से पूछने लगे- ‘क्यों? किसलिए? कब तक?’

अरविन्द कुमार अपनी भाषा को प्यार करने वाले आदमी थे। हिन्दी में किसी थिसॉरस का न होनी उन्हें खटकता था। वे अक्सर सोचते थे कोई न कोई एक दिन उसे जरूर बना ही देगा। उस दिन हवा में कुछ था जो उनसे कह रहा था कि यह काम तुमने ही करना है।

हैंगिंग गार्डन का पहला फेरा लगाते समय उन्होंने अपने मन में उभर रहे इरादे को पत्नी के सामने बयान कर दिया। यह भी कहा कि उस काम के लिए नौकरी छोडऩी पड़ सकती है, पैसे की तंगी हो सकती है वगैरह-वगैरह। पत्नी ने तुरंत हां कह दिया।

दूसरा फेरा लगाते समय उन्होंने उन चीजों की फेहरिस्त बनाई जो उनके पक्ष में थीं-दिल्ले में पैतृक घर था जिसमें हाल ही में एक कमरा ख़ाली हुआ था जहाँ वे तुरंत शिफ्ट कर सकते थे। उसमें किताबें रखने की भी भरपूर जगह थी।

तीसरा चक्कर लगाते हुए उन्होंने माइंस पॉइंट्स की गिनती की – स्कूल जाने वाले दो बच्चे थे जिनके जीवन को दांव पर नहीं लगाया जा सकता था, कुछ कर्ज था जिसे उतारने के लिए अप्रैल 1978 तक का समय था। उस समय तक बच्चे पढ़ाई की ऐसी अवस्था पर पहुँच जाने वाले थे कि शहर बदला जा सके। लडक़ा बारहवीं पास कर लेगा, लडक़ी आठवीं। बचत बिल्कुल नहीं था।

चौथा फेरा पैसे की उधेड़बुन में बीता। ख़र्चा तत्काल कम करना होगा। छोटे-मोटे ख़र्चों से हाथ खींचना होगा। बचत बढ़ानी होगी। घर में साज़ सामान नहीं के बराबर था। सोफा सेट तक नहीं था। उसे खऱीदने की योजना थी जिसे तुरंत मुल्तवी कर दिया गया। बचत बढ़ाने के तरीक़े सोचे गए। प्रोविडेंट फंड के नाम पर तनख्वाह का दस प्रतिशत कटता था। फैसला लिया गया कि अब से बीस प्रतिशत कटवाया जाए और दफ्तर में इस बाबत अर्जी लगा दी जाए।

पांचवा फेरा आने तक यह बात समझ में आ गई कि यदि अप्रैल 1978 तक दो लाख रुपयों की व्यवस्था हो जाय तो इस काम को उठाया जा सकता है। हो सकता है दिल्ली में कुछ और काम मिल जाए, कोई संस्था अनुदान दे दे, कहीं से कोई और मदद मिल जाए। दोनों पति-पत्नी कड़ी मेहनत कर के थिसॉरस को दो साल में तैयार कर सकते थे।

पांचवें चक्कर के दौरान उन्होंने किताब बनाने के लिए की जाने वाली आवश्यक तैयारियों के बारे में गहनता से विचार किया। इसमें अप्रैल 78 तक अपने आप को आवश्यक उपकरणों से लैस करना, तमाम संदर्भ ग्रंथ खरीदना और काम करने के लिए हज़ारों की तादाद में जरूरी कार्ड छपवाना जैसी डीटेल्स शामिल थीं। यह भी तय हुआ कि नौकरी छोडऩे से पहले सुबह शाम किताब पर काम कर के देखा जाय। पूरा अनुभव हो जाए, हाथ सध जाए, तभी दिल्ली जाया जाय।

यह हिन्दी के पहले थिसॉरस के बनने की कथा का शुरुआती अध्याय भर है। अरविन्द कुमार 1930 में जन्मे थे। 15 साल की आयु में उन्होंने दिल्ली प्रेस के साथ अपना करियर शुरू किया था। बाद में वे अनेक पत्रिकाओं के सम्पादक रहे जिनमें टाइम्स ग्रुप की ‘माधुरी’ (जो बाद में ‘फिल्मफेयर’ के नाम से जानी गई) और ‘रीडर्स डाइजेस्ट; का हिन्दी संस्करण ‘सर्वोत्तम’ शामिल रहे। जब उनका थिसॉरस छप कर आया उनकी आयु छियासठ की हो चुकी थी यानी जिस काम के बारे में उनका खयाल था कि दो साल में हो जाएगा, उसे पूरा करने में अठारह साल लगे। (बाकी पेज 5 पर)

बंबई के हैंगिंग गार्डन में उस सुबह की सैर को याद करते हुए उन्होंने एक संस्मरण में लिखा है- ‘उगता मायावी चालाक सूरज पेड़ों की फुनगियों को और हमारे दृष्टिकोण को सुनहरी किरणों से रंग रहा था। राह के गड्ढों और काँटों को हमारी नजरों से ओझल कर रहा था। कभी-कभी आदमी को ऐसे ही छलिया सूरजों की ज़रूरत होती है। ऐसे सूरज न उगें, तो नए प्रयास शायद कभी न हों। हमें सारा भविष्य सुनहरा लगने लगा। खुशी-खुशी हम लोग माउंट प्लैज़ेंट रोड के ढलान से उतर कर नेपियन सी रोड पर प्रेम मिलन नाम की इमारत में सातवीं मंजि़ल पर 76वें फ़्लैट पर लौट आए। मैं दफ़्तर जाते ही प्राविडैंट फ़ंड की राशि बढ़वाने वाले आवेदन का मज़मून बनाने लगा।’

अरविन्द कुमार और कुसुम कुमार का बनाया तीन खंडों वाला यह बेजोड़ शब्दकोष हर पुस्तक-संग्रह की शान होता है।

मेरे पास तो है। आपके पास?


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