विचार / लेख

कुछ क्रिकेट, और कुछ स्टेडियम की यादें
15-Jan-2025 4:36 PM
कुछ क्रिकेट, और कुछ स्टेडियम की यादें

- डॉ. परिवेश मिश्रा

मेरी पीढ़ी के बचपन में बम्बई के साथ जुड़े ग्लैमर में फिल्मी दुनिया के साथ साथ ब्रेबर्न स्टेडियम और उसमें होने वाले टेस्ट मैचों का भी बड़ा हिस्सा था। ब्रेबर्न स्टेडियम भारत में क्रिकेट के लिए बनने वाला पहला स्टेडियम था और इसे जो दर्जा हासिल था, उससे भारत के दूसरे स्टेडियम कोसों दूर थे।

इसलिए जब पहली बार मुझे वानखेड़े स्टेडियम देखने का मौक़ा मिला तो शुरुआत में वैसा रोमांच नहीं था जो ब्रेबर्न के लिए हुआ होता। पर वहाँ जाने के बाद स्थिति बदल गयी। मुझे लगा मैं ताजमहल देखने आया हूँ और शाहजहाँ मेरे गाईड हैं। दरअसल मुझे वानखेड़े स्टेडियम और पिच तक जाने का मौक़ा श्री वानखेड़े के साथ मिला था। यह सन 1978 की बात है और स्टेडियम का निर्माण पूरा हुए तीन साल हो चुके थे।

सारंगढ़ के राजा नरेशचंद्र सिंह का मुम्बई जाना हुआ था और उनकी पुत्री डॉ. मेनका देवी सिंह और मैं उनके साथ थे। राजा साहब के मित्र श्री वानखेड़े और श्री राजसिंह डूंगरपुर ने उनके सम्मान में वानखेड़े स्टेडियम में भोज का आयोजन किया था। एक अन्य मित्र श्री तिरपुड़े भी आमंत्रित थे। आज़ादी के तत्काल बाद राजा साहब को छत्तीसगढ़ की नव-विलीन रियासतों के प्रतिनिधि के रूप में मध्यप्रदेश विधानसभा में मनोनीत कर मंत्री बनाया गया था। राजधानी नागपुर में थी और श्री वानखेड़े वहाँ वकालत कर रहे थे। दो साल के बाद हुए पहले आम चुनाव में वानखेड़े चुनाव जीत कर विधानसभा में आ गये। एक और नये बने विधायक थे नासिक राव तिरपुड़े। उन्हें उप मंत्री बना कर राजा साहब के साथ संलग्न किया गया था। नया राज्य बनने पर राजा साहब मध्यप्रदेश की और बाक़ी दोनों महाराष्ट्र की राजनीति में सक्रिय रहे किन्तु मित्रता बरकरार रही। आगे चलकर वानखेड़े विधानसभा के उपाध्यक्ष और महाराष्ट्र के वित्त मंत्री बने। तिरपुड़े उपमुख्यमंत्री बने। राजसिंह डूंगरपुर पारिवारिक मित्र थे। लेकिन आगे बढऩे से पहले इन कारणों और परिस्थितियों की बात कर लें जिनके चलते अच्छे ख़ासे ब्रेबर्न स्टेडियम के रहते मात्र 700 मीटर की दूरी पर एक नया स्टेडियम अस्तित्व में आ गया।

1930 के दशक में बम्बई में बीसीसीआई और क्रिकेट क्लब ऑफ इंडिया (सीसीआई) की स्थापना हो चुकी थी। पर तब तक भारत में क्रिकेट मैच आयोजित करने के लिए कोई क़ायदे का स्थान उपलब्ध नहीं था। जमशेद जी टाटा के भांजे और टाटा समूह के अध्यक्ष सर नौरोजी सकलातवाला सीसीआई के अध्यक्ष थे। एंथनी डी-मेलो बीसीसीआई के सचिव थे। दोनों ने मिलकर भारत का पहला क्रिकेट स्टेडियम बम्बई में बनाने की योजना बनाई।

द्वीपों में बँटे बम्बई को एक महानगर का रूप देने की क़वायद अठारहवीं सदी में शुरू हो गयी थी। जहाँ जहाँ समुद्र के पानी ने प्रवेश कर बारीक दरारें बना ली थीं वहाँ ज़मीन को पाटा गया। मोटी किलेनुमा दीवार बना कर पानी को अंदर आने से रोका गया। 1930 के दशक तक समुद्र के किनारे काफ़ी नयी ज़मीन तैयार कर ली गयी थी। क्रिकेट क्लब वालों की नजऱ इसी ज़मीन की एक बड़े टुकड़े पर थी। स्टेडियम बनाने का सपना महँगा सौदा था। सकलातवाला ने निर्माण में होने वाले खर्च का बड़ा हिस्सा अपनी जेब से वहन करने का जि़म्मा लिया। लेकिन ज़मीन की क़ीमत फिर भी एक बड़ी समस्या थी।

बम्बई के अंग्रेज़ गवर्नर थे लॉर्ड ब्रेबर्न। सकलातवाला और डी-मेलो गवर्नर से मुलाक़ात करने पहुँचे। जो कहानी प्रचलित है उसके अनुसार मीटिंग से बाहर आने के पहले डि-मेलो ने गवर्नर से पूछा - आप ज़मीन की क़ीमत के रूप में सरकार के लिए धन चाहेंगे या अपने लिए अमरत्व? गवर्नर ने दूसरा विकल्प चुना। साढ़े तेरह रुपये प्रति गज़ की दर पर बैक-बे-रिक्लेमेशन स्कीम से हासिल ज़मीन में से नब्बे हज़ार वर्ग गज़ पर ब्रेबोर्न स्टेडियम के निर्माण का काम प्रशस्त हुआ।

निर्माण का ठेका मिला शापूरजी पालोनजी की कंपनी को। ये वही शापूरजी मिस्री थे जिन्होंने आगे चलकर मुग़ल-ए-आज़म फि़ल्म का निर्माण किया था। हालांकि शापूरजी का फि़ल्मों से दूर दूर का नाता नहीं था। वे रियल-एस्टेट के बहुत बड़े कारोबारी थे। बम्बई की रिज़र्व बैंक जैसी अनेक इमारतें उन्हीं की बनाई हुई हैं। साथ ही वे पैसा उधार देने का काम भी बड़े पैमाने पर करते थे। लेखक पत्रकार कूमी कपूर की पारसियों पर लिखी पुस्तक के अनुसार जो सज्जन मुग़ल-ए-आज़म की स्क्रिप्ट लिख कर बहुत समय से निर्माताओं से सौदा करते घूम रहे थे वे भी सेठ शापूरजी के कज़ऱ्दार थे। विभाजन के समय जब इन्होंने पाकिस्तान जाने का फ़ैसला किया तो उधारी चुकाने की स्थिति में नहीं थे। सो उसके एवज़ में अपनी लिखी स्क्रिप्ट को सौंप कर चले गये। जब एक के बाद एक अनेक लोगों ने आकर इस स्क्रिप्ट के बारे में सौदे की पेशकश की तो शापूरजी को इसकी व्यावसायिक संभावनाओं का अहसास हुआ। और शापूरजी ने पच्चीस हज़ार का निवेश कर स्वयं फि़ल्म बनाने का फ़ैसला कर लिया। बाद में खर्च बजट से अनाप-शनाप बढ़ा यह अलग कि़स्सा है। इन्हीं शापूरजी के पोते सायरस मिस्री को रतन टाटा के बाद टाटा समूह का अध्यक्ष बनने का मौक़ा मिला था।

ब्रेबोर्न स्टेडियम का निर्माण पूरा हुआ और भारत में टेस्ट मैच का सबसे प्रमुख सेंटर बना। यहाँ अनेक रिकॉर्ड बने। इनमें एक रिकॉर्ड 1960 में बना जब भारतीय बल्लेबाज़ अब्बास अली बेग के पचास रन बनते ही खचाखच भरे स्टेडियम के मैदान में दौड़ती हुई एक युवती ने पिच पर पहुँच कर बेग के गाल पर चुम्बन दर्ज कर दिया। इस घटना से प्रेरणा लेकर कैडबरी कम्पनी ने अपनी चॉकलेट के लिए विज्ञापन तैयार करवाया था - कुछ ख़ास हैज्,टैगलाईन थी - असली स्वाद जि़न्दगी का।

1964 में इंग्लैंड की टीम दौरे पर आयी थी। पता नहीं उन्होंने भारत में मिर्च मसाला खाने से परहेज किया था या नहीं पर बम्बई पहुँचते तक टीम के इतने सदस्य अनफिट हो गये थे कि फ़ील्डिंग के लिए भारत के दो खिलाड़ी - हनुमंत सिंह और ए.जी.कृपाल सिंह  इंग्लैंड की ओर से खेले।

ब्रेबोर्न स्टेडियम की मिल्कियत तो सीसीआई के पास रही पर बम्बई में टेस्ट मैच समेत क्रिकेट के सारे मैच कराने का अधिकार बॉम्बे (बाद में मुम्बई) क्रिकेट एसोसिएशन (बीसीए) के पास था। किरायेदार के रूप में बीसीए का कार्यालय भी ब्रेबोर्न स्टेडियम में था। बीसीए की एक शिकायत दोनों के बीच शुरू से विवाद का कारण रही। जहां एक ओर सीसीआई के सारे मेंबर और उनके मित्र फ्री पास की बदौलत मैच देखा करते थे वहीं बीसीए को फ्री-पास के लाले पड़े रहते थे। ढेरों फ्री पास का सीधा असर बीसीए की आमदनी पर भी पड़ता था। 1970 का दशक आते तक यह विवाद अपने चरम पर पहुँच गया। सीसीआई के अध्यक्ष विजय मर्चेंट झुकने के लिए राज़ी नहीं थे। जब बात मूंछों पर बन आयी तो बीसीए के मुखिया शेषराव कृष्णराव वानखेड़े ने घोषणा कर दी कि बीसीए का अपना अलग स्टेडियम वे स्वयं बनाएँगे। और मात्र 13 महीने की छोटी अवधि में उन्होंने नया स्टेडियम खड़ा कर 1975 में उसमें टेस्ट मैच आयोजित कर दिखा दिया।

इस पृष्ठभूमि में अपने मित्र राजा नरेशचंद्र सिंह जी को अपनी इस बड़ी उपलब्धि को दिखाना श्री वानखेड़े के लिए ख़ुशी के साथ स्वाभाविक गर्व का मौक़ा था। वे हमें मैदान के बीचों-बीच भी ले कर गये। इसके पीछे का कारण पिच तक पहुँचने के बाद पता चला।

नया स्टेडियम बनाने की घोषणा ने बम्बई, और विशेष कर खेल की दुनिया में, भूचाल ला दिया था। ब्रेबोर्न स्टेडियम के पक्ष में एक बहुत मज़बूत लॉबी खड़ी हो गयी जो हर दिन एक नया तर्क सामने ला कर नये स्टेडियम के विचार का विरोध करती थी। इस लॉबी के मुख्य चेहरा थे के.एन. प्रभु। टाइम्स ऑफ़ इंडिया के खेल संपादक प्रभु भारत में खेल और क्रिकेट की दुनिया में बहुत बड़ा नाम थे। उन दिनों फि़ल्मी दुनिया में राजेश खन्ना और क्रिकेट की दुनिया में सुनील गावस्कर अचानक उभरने और रातों रात छा जाने वाले ऐसे सितारे थे जिनके व्यक्तिगत जीवन और पृष्ठभूमि के बारे में जानने की लोगों को बड़ी उत्कंठा थी। ‘आराधना’ फि़ल्म आने के कुछ ही समय के बाद सर्वाधिक बिकने वाली पत्रिका धर्मयुग ने बढ़ी हुई मुद्रित संख्या में लगातार तीन अंक राजेश खन्ना को समर्पित किए। ये अंक हाथों हाथ बिके थे।

यही हाल क्रिकेट खिलाडिय़ों का था। 1971 में वेस्ट इंडीज़ और उसके बाद इंग्लैंड के दौरों में धमाकेदार और ऐतिहासिक जीत से देश में भारतीय खिलाडिय़ों का क्रेज़ रातों-रात बढ़ा था। के. एन. प्रभु इन दौरों में भारतीय टीम के साथ थे और उन्होंने भारतीय खिलाडिय़ों को न केवल लिखने के लिये प्रोत्साहित किया

बल्कि उनकी सक्रिय मदद भी की। भारत लौटने के फ़ौरन बाद दो आत्मकथात्मक पुस्तकें बाज़ार में आयीं और बेस्ट-सेलर बन गयीं। सुनील गावस्कर की ‘सनी डेज़’ और कप्तान अजीत वाडेकर की ‘माय क्रिकेटिंग इयर्स’। माना जाता था कि इन पुस्तकों का लेखन प्रभु ने ही किया था। वाडेकर ने तो पुस्तक के कवर पर घोषणा भी की - ‘ऐज़ टोल्ड टू के.एन.प्रभु’।

नये स्टेडियम के विरोध में कहा गया कि यह समुद्र के बहुत पास है, इसे बनाना धन की बर्बादी है, विशेषकर सीमेंट की जिसकी उन दिनों बहुत कि़ल्लत थी, आदि। किंतु लोगों के लिए सबसे रोचक समाचार वह बना जिसमें के.एन. प्रभु ने चेतावनी भरा दावा किया था कि नया स्टेडियम चर्चगेट स्टेशन से जाने वाली रेल लाइन के इतने कऱीब बन रहा था कि खिलाडिय़ों के छक्कों से रेल यात्रियों को चोट लगने की संभावना थी।

पिच पर ले जाकर श्री वानखेड़े ने राजा साहब और साथ में मौजूद हम सब को स्टेडियम की ऊंचाई दिखाते हुए बताया कि प्रभु के जवाब के रूप में उन्होंने घोषणा की है कि जो बल्लेबाज अपने छक्के से गेंद को स्टेडियम के बाहर पहुँचाएगा उसे वे पचास हज़ार रुपये ईनाम में देंगे। मुझे नहीं लगता उन्हें यह राशि किसी को देने की नौबत आयी।

देखते देखते 2025 आ गया और वानखेड़े स्टेडियम की उम्र का अर्धशतक पूरा हो गया।

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