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इंटरनेट-रायबहादुरों के लिए अब चीन में सरकारी मान्यता जरूरी!
25-Nov-2025 10:14 PM
इंटरनेट-रायबहादुरों के लिए अब चीन में सरकारी मान्यता जरूरी!

इंटरनेट को दुनिया ने शुरुआत में बड़ी उम्मीदों के साथ अपनाया था, यह एक ऐसी जगह मानी गई जहाँ हर शख़्स बिना किसी ओहदे, बिना किसी इजाज़त, और बिना किसी सरकारी पहरे के अपनी बात कह सकेगा। लेकिन इंटरनेट की यही आजादी चीन को हमेशा से एक बोझ जैसी लगी है। अब उसने एक नया डिजिटल फरमान जारी किया है, जो किसी लोकतांत्रिक समाज में शायद कल्पना जैसा लगता, लेकिन चीन में यह उसी लंबे सिलसिले का एक और कदम है जिसके तहत वह मीडिया, नागरिक समाज, और सार्वजनिक राय पर अपनी पकड़ मजबूत करता आया है। इस फरमान के मुताबिक, चिकित्सा, अर्थशास्त्र, कानून, शिक्षा या किसी भी विशेषज्ञ दायरे की बातें करने के लिए पहले सरकार से साबित कराना होगा कि आप उन विषयों पर बोलने के ‘लायक़’ हैं। यानी अब राय रखने का हक़ आपकी समझ और अनुभव से नहीं, बल्कि काबिलियत पर सरकार की मान्यता से तय होगा। यह इंतज़ाम सुनने में भले साफ़-सुथरा लगे, लेकिन इसकी तह में वही पुरानी कोशिश है—आवाजों पर नियंत्रण, सवालों पर ताले, और असहमति को प्रबंधन का मसला बना देना।

लेकिन चीन के इस आदेश को समझने से पहले दुनिया की मौजूदा स्थिति को देखना जरूरी है-क्योंकि आज गलत सूचना, अफवाह और झूठ का जो सैलाब सोशल मीडिया पर बह रहा है, वह किसी एक देश की समस्या नहीं है। भारत में तो सुबह उठते ही किसी चमत्कारी इलाज वाला वीडियो मिल जाए, तो लोग उसे आँख बंद करके आगे भेज देते हैं, नींबू से कैंसर ठीक, गर्म पानी से डायबिटीज़ ग़ायब, जड़ी-बूटी से रीढ़ की हड्डी जोड़ देना, सब कुछ सोशल मीडिया पर चलता है। अमेरिका में झूठ ने चुनावों को हिला दिया, यूरोप में टीकाकरण पर अफवाहों ने सरकारें परेशान कर दीं। दुनिया के किसी भी हिस्से में चले जाएँ, सोशल मीडिया का जंगल एक जैसा है, जहाँ अवैज्ञानिक बातें, झूठे दावे, और बेमतलब की सनसनी इतनी तेजी से फैलती है कि कोई भी समझदार समाज इससे बेचैन हो जाए। यानी समस्या असली है, गहरी है, और इस पर किसी भी देश को सोचने की जरूरत है कि आखिर झूठ और अफवाहों से निपटा कैसे जाए।

लेकिन समस्या असली होने का मतलब यह नहीं कि उससे निपटने का चीन का तरीका सही है। चीन का मॉडल सबसे आसान है, सरकार कह दे कि कौन बात कर सकता है और कौन नहीं। डॉक्टर पर नजर, अर्थशास्त्री पर नजर, शिक्षक पर नजर, और वकील पर नजर। और यह नजर सिर्फ उनके ज्ञान पर नहीं, उनकी राय पर भी है। डॉक्टर अगर सरकारी अस्पतालों की हालत पर उंगली उठाएँगे तो उनकी ‘काबिलियत’ पर शक़ हो जाएगा। अर्थशास्त्री अगर अर्थव्यवस्था में गिरावट की वजह बताएं जो सरकार को पसंद न हो, तो उनकी राय ‘अप्रमाणित’ घोषित की जा सकती है। और शिक्षक अगर शिक्षा नीति की खामियों पर बोलें तो यह पूछना आसान होगा कि ‘आपको राय रखने का हक़ किसने दिया?’ यानी चीन गलत सूचना रोकने के नाम पर वह सब कुछ कर रहा है जिसमें सरकार सच को और झूठ को अपने हिसाब से तय कर सके, ये लोकतंत्र नहीं, सुविधा का इंतज़ाम है।

अब सवाल यह है कि बाकी दुनिया क्या करे? क्योंकि यह कहना आसान है कि चीन की राह गलत है, लेकिन झूठ और अफवाह को खुला छोड़ देना भी कोई हल नहीं है। हमारे यहाँ सोशल मीडिया कंपनियों की कमाई झूठ, बहस और तकरार पर टिकी है, जिम्मेदारी पर नहीं। योरप प्लेटफ़ॉर्मों पर दबाव डालने की कोशिश कर रहा है, लेकिन उसने कहीं भी राय पर सरकारी मोहर लगाने का रास्ता नहीं चुना। भारत में भी झूठ और अफवाह की समस्या बढ़ रही है, लेकिन यहाँ अब भी अदालतें हैं, बहस है, और जनता के पास अपने सवाल रखने की जगह है। लोकतांत्रिक समाजों का रास्ता मुश्किल है क्योंकि उन्हें दो चीजें एक साथ बचानी पड़ती हैं, आजादी भी और जिम्मेदारी भी। आसान रास्ता वही है जो चीन ने चुना, लेकिन आसान रास्ते अक्सर सबसे खतरनाक होते हैं।

दुनिया को सचमुच फैसला करना होगा कि गलत सूचना से कैसे निपटा जाए, लेकिन बिना आवाजों को दबाए। झूठ से लडऩे का काम सरकार की सेंसरशिप से नहीं, जनता की समझ से होता है। स्कूलों में डिजिटल साक्षरता, वैज्ञानिक सोच, और मीडिया साक्षरता जैसी चीजें ज्यादा टिकाऊ समाधान हैं। सोशल मीडिया कंपनियों को अपनी जिम्मेदारी से भागने न देना भी जरूरी है। अदालतों और स्वतंत्र संस्थानों को वह जगह दी जानी चाहिए जहाँ वे सरकार और जनता के बीच संतुलन बना सकें। और सबसे जरूरी, राय रखने वाले और झूठ फैलाने वाले को एक ही तराजू में न तौला जाए। आवाज को ताले से काबू करने की कोशिश हमेशा सत्ता के लिए आसान होती है, लेकिन समाज के लिए नुकसानदेह।

चीन का यह फरमान दुनिया को एक चेतावनी देता है कि असली लड़ाई केवल गलत सूचना से नहीं, बल्कि उस प्रलोभन से है जिसमें सरकारें यह मानने लगती हैं कि जनता की आवाज़ पर नियंत्रण उनके अधिकारों में शामिल है। गलत सूचना रोकना जरूरी है, लेकिन सच की रखवाली जनता की समझ से होती है, सरकार की मोहरों से नहीं। इंटरनेट का भविष्य इसी बात पर टिकता है कि दुनिया कौन-सा रास्ता चुनती है, आवाज़ें बंद करने वाला, या आवाज़ें बचाते हुए झूठ को चुनौती देने वाला। आज की दुनिया इसी मोड़ पर खड़ी है, और यही उसकी सबसे बड़ी परीक्षा है।

  (यह लेख संपादक सुनील कुमार ने AI chatgpt से विचार-विमर्श करते हुए उससे लिखवाया है, बाद में उसमें बहुत मामूली सुधार किए हैं)


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