विचार / लेख
-रमेशचंद्र द्विवेदी
फिराक सिगरेट पीते जा रहे थे और राख कार्पेट पर गिराते जा रहे थे। तब तक पंडितजी आते हुए नजऱ आए। वही जानी-पहचानी ताजा और सुबह की तरह पवित्र मुस्कुराहट चेहरे पर खेल रही थी। फ़ालिज का भी असर चेहरे से साफ नुमाया था। जैसे ही पंडितजी करीब आए फिराक ने सिगरेट कार्पेट पर फेंककर पैरों से कुचल डाली। सारी महफिल एलर्ट हो गई। क्या रोब था जवाहर लालजी का। सब लोग अपनी-अपनी कुर्सी पर चुपचाप बैठ गए। मैंने पंडितजी को देखते ही उनके पैर छूकर उन्हें प्रणाम किया। एक हल्की सी मुस्कुराहट आशीर्वाद दे गई। पंडितजी कुर्सियों की पहली कतार में बैठ गए। उनके बगल में शास्त्रीजी और शास्त्रीजी के बगल में फिराक साहब।
पंडितजी ने कहा लाल बहादुर तुम रघुपति की जगह बैठ जाओ और रघपुति को मेरे बगल में बैठने दो। अब फिराक पंडितजी के बगल में बैठकर दुनिया भर की बातें कर रहे थे। फिराक सिगरेट के बिना उलझन महसूस कर रहे थे। उन्होंने पंडितजी से कहा अगर आप इजाजत दें तो मैं जाकर पीछे बैठ जाऊँ। पंडितजी ने अपनी स्वाभाविक रोबीली आवाज़ में पूछा- क्यों ?
‘पंडितजी मुझे सिगरेट पीने की बुरी आदत है और आपको सिगरेट के धुएँ से तकलीफ पहुँच सकती है।’ कुछ नहीं तुम यहीं बैठोगे और जो कुछ भी पीना खाना हो यहीं करोगे। फिर क्या था। फिराक ने सिगरेट सुलगा डाली। सामने नीचे गद्दे पर शायर बैठे थे, अली सरदार जाफरी, गुलाम रब्बानी ताबा, सिकन्दर अली वज्द वगैरह। मेरे साथ बड़े भाई सुमत प्रकाश शौक (प्रसिद्ध शायर और अखबार नवीस और लेखक ) भी वहाँ मौजूद थे।
पंडितजी की इजाजत से शायरी शुरू हुई। शायर अपना कलाम बड़ी संजीदगी और दबी जबान में पढ़ रहे थे। डर के मारे लोग दाद तक नहीं दे रहे थे। तब तक फिराक बोल पड़े अरे भाई दाद तो खुलकर दो। पंडितजी के घर को आप लोगों ने मुर्दाघर बना रखा है। पूरा माहौल ही बदल गया। पूरे मुशायरे की फिजा पैदा हो गई। पंडितजी मुस्कुरा रहे थे। अब फिराक के पढऩे की बारी आई। कुर्सी से उतरकर शायरों के पास बैठ गए और अपनी नज़्म रक्शे शबताब पढऩे लगे ।
नज़्म पढऩे के पहले फिराक साहब ने पंडितजी की ओर देखते हुए यह शेर पढ़ा था:-
तेरी कुर्बत में आ करके बहल जाता है जी मेरा
अब अपने पास रहने या न रहने दे ख़ुशी तेरी


