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सुप्रीम कोर्ट ने पूछा: राज्यपाल अपने कर्तव्य में विफल रहते हैं तो क्या चुप रहा जाए, फैसला सुरक्षित रखा
11-Sep-2025 8:47 PM
सुप्रीम कोर्ट ने पूछा: राज्यपाल अपने कर्तव्य में विफल रहते हैं तो क्या चुप रहा जाए, फैसला सुरक्षित रखा

नयी दिल्ली, 11 सितंबर। उच्चतम न्यायालय ने बृहस्पतिवार को विधेयकों को मंजूरी देने के संबंध में राष्ट्रपति के संदर्भ पर फैसला सुरक्षित रखते हुए पूछा कि यदि राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदाधिकारी अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में विफल रहते हैं तो क्या वह निष्क्रिय बैठ सकता है।

प्रधान न्यायाधीश बी आर गवई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने 10 दिन तक चली मैराथन सुनवाई में राष्ट्रपति के संदर्भ पर अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी, सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता और वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल, अभिषेक सिंघवी, गोपाल सुब्रमण्यम, अरविंद दातार और अन्य सहित कानूनी दिग्गजों की दलीलें सुनीं।

यह अनुच्छेद 200 और 201 के आसपास केंद्रित था और मुख्य मुद्दा यह था कि क्या संवैधानिक न्यायालय राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए विधेयकों को मंजूरी देने के लिए समयसीमा निर्धारित कर सकता है।

पीठ में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रमनाथ, न्यायमूर्ति पी एस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए एस चंदुरकर भी शामिल थे। इसने दलीलों के अंतिम दिन मेहता को उस समय टोका जब उन्होंने शक्तियों के पृथक्करण को संविधान की मूल संरचनाओं में से एक बताया और कहा कि न्यायालय को समयसीमा तय नहीं करनी चाहिए और राज्यपालों की विवेकाधीन शक्तियों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।

प्रधान न्यायालधीश ने कहा, ‘‘कोई भी व्यक्ति चाहे कितने भी ऊँचे पद पर क्यों न हो, संविधान के संरक्षक (उच्चतम न्यायालय का संदर्भ) के रूप में... मैं सार्वजनिक रूप से कहता हूँ कि मैं शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत में दृढ़ विश्वास रखता हूँ और यद्यपि न्यायिक सक्रियता होनी चाहिए, लेकिन न्यायिक अतिवाद या दुस्साहस नहीं होना चाहिए। लेकिन साथ ही, यदि लोकतंत्र का एक पक्ष अपने कर्तव्य का निर्वहन करने में विफल रहता है, तो क्या संविधान का संरक्षक शक्तिहीन होकर निष्क्रिय बैठा रहेगा?’’

मेहता ने कहा, ‘‘केवल न्यायालय ही नहीं, कार्यपालिका भी नागरिकों के मौलिक अधिकारों की संरक्षक है... विधायिका भी संरक्षक है, तीनों अंग संरक्षक हैं।’’

विधि अधिकारी ने कहा, ‘‘लेकिन, एक समन्वय संवैधानिक पदाधिकारी के विधायी विवेकाधीन कार्यों के संबंध में राज्यपालों को परमादेश (किसी व्यक्ति को सार्वजनिक कर्तव्य निभाने के लिए कहने वाला रिट) जारी करना शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन होगा और शक्तियों का यह पृथक्करण मूल संरचना का एक हिस्सा है।’’

मेहता ने कहा कि राज्यपाल किसी विधेयक पर हमेशा के लिए नहीं बैठ सकते, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अनुच्छेद 200 के तहत उनके पास विवेकाधीन शक्तियां नहीं हैं और ‘‘स्ट्रेटजैकेट फॉर्मूला’’ के रूप में मंजूरी देने के लिए समयसीमा तय की जा सकती है।

उन्होंने राज्य सरकार द्वारा अध्यादेश जारी करने के मामले में भी राज्यपालों की विवेकाधीन शक्तियों को रेखांकित किया।

विपक्ष शासित राज्यों की दलीलों के जवाब में मेहता ने पूछा, ‘‘मान लीजिए कि एक राज्य विधानमंडल एक विधेयक पारित करता है जिसमें घोषणा की जाती है कि वह अब भारत संघ का हिस्सा नहीं रहेगा, राज्यपाल के पास सहमति को रोकने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।’’

संबंधित राज्यों ने अपनी दलीलों में कहा था कि राज्यपाल को केवल मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करना चाहिए।

उन्होंने कुछ संदर्भों में राज्यपालों और राष्ट्रपति को संवैधानिक विवेकाधिकार दिए जाने को रेखांकित किया। हालांकि, उन्होंने कहा कि उनके कार्य सामान्यतः मंत्रिस्तरीय सहायता और सलाह से निर्देशित होते हैं।

मेहता ने कहा कि अनुच्छेद 200 राज्यपाल को विधेयकों पर चार विकल्प प्रदान करता है तथा इसमें निहित विवेकाधिकार भी शामिल है, विशेष रूप से उन स्थितियों में जहां कोई विधेयक संवैधानिक मूल्यों को कमजोर करता है या राष्ट्रीय निहितार्थ रखता है।

विधि अधिकारी ने कहा कि अनुच्छेद 200 में प्रयुक्त शब्द ‘‘यथाशीघ्र’’ का अर्थ अनिश्चितकाल तक नहीं हो सकता।

उन्होंने दोहराया कि 1970 के बाद से राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित 90 प्रतिशत विधेयकों को एक महीने के भीतर राज्यपाल की स्वीकृति मिल गई, जबकि कुल 17,150 विधेयकों में से केवल 20 मामलों में राज्यपालों द्वारा स्वीकृति रोकी गई।

संवैधानिक पाठ में स्पष्ट समयसीमा के अभाव पर बात करते हुए मेहता ने कहा कि यह शून्यता के बजाय ‘‘शब्दों के सतर्क चयन’’ को दर्शाता है।

उन्होंने कहा, ‘‘यह व्यवस्था दशकों से सामंजस्य के साथ काम करती आ रही है। हाल ही में, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली प्रकरण के बाद, इस मुद्दे पर मुकदमेबाजी में तेज़ी आई है।’’

मेहता ने कहा कि संवैधानिक योजना में ऐसी कोई कमी नहीं है कि न्यायालय को हस्तक्षेप करना चाहिए और राज्यपालों के लिए समयसीमा तय करनी चाहिए।

न्यायालय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा संदर्भित 14 प्रश्नों पर संभवतः अपनी राय देगा, जिसमें यह भी शामिल है कि क्या संवैधानिक प्राधिकारी विधेयकों पर अनिश्चितकाल तक स्वीकृति रोक सकते हैं और क्या न्यायालय अनिवार्य समयसीमा लागू कर सकते हैं।

ये मुद्दे मूलतः अनुच्छेद 200 से संबंधित हैं, जो राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों के संबंध में राज्यपाल की शक्तियों को नियंत्रित करता है, तथा उन्हें विधेयक पर स्वीकृति देने, स्वीकृति रोकने, विधेयक को पुनर्विचार के लिए वापस करने या राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक को आरक्षित करने की अनुमति देता है।

मई में, राष्ट्रपति मुर्मू ने अनुच्छेद 143(1) के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए शीर्ष अदालत से यह जानने की कोशिश की थी कि क्या न्यायिक आदेश राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों पर विचार करते समय राष्ट्रपति द्वारा विवेकाधिकार के प्रयोग के लिए समयसीमा निर्धारित कर सकते हैं। (भाषा)


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