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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : ईसाई-दलित का आरक्षण के लिए हिन्दू होना नाजायज...
28-Nov-2024 2:16 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : ईसाई-दलित का आरक्षण के  लिए हिन्दू होना नाजायज...

सुप्रीम कोर्ट का एक दिलचस्प और महत्वपूर्ण फैसला आया है कि महज आरक्षण का फायदा पाने के लिए किसी का धर्म परिवर्तन करना जायज नहीं है। इस मकसद से किए गए धर्म परिवर्तन पर ऐसा कोई फायदा नहीं दिया जा सकता। मद्रास हाईकोर्ट ने इसी साल जनवरी में ऐसा ही फैसला दिया था जिसके खिलाफ अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने उसे जारी रखा है। एक हिन्दू, अनुसूचित जाति के पिता और ईसाई माता की बेटी को जन्म के बाद जल्द ही ईसाई धर्म की दीक्षा दी गई थी। बाद में बड़े होने पर उन्होंने सरकारी नौकरी के लिए एससी प्रमाण पत्र मांगा, लेकिन उसे देने से मना कर दिया गया क्योंकि परिवार ईसाई परंपरा पर चल रहा था, ईसाई हो भी चुका था, और नियमित चर्च जाता था। यहां याद रखने की बात यह है कि अनुसूचित जनजाति के लोग, आदिवासी अगर ईसाई बनते भी हैं, तो भी उनका आरक्षित दर्जा कायम रहता है। लेकिन अगर अनुसूचित जाति, एससी के लोग ईसाई बनते हैं, तो चूंकि ईसाई समाज में जाति व्यवस्था नहीं है, इसलिए वे ईसाई होकर अछूत नहीं रह जाते, और इसी आधार पर उन्हें आरक्षण का लाभ मिलना बंद हो जाता है। इस पुरानी संवैधानिक व्यवस्था को लेकर लोगों के बीच जानकारी थोड़ी सी कम इसलिए रहती है कि एसटी-एससी आरक्षित तबकों को लोग आमतौर पर एक साथ गिनते हैं, लेकिन दोनों तबकों के लिए धर्म बदलने पर व्यवस्था अलग-अलग है। अभी सुप्रीम कोर्ट ने इस बारे में कहा है कि ईसाई बने दलित अपनी जातिगत पहचान खो देते हैं, और अगर वे दलित होने की वजह से आरक्षण दुबारा चाहते हैं, तो इसके लिए उन्हें दुबारा हिन्दू होने, और अपनी आरक्षित दलित जाति में जाने, वहां मंजूर किए जाने के ठोस सुबूत देने होंगे। और यह सहूलियत भी उन लोगों को हासिल नहीं होगी जो कि ईसाई परिवार में ही पैदा हुए हैं। जो लोग जन्म से हिन्दू-दलित रहे हों, और बाद में ईसाई बने हों, वे कई तरह की कानूनी और सामाजिक औपचारिकताओं को पूरा करके, अपनी पिछली जाति में शामिल होने के बाद आरक्षण का दावा कर सकते हैं। 

भारत में आरक्षण हमेशा से एक दिलचस्प बहस का मुद्दा रहा है क्योंकि संविधान के तहत अलग-अलग तबकों को दी गई रियायत का समाज के अनारक्षित तबके बड़ा विरोध करते हैं, और लोगों को लगता है कि आरक्षण से बाकी लोगों की संभावनाएं सीमित होती चली जाती हैं। फिर शुरूआत से ही चले आ रहे एसटी-एससी आरक्षण से परे बाद के दशकों में जोड़े गए ओबीसी आरक्षण, उसके बाद महिला आरक्षण, उसके बाद अनारक्षित तबके के आर्थिक रूप से कमजोर लोगों के लिए आरक्षण भी विवाद का सामान बने रहे। फिर यह भी है कि राष्ट्रीय स्तर पर और प्रदेशों में सरकारी नौकरियों में तो ओबीसी आरक्षण है, स्कूल-कॉलेज के दाखिले में भी है, लेकिन संसद और विधानसभा के चुनावों में ओबीसी आरक्षण नहीं है। अब अगली जनगणना के बाद होने वाले डी-लिमिटेशन के बाद महिला आरक्षण लागू होगा, और वह संसद और विधानसभाओं की पूरी तस्वीर बदल देने वाला होगा। ऐसे देश में जब धर्म में जाना, या धर्म को बदलना भी दलितों के लिए आरक्षण की व्यवस्था बदल देता है, तो फिर इस मुद्दे पर अभी सुप्रीम कोर्ट के इस लंबे फैसले को बारीकी से समझना जरूरी हो जाता है, और इसीलिए आज हम इस पर यहां लिख रहे हैं। 

सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की बेंच ने इस फैसले में यह साफ किया है कि जाति व्यवस्था का नुकसान तभी तक ध्यान में रखा जा सकता है जब तक कोई व्यक्ति जाति आधारित धर्म का पालन कर रहे हों। जब वे जातिविहीन धर्म में चले जाते हैं, तो फिर वहां वे अपने पिछले धर्म के तहत अपनी पिछली जाति के आरक्षण-नफे का दावा नहीं कर सकते। इस सिलसिले में यह भी समझने की जरूरत है कि भारत में डी-लिस्टिंग नाम से आंदोलन का एक पुराना इतिहास है। आदिवासी समाज के जो लोग ईसाई बन जाते हैं, लेकिन उसके बाद भी आरक्षण का फायदा पाते हैं, उनके खिलाफ बाकी आदिवासी समाज की तरफ से एक डी-लिस्टिंग आंदोलन दशकों पहले झारखंड में शुरू हुआ था, और कांग्रेस के एक बड़े नेता उसके पीछे थे, और हाल के बरसों में छत्तीसगढ़ में यह आंदोलन जोर पकड़ रहा है। इसमें राज्य सरकार से अपील जरूर की जा रही है, लेकिन यह केन्द्र सरकार के अधिकार क्षेत्र की बात है। कुछ लोग इसे आदिवासी जनजागरण का दौर भी मान रहे हैं कि ईसाई बने आदिवासियों से आरक्षण का लाभ वापिस ले लेना चाहिए। लेकिन दलितों के विपरीत आदिवासियों के ईसाई बनने पर भी यह व्यवस्था इसलिए जारी रहती है कि दलित तो अछूत से छूत हुए मान लिए जाते हैं, लेकिन ईसाई बनने के बाद भी आदिवासी अपनी आदिवासी संस्कृति और परंपराओं को जारी रखते हैं। फिलहाल देश में जहां-जहां आदिवासियों के ईसाई बनने के खिलाफ आंदोलन चल रहे हैं, उन्हें इससे रोका जा रहा है, वहां पर डी-लिस्टिंग का मुद्दा एक बड़े हथियार की तरह हवा में लहराया जा रहा है। 

भारत में स्कूल-कॉलेज के दाखिलों से लेकर नौकरी और चुनाव आरक्षण तक जातियों की जागरूकता का एक नवजागरण का दौर चल रहा है। सभी समुदायों के लोग अपने-अपने हक के लिए उठ खड़े हुए हैं, और अगले कुछ दशक तक यह एक बड़ा चुनावी, राजनीतिक, और सामाजिक मुद्दा बने रहेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

 

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