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भारत में शहरी विकास को लेकर केन्द्र सरकार बहुत बड़ी-बड़ी योजनाएं बनाती है, लेकिन जब शहरों की जमीन पर बात उतरती है, तो उसमें राज्य सरकार की योजनाएं, राज्य स्तर की राजनीतिक दखल, शहरी विकास मंत्रालय का नियंत्रण, और स्थानीय निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की अपनी प्राथमिकताएं, ये सब जुड़ जाती हैं, और मनमाना काम होने लगता है। केन्द्र सरकार ने कई बरस पहले स्मार्टसिटी की योजना शुरू की, उसके लिए केन्द्रीय मद से हजारों करोड़ रूपए दिए, उसी के साथ राज्यों को भी पैसा देना पड़ा, और अधिकतर म्युनिसिपलों ने उस पैसे को बड़ी रफ्तार से खर्च और खत्म किया कि कोई पैसा वापिस न चले जाए। अब शहर तो स्मार्ट नहीं हुए, वहां के लोग भी स्मार्ट नहीं हुए, शहरों को अपनी सडक़ को साफ रखना भी नहीं सीखा, लेकिन स्मार्टसिटी के हजारों करोड़ खत्म हो गए।
हम छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर जैसे देश के बहुत से शहरों को देखते हैं तो शहरी जिंदगी की एक सबसे बड़ी जरूरत, सार्वजनिक परिवहन पर कहीं पर काम हुआ है, और कहीं पर काम नहीं हुआ है। अब जबकि पूरी विकसित दुनिया में यह निर्विवाद रूप से मान लिया गया है कि सार्वजनिक परिवहन के बिना किसी शहर का कोई भविष्य नहीं हो सकता, दुनिया के अधिकतर महानगर मेट्रो की तरफ बढ़ चुके हैं, मेट्रो तक पहुंचने के लिए, या वहां से निकलने के बाद बसों का ढांचा भी अधिकतर जगहों पर है। योरप के कई शहरों या देशों में सार्वजनिक परिवहन को मुफ्त भी कर दिया गया है ताकि लोग निजी गाडिय़ों का कम से कम इस्तेमाल करें। इसके बिना शहरों से ट्रैफिक का बोझ कम नहीं होना है। आज दिल्ली मेट्रो को देखें, तो वह जितने मुसाफिर रोज ढोती है, अगर वह वक्त रहते शुरू नहीं हुई होती, तो आज दिल्ली की सडक़ों पर पैर धरने को जगह नहीं बची होती।
लेकिन आज जब एक तरफ सार्वजनिक परिवहन के लिए बसों की योजना केन्द्र सरकार के पैसों से देश भर के शहरों में आगे बढ़ रही है, और रायपुर में भी सौ इलेक्ट्रिक बसें आनी हैं, उनके लिए ढांचा विकसित किया जा रहा है। लेकिन इसके पहले भी पिछले कुछ बरसों में हम इसी शहर को एक मिसाल की तरह लें, तो यहां पर बहुमंजिला पार्किंग बनाई गईं, और ऐसी दो पार्किंग में शहर के सबसे व्यस्त इलाकों में सरकारी जमीन पर 35-40 करोड़ रूपए खर्च किए गए। इनकी बदहाली ऐसी है कि लोग यहां गाड़ी रखना नहीं चाहते, चार-पांच मंजिला ऊपर गाड़ी रखने के बाद नीचे आने-जाने के लिए लिफ्ट काम नहीं करती, चारों तरफ गंदगी का बुरा हाल रहता है, और गाडिय़ों की हिफाजत का भी ठिकाना नहीं है। अब बिना लिफ्ट के चार-पांच मंजिल पार्किंग से वे लोग कैसे आ-जा सकते हैं, जो उम्रदराज हैं, या जिन्हें चलने-फिरने में कोई दिक्कत है? फिर गिनी-चुनी कुछ सौ कारों के हिसाब से बनी हुई ऐसी महंगी पार्किंग को इस तरह बना दिया गया है कि गाडिय़ां मानो वहां उडक़र पहुंचेंगी। जब पार्किंग का इंतजाम होगा तो लोग गाडिय़ों का इस्तेमाल अधिक करेंगे, और उसका सीधा मतलब यह है कि सडक़ों पर गाडिय़ां बढ़ेंगी। पार्किंग को बढ़ाने से शहर की हालत नहीं सुधरती, बल्कि सडक़ों पर भीड़ बढ़ जाती है, और उसका नतीजा प्रदूषण की शक्ल में भी होता है। देश की राजधानी दिल्ली एक सबसे प्रदूषित शहर है, और यहां पर किसी भी बाजार में गाडिय़ों की कई कतारें पार्किंग के लिए लग जाती हैं, और जगह बन जाने का नतीजा यह रहता है कि लोग गाडिय़ां लेकर ही निकलते हैं। हम रायपुर शहर की बात करें, तो यहां पर 35-40 करोड़ से फिजूल की दो पार्किंग बनाने के बजाय इतने पैसों से अगर सिटी बसें चलाई जातीं, तो हो सकता है कि कारों का इस्तेमाल भी कम होता। इतने में सौ सिटी बसें आ जातीं, और सडक़ों से कारों की भीड़ भी घटती।
शहरी योजना में खर्च करने और उससे कमाई करने वाले इतने अधिक विभाग हो जाते हैं कि उनमें से हर किसी की प्राथमिकताएं एक-दूसरे से टकराती हैं। रायपुर शहर में म्युनिसिपल बुनियादी सुविधाओं के साथ-साथ व्यवसायिक योजनाएं भी बनाना चाहती है, और यही काम रायपुर विकास प्राधिकरण भी करना चाहता है, कई तरह की योजनाएं हाउसिंग बोर्ड बनाना चाहता है, और सरकार के दूसरे निगम मंडल, या विभाग भी किसी न किसी तरह का निर्माण अपनी जमीन पर करते चलते हैं। जैसा कि किसी भी जगह निर्माण में होता है, नेता, अफसर, और ठेकेदार, इन सभी तबकों की, इनके अधिकतर लोगों की कमाई इससे जुड़ी रहती है। ऐसे में शहर को एक शहर मानकर उसका नियोजित विकास नहीं हो पाता। रायपुर में जिन कांग्रेसी म्युनिसिपल नेताओं ने, या प्रदेश की कांग्रेस सरकार ने ऐसी बहुमंजिला पार्किंग बनवाई, नियमों के खिलाफ जाकर तालाबों और बगीचों का, खेल मैदानों का बाजारू-कारोबारी इस्तेमाल किया, उनको अपने कार्यकाल में अधिक से अधिक कमा लेने की हड़बड़ी थी। किसी ने शहर जैसा मिला, उससे बेहतर छोडऩे की कोशिश नहीं की। नतीजा यह है कि म्युनिसिपल हो या आरडीए, इनकी अधिकतर योजनाओं का बुरा हाल है, सैकड़ों-हजारों करोड़ की बर्बादी की उत्पादकता बहुत कम है, और इस शहर ने विकास की अपनी संभावनाओं को खो भी दिया है। दूसरी बात यह कि रायपुर के साथ नया रायपुर नाम की सरकारी राजधानी जुड़ी हुई है, और उसकी एक अलग सत्ता है जो कि सीधे राज्य सरकार के तहत काम करती है, और उस सत्ता का पुराने शहर की निर्वाचित सत्ता से तालमेल शून्य रहता है। इसलिए ये दो शहर दो बुलबुलों की तरह एक-दूसरे से चिपके हुए तो हैं, लेकिन दोनों की दुनिया अलग-अलग है, और इनका एक-दूसरे से कोई लेना-देना नहीं रह गया है। नतीजा यह है कि इन दोनों को एक जुड़वां ईकाई मानकर इनकी संभावनाओं को एक साथ नहीं देखा जा रहा है। दरअसल, केन्द्र, रायपुर, और स्थानीय म्युनिसिपल के अलावा विकास प्राधिकरण जैसी संस्थाओं के इतने सारे इंजन दौड़ रहे हैं कि ये सब एक-दूसरे का या तो रास्ता रोक रहे हैं, या अलग-अलग दिशाओं में मनमर्जी से चल रहे हैं। ऐसा लगता है कि इस देश में शहरी विकास योजनाओं को पढ़ाने वाले केन्द्र सरकार के बड़े-बड़े इंस्टीट्यूट का कम से कम यहां पर कोई काम नहीं है, उन्हें किसी समझदार देश-प्रदेश में जाकर ही रोजी-रोटी ढूंढनी पड़ेगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)