विचार / लेख
-संजय श्रमण
आज बड़ा महत्वपूर्ण दिन है। गांधी का जन्मदिन और अंबेडकर की धम्मदीक्षा का दिन। आइये इस बहाने दोनों पर थोड़ी बातें कर लें।
गांधी और अंबेडकर में असहमतियों के बावजूद निरन्तर संवाद होता था। मेरी नज़र में ये दोनों आधुनिक भारत के सबसे बड़े संवाद पुरुष थे। गांधी एक सुख सुविधा भरे परिवार में जन्म लेकर जैन-वैराग्यवादी आध्यात्मिक चेतना से अपनी व्यक्तिगत और सार्वजनिक जीवन की यात्रा का प्रस्थान बिंदु डिफ़ाइन करते हैं। वहीं अंबेडकर ग़रीबी और जातीय शोषण दलदल में ख़ुद को पाते हैं, वहीं से एक एक कदम मुक्ति की तरफ़ अपनी यात्रा तय करते हैं और थेरवाद (मूल बौद्ध धर्म) की चेतना में समर्पित होते हैं।
एक संवाद पुरुष श्रमण जैन जीवनदृष्टि से आरंभ करता है, दूसरा संवाद पुरुष श्रमण बौद्ध जीवनदृष्टि में समर्पित होता है। यह मज़ेदार संयोग है। ऐसा ही एक और संयोग है। गांधी जीवन भर तात्कालिक विवशताओं और रणनीतिक सावधानीवश सार्वजनिक जीवन में धर्म को प्रमुखता देते हैं और अंत में राज्य की शक्ति और संविधान और धर्मनिरपेक्षता की तरफ़ आते हैं। वहीं अंबेडकर जीवन भर राज्य की शक्ति, क़ानून संविधान आदि को प्रमुखता देते हैं और अंत में एक नये (या कहें कि भारत के सबसे प्राचीन) धर्म की तरफ़ झुक जाते हैं।
ये दोनों जहां से शुरू करते हैं, वहाँ से फिर ये पश्चिमी ज्ञान, संस्कृति और धर्म को भी बारीकी से देखते समझते हैं। भारतीय मनीषा के श्रेष्ठतम में जड़ें जमाए हुए ये दोनों पश्चिम से लोकतंत्र धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे मूल्यों को ग्रहण करते हैं, अपने अपने ढंग से आगे बढ़ाते हैं। वे घर में और घर से दूर परदेस में - निरंतर संवाद कर रहे हैं।
जिन कंधों पर समाज और राष्ट्र के भविष्य की ज़िम्मेदारी हो वे बहुत सारे प्रयोग करते हैं। वे कहीं जमकर, जड़ होकर नहीं बैठ जाते। वे समाज, इतिहास, वर्तमान और सर्वाधिक महत्वपूर्ण रूप से - अपने वैचारिक प्रतिद्वंद्वियों से भी संवाद करते हैं। आप भारत के अतीत में गौर से झांककर देखिए। भारत एक निरंतर संवाद का नाम है।
गांधी के जीवन में आरंभ से ही अहिंसा और उसके लिए संघर्ष का आग्रह प्रमुख रहा, अंबेडकर के जीवन में समता का आग्रह और उसके लिये संघर्ष प्रमुख रहा। अब आप तात्विक रूप से देखें तो समता और अहिंसा बहुत हद तक एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जहां ऊँच नीच होगी वहाँ हिंसा आ ही जाएगी, जहां अहिंसा होगी वहाँ समता आने लगेगी। अब चूँकि गांधी और अंबेडकर के प्रस्थान बिंदु भिन्न हैं, वे जिन समुदायों को एड्रेस कर रहे हैं उनकी समस्यायें समाधान और अपेक्षायें भिन्न हैं, इसलिए उनके मार्ग भी कई मौक़ों पर एकदूसरे से भिन्न हैं। कई बार तो आपस में टकराते भी हैं।
गांधी के लिये भारत की आज़ादी प्राथमिक लक्ष्य है और औपनिवेशिक ताक़तों के षड्यंत्रों से एक एक इंच बचते हुए भारत के सभी समुदायों को एक साथ जोड़े रखना चरम मूल्य है। अंबेडकर के लिए भारत की सत्तर प्रतिशत से अधिक दलित वंचित और आदिवासी आबादी को अपने ही मुल्क में आज़ाद करना प्राथमिक लक्ष्य है ब्राह्मणवाद के शोषण से मुक्त करना चरम मूल्य है। आज आप देखें तो आपको नज़र आएगा कि गांधी एक तात्कालिक और सीधे साफ़ लक्ष्य के लिए संघर्ष कर रहे थे। अंबेडकर एक बहुत दूरगामी और बहुत ही जटिल लक्ष्य के लिए काम कर रहे थे।
लेकिन मज़े की बात ये भी है कि तात्कालिक लक्ष्य पूरा नहीं होता तो हम दूरगामी लक्ष्य के बारे में भी नहीं सोच सकते थे।
मान लीजिए कि कोई इंसान गंभीर बीमारी से पीड़ित है, और बेरोज़गार है। तो उसके जीवन में ख़ुशियाँ लाने के दो कदम होंगे। पहले उसका जीवन बचाया जाये। फिर उसे रोज़गार दिया जाए ताकि वो नज़रें उठाकर समाज में इज्जत से जी सके। गांधी पहले लक्ष्य के लिए प्राथमिक रूप से समर्पित हैं, वे दूसरे लक्ष्य के प्रति भी पर्याप्त जागरूक और सक्रिय हैं।
इधर अंबेडकर दूसरे लक्ष्य के लिए प्राथमिक रूप से समर्पित हैं, वे दूसरे लक्ष्य के ज़रिए पहले लक्ष्य को और बहुआयामी बना रहे हैं। वे गांधी के बाद सक्रिय राजनीति और सार्वजनिक जीवन में आते हैं। वे देश विदेश के अनुभवों से और ख़ास तौर से विश्वयुद्धों के बाद बदलती वैश्विक राजनीति और शक्ति संतुलन को बहुत क़रीब से देखकर समझ रहे थे कि भारत आज नहीं तो कल आज़ाद हो ही जाएगा। अरबिन्दो घोष भी इसी नतीजे पर पहुँचकर किसी और तरह के काम में लग जाते हैं। ऐसे में आज़ादी के बाद भारत के सत्तर प्रतिशत से अधिक शोषित वंचित आबादी का क्या होगा? उनके लिए ये प्रश्न ही आज़ादी का सबसे बड़ा सवाल था।
आज का भारत देखिए। गांधी और अंबेडकर दोनों सही नज़र आयेंगे। गांधी ने ग़रीब बेरोज़गार इंसान को बचा लिया, भारत को भारत की तरह बचा लिया। अब अंबेडकर की लड़ाई शुरू होती है। अब उस बेरोज़गार को शिक्षा, रोज़गार सम्मान और हक़ दिलाने की बात है।
लेकिन क्या गांधी का काम पूरी तरह ख़त्म हो गया? नहीं, क्योंकि जिस गंभीर बीमारी से वो बेरोज़गार युवक पीड़ित था उसने एक नये रूप में फिर हमला कर दिया है। जिस उपनिवेशवादी शक्ति से हम आज़ाद होकर निकले हैं, उससे भी बड़ी, ज़्यादा पुरानी और ज़्यादा बर्बर शक्ति ने भारत पर क़ब्ज़ा कर लिया है। और आप मानें या ना माने गांधी और अंबेडकर दोनों जीवन भर इस शक्ति से भी लड़ते रहे। अंबेडकर की इस शक्ति से लड़ाई बहुत ज़ाहिर तौर से नज़र आती है। गांधी की इस शक्ति से लड़ाई बहुत ज़ाहिर तौर से नज़र नहीं आती - ये हमारे देखने की सीमा के कारण है।
आज के भारत को और इसके भविष्य के प्रश्न को देखिए। आज गांधी की प्राथमिकता और अंबेडकर की प्राथमिकता - दोनों हमारे लिए चरम लक्ष्य बन गये हैं। अब आप भारत को भारत की तरह एक भी रखना होगा और उसके सभी नागरिकों को हर तरह के शोषण और भेदभाव से मुक्त भी करना होगा। आज़ादी के इतने दशकों बाद अब तात्विक रूप से गांधी और अंबेडकर के लक्ष्य अब भिन्न नहीं रह गये हैं।
कई गांधीवादी अंबेडकर को पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाते। कई अम्बेडकरवादी हैं जो गांधी को पूरी तरह स्वीकार नहीं कर पाते। इसमें भी अम्बेडकरवादियों में गांधी और गांधीवाद के प्रति जो आक्रामक असंतोष है वो बहुत उग्र और आत्मघाती बन चुका है।इसके अपने कारण भी हैं। आज़ादी के बाद के दशकों में गांधीवादी नीति की उदारता में दीक्षित होना और उसके गीत गाना अपेक्षाकृत आसान है, इसके आलोक में अंबेडकर, नेहरू, पटेल, मार्क्स, लोहिया, सुभाष, अरबिन्दो आदि का सत्व पहिचानना और उसका सम्मान कर पाना भी आसान है। किंतु जाति के दलदल में सब तरह के अभावों और आजीवन बरसाने वाली भयानक नफ़रत से शुरुआत करते हुए गांधी, नेहरू, मार्क्स, लोहिया, पटेल, एमएन रॉय आदि के सत्व को पहिचानना और उसका सम्मान करना बहुत मुश्किल है।
व्यक्तिगत जीवन के अनुभव से ये बात मैं बार बार कहता हूँ। जब आप पर अकारण हर मौक़े पर भेदभाव और शोषण बरसता है तो आपकी चेतना में उदारता और विशालता का प्रवेश कठिन हो जाता है। इस दुर्भाग्य को आप करोड़ों लोगों की सामाजिक और राजनीतिक चेतना पर एक साथ रखकर देखिए। आपको भारत के बहुसंख्य (दलितों, ओबीसी और आदिवासी) शोषितों में गांधी के प्रति असंतोष का कारण मिल जाएगा। हालाँकि ये असंतोष भी बहुत बारीकी से तराशकर उभारा गया है। इस खेल में बड़ी-बड़ी शक्तियाँ शामिल रहीं है। ख़ुद गांधीवादियों और नेहरूवादियों ने अपनी सत्ता के शिखर पर जाति और सांप्रदायिकता के प्रश्न पर जो ग़लतियाँ की हैं उन्हें कैसे नज़रंदाज़ किया जा सकता है भला?
गांधी को समझना आसान नहीं हैं, उनपर छोटे बड़े आरोप बड़ी आसानी से लगाये जा सकते हैं। अंबेडकर की पीड़ा और उनके चरम लक्ष्य का सम्मान कर पाना भी आसान नहीं है। उन पर भी तमाम तरह के आरोप लगाये जा सकते हैं। लग ही रहे हैं, किसे नहीं पता?
ख़ैर, आज का दिन महत्वपूर्ण है। आज गांधी को सलाम करते हुए अंबेडकर को भी याद कीजिएगा। अंबेडकर और बुद्ध को नमन करते हुए गांधी को भी नमन कीजिएगा। आप ऐसा करना चाहेंगे या नहीं आप तय कीजिए।
वैसे गांधी और अंबेडकर को इस तरह एक साथ रखने के बाद आज मैं सब तरह की गालियाँ खाने को तैयार हूँ।
आप सबका मंगल हो।


