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हेरिएट ओरल
लंबा सफ़र
- सुनक के दादाजी का जन्म ब्रिटिश शासन वाले पंजाब में हुआ था. वहां से 1930 के दशक में वो पूर्वी अफ़्रीका चले गए और वहीं बस गए.
- लेकिन जैसे-जैसे अफ़्रीकी देश ब्रिटिश शासन से आजाद होने लगे भारतीय समुदाय के लोग ब्रिटेन पहुंचने लगे.
- जब ब्रिटेन में भारतीय समुदाय तरक़्क़ी करने लगा वैसे-वैसे दूसरे एशियाई समुदायों से यह अलग दिखने लगा
- ब्रिटिश अखबार 'गार्जियन' के मुताबिक़, ब्रिटेन में हिंदू आप्रवासी होना अच्छी बात है क्योंकि दो तिहाई हिंदू यहां प्रबंधकीय पदों या ऊंचे प्रोफ़ेशनल पदों पर हैं.
ऋषि सुनक ने ब्रिटेन के नए प्रधानमंत्री की ज़िम्मेदारी संभाल ली है. ब्रिटेन के इतिहास में पहली बार कोई एशियाई मूल का व्यक्ति प्रधानमंत्री पद की कुर्सी पर बैठा है. लिहाज़ा उनके पेशेवर बैकग्राउंड के साथ उनकी विरासत पर भी चर्चा हो रही है.
ऋषि सुनक कई मायने में पहले शख़्स हैं. मसलन वो पहले ब्रिटिश एशियाई हैं जो प्रधानमंत्री बने हैं. साथ ही वो पहले हिंदू हैं जो इस पद पर पहुंचे हैं.
वह कंज़र्वेटिव पार्टी के नेता हैं. लेकिन हाल के इतिहास में वह इस पार्टी के भी प्रमुख बनने वाले पहले ब्राउन शख़्स हैं. और ये भी कि वो पहले कलर पर्सन हैं जिन्होंने प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली है.
भारतीय मूल के ऋषि सुनक की पृष्ठभूमि और अतीत बेहद दिलचस्प है. ये जानना रोचक है कि किस तरह यह शख़्स वर्ग, नस्ल, औपनिवेशिकता और ख़ुद ब्रिटिश साम्राज्य के ढांचे से गुज़रता हुआ 10 डाउनिंग स्ट्रीट तक पहुंचा है.
ऋषि सुनक की मां का नाम उषा सुनक और पिता का नाम यशवीर सुनक है. ऋषि सुनक का जन्म दक्षिणी बंदरगाह शहर साउथैम्पटन स्थित इनके घर में 1980 में हुआ. हालांकि उषा और यशवीर सुनक पूर्वी अफ़्रीका के ब्रिटिश उपनिवेशों से ब्रिटेन पहुंचे थे.
लेकिन जैसे-जैसे अफ़्रीकी देश ब्रिटिश शासन से आज़ाद होने लगे भारतीय समुदाय के लोग ब्रिटेन पहुंचने लगे.
सुनक की हाल की एक बायोग्राफ़ी में बताया गया है कि 1960 में उनकी नानी सरक्षा ने ब्रिटेन आने के लिए अपनी शादी के गहने बेच दिए थे. इसके बाद उनके नाना-नानी दोनों ब्रिटेन आ गए थे.
हज़ारों परिवारों ने ब्रिटिश भारत से ब्रिटेन के अफ़्रीकी उपनिवेशों और फिर वहां से ब्रिटेन का रास्ता पकड़ा था. लेकिन आख़िर इतनी बड़ी तादाद में ये लोग ब्रिटेन क्यों पहुंचे. इसका इतिहास क्या है?
विश्व इतिहास की टीचर और टिक-टॉक वीडियो बनाने वाली एमिली ग्लेनकर कहती हैं, ''19वीं सदी की शुरुआत में ब्रिटिश साम्राज्य का तेज़ी से औद्योगिकीकरण हो रहा था. लेकिन ग़ुलामी की प्रथा ख़त्म हो चुकी थी. लिहाज़ा कामगारों की भारी कमी हो गई.'' एमिली के उस दौर के वीडियो वायरल हो चुके हैं.
वो बताती हैं, ''भारतीयों से रेल, रोड के निर्माण या प्लांटेशन में काम लिया जाता था. उन्हें एक कॉन्ट्रैक्ट के तहत काम पर रखा जाता था जिसमें उन्हें कोई वेतन नहीं मिलता थे. दरअसल उन्हें क़र्ज़ के बदले काम करने को कहा जाता था और अक्सर वो क़र्ज़ नहीं उतार पाते थे और इस जाल में फंस जाते थे.''
अफ़्रीका में भारतीयों का अनुभव कैसा था
लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया और भारतीय समुदाय के लोगों की तादाद बढ़ती गई, इस तरह कॉन्ट्रैक्ट पर काम कराने की प्रथा बंद हो गई. कई लोग भारत लौट गए.
लेकिन ब्रिटिश साम्राज्य ने दक्षिण एशियाइयों को पूर्वी अफ़्रीका बुलाना शुरू किया. उन्हें ज़्यादा आर्थिक मौके और ज़्यादा सामाजिक रुतबे का वादा किया गया.
ग्लेनकर कहती हैं, ''ये ढांचा कुछ इस तरह का था- इस पदानुक्रम में गोरे ब्रिटेश लोग सबसे ऊपर थे और काले अफ़्रीकी लोग सबसे नीचे. बीच में दक्षिण एशियाई समुदाय के लोग थे.''
इन दक्षिण एशियाइयों के हिस्से में पेशेवर और प्रशासनिक पद आए. यानी ये ब्रिटिश नेटिव अफ़्रीकियों के बीच कड़ी का काम करते थे.
ग्लेनकर कहती हैं, ''कई भारतीयों को लगा कि अफ़्रीकी उपनिवेशों में ब्रिटिश साम्राज्य जो सिस्टम बना रहा है, उसमें बीच में जगह बनाने पर उनके पास काफ़ी आर्थिक मौके आएंगे.''
लेकिन थोड़े ही समय में अफ़्रीकी भारतीय समुदायों ने वहां ताक़त हासिल कर ली. मसलन युगांडा में उन्होंने 1920 से ही ज़मीन का मालिकाना हासिल करना शुरू कर दिया था. लेकिन युगांडा के काले लोग ऐसा नहीं कर सके और इससे वहां असमानता को बढ़ावा मिलने लगा.
अफ़्रीकी देशों की आजादी
1960 से 1970 के दशकों के बीच ब्रिटिश साम्राज्य का ढलान शुरू हो गया था. अफ़्रीकी उपनिवेशों को ब्रिटिश साम्राज्य से आज़ादी मिलने लगी थी और वहां का नेतृत्व काले अफ़्रीकी लोगों के हाथों में आता जा रहा था. इस राजनीतिक उथल-पुथल के बीच प्रवासी भारतीय समुदायों का इन उपनिवेशों से निकलना शुरू हो गया.
1972 में युगांडा के तत्कालीन राष्ट्रपति ईदी अमीन ने एशियाई मूल के सभी युगांडावासियों को 90 दिन के अंदर देश छोड़ने का आदेश दिया. इन लोगों में ज़्यादातर भारतीय थे.
भक्ति कंसारा 14 साल की थीं जब वो ब्रिटेन पहुंचीं. युगांडा से निकाले जाने के बाद वह अपने परिवार के 15 और सदस्यों के साथ यहां पहुंची थीं.
उन्होंने बीबीसी को बताया, ''मैं घर पर थी और तभी मैंने अपने पिता और भाई को ये कहते सुना कि हमें अपनी ज़रूरत का सारा सामान पैक कर तुरंत जाना होगा. युगांडा में अब और नहीं रह सकते.''
वो कहती हैं, ''मुझे अपनी मां की याद है, वो परेशान थीं. मुझे वहां से बाहर जाने की बात सुन कर अच्छा लग रहा था. मैं ख़ुश थी.''
''मैं सोच रही थी कि अरे, मैं तो लंदन जा रही हूं. मुझे कुछ पता नहीं था कि क्या चल रहा है. मेरे चारों ओर क्या हो रहा है.''
वो कहती हैं, ''हम दो कारों में सवार थे. हमारे साथ सेना के लोग थे जिन्होंने एंटेबे एयरपोर्ट तक हमें छोड़ा. उस दौरान मुझे पक्के तौर पर यह लगने लगा कि कुछ ग़लत हो रहा था. मैं सोच रही थी कि आख़िर लंदन जाते समय सेना के लोग हमें एयरपोर्ट तक क्यों छोड़ने आए हैं?''
वे लोग ब्रिटेन में शरणार्थियों के तौर पर आए. लेकिन अफ़्रीकी उपनिवेशों से आए दूसरे आप्रवासियों की तरह वे भी यहां बस गए.
'भारतीय जल्दी घुल-मिल गए'
भक्ति की बेटी रिया अब बीबीसी में एक रिपोर्टर के तौर पर काम कर रही हैं. उन्होंने युगांडा से भारतीयों के निष्कासन पर डॉक्यूमेंट्री की सिरीज़ बनाई है. वो बताती हैं कि पूर्वी अफ़्रीका के कई आप्रवासी ब्रिटेन में अच्छी तरह घुल-मिल गए क्योंकि वे यहां आने से पहले ही मध्यवर्ग में आ गए थे.
वह कहती हैं, ''उनके पास कौशल था और वे उसका यहां इस्तेमाल कर पाए. कइयों ने नीचे से शुरुआत की और आगे बढ़ते चले गए.''
सुनक के दादाजी तंगनयिका में टैक्स अधिकारी थे और ब्रिटेन आने के बाद उन्हें राजस्व विभाग में नौकरी मिल गई थी.
सुनक के माता-पिता मेडिकल के पेशे में थे. पिता नेशनल हेल्थ सर्विस में फ़ैमिली डॉक्टर थे और मां फ़ार्मेसी चलाने लगी थीं.
जैसे-जैसे ब्रिटेन में भारतीय समुदाय तरक़्क़ी करने लगा वैसे-वैसे दूसरे एशियाई समुदायों से यह अलग दिखने लगा. भारतीय समुदाय ब्रिटिश समाज से ज़्यादा घुला-मिला था.
ब्रिटेन में 'डायरेक्ट फ़्लाइट माइग्रेंट' भी आए. लेकिन वे सुनक के पूर्वजों की तरह उपनिवेश के रास्ते नहीं आए. ये लोग 1947 में भारत विभाजन के साथ सीधे यहां आए थे.
इनमें से ज़्यादातर ग्रामीण समुदाय के थे और इनमें हिंदुओं की तुलना में मुस्लिमों की संख्या ज़्यादा थी. उनके पास अच्छी नौकरी के लायक और कौशल नहीं था. ना ही वह अंग्रेज़ी जानते थे.
ब्रिटिश अख़बार 'द गार्जियन' के मुताबिक़, ब्रिटेन में हिंदू आप्रवासी होना अच्छी बात है क्योंकि दो तिहाई हिंदू यहां प्रबंधकीय पदों या ऊंचे प्रोफे़शनल पदों पर हैं.
ब्रिटेन का पहला ब्रिटिश भारतीय पीएम
कंज़र्वेटिव पार्टी ने पहली बार 1874 में एक यहूदी प्रधानमंत्री चुना था. नाम था बेंजामिन डिज़राइली. फिर 1979 में पहली बार मारग्रेट थैचर के तौर पर पहली महिला प्रधानमंत्री चुनी गईं. इसके आधी सदी पर पार्टी ने किसी कलर पर्सन को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना है जो 10 डाउनिंग स्ट्रीट से शासन चला रहा है.
हाल के दिनों में कंज़र्वेटिव पार्टी की राजनीति ज़्यादा विविधता भरी हुई है. इस समय मंत्री सुवेला ब्रेवरमैन और प्रीति पटेल दोनों महिलाएं हैं. इनका भी परिवार पूर्वी अफ़्रीका से आया था.
हालांकि सुनक को लेकर ब्रिटिश भारतीय समुदाय में विभाजन भी हैं. कुछ लोग उनके पीएम बनने से ख़ुश हैं और कुछ नहीं. जो लोग नाख़ुश हैं उनका मानना है कि उनके पूर्वज पूर्वी अफ़्रीका से आए थे इसलिए वो इनका प्रतिनिधित्व नहीं करते.
रिया कहती हैं, '' मेरे ख़िलाफ़ इसका इस्तेमाल हुआ है. मेरी पहचान के कुछ लोग, कुछ हिंदू राष्ट्रवादी मुझे कहते हैं तकनीकी तौर पर मैं भारतीय नहीं हूं क्योंकि मेरा परिवार कीनिया या युगांडा से यहां आया है.''
वो कहती हैं, ''ऐसी बहस चलती रहती है, लेकिन आख़िरकार किसका परिवार कहां से ब्रिटेन आया, इस आधार पर किसी का क़द घटना नुक़सानदेह है. वैसे दक्षिण एशियाई समुदाय के कुछ लोग इस बात से ख़ुश हैं कि सुनक भारतीय विरासत के शख़्स हैं.'' (bbc.com/hindi)