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मिलान कुंदेरा: वो लेखक जिसे नोबेल तो नहीं, दुनिया भर में पाठकों का स्नेह मिला
12-Jul-2023 9:54 PM
मिलान कुंदेरा: वो लेखक जिसे नोबेल तो नहीं, दुनिया भर में पाठकों का स्नेह मिला

EPA-EFE/REX/SHUTTERSTOCK


-प्रियदर्शन

पेरिस में जाने-माने लेखक मिलान कुंदेरा के निधन की सूचना आते ही भारत सहित दुनिया के साहित्य प्रेमियों में जिस तरह का शोक दिखा, उससे समझ में आता है कि वे अपने पाठकों के लिए, साहित्य के संसार के लिए किस कदर जीवित और युवा लेखक थे.

वे समकालीन संसार के सर्वाधिक लोकप्रिय शास्त्रीय लेखकों में रहे.

विचारधाराओं के टकराव में वे वामपंथियों के ख़िलाफ़ माने गए, हालाँकि वे हमेशा कहते रहे कि वे किसी राजनीतिक और वैचारिक लड़ाई के योद्धा नहीं हैं, वे बस लेखक हैं और उन्हें इसी तरह देखा जाना चाहिए.

लेकिन क्या किसी लेखक को केवल लेखक की तरह देखा जा सकता है?

कुंदेरा ऐसा ही चाहते थे कि उन्हें केवल लेखक की तरह देखा जाए, उन्हें इस बात का भी एहसास था कि वे दुनिया में गलत पाले में खड़े लेखक की तरह देखे जाते हैं.

'द जोक' से मिली ख्याति
दरअसल, विडंबनाएं उम्र भर मिलान कुंदेरा का पीछा करती रहीं, वे उस देश में पैदा हुए जिसे चेकोस्लोवाकिया के नाम से जाना जाता था, फ्रांस में रहने लगे, खुद को फ्रांसीसी नागरिक कहलाना पसंद करते रहे और कई बार उनकी किताबें चेक से पहले फ्रेंच में ही छपती रहीं.

विडंबना इतनी ही नहीं रही, उन्हें कॉलेज के दिनों ही अपने एक साथी के साथ कम्युनिस्ट पार्टी से निलंबित होना पड़ा, साठ के दशक में आए उनके उपन्यास 'द जोक' पर इस अनुभव की छाया थी.

सोवियत सत्ता-प्रतिष्ठान और विचार की आलोचना के बाद चेकोस्लोवाकिया में रहना उनके लिए मुश्किल था, सत्तर के दशक में वो फ्रांस चले आए.

लेकिन इसमें शक नहीं कि मिलान कुंदेरा अपनी सूक्ष्म दृष्टि और अपने शिल्प की वजह से दुनिया में भरपूर पढ़े गए, वे उन कुछ लेखकों में रहे जिनके लिए बार-बार नोबेल की कामना की जाती रही, लेकिन नोबेल नहीं मिला.

'द जोक' ने उनको जो कीर्ति दी उसे उनकी परवर्ती कृतियां बढ़ाती रहीं, 'लाइफ़ इज़ एल्सव्हेयर' उनका दूसरा उपन्यास था जिसमें चेकोस्लोवाकिया के वामपंथी शासन की आलोचना नज़र आती रही बल्कि इस उपन्यास को पढ़ते हुए लगता है कि कुंदेरा कवियों को नापसंद करते थे या फिर ख़ारिज करते थे.

कुंदेरा की चर्चित कृति 'द अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ़ बीइंग'
उपन्यास का नायक एक कवि है जो भोला-भाला बनाया गया है, वह जिस लड़की से शादी करता है, उससे प्रेम नहीं करता. उसकी कविता भावनाओं से उपजती है, वैचारिक स्थिरता से नहीं.

इस उपन्यास के एक दृश्य में कवि जेल में जल्लादों के साथ कविता पढ़ते हुए दिखाई पड़ते हैं, कुंदेरा बताते हैं कि चेकोस्लोवाकिया में सत्ता-परिवर्तन के बाद कवि ही नहीं, कहानीकार भी सत्ता के पक्ष में लिखते नजर आए.

लेकिन कहानीकार बड़ी कहानियां नहीं लिख पाए क्योंकि उन्हें उसके लिए यथार्थ की ज़मीन नहीं मिली, जिस पर ठोस गद्य लिखा जाता है, दूसरी तरफ कविता के लिए कल्पना की ज़रूरत थी जो कवियों ने खूब दिखाई. उन्होंने उस क्रांति की प्रशस्ति में ढेर सारी शानदार कविताएं लिखीं जिसका एक काला और अमानवीय पक्ष बिल्कुल सामने था जिसे नज़रअंदाज़ कर दिया गया.

जिस बहुत खूबसूरत शीर्षक वाले उपन्यास के लिए इन दिनों मिलान कुंदेरा को सबसे ज्यादा याद किया जाता है, वह 'द अनबियरेबल लाइटनेस ऑफ़ बीइंग' है. उपन्यास का नायक एक बहुत कुशल डॉक्टर है जो चेक क्रांति के बाद अपनी पत्नी और कुत्ते के साथ प्राग छोड़कर चला जाता है.

हालांकि यह डॉक्टर कई महिलाओं से प्रेम करता है, उधर यह निर्वासन उसकी पत्नी नहीं झेल पाती, वह प्राग लौट आती है. बाद में डॉक्टर भी लौटता है. कहानी मानवीय संबंधों के द्वंद्व से लेकर राजनीतिक दबावों के खेल की छाया के बीच बढ़ती है. पति और पत्नी के घिस रहे संबंधों के बीच मरता हुआ कुत्ता भी एक पुल बना देता है.

मन के भीतर उतरने वाले लेखक
सच यह है कि यह इन उपन्यासों की बहुत स्थूल व्याख्या है, मिलान कुंदेरा बहुत सावधान लेखक है, वह मन के भीतर उतरना जानता है, मन के तनावों को पढ़ना जानता है. सामाजिक जीवन और राजनीतिक साज़िशों को पहचानता है, सच और प्रचार के बीच के फ़र्क को समझता है और इन सबको ऐसी भाषा में लिखता है जो बहुत सुसंगत और तार्किक है.

बाद के वर्षों में 'इमोर्टलिटी', 'स्लोनेस' या 'आइडेंटिटी' जैसी उनकी किताबें आती रहीं और उनकी लेखकीय-वैचारिक विस्तारों के सुराग देती रहीं, 'द फेस्टिवल ऑफ़ इन्सिग्निफेंस' एक ऐसे शख़्स की कहानी है जिसने बचपन से अपनी मां को नहीं देखा है.

कुंदेरा के उपन्यास अक्सर कई हिस्सों में, कई किरदारों में बंटे होते हैं, इसके अलावा अपनी जड़ों से कटने की, विस्थापन और अकेलापन झेलने की जो बीसवीं सदी की एक प्रिय कथा रही है, वह कुंदेरा के लेखन में बार-बार लौटती रही.

उनमें न मार्क़ेज के जादुई यथार्थवाद वाली चमक थी, न सलमान रुश्दी की भाषिक तड़क-भड़क. उनमें एक तरह की सादगी और सधाव था जो पाठक को आतंकित नहीं, आकर्षित करता था. उन्हें दुनिया भर के कई सम्मान मिले, नोबेल मिलता तो यह भी एक बड़ा सम्मान होता, लेकिन सबसे ज़्यादा जो चीज़ मिली, वह पाठकों का स्नेह था.

उनको पढ़ते हुए अपने होने का, अपने वजूद का जो असहनीय हल्कापन है, उसको ठीक से समझने का, अपने-आप को खोजने का एहसास होता है.

सच तो ये है कि दुनिया का सारा साहित्य अंततः अपनी तलाश का ही साहित्य होता है, लेकिन कुछ लेखकों का आईना ऐसा होता है जिसमें हमें हमारी छुपी हुई शक्लें भी दिख जाती हैं. कुंदेरा अक्सर यह छुपी शक्ल दिखाते रहे. (bbc.com/hindi)


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