विचार / लेख
-दिलीप मण्डल
भारतीय राजनीति में ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। और दूसरी बार ऐसा कब होगा, यह सवाल भविष्य के गर्भ में है। लगभग 50 साल की उम्र में एक व्यक्ति, वर्ष 1984 में एक पार्टी का गठन करता है। और देखते ही देखते देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश, जहां से लोक सभा की 85 सीटें थीं, में इस पार्टी की मुख्यमंत्री शपथ लेती है।
यह पार्टी पहले राष्ट्रीय पार्टी और फिर वोट प्रतिशत के हिसाब से देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी बन जाती है। और जिस व्यक्ति ने इस पार्टी का गठन किया, वह बेहद साधारण परिवार से संबंधित था। उस समुदाय से, जिसे पढऩे-लिखने का हक नहीं था और जिन्हें छूने की शास्त्रों में मनाही है।
यह चमत्कार कितना बड़ा है, इसे समझने के लिए बीजेपी (जनसंघ) और कांग्रेस जैसी मुकाबले की दूसरी पार्टियों को देखें, जिनकी लंबी-चौड़ी विरासत है और जिन्हें समाज के समृद्ध और समर्थ लोगों का साथ मिला।
सरकारी कर्मचारी पद से इस्तीफा दे चुके इस व्यक्ति के पास संसाधन के नाम पर कुछ भी नहीं था। न कोई कॉर्पोरेट समर्थन, न कोई और ताकत, न मीडिया, न कोई मजबूत विरासत।
सिर्फ विचारों की ताकत, संगठन क्षमता और विचारों को वास्तविकता में बदलने की जिद के दम पर इस व्यक्ति ने दो दशक से भी ज्यादा समय तक भारतीय राजनीति को कई बार निर्णायक रूप से प्रभावित किया। दुनिया उन्हें कांशीराम के नाम से जानती है। समर्थक उन्हें मान्यवर नाम से पुकारते थे।
कांशीराम ने जब अपनी सामाजिक-राजनीतिक यात्रा शुरू की, तो उनके पास पूंजी के तौर पर सिर्फ एक विचार था। यह विचार भारत को सही मायने में सामाजिक लोकतंत्र बनाने का विचार था, जिसमें अधिकतम लोगों की राजकाज में अधिकतम भागीदारी का सपना सन्निहित था। कांशीराम अपने भाषणों में लगातार बताते थे कि वे मुख्य रूप से संविधान ड्राफ्टिंग कमेटी के चेयरमैन बाबा साहब भीमराव आंबेडकर और उनके साथ क्रांतिकारी विचारक ज्योतिराव फुले के विचारों से प्रभावित रहे।
1980 में लखनऊ में एक सभा में उन्होंने कहा था कि ‘अगर इस देश में फुले पैदा न होते, तो बाबा साहब को अपना कार्य आरंभ करने में बहुत कठिनाई होती।’ कांशीराम ने बहुजन का विचार भी फुले की ‘शुद्रादिअतिशूद्र’ (ओबीसी और एससी) की अवधारणा का विस्तार करके ही हासिल किया। कांशीराम के बहुजन का अर्थ देश की तमाम वंचित जातियां और अल्पसंख्यक हैं, जिनका आबादी में 85 फीसदी का हिस्सा है।
कांशीराम मानते थे देश की इस विशाल आबादी को राजकाज अपने हाथ में लेना चाहिए। इसे वे सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना और देश के विकास के लिए अनिवार्य मानते थे। इसके लिए वे सामाजिक वंचितों के आर्थिक सबलीकरण के भी प्रबल पक्षधर रहे।