सऊदी अरब ने घोषणा की है कि वह तेल उत्पादन में हर दिन 10 लाख बैरल की कटौती अगले साल मार्च के अंत तक जारी रखेगा.
सऊदी की सरकारी समाचार एजेंसी एसपीए ने सऊदी अरब के ऊर्जा मंत्रालय के हवाले से ये जानकारी दी है.
सऊदी अरब का हर दिन तेल उत्पादन मार्च के अंत तक 90 लाख बैरल तक रह सकता है.
एसपीए के मुताबिक़ सऊदी अरब के ऊर्जा मंत्रालय ने कहा है कि यह कटौती तेल बाज़ार में स्थिरता के लिए है.
सऊदी अरब के नेतृत्व वाले तेल उत्पादक देशों के संगठन ओपेक ने भी कच्चे तेल की गिरती क़ीमतों को रोकने के लिए उत्पादन में कटौती का फ़ैसला किया है.
ओपेक के इस फ़ैसले में सऊदी अरब के सहयोगी तेल उत्पादक देश समेत रूस भी शामिल हैं.
ओपेक ब्राज़ील को भी तेल आपूर्तिकर्ता देशों के इस धड़े में लाने जा रहा है.
कच्चे तेल की क़ीमत अमेरिका के लिए हमेशा से अच्छा रहा है क्योंकि वह कम पैसे में अपने गैस टैंक रिज़र्व को भर लेता है.
अमेरिका कच्चे तेल की क़ीमतों को हमेशा काबू में रखना चाहता है.
दूसरी तरफ़ ओपेक प्लस देश, जिनकी अर्थव्यवस्था तेल से होने वाली आय पर निर्भर है, वे चाहते हैं कि कच्चे तेल की क़ीमत ऊंची रहे
क्या तेल सप्लाई के मुद्दे पर इसराइल पर बनेगा दबाव?
इस बीच, ये कयास लगाए जाते रहे हैं कि इसराइल हमास युद्ध के बाद अगर अरब देशों ने इसराइल और अमेरिका को तेल बेचने पर रोक लगा दी तो इससे पूरी दुनिया में उथलपुथल मच सकती है.
इससे दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका में महंगाई की एक नई लहर फैलेगी होगी और ये पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर गहरी चोट करेगी.
ये इसलिए भी चिंता की बात है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था ने अभी दो बड़े ग्लोबल झटके, यानी कोरोना महामारी और रूस-यूक्रेन युद्ध से उबरना शुरू ही किया है.
ऐसे में ओपेक देशों का इसराइल और अमेरिका को तेल बेचने से पीछे हटने का कोई भी फ़ैसला दुनिया की अर्थव्यवस्था की रिकवरी को पटरी से उतार सकता है.
ईरान के विदेश मंत्री हुसैन अमीर अबदुल्लियान ने पिछले महीने ऑर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक को-ऑपरेशन (ओआईसी) की बैठक के दौरान इस्लामिक देशों से अपील की थी कि इसराइल का पूरी तरह बहिष्कार करें और उसकी तेल आपूर्ति रोक दें.
लेकिन सवाल ये है कि क्या ओपेक प्लस देश इस मामले में इसराइल पर दबाव बना सकेंगे? क्या वे अमेरिका और इसराइल को तेल बेचना रोक सकते हैं?
क्या अरब देश 1970 को उस फ़ैसले को दोहरा सकते हैं, जब जब अरब इसराइल युद्ध के बाद तेल की आपूर्ति रोक दी थी और पूरी दुनिया में तेल के दाम चौगुना बढ़ गए थे.
इससे पूरी दुनिया में गैस की कमी हो गई थी. तेल की राशनिंग होने से कई देशों को मंदी का सामना करना पड़ा था.
इसराइल कहाँ से मंगाता है तेल?
इसराइल अपनी तेल ज़रूरतें पूरी तरह से आयात से पूरा करता है लेकिन विश्लेषकों का मानना है कि अरब देशों ने तेल सप्लाई पर रोक लगाई तो इसका फौरी और आंशिक असर ही होगा.
क्योंकि इसराइल सऊदी अरब, यूएई या ईरान से तेल नहीं ख़रीदता है.
इसके बजाय वो कज़ाख़्स्तान से तेल मंगाता है. अज़रबैजान इसराइल का सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्ता है. नाइजीरिया भी इसराइल को अच्छा-ख़ासा तेल की सप्लाई करता है.
ईरान की अपील के बाद ब्रेंट क्रूड के दाम 91.50 डॉलर से 93 डॉलर हो गए थे. इससे ये आशंका बढ़ने लगी थी कि कहीं ईरान की अपील पर इस्लामिक देश सचमुच इसराइल के ख़िलाफ़ तेल प्रतिबंध पर सहमत न हो जाएं.
पेट्रोलियम शिपमेंट को ट्रैक करने वाली रिसर्च फर्म कैपलर के विश्लेषक विक्टर केतोना ने कहते हैं, ''अगर सऊदी अरब ने ईरान की अपील पर पश्चिमी देशों को सप्लाई रोकी तो ये बहुत बड़ा क़दम होगा लेकिन अभी इसकी संभावना कम है कि ओपेक देशों में इस पर सहमति बन पाएगी.''
क्या कह रहे हैं एक्सपर्ट?
नॉर्थ-ईस्टन यूनिवर्सिटी के लंदन कैंपस के एसोसिएट प्रोफ़ेसर पाब्लो कालदेरोन मार्तिनेज कहते हैं, ''हालात 1973 के अरब-इसराइल युद्ध से अलग हैं, जब अरब देशों ने तेल की सप्लाई रोक दी थी. फ़िलहाल तेल के दाम नहीं बढ़ रहे हैं. अगर इसराइल-हमास के बीच युद्ध और भड़का तो दाम बढ़ सकते हैं.’'
वो कहते हैं, ''अगर लड़ाई तेज़ हुई और अमेरिका, यूरोप, ईरान इसमें शामिल हुए तो हालात बेकाबू होंगे. ऐसे में तेल के दाम बढ़ सकते हैं. लेकिन ऐसा मुश्किल है.''
अमेरिका इस वक़्त दुनिया का सबसे बड़ा तेल उत्पादक देश है. 2020 में अमेरिका तेल आयात करने की जगह इसका निर्यात करने लगा था.
हालांकि वह दूसरे तेल उत्पादक देशों से सस्ता तेल ख़रीद कर अपना तेल भंडारण मज़बूत करता रहता है. इसलिए अमेरिका का तेल उत्पादन में निर्भरता भी इसराइल के लिए राहत की बात है.
1973 में अरब-इसराइल युद्ध के बाद से लगे अरब देशों के तेल प्रतिबंध के बाद ही अमेरिका ने तेल सप्लाई के वैकल्पिक स्रोत तलाशने शुरू कर दिए थे.
अपने यहाँ तेल उत्पादन के साथ ही वो अरब देशों के अलग दूसरे देशों से सप्लाई सुनिश्चित करता रहा है.
फ़िलहाल तेल क़ीमतों को लेकर चिंता इसलिए जताई जा रही है कि पश्चिमी देश रूस-यूक्रेन के युद्ध से महंगे तेल और गैस की चोट खा चुके हैं.
मार्तेिनेज कहते हैं, ''दरअसल कोरोना महामारी के बाद जब पूरी दुनिया में अर्थव्यवस्था को वृद्धि देने के लिए खर्च करने पर ज़ोर था, उसी समय रूस-यूक्रेन युद्ध भड़क गया. इससे खर्च करने की जगह संसाधन बचाने पर ज़ोर दिया जाने लगा. इसने वैश्विक अर्थव्यवस्था को हिला दिया. बहरहाल इस समय ब्याज दरें कम हैं और महंगाई कम करने की कोशिश की जा रही है. ऐसे में तेल के दाम बढ़े तो भी अर्थव्यवस्था पर ज़्यादा असर होगा.''
हालांकि जहां तक इसराइल का सवाल है तो हमास से इसका युद्ध जारी रहा और इसमें दूसरे अरब देश शामिल हुए तो उसकी स्थिति नाज़ुक हो सकती है. क्योंकि हमले में इसराइल के वो बंदरगाह निशाने पर रहेंगे, जहाँ उसके आयातित तेल टैंकर आते हैं.
क्या था तेल संकट?
विवादित फ़लस्तीनी क्षेत्र में सैन्य और मानवीय संकट उभरने पर अरब देश और ईरान 1950 के दशक से ही पश्चिमी देशों के ख़िलाफ़ 'तेल को हथियार' के रूप में इस्तेमाल करने पर चर्चा करते रहे हैं.
उन्होंने दो बार तेल की आपूर्ति रोकी भी थी. पहले 1967 में छह दिनों की जंग के दौरान और फिर 1973 में योम किपुर की लड़ाई के दौरान. पहले वाली रोक असरदार नहीं रही थी, मगर दूसरी रोक के काफ़ी गहरे असर देखने को मिले थे.
पश्चिम और अरब देशों ने इन घटनाओं से अपने-अपने सबक लिए. इसलिए, अब कोई भी तेल की आपूर्ति रोकने के बारे में बात नहीं करता और न ही किसी की ऐसा करने की मंशा है.
50 साल पहले इसराइल को लगता था कि कोई उस पर हमला नहीं करेगा और इसी तरह अमेरिका को लगता था कि अरब देश तेल की आपूर्ति नहीं रोकेंगे. मगर ये दोनों बातें हुईं.
इसराइल पर हमले के दस दिन बात अरब देशों ने अमेरिका, नीदरलैंड्स और कई सारे पश्चिमी देशों को तेल आपूर्ति करना बंद कर दिया. यही नहीं, फारस की खाड़ी के शेख़ और ईरान के शाह ने तेल की क़ीमतें 70 फ़ीसदी तक बढ़ाने पर सहमति बना दी.
एक ओर तेल की आपूर्ति रुकने और दूसरी ओर अरब देशों द्वारा उत्पादन घटाने से तेल की क़ीमतें पांच गुना बढ़ गई थीं. उन सालों में दुनिया में तेल ही ऊर्जा का मुख्य स्रोत था और उसका दाम बढ़ने के कारण दुनिया की अर्थव्यवस्था संकट में पड़ गई.
दूसरे विश्व युद्ध के बाद चमत्कारी ढंग से बढ़ रही यूरोप, जापान और अमेरिका की अर्थव्यवस्थाएं ठहर सी गई थीं.
अमेरिका की अर्थव्यवस्था 1973 से लेकर 1975 के बीच छह फ़ीसदी घट गई और बेरोज़गारी दर बढ़कर नौ फ़ीसदी हो गई थी.
इसी तरह, जापान की जीडीपी में दूसरे विश्व युद्ध के बाद पहली बार गिरावट देखने को मिली थी. लेकिन सबसे ज़्यादा मार पड़ी भारत और चीन समेत उन विकासशील देशों पर, जो ख़ुद तेल का उत्पादन नहीं करते थे.
विकसित पश्चिमी देश 1976 में फिर तरक्की की राह पर बढ़ चले लेकिन आने वाले कई सालों तक उन्हें महंगाई की मार झेलनी पड़ी.
इसका कारण सिर्फ़ तेल को लेकर लगाई गई रोक ही नहीं थी, बल्कि युद्ध के पहले से ही मंदी और महंगाई बढ़ने लगी थी. लेकिन तेल की आपूर्ति रुकने से यह संकट और गहरा गया.
पांच महीने बाद, 18 मार्च 1974 को इस प्रतिबंध को दो मुख्य कारणों से हटा दिया गया.
पहला तो यह कि अरब देश नहीं चाहते थे कि इसके कारण पैदा हुए संकट के चलते उनके तेल की मांग ही ख़त्म हो जाए.
अमेरिका और यूरोप ने मध्य-पूर्व के तेल की क़िल्लत के बीच ख़ुद को ढालना शुरू कर दिया था.
तेल उत्पादन करने वाले ओपेक देश पश्चिमी तेल कंपनियों वाली तेल मार्केट में अपनी धाक जमा चुके थे. उन्हें ज़्यादा दाम रास आने लगे थे और वे नहीं चाहते थे कि उनके ग्राहक बर्बाद हो जाएं.
दूसरा कारण यह था कि तेल प्रतिबंध का जो मुख्य मक़सद था, उसे वे कभी हासिल ही नहीं कर पाए. अमेरिका और उसके सहयोगियों ने इसराइल की मदद करना जारी रखा था.
भारत पर क्या हुआ था असर?
अरब देशों की ओर से तेल सप्लाई रोकने के बाद भारत ने तुरंत पेट्रोलियम उत्पादों की क़ीमतों में बढ़ोतरी कर दी.
इसका असर ये हुआ कि पेट्रोलियम की मांग में वृद्धि सात फ़ीसदी से घट कर शून्य फ़ीसदी पर पहुंच गई और आयात वास्तव में गिर गया.
अगले 3-4 वर्षों में, महंगाई 20 फ़ीसदी से अधिक बढ़ गई बेरोज़गारी बढ़ी और खाने-पीने की चीज़ों के लेकर हिंसक वारदातें बढ़ने लगी.
1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध से पड़े असर और 1972 और 1973 में लगातार दो असफल मॉनसून और उसके बाद बढ़ते तेल बिल ने 1975 के आपातकाल की स्थिति तैयार कर दी थी. (bbc.com)