विचार / लेख

अनैतिक और आपराधिक के बीच कहीं फँसा है नेशनल हेराल्ड मामला, कोर्ट में आखिर क्या?
01-Dec-2025 8:40 PM
अनैतिक और आपराधिक के बीच कहीं फँसा है  नेशनल हेराल्ड मामला, कोर्ट में आखिर क्या?

-चित्रगुप्त

भारत में न्याय और राजनीति के बीच की दूरी हमेशा उतनी नहीं रहती जितनी संविधान चाहता है। कुछ मुकदमे अदालत में कम, और अखबारों व टीवी स्टूडियो में ज़्यादा लड़े जाते हैं। नेशनल हेराल्ड मामला भी पिछले दशक का वैसा ही एक मुकदमा है जहाँ तथ्य कम, और धारणाएँ ज़्यादा तैरती हैं। यह मामला एक पुरानी, बंद हो चुकी अखबारी कंपनी, उसके डूबे हुए कर्ज, एक नई बनाई गई गैर-लाभ कंपनी, और कांग्रेस नेतृत्व पर लगाए गए आरोपों का समुच्चय है। आरोप सरल शब्दों में यही है कि गांधी परिवार ने ‘यंग इंडियन’ नाम की कंपनी बनाकर ‘एसोसिएटिड जर्नल्स लिमिटेड’ की करोड़ों की संपत्तियों का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया। बचाव पक्ष का कहना है कि यह सिफऱ् एक बंद अखबार को जि़ंदा करने की कोशिश थी, कोई आर्थिक लाभ नहीं। समस्या यह है कि इस देश में राजनीति और लाभ एक ही सांस में सुने जाते हैं, और अदालतों में जाकर यह तय करना पड़ता है कि असल कहानी क्या है।

अगर पूरे मामले की परतें खोली जाएँ, तो कहानी कुछ ऐसी है। एसोसिएटिड जर्नल्स लिमिटेड (ए.जे.एल.) कभी वह कंपनी थी जो नेशनल हेराल्ड, नवजीवन और क्वामी आवाज जैसे अख़बार निकालती थी। धीरे-धीरे अखबार बंद होते गए और कंपनी कांग्रेस से लिया हुआ लगभग नब्बे करोड़ रुपये का कर्ज चुकाने में असमर्थ हो गई। वर्ष 2010 में कांग्रेस ने यह कर्ज ‘यंग इंडियन’ नाम की नई सेक्शन 25 (आज की सेक्शन 8) गैर-लाभ कंपनी को सौंप दिया, जिसने ए.जे.एल. से कहा-हम यह कर्ज अपने ऊपर ले रहे हैं, बदले में आपको यंग इंडियन के शेयर दे दीजिए। यंग इंडियन ने सिर्फ पचास लाख रुपये देकर ए.जे.एल. के नब्बे करोड़ रुपये वाले कर्ज का अधिकार हासिल कर लिया, और इसके बाद ए.जे.एल. की ज़मीन-जायदाद समेत पूरा नियंत्रण यंग इंडियन के हाथ चला गया। राहुल गांधी और सोनिया गांधी यंग इंडियन में छिहत्तर प्रतिशत हिस्सेदारी रखते हैं—यही वह तथ्य है जिसके आधार पर पूरा मामला खड़ा है। प्रवर्तन निदेशालय कहता है—यह ‘वित्तीय लाभ’ का मामला है। गांधी परिवार कहता है—लाभ कमाने वाली कंपनी ही नहीं है, तो लाभ कहाँ से आएगा?

 अब अदालत में असली सवाल यह है कि यंग इंडियन ने कोई अपराध किया या सिर्फ एक अजीब-सा कॉर्पोरेट पुनर्गठन प्रवर्तन निदेशालय का दावा है कि कांग्रेस के फ़ंड का इस्तेमाल ‘निजी फायदे’ के लिए हुआ और यह धन-शोधन की परिभाषा में आता है। परंतु धन-शोधन निरोधक क़ानून (पी.एम.एल.ए.) अत्यंत तकनीकी क़ानून है। उसके तहत तभी अपराध बनता है जब कोई ‘निर्दिष्ट मूल अपराध’ पहले सिद्ध हो। इस मामले में यदि आरोप है कि कंपनी का नियंत्रण गलत तरीके से लिया गया-तो पहले यह साबित करना होगा कि यह ‘अपराधजन्य संपत्ति’ थी। ए.जे.एल. कांग्रेस का कज़ऱ्दार था, जिसने अपनी सहमति से कज़ऱ् यंग इंडियन को सौंपा। धोखाधड़ी साबित करने के लिए किसी ‘पीडि़त’ का होना आवश्यक है और ए.जे.एल. के शेयरधारक वही थे जिन्होंने यह सौदा किया। ऐसे में यह कैसे सिद्ध होगा कि किसी को नुकसान हुआ? प्रवर्तन निदेशालय यहाँ ‘नियंत्रण को ही लाभ’ बता रहा है, जो राजनीतिक स्तर पर तीखा आरोप बनता है, लेकिन अदालत में इसे वास्तविक आर्थिक लाभ साबित करना कठिन है। यंग इंडियन अपने किसी निदेशक या हिस्सेदार को कोई लाभ बाँट ही नहीं सकती—उसका ढाँचा ही ऐसा है।

मामले की समस्या यह है कि यह कानूनी रूप से जितना धुँधला है, उतना ही राजनीतिक रूप से चमकीला। एक तरफ यह सवाल उठता है कि कांग्रेस ने नब्बे करोड़ का कर्ज पचास लाख में क्यों सौंपा-यह नैतिक रूप से निश्चित ही संदिग्ध है। पर दूसरी तरफ़ यह भी उतना ही महत्त्वपूर्ण प्रश्न है कि क्या हर संदिग्ध निर्णय अपराध माना जा सकता है? राजनीतिक दल हमेशा ट्रस्ट, संस्थाओं और विभिन्न संगठनों को पैसे देते रहते हैं। इस पर कोई स्पष्ट कानून नहीं, न ही चुनाव आयोग के दिशा-निर्देश पर्याप्त हैं। यही खामी सरकारों के हाथ में राजनीतिक हथियार बन जाती है और इसलिए यह मुकदमा कानून की बजाय राजनीति का औज़ार प्रतीत होता है।

 अब असली मुद्दा: क्या यह मामला अदालत में टिकेगा? कानूनी कसौटी पर तौलें तो उत्तर स्पष्ट दिखता है-बहुत कठिन है। पहला कारण-मामले में ‘अपराधजन्य धन’ का कोई ठोस सबूत नहीं है। न कोई रकम निजी खातों में गई, न कोई संदिग्ध बैंक रूट इस्तेमाल हुआ, न नकद का कोई लेन-देन सामने आया। दूसरा कारण-ए.जे.एल. को हुए किसी नुकसान का कोई सबूत नहीं है। तीसरा कारण-यह पूरा मामला सिविल विवाद जैसा दिखता है, जिसका समाधान कंपनी कानून में है, आपराधिक कानून में नहीं। अदालतें सामान्यत: वही आपराधिक मुकदमे आगे बढ़ाती हैं जिनमें ‘अपराध का इरादा’ स्पष्ट हो। यहाँ आर्थिक लाभ नहीं, केवल नियंत्रण है और नियंत्रण अपने आप में अपराध नहीं होता।

 क्या इसका मतलब यह है कि पूरा मामला राजनीतिक है? आंशिक रूप से हाँ। कांग्रेस ने निश्चित ही नैतिक रूप से एक खराब मिसाल पेश की। लेकिन खराब मिसाल और अपराध में ज़मीन-आसमान का फर्क़ है। अदालत नीयत से नहीं, सबूतों से चलती है। इस केस में अभी तक सबूत कमज़ोर हैं। इससे यह साफ़ है कि मुक़दमा लंबे समय तक राजनीतिक दबाव के औज़ार के रूप में चलता रहेगा, लेकिन अदालत में सफलता की संभावना कम है। यदि यह मुक़दमा अपने अंतिम निष्कर्ष तक पहुँचा, तो संभव है कि इसका परिणाम वैसा ही हो जैसा देश में कई राजनीतिक मामलों का होता आया है-बहुत शोर, बहुत राजनीतिक उपयोग, बहुत आरोप-प्रत्यारोप, लेकिन दोषसिद्धि नहीं।

इसलिए नेशनल हेराल्ड मामला राजनीति के लिए तो अत्यंत उपयोगी है, पर कानून की कसौटी पर इसे सिद्ध करना आसान नहीं दिखता। भारत की सार्वजनिक बहस में यह मामला ज़रूर जीवित रहेगा, पर न्यायालय में इसका अंतिम नतीजा अधिकतर हल्का रहेगा—यह अनुमान तथ्यों और कानून, दोनों से निकलता है। (chatgpt)


अन्य पोस्ट