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भारतीय महिला के हर नुकसान को उसका त्याग करार देने की साजिश!
सुनील कुमार ने लिखा है
07-Sep-2025 12:39 PM
भारतीय महिला के हर नुकसान को उसका त्याग करार देने की साजिश!

छत्तीसगढ़ के समाचार वेबसाइटों, और अखबारों में दिल को छू लेने वाली एक तस्वीर छपी है। मुख्यमंत्री के अपने जशपुर जिले में गणेश विसर्जन के दौरान पत्थलगांव थाने में तैनात एक महिला सिपाही अपने एक बरस के बेटे को गले और गोद से टांगे हुए सडक़ पर ट्रैफिक काबू कर रही है। जैसी कि उम्मीद की जा सकती है, लोग इस महिला सिपाही की स्तुति करने में जुट गए हैं। भारत में जब कभी किसी महिला को लोग बढ़-चढक़र त्याग करते देखते हैं, तो वह माँ हो, बेटी, बहू हो, जो भी हो, उसकी तारीफ होने लगती है। ऐसी तारीफ करके उसे आगे और अधिक त्याग करने के लिए तैयार किया जाता है।

इस तरह के कुछ वीडियो कोरोना के बीच भी सामने आए थे जब कई महीनों की गर्भवती एक महिला पुलिस अफसर लाठी लिए हुए सडक़ों पर लोगों को रोकती दिख रही थी। उसकी भी इसी तरह तारीफ हुई थी, और उस वक्त भी हमने अपने अखबार के संपादकीय में इस बात की आलोचना की थी कि कोरोना जैसे खतरनाक संक्रमण के बीच एक गर्भवती महिला अधिकारी को इस तरह सडक़ों पर आने की इजाजत क्यों दी गई है? पल भर के लिए हमने संदेह का लाभ भी दे दिया कि बड़े अफसरों ने उसकी ड्यूटी नहीं लगाई होगी, और यह महिला खुद ही उत्साह में सडक़ों पर आ गई होगी, लेकिन ऐसा होने पर भी यह तो बड़े अफसरों की ही जिम्मेदारी बनती थी कि वह अपने मातहत को यह गलती करने से रोकें। एक अजन्मे बच्चे के प्रति यह सरकार और समाज दोनों की जिम्मेदारी थी।

परंपरागत रूप से भारत जैसे देश में बहुत से काम एक वक्त सिर्फ पुरूषों के करने के रहते थे। इन कामों में जब महिलाओं का जाना शुरू हुआ, तो पुरूषों के बीच बड़ी असुविधा हुई, उनके अहंकार को चोट लगी, और उन्होंने तरह-तरह से विरोध भी किया। कामकाज की जगहों पर महिलाओं के शोषण के पीछे भी यही पुरूषवादी सोच थी कि कोई महिला पुरूषों के एकाधिकार को तोडऩे की कोशिश करेगी, हौसला दिखाएगी, तो उसका यही हाल होगा। भारत की महिला पहलवानों से लेकर, यहां के विश्वविद्यालयों में शोध करने वाली छात्राओं तक शोषण का जो अंतहीन सिलसिला चलता है, वह महिलाओं को लगातार इस दबाव में भी रखता है कि वे पुरूषों से अधिक काबिल बनकर दिखाएं। और यही आत्मचुनौती महिलाओं को अधिक मेहनत, अधिक त्याग करने, और अधिक खतरे उठाने की तरफ धकेलती है।ऐसे में ही पुलिस में कई जगह महिलाएं साल-छह महीने के बच्चे को लिए रात में पुलिस थाने में ड्यूटी करते दिखती हैं, या अभी छत्तीसगढ़ में जशपुर जिले में सडक़ पर ड्यूटी करते हुए। डीजल की गाडिय़ों के बीच खड़े हुए ड्यूटी कर रही महिला की गोद में साल भर के बच्चे का धुएं में क्या हाल होगा, क्या इसे समझने के लिए भी इस जिले के अफसरों को फेंफड़ों के डॉक्टरों की जरूरत पड़ेगी, या वे खुद भी इसे समझ सकते हैं? मेरा तो ख्याल यह है कि जिस प्रदेश में बाल कल्याण परिषद, महिला आयोग, या मानवाधिकार आयोग जैसी संवैधानिक संस्थाएं सत्ता के प्रभाव और दबाव से मुक्त होकर काम करती होंगी, वे तो ऐसा नजारा देखकर तुरंत ही अफसरों को नोटिस जारी करेंगी कि इसकी इजाजत कैसे दी जा रही है? लेकिन कोई भी तो ऐसा प्रदेश नहीं रह गया जहां इन ओहदों पर सत्ता के पसंदीदा लोग न बैठे हों। वे अपने अन्नदाताओं के लिए परेशानी कैसे खड़ी कर सकते हैं? इसीलिए मैं कई बार यह भी लिखता हूं कि किसी प्रदेश से रिटायर होने वाले जजों, और अफसरों को उस प्रदेश की किसी भी संवैधानिक संस्था में नहीं रखना चाहिए क्योंकि वे हितों के साफ-साफ टकराव से गुजरेंगे, इन पदों पर मनोनीत होने के पहले भी, और बाद में भी।

भारत में सार्वजनिक जीवन, या सरकार के किसी भी पहलू में काम करते हुए महिलाओं को नाजायज हद तक जाकर भी अपना दम-खम साबित करना पड़ता है। पुलिस में जाने के बाद छोटे या बड़े ओहदों पर पहुंची हुई महिलाओं को माँ-बहन की गालियां देते सुनना यही अहसास कराता है। जब बलप्रयोग की नौबत आती है, तब भी महिला कर्मचारी-अधिकारी पुरूषों के मुकाबले अधिक सख्ती बरतकर अपना दम-खम साबित करती हैं। महिला प्रशासनिक अधिकारियों को भी मैंने अधिक सख्ती बरतते देखा है।

इस किस्म के सामाजिक दबाव, और उसकी वजह से बेहतर कामकाज के बावजूद महिलाओं से भेदभाव के अंत का कोई आरंभ भी अभी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट अभी लगातार भारतीय सेना को लैंगिक समानता की प्राथमिक शिक्षा दे रहा है कि वह महिलाओं से भेदभाव न करे। और सेना के वकील, जजों के सामने महिलाओं की सीमाओं को बखान करने में लगे हुए हैं। जब देश की सबसे बड़ी अदालत को देश की सबसे बड़ी सरकार के सामने ही महिला-अधिकार के लिए इतना संघर्ष करना पड़ रहा है, तो हमें कोई हैरानी नहीं होती जब पुलिस या प्रशासन के अफसर महिला कर्मचारियों-अधिकारियों, या उनके बच्चों के बुनियादी हक समझ नहीं पाते। सैकड़ों-बरसों के लैंगिक भेदभाव ने लोगों की समझ पर धुंध बिखराकर रखी है, और महिलाओं के बारे में सरकारी बैठकों में भी एक आम हिकारत की जुबान में बात होती है।

इस नौबत से निकलने के लिए क्या एक बार फिर हम अदालत की तरफ देखें कि हाईकोर्ट पुलिस को नोटिस जारी करे कि एक बरस के बच्चे को गोद में टांगे हुए किसी महिला को डीजल गाडिय़ों के ट्रैफिक के बीच खड़े होकर ड्यूटी क्यों करनी पड़ रही है? अगर मैं हाईकोर्ट का जज होता, तो छत्तीसगढ़ बाल कल्याण परिषद, महिला आयोग, और मानवाधिकार आयोग को भी एक नोटिस देकर उनसे जवाब-तलब करता कि ऐसी खबरों को देखते हुए उन्होंने क्या किया? क्या उनकी संवैधानिक जिम्मेदारी में इस पर कार्रवाई की बात बनती थी? दरअसल इस लोकतंत्र में, इस समाज की इस तथाकथित गौरवशाली सभ्यता में इतनी बारीक बातों की न तो समझ है, और न ही ऐसी बातों को छेडऩे पर लोगों को उसके बारे में सोचना जरूरी लगता। किसी विकसित और सभ्य लोकतंत्र में अगर ऐसी घटना हुई होती, तो कई बड़े अफसरों पर अब तक भारी जुर्माना हो चुका रहता, उन्हें नोटिस जारी हो चुके रहते। लेकिन इस लोकतंत्र में अधिक उम्मीद इसलिए नहीं की जा सकती कि मीडिया सहित बाकी समाज इस महिला पुलिस के त्याग के गुणगान करते हुए थक नहीं रहा है। ऐसी समझ के चलते सरकार और आयोगों से सवाल भला कौन करेंगे?  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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