भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ और नागरिक संहिता की जो बहस है, उसके बारे में मुस्लिम समुदाय की, खासकर महिला प्रतिनिधियों की राय कोई नहीं लेता. पर्सनल लॉ में मुस्लिम महिलाओं के हक की जो बातें हैं भी, उन्हें भी कोई नहीं मानता.
डॉयचे वैले पर फैसल फरीद की रिपोर्ट-
जब भी समान नागरिक संहिता की बात चलती है तो ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड उसके विरोध में होता है. मुद्दे से इतर राजनीतिक बहस शुरू हो जाती है. लेकिन क्या हाल है मुस्लिम महिलाओं का जिनका भी सम्बन्ध भी मुस्लिम पर्सनल लॉ से है. क्या उनको अपने अधिकार मिल गए, क्या वे इसके पक्ष में हैं, ऐसे में उनकी आवाजें कहां हैं?
क्या है मुस्लिम पर्सनल लॉ
इस्लाम में मुसलमानों के लिए कुछ नियम बनाये गए हैं. इनमें से मुख्यतः शादी, तलाक, विरासत, जायदाद में हिस्सा, लड़कियों के ज़मीन-जायदाद में हिस्से वगैरह के लिए भी नियम हैं जो मुस्लिम पर्सनल लॉ के अंतर्गत आते हैं. ये इस्लामिक शरिया के हिसाब से होते हैं और मुसलमान इसको मानते हैं. कई लोग इन पर उंगलियां भी उठाते हैं.
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड मुसलमानों के पर्सनल लॉ में फेरबदल के पक्ष में नहीं है. आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने 5 फरवरी को लखनऊ में हुई अपनी हालिया बैठक में प्रस्ताव पारित किया कि चूंकि देश के संविधान में बुनियादी अधिकारों में हर शहरी को अपने धर्म पर अमल करने की आजादी दी गयी है, इसमें पर्सनल लॉ शामिल है. उन्होंने सरकार से अपील कि वह आम नागरिकों की धर्म की आजादी का भी मान रखे और यूनिफार्म सिविल कोड को लागू करने जैसा एक अलोकतांत्रिक कदम ना उठाये.
जबकि वास्तविकता इससे काफी अलग है. साल 1986 शाहबानो प्रकरण से इस तरफ पूरे देश का ध्यान गया. शाहबानो को उसके पति ने तलाक दे दिया था और वह गुजारे के लिए अदालत पहुंची. केस जीतने के बाद भी तत्कालीन केंद्र सरकार ने संसद में कानून के माध्यम से फैसला पलट दिया. अभी हाल में केंद्र सरकार ने मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) बिल, 2019 पास कर दिया है. अब तीन तलाक संज्ञेय अपराध हो चुका है. मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने इसका काफी प्रतिवाद किया लेकिन अंततः यह कानून बन ही गया.
क्या कहती हैं मुस्लिम महिलाएं
शिक्षिका शमा परवीन, देहरादून में रहती थी. पति से तलाक मिलने के बाद अब वह अलीगढ़ में हैं. हालांकि उन्हें यहां नौकरी मिल गयी लेकिन हर कोई इतना भाग्यशाली नहीं होता. यहां अगर उनको इस्लाम में दिए गए अधिकारों की बात करें तो उनके पास ये रास्ता कि वह अदालत जाएं और भारतीय कानून के अनुसार कार्यवाही शुरू करें.
लेकिन इस्लाम में भी तो महिलाओं को अधिकार दिए गए हैं और यह पूछने पर कि क्या वह इस्लामिक शरिया के अनुसार कार्रवाई करना चाहेंगी जिसकी ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड भी पक्षधर है, तो वो सीधे कहती हैं, "क्या बोर्ड आज तक कुछ लागू करवा पाया है, क्या इस्लामिक शरिया के अनुसार मर्द औरत के अधिकार देते हैं? बोर्ड ने क्या कभी वास्तविकता जानने की कोशिश की है?”
कहां कहीं दिखती है समस्या
अगर इस्लामिक शरिया के अनुसार मुस्लिम समुदाय अपने घरेलू मामले सुलझा रहा होता तो फिर बात यहां तक क्यों आती. अदालतों तक केस क्यों जाते. मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार तो पैतृक संपत्ति में लड़कियों का भी हिस्सा रहता है लेकिन सच्चाई में बहुत कम जगह पर इसको मानते हैं. लड़कियों को शादी के बाद आमतौर पर हिस्सा नहीं देते हैं.
लखनऊ की रहने वाली सय्यदा खतीजा एक गृहणी हैं. वह कहती हैं, "हमने तो कभी नहीं देखा कि हमारी मां को उनके घर में कोई हिस्सा दिया गया हो, शायद ही पूरे खानदान में कोई ऐसी लड़की हो जिसके भाइयों ने उसको हिस्सा दिया हो. अब हम ऐसे पर्सनल लॉ का क्या करें जब उसको कोई मानता ही नहीं है. अगर बात उठाओ तो यही सुनने को मिलता है कि शादी कर दी, उसमें इतना खर्चा आया अब कहां से हिस्सा दें."
शादी में दहेज, खर्चीली शादी, लड़कियों के अधिकार पर चुप्पी, तरह तरह की बंदिशें ये सब अब इतना सामान्य हो चुका है कि इसको शायद ही कोई समस्या मानता है. बोर्ड अपील कर देता है कि ऐसा न किया जाये लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात वाली बात. पर्सनल लॉ पर किसी घर में बात ही नहीं होती है. ऐसे में बोर्ड का प्रस्ताव या अपील कितनी कारगर होती है ये अपने आप में स्वयं एक प्रश्न है.
क्या कहती हैं मुस्लिम सामाजिक कार्यकर्ता
छतरपुर, मध्य प्रदेश की रहने वाली सामाजिक कार्यकर्ता निदा रहमान बोर्ड से बिलकुल भिन्न राय रखती हैं. उनके अनुसार निकाह के बाद मेहर तक तो मर्द जल्दी देते नहीं है वो भी माफ करवा लेते हैं, फिर संपत्ति में हिस्से की क्या बात की जाय. वह पूछती हैं, "आप हमें ये बताएं कि बोर्ड में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कितना है? सब मर्द बैठ कर फैसला कर लेते हैं. ट्रिपल तलाक में यही किया, विरोध किया, रैली निकली, औरतों तक को सड़कों पर उतार दिया जबकि वो बात औरतों के पक्ष में थी. ये सब हवा की बातें हैं और शायद ही कहीं पर्सनल लॉ के अनुसार हिस्सा मिलता हो."
दिल्ली की रहने वाली शाज़िया रेहाना एक मिसाल देती हैं, "अगर मेरे पति कह दें कि आपको फेसबुक पर नहीं लिखना है वरना तलाक हो जाएगी तो मुझे मानना पड़ेगा. बावजूद इसके कि मैं एक सशक्त महिला हूं लेकिन कौन औरत चाहेगी कि इस बात के लिए तलाक हो. तब ऐसे में क्या ये मेरे लिए तानाशाही नहीं होगी? यहां तक कि कोई भी शौहर ट्रिपल तलाक का डर दिखाकर औरतों को उनकी बेटियों के फैसले लेने से रोक सकता है. यहां तक कि मुझ जैसी प्रिविलेज औरत को भी. ऐसे में कोई भी समझदार औरत मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के साथ क्यों खड़ी होगी?"
समान नागरिक संहिता
देश में समान नागरिक संहिता लागू करने की मांग उठती रही है जिससे मुस्लिम पर्सनल लॉ का महत्व बहुत कम हो जाएगा. भारत के संविधान की धारा 44 के अंतर्गत राज्य, भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता लाने का प्रयास करेगा. जब बात जिनसे जुड़ी हो और वही इसके पक्ष में ना दिखें, तो बोर्ड को भी यह बात समझने की जरूरत है. (dw.com)