विचार / लेख
बेबाक विचार : डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जब से जो बाइडन अमेरिका के राष्ट्रपति बने हैं, चीन के राष्ट्रपति शी चिन फिंग से उनकी खुलकर बात पहली बार हुई है। यह बात डेढ़ घंटे चली। दोनों राष्ट्रपतियों ने अपने मामले बातचीत से सुलझाने की बात कही। दोनों ने जलवायु-प्रदूषण और परमाणु खतरे पर एक-जैसे विचार व्यक्त किए लेकिन दोनों राष्ट्रों के बीच कई मुद्दों पर जबर्दस्त टकराव है। इस समय पिछले कुछ वर्षों से अमेरिका और चीन के बीच वही माहौल बन गया है जो 50-60 साल पहले सोवियत रूस और अमेरिका के बीच था याने शीत युद्ध का माहौल ! दोनों देशों की फौजों की चाहे सीधी टक्कर दुनिया में कहीं भी नहीं हो रही है, लेकिन हर देश में चीनी और अमेरिकी दूतावास एक-दूसरे पर कड़ी नजर रख रहे हैं। दोनों देशों में एक-दूसरे के राजनयिकों पर भी काफी सख्ती रखी जाती है। संयुक्तराष्ट्र संघ में भी दोनों देशों के प्रवक्ता एक-दूसरे का विरोध करने से बाज नहीं आते। अमेरिका को डर है कि चीन उसे विश्व-बाजार में कहीं पटकनी नहीं मार दे। उसका सस्ता और सुलभ माल उसे अमेरिका के मुकाबले बड़ा विश्व-व्यापारी न बना दे। अमेरिका को डर है कि अगले 15-20 साल में चीन कहीं विश्व का सबसे मालदार देश न बन जाए।
अमेरिका को सामरिक खतरे भी कम महसूस नहीं होते। चीन जो अरबों-खरबों रु. खर्च करके रेशम-पथ बना रहा है, वह पूरे एशिया के साथ-साथ यूरोप और अफ्रीका में चीनी प्रभाव को कायम कर देगा। लातीनी अमेरिका, जिसे अमेरिका अपना पिछवाड़ा समझता है, वहाँ भी चीन ने अपने पाँव पसार लिये हैं। उसने एशिया में अमेरिका के हर विरोधी से गठजोड़ बनाने की कोशिश की है। ईरान-अमेरिका के परमाणु-विवाद का फायदा चीन जमकर उठा रहा है। उसने ईरान के साथ तगड़ा गठजोड़ बिठा लिया है। पाकिस्तान तो बरसों से चीन का हमजोली है। इन दोनों देशों की 'इस्पाती दोस्तीÓ अब अफगानिस्तान के तालिबान के ऊपर भी मंडरा रही है। भारत के सभी पड़ौसी देशों पर चीन ने डोरे डाल रखे हैं।
मध्य एशिया के पाँचों मुस्लिम गणतंत्रों के साथ उसके संबंध बेहतर बनते जा रहे हैं। अमेरिका को नीचा दिखाने के लिए आजकल चीन ने रूस से हाथ मिला लिया है। अमेरिका भी कम नहीं है। उसने दक्षिण चीनी समुद्र में चीनी वर्चस्व को चुनौती देने के लिए जापान, आस्ट्रेलिया और भारत के साथ मिलकर एक चौगुटा खड़ा कर लिया है। वह ताइवान के सवाल पर भी डटा हुआ है। जाहिर है कि इतने मतभेदों और परस्पर विरोधी राष्ट्रहितों के होते हुए दोनों नेताओं के बीच कोई मधुर वार्तालाप तो नहीं हो सकता था लेकिन एक-दूसरे के जानी दुश्मन राष्ट्रों के दो नेता यदि आपस में बात कर सकते हैं तो हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी हिम्मत क्यों नहीं जुटाते? यह ठीक है कि गलवान में हमारी मुठभेड़ हो गई लेकिन जब हमारे फौजी अफसर चीनियों से बात कर सकते हैं तो अपने मित्र शी चिन फिंग से, जिनसे मोदी दर्जन बार से भी ज्यादा मिल चुके हैं, सीधी बात क्यों नहीं करते ?
(लेखक, भारतीय विदेशनीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
(नया इंडिया की अनुमति से)