विशेष रिपोर्ट

हल-बैल-देशी बीज भूला किसान, अब तो बियासी-निंदाई का चलन भी खत्म, मिट्टी पोला करने रासायनिक खाद इस्तेमाल में
09-Jun-2025 9:04 PM
हल-बैल-देशी बीज भूला किसान, अब तो बियासी-निंदाई का चलन भी खत्म, मिट्टी पोला करने रासायनिक खाद इस्तेमाल में

बांझ बीजों को बोने के बाद किसान हर साल उपचारित बीज खरीद रहा, गांवों में अब न घुरवा, न जैविक खाद

विकसित कृषि संकल्प अभियान में बताई जा रही वैज्ञानिक तकनीक

‘छत्तीसगढ़’ की विशेष रिपोर्ट-उत्तरा विदानी

महासमुंद, 9 जून (‘छत्तीसगढ़’ संवाददाता)। अब छत्तीसगढ़ के खेतों में संकर नस्ल की धान लहलहा रही है। बांझ बीजों को कृषि विभाग ही उपलब्ध करा रही हैं। अब तो किसानों ने धान फसल की बियासी भी बंद कर दी है। ऐसे में धान के दाने हल्के हो रहे हैं और चावल निकालने के बाद अधिकांश दानें टूट जाती हैं। क्वालिटी हल्का होने के कारण बेचते समय काफी तादात में धान चला जाता है।

किसान सुरेश हठीले, रमेश देशमुख, गणेश देशमुख, हरगोविंद चंद्राकर, योगेश्वर चंद्राकर आदि का कहना है कि अब बैल नांगर के साथ बियासी का चलन खत्म हो चुका है और मजदूर भी नहीं मिलते। इसलिए खाद डालकर मिट्टी को नरम कर दिया जाता है। इससे धान के पौधे बड़े हो जाते हैं और अनुमान के मुताबिक पैदावार हो जाती है। लेकिन इस धान की क्वालिटी हल्की होती है।

गौरतलब है कि इस वक्त महासमुंद जिले में विकसित कृषि संकल्प अभियान की संकल्पना को साकार करने एवं किसान अनुसंधान और विज्ञान को एक मंच पर लाने के उद्देश्य से जिले में विकसित कृषि संकल्प अभियान चलाया जा रहा है। कलेक्टर विनय कुमार लंगेह के निर्देशानुसार 3 कृषि वैज्ञानिकों की टीम गठित की गई है। यह टीम 29 मई से प्रतिदिन जिले के 3 क्लस्टर गांवों में जाकर खरीफ 2025 में लगाई जाने वाली फसलों की उन्नत काश्त तकनीकों की जानकारी किसानों को दे रही है। जिले के कुुल 240 गांवों तक कृषि रथ पहुंचकर किसानों को नवीनतम तकनीक, फसल चक्र परिवर्तन एवं उन्नत बीज के बारे में जानकारी दे रहे हैं। साथ ही नवोन्वेषी किसानों द्वारा जानकारी साझा किया जा रहा ,जिसमें बियासी के बारे में जानकारी नहीं दी जा रही है। जबकि बियासी ही धान फसल की रीढ़ है। 

कृषि की सबसे पुरानी तकनीक धान की बोनी-रोपा-बियासी-निंदाई-कटाई और मिंजाई है। कोई किसान अपने खेतों की बोनी करते हैं और कोई रोपा रखता है। धान के पौधे जब थोड़े से बड़े हो जाते हैं तो उसकी बियासी होती है। इस वक्त खेत में पानी रहता है। किसान हल नांगर के जरिए खेतों की दुबारा जोताई करते हैं। ऐसे में धान पौधों की जड़ें जमीन से टूूट जाती हैं। धान पौधों के टूटे हुए जड़ों को दुबारा मिट्टी में जमते ही वह तेजी से बड़ा होता है और उसके ढेर सारे कंसे निकलते हैं और उन्ही कंसों में जोरदार क्वालिटी के दानें आते हैं। इन दानों को दुबारा बोने पर उनमें पौधे उगते हैं। इस तरह साल-दर-साल किसानी का काम चलते रहता है।

किसान जब अपने खेत की बियासी करता है तो वह इसी दौरान वह खेत की निंदाई मतलब नींदा निकालने का काम भी कर लेता है। बियासी करते समय धान की चलाई मतलब जिस स्थान पर ढेर सारे पौधे हैं, उन्हें निकालकर उन स्थानों में रोपना होता है जहां इक्के-दुक्के पौधे हों। इस तरह खेत में चारों तरफ एक बराबर पौधे आ जाते हैं। लेकिन अब किसान ऐसा न करके बियासी से ठीक पहले डीएपी आदि रसायन डालकर खेतों की मिट्टी को नरम कर देते हैं। मिट्टी बजबजा जाती है और धान के पौधे बड़े हो जाते हैं। बालियां भी निकलती हैं लेकिन हल्की और बेस्वाद।

गांवों में किसान बियासी बंद करने को लेकर कई तरह की दलीलें देते हैं। कोई कहता है कि अब तो बैल और नांगर का चलन खत्म हो गया है, ट्रैक्टर से बियासी नहीं हो सकती। धान के पौधे जमीन के अंदर घुसकर गल जाएंगे। कुछ किसान मानते हैं कि पहले बाल बियासी में उतना ही फसल आता था कि जितना कि रोपाई में, लेकिन अब मजदूर कहां मिलते हैं।

 सुुरेश हठीले का कहना है कि पहले के समय में अकरस का पानी गिरते ही जेठ महीने में खेत सुधारने का काम किया जाता था। इससे खेतों के खरपतवार खत्म हो जाते थे और मिट्टी भी नरम हो जाती थी। फिर बतर पाग आते ही खेतों में हल चला धान की बुआई होती थी। बियासी के बाद निंदाई करते थे। अब तो  बियासी के साथ निंदाई भी कम ही करते हैं। खरपतवार को मारने के लिए खेतों दवा डाल देते हैं। बोनी से मिंजाई तक पूरे सीजन भर खाद का उपयोग होता है। अब गोबर के जैविक खाद देखने के लिए नहीं मिलता। अब गांवों में घुरवा नहीं हैं। लोग कचरे से खाद नहंीं बनाते। 

इस तरह बदलते वक्त के साथ खेती करने का तरीका भी बदला है। पुरानी पद्धति को छोड़ किसान नई पद्धति से खेती करना सीख रहे हैं। पारंपरिक बीज और खाद का उपयोग छोड़ हाइब्रिड बीजों रासायनिक खादों के इस्तेमाल से लागत भी बढ़ रही है।

हालांकि वैज्ञानिकों की सलाह होती है कि रासायनिक खादों का इस्तेमाल कम करें। कृषि वैज्ञानिक डॉ. पीएन त्रिपाठी ने बताया कि रूट क्षेत्र में जब हल चलाते हैं तो वहां की एक्टिविटी बढ़ जाती है। धान के रूट क्षेत्र में काफी हलचल होती है। जिससे जड़ों की समस्या हो जाती है और ऑक्सीजन का इंटैक्ट बढ़ जाता है। जिससे उत्पादन कमजोर नहीं होने पाता। कृषि वैज्ञनिक की मानें तो उत्पादन में 15 से 20 प्रतिशत की वृद्धि हो जाती है। इस पद्धति से खेती करने से लागत में भी बहुत कमी आती है, साथ ही उत्पादन भी बम्पर होता है। शुरुआत में बस खेतों में सीधी बोनी करनी है। फिर उसके बाद बियासी करनी है। इस पद्धति से खेती करने से उत्पादन भी बम्पर-क्वालिटी वाला होता है और लागत भी बहुत ही कम आती है।

बहरहाल, जिले के महासमुंद, बागबाहरा, पिथौरा एवं सरायपाली विकासखंड के 30 क्लस्टरों में कार्यक्रम आयोजित हो चुके हैं। इनमें झालखम्हरिया, खट्टी, किशनपुर, टेंका, गेर्रा, छिबर्रा, हाथीबाहरा, टेका, परसवानी, रिखादादर, केदवा, जम्हारी, सिरपुर, छपोराडीह, पिरदा, लिमदरहा, सिंघोड़ा, कलेण्डा, पाली, बावनकेरा, कसहीबाहरा, कोकोभांठा, डूमरपाली, अंतरझोला, बिरकोनी, बेलसोंडा, खुटेरी, बगारपाली, किसड़ी एवं अर्जुंडा समेत 36 क्लस्टर के 240 गांवों के लगभग 2000 से अधिक किसानों को वैज्ञानिक धान की खएती की जानकारी दे रहे हैं। इन शिविरों में स्थानीय जनप्रतिनिधि भी शामिल हो रहे हैं।

विकसित कृषि संकल्प अभियान का मुख्य उद्देश्य बियासी को छोडक़र किसानों को खरीफ  फसलों हेतु वैज्ञानिक तकनीकी सुझाव प्रदान करना, नवीनतम कृषि तकनीकों का प्रसार करना, जैविक एवं प्राकृतिक खेती को प्रोत्साहित करना, मृदा स्वास्थ्य कार्ड के अनुसार संतुलित उर्वरक उपयोग पर जागरूकता बढ़ाना, उन्नत कृषि यंत्रों जैसे सीड ड्रिल, प्लांटर मशीन, पैडी ट्रांसप्लांटर, ब्रॉड बेड फरो मशीन का उपयोग बढ़ाना, ड्रोन तकनीक का प्रदर्शन, समन्वित कृषि प्रणाली, बीज उपचार, जल संरक्षण, समन्वित कीट प्रबंधन, किसान क्रेडिट कार्ड, फसल चक्र परिवर्तन और लाभदायक फसलों के बारे में जानकारी देना है। ग्रामों के प्रगतिशील किसान भी इस दौरान अपने अनुभव साझा कर रहे हैं।


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