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'छत्तीसगढ़' संवाददाता
रायपुर, 22 जून। छत्तीसगढ़ किसान सभा ने बोधघाट परियोजना का विरोध किया है और कहा है कि सिंचाई के नाम पर विनाश मंजूर नहीं है। उसकी जगह वैकल्पिक विकेंद्रीकृत लघु सिंचाई योजनाओं पर काम होना चाहिए। यदि सरकार वास्तव में आदिवासी हितों के प्रति चिंतित है, तो ईमानदारी से उसे पहले संविधान से सृजित आदिवासी अधिकारों की स्थापना करने की पहल करनी चाहिए।
आज यहां जारी एक बयान में छग किसान सभा के अध्यक्ष संजय पराते और महासचिव ऋषि गुप्ता ने कहा कि लगभग 50 गांवों तथा 14 हजार हेक्टेयर भूमि के डूबने, खरबों की संपत्ति के नष्ट होने तथा अकल्पनीय सामाजिक-पर्यावरणीय नुकसान के साथ 23 हजार करोड़ रुपये के निवेश की कीमत पर सिंचाई के नाम पर इस परियोजना के पक्ष में मुहर नहीं लगाई जा सकती। यह विकास का नहीं, वास्तव में विनाश का कारपोरेट मॉडल है।
उन्होंने कहा कि अभी तक इस परियोजना से वनों के विनाश के चलते होने वाले पर्यावरण और आदिवासी जनजीवन के नुकसान का आंकलन ही सामने नहीं आया है। वर्षों से डिब्बे में बंद पड़ी इस विवादास्पद परियोजना को जनता से पूछे बिना बाहर निकालना ही इस सरकार की मंशा पर सवाल खड़े करने के लिए काफी है, क्योंकि अनुभव यही बताता है कि कोई भी प्रोजेक्ट आम जनता या आदिवासियों की भलाई और विकास के नाम पर ही शुरू होता है और बाद में वही पृष्ठभूमि में धकेल दिए जाते हैं। बस्तर में एनएमडीसी और एस्सार आदि इसी बात के उदाहरण हैं।
उन्होंने कहा कि हालांकि राज्य सरकार का यह आश्वासन स्वागत योग्य है कि बस्तर की जनता की बात मानी जाएगी तथा पुनर्वास-व्यवस्थापन पहले होगा, लेकिन अतीत के कटु अनुभव को देखते हुए इस पर विश्वास करना कठिन है कि भविष्य में आने वाली कोई सरकार इस वादे पर अमल करने को बाध्य होगी। इस विश्वास को अर्जित करने के लिए पहले राज्य सरकार वनाधिकार कानून तथा अन्य शासकीय योजनाओं का क्रियान्वयन सुनिश्चित करें, ताकि वन भूमि व अन्य सरकारी भूमि पर काबिज सभी गरीबों लोगों को भूस्वामी हक मिले और किसी भी पात्र दावेदार को इससे वंचित न किया जाएं। इसके साथ ही भूमि सुधार कानून के तहत भूमिहीनों, सीमांत और गरीब किसानों को कृषि व आवास के लिए भूमि वितरण के काम को अपनी सरकार का एजेंडा बनाये।
किसान सभा नेताओं ने कहा कि यदि कांग्रेस सरकार को इस परियोजना को पुनर्जीवित करना ही था, तो वह अपनी परिकल्पना के साथ पहले जनता के पास आती और सहमति प्राप्त करती। इसके बजाय उसने पहले केंद्र के पास जाकर इस डिब्बाबंद परियोजना को क्रियान्वित करने की अनुमति ली है और अब वह जनता से सहमति मांग रही है। यह सरकार की उल्टी चाल है।