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‘मिठाई’ पहुंच गई
आबकारी घोटाले की ईओडब्ल्यू-एसीबी पड़ताल कर रही है। जांच एजेंसी ने घोटाले पर एक पूरक चालान पेश किया है। एजेंसी ने घोटाले को कई चौंकाने वाले खुलासे किए हैं। साथ ही पुख्ता साक्ष्य भी जुटाए हैं। यह कहा गया कि आबकारी मंत्री कवासी लखमा को वर्ष-2020 से 2022 तक घोटाले की राशि में से हर महीने 2 करोड़ रुपए पहुंचाए जाते थे।
घोटाले की राशि को लेकर काफी बारीक जानकारी दी गई है। यह बताया गया कि घोटाले के आरोपी अनवर ढेबर के करीबी विकास अग्रवाल उर्फ सुब्बू द्वारा डिस्टलरीज, और अन्य जगहों से रकम एकत्र की जाती थी। और फिर अग्रवाल अपने कर्मचारी प्रकाश शर्मा के माध्यम से लखमा के बंगले में भेजते थे। शर्मा हर महीने दो बार 50-50 लाख बैग में लेकर लखमा के बंगले जाते थे। वहां नोटो के बंडलों को गिना जाता था। इस रकम को कोटवर्ड में ‘मिठाई’ नाम दिया गया था। ओएसडी पूरी रकम गिनने के बाद मंत्री कवासी लखमा को मोबाइल से सूचित करते थे कि ‘मिठाई’ मिल गई है।
इसी तरह आबकारी कर्मचारी कन्हैयालाल भी हर महीने तकरीबन 1 करोड़ रुपए लेकर लखमा के बंगले जाते थे, और यह रकम उनके ओएसडी के सुपुर्द कर देते थे। इस तरह लखमा को हर महीने दो करोड़ की ‘मिठाई’ मिलती थी। यही नहीं, आबकारी मंत्री रहते कवासी लखमा के बंगले में उनके परिवार के सदस्यों की निजी जरूरतों को आबकारी विभाग के अफसर-कर्मचारी पूरा करते रहे हैं। घोटाले की राशि के निवेश को लेकर जांच एजेंसी ने जो साक्ष्य जुटाए हैं, उसे अदालत में नकारना आसान नहीं होगा। कुल मिलाकर जेल में बंद पूर्व मंत्री कवासी लखमा की आगे की राह कठिन दिख रही है। देखना है आगे क्या होता है।
डीएपी की कमी की असली वजह
छत्तीसगढ़ में इस समय डीएपी खाद की किल्लत को लेकर जबरदस्त हंगामा है। राजनीतिक बयानबाजी हो रही है, सोशल मीडिया पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर चल रहा है। लेकिन सवाल ये है कि क्या यह संकट सिर्फ सरकार की लापरवाही का नतीजा है और प्रशासनिक विफलता है?
दरअसल, भारत अपनी डीएपी की 60 से 70 फीसदी जरूरत आयात के जरिए पूरी करता है। इस साल अप्रैल से अगस्त 2024 तक सिर्फ 15.9 लाख टन डीएपी आयात हुआ, जबकि पिछले साल इसी अवधि में 32.5 लाख टन आया था। रूस-यूक्रेन युद्ध और लाल सागर के समुद्री मार्गों पर संकट के कारण आयात में देरी और खर्च में इजाफा हुआ। पहले जहां जहाज सीधे आते थे, अब उन्हें लंबा समुद्री रास्ता लेना पड़ रहा है। इसके अलावा, चीन ने डीएपी का निर्यात घटा दिया है। पहले वह भारत को सालाना 20 लाख टन डीएपी देता था, अब यह घटकर 5 लाख टन रह गया है। उसने अपनी घरेलू मांग को प्राथमिकता दी है। वहीं, मोरक्को जैसे देशों से आने वाला फॉस्फेट जो डीएपी का कच्चा माल है, वह भी भू-राजनीतिक परिस्थितियों के कारण अनिश्चित हो गया है।
घरेलू उत्पादन पर्याप्त है नहीं। भारत में पिछले साल सिर्फ 42.93 लाख टन डीएपी बना, जबकि मांग 52 लाख टन से ज्यादा है। कच्चे माल की महंगी लागत और उत्पादन इकाइयों की सीमित क्षमता ने स्थिति को और गंभीर बना दिया है।
सरकार सब्सिडी देकर कीमत को कंट्रोल में रखने की कोशिश कर रही है, लेकिन सब्सिडी में कटौती (35 प्रतिशत ) ने कंपनियों को आयात से पीछे हटा दिया।
सरकार नैनो डीएपी और एनपीके जैसे विकल्प को बढ़ावा दे रही है, लेकिन किसानों इस पर भरोसा नहीं है। पंजाब में नैनो डीएपी से 30 प्रतिशत तक कम उत्पादन होने की बात सामने आई। कुल मिलाकर इसकी जड़ें वैश्विक बाजार, युद्ध के हालात और आपूर्ति चेन में हैं। मगर, स्थानीय स्तर पर वितरण, स्टॉक और कालाबाजारी जैसी समस्याएं हैं, जिन पर राज्य सरकार को सख्ती दिखानी चाहिए। निजी व्यापारी ज्यादा कीमत पर डीएपी बेच रहे हैं। छत्तीसगढ़ में किसान 1500 से 2100 रुपये तक प्रति बैग चुका रहे हैं, जबकि इसकी सरकारी दर सिर्फ 1350 रुपये है।
संघ का दखल
भाजपा सरकार-संगठन में आरएसएस की सिफारिशों को काफी तवज्जो दी जा रही है। पार्टी ने हाल में मध्यप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र सहित आधा दर्जन राज्यों में प्रदेश अध्यक्ष की नियुक्ति की है। इन नियुक्तियों में आरएसएस की राय को महत्व दिया गया है। अब तक छत्तीसगढ़ समेत 18 राज्यों में अध्यक्ष के चुनाव हो चुके हैं।
मध्यप्रदेश में हेमंत खंडेलवाल को अध्यक्ष बनाया गया है। खंडेलवाल का नाम काफी चौंकाने वाला रहा है। बैतूल के विधायक हेमंत खंडेलवाल का नाम अध्यक्ष के दावेदारों के रूप में कभी मीडिया में नहीं आया, और चुनाव अधिकारी केन्द्रीय मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने उनके नाम की घोषणा की, तो पार्टी में हलचल मच गई। खंडेलवाल, छत्तीसगढ़ भाजपा के महामंत्री (संगठन) रहे सौदान सिंह के करीबी और पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान के विरोधी माने जाते हैं। ऐसी चर्चा है कि सौदान सिंह ने खंडेलवाल का नाम आगे किया। और फिर आरएसएस की मुहर लगने के बाद खंडेलवाल का नाम तय किया गया।
छत्तीसगढ़ में पदाधिकारियों की नियुक्ति होनी है। पद की आस में कई नेता आरएसएस दफ्तर के चक्कर काट रहे हैं। पिछले दिनों आरएसएस, और भाजपा के प्रमुख नेताओं की बैठक भी हुई थी। कहा जा रहा है कि आरएसएस की राय को महत्व मिलेगा। देखना है आगे क्या होता है।
नक्सलियों ने नहीं तोड़ा, भ्रष्टाचार से टूटा
नक्सल प्रभावित इलाकों में विकास कराना चुनौती भरा है। जान हथेली पर रखकर किया जाने वाला मिशन है। सुरक्षा बल अपनी जान की बाजी लगाकर मजदूरों, इंजीनियरों और ठेकेदारों की हिफाजत करते हैं, वहां यह उम्मीद की जाती है कि निर्माण गुणवत्तापूर्ण और टिकाऊ हो। मगर काम कैसा हो रहा है, यह नक्सलियों के एक गढ़ कोराचा-बुकमरका मार्ग पर गट्टेगहन नदी पर बने पुल को देखने से पता चलता है। दो साल में यह तीसरी बार टूट गया। इसका कारण नक्सली विस्फोट नहीं, बल्कि ठेकेदार और इंजीनियरों की मिलीभगत से किया गया घटिया निर्माण है।
सरकार इन इलाकों में दोगुना-तीगुना बजट खर्च करती है, ताकि कोई काम तो हो। सुरक्षा बल सशस्त्र निगरानी करते हैं, वहीं दूसरी ओर कुछ भ्रष्ट अधिकारी और ठेकेदार इस इलाके को लूट का अड्डा बना चुके हैं। उन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं कि उनकी नीयत के चलते गांवों का संपर्क मुख्यालय से टूट जाता है, बच्चे स्कूल नहीं जा पाते, और पुलिस कैंप भी संपर्क से कट जाते हैं।
नक्सलियों पर तो आए दिन आरोप लगते हैं कि वे पुल-पुलिया उड़ा देते हैं, लेकिन जब सरकारी पैसों से बने पुल खुद ही साल में दो-तीन बार टूटने लगें, तो यह किसका अपराध माना जाए। गौर करने की बात यह है कि खुद स्थानीय सांसद संतोष पांडेय डिप्टी सीएम से मांग कर चुके हैं कि दोषी इंजीनियरों, ठेकेदारों पर कार्रवाई की जाए, मगर पुल-पुलिया टूटने के बाद अफसर उन्हीं लोगों को फिर से बनाने का ठेका दे देते हैं।
बिजनेस कॉरिडोर का क्या?
नवा रायपुर में पिछली सरकार ने चैम्बर ऑफ कॉमर्स के सुझाव पर होलसेल बिजनेस कॉरिडोर के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी। इसके लिए तूता के पास 1 हजार एकड़ जमीन भी चिन्हित कर ली थी। जमीन आबंटन की प्रक्रिया विधानसभा चुनाव के चलते स्थगित रही। सरकार बदलने के बाद होलसेल बिजनेस कॉरिडोर पर अब तक कोई फैसला नहीं हो पाया है।चर्चा है कि भाजपा के व्यापारी नेता इस मसले पर एकमत नहीं हैं। पूर्व विधायक श्रीचंद सुंदरानी तो इसके खिलाफ बताए जा रहे हैं। वो इस मसले पर पहले भी काफी कुछ कह चुके हैं। मगर मौजूदा चैम्बर अध्यक्ष सतीश थौरानी की राय अलग है। वो मानते हैं कि बिजनेस कॉरिडोर जरूरी है ताकि थोक व्यापार एक ही जगह आ सके, और इससे व्यापारियों को काफी सुविधा होगी। होलसेल बिजनेस कॉरिडोर की स्थापना से छत्तीसगढ़ में व्यापारिक गतिविधियों में काफी इजाफा होगा। मगर सरकार क्या सोचती है यह देखना है।