ताजा खबर

तेजस्वी यादव कहाँ चूक गए, अब आरजेडी की राह क्या होगी?
14-Nov-2025 10:15 PM
तेजस्वी यादव कहाँ चूक गए, अब आरजेडी की राह क्या होगी?

-रजनीश कुमार

बिहार में पहले चरण के मतदान से ठीक पहले बारिश हो रही थी. आसमान में बादल डेरा जमाए हुए थे. नेताओं को ले जा रहे हेलिकॉप्टरों के उड़ान भरने में मुश्किलें हो रही थीं.

एक नवंबर को महुआ में तेज प्रताप यादव आने वाले थे. उनके हेलिपैड के सामने भीड़ जमा थी. लोगों की नज़रें आसमान में थीं कि हेलिकॉप्टर कब लैंड करेगा. लेकिन आसमान में काले बादल घुमड़ रहे थे.

तभी तेज प्रताप की पीआर टीम ने कहा कि मौसम प्रतिकूल होने की वजह से तेज प्रताप उड़ान नहीं भर पाए.

उसी वक़्त महुआ में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की रैली चल रही थी. नीतीश सड़क मार्ग से महुआ पहुँचे थे. नीतीश मंच पर पहुँचे और बहुत लंबा भाषण नहीं दिया. वह एलजेपी (रामविलास) के उम्मीदवार के लिए यहाँ प्रचार करने पहुँचे थे.

एलजेपी (रामविलास) के उम्मीदवार संजय सिंह को आगे करते हुए कहा कि इन्हें वोट करेंगे न? माला पहना दें? लोगों ने हामी भरी और नीतीश ने माला पहना दी.

मौसम प्रतिकूल होने के कारण तेजस्वी ने भी कई रैलियां रद्द कीं लेकिन 77 साल के नीतीश कुमार ने हेलिकॉप्टर उड़ाने लायक मौसम का इंतज़ार नहीं किया.

आसान नहीं है राह
2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में तेजस्वी यादव ने 200 से ज़्यादा रैलियों को संबोधित किया था. वहीं इस बार तेजस्वी ने 100 से भी कम रैलियों को संबोधित किया.

तेजस्वी यादव शुरुआती रुझानों में अपनी सीट राघोपुर से भी आगे-पीछे हो रहे थे. आख़िरकार उन्होंने 14,532 वोटों से जीत दर्ज की. तेज प्रताप यादव तो महुआ में तीसरे नंबर पर चले गए.

राघोपुर में बीजेपी के सतीश कुमार ने तेजस्वी को कड़ी टक्कर दी. सतीश कुमार ने 2010 में राघोपुर से राबड़ी देवी को हराया था.

तेजस्वी यादव 2015 के विधानसभा चुनाव में राघोपुर से विधायक चुने गए. यह उनका पहला चुनाव था.

तब नीतीश कुमार और लालू यादव ने मिलकर चुनाव लड़ा था. चुनाव में इसी गठबंधन को जीत मिली और तेजस्वी पहली बार में ही प्रदेश के उपमुख्यमंत्री बन गए.

दो साल भी नहीं हुए कि नीतीश कुमार फिर से बीजेपी के साथ चले गए और तेजस्वी को 16 महीने बाद उपमुख्यमंत्री की कुर्सी छोड़नी पड़ी. उसके बाद वो विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बने.

इस छोटे से राजनीतिक करियर में तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के भी आरोप लगे. आईआरसीटीसी लैंड स्कैम केस में उन्हें अगस्त 2018 में बेल मिली थी.

ये मामला पटना में तीन एकड़ ज़मीन को लेकर है. इस ज़मीन पर एक मॉल प्रस्तावित है. लालू यादव पर आरोप है कि उन्होंने 2006 में रेल मंत्री रहते हुए एक निजी कंपनी को होटल चलाने का कॉन्ट्रैक्ट दिया और इसके बदले उन्हें महंगा प्लॉट मिला.

तेजस्वी के नेतृत्व में आरजेडी तीन चुनाव लड़ चुकी है. 2015, 2020 और 2025. साल 2015 में आरजेडी और नीतीश कुमार साथ थे और इस गठबंधन को जीत मिली थी.

आरजेडी 80 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी. 2020 में आरजेडी ने कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा और नीतीश कुमार बीजेपी के साथ आ गए थे. इस चुनाव में भी आरजेडी 75 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. लेकिन 2025 का चुनाव उनके नेतृत्व में आरजेडी के लिए 2010 की तरह रहा. 2010 में भी आरजेडी को महज़ 22 सीटों पर ही जीत मिली थी और इस बार भी इसी के आसपास जीत मिलती दिख रही है.

ऐसे में सवाल उठता है कि अब आरजेडी का क्या होगा? क्या तेजस्वी यादव वो मुकाम हासिल कर पाएंगे जो लालू यादव को 90 के दशक में मिला था?

आरजेडी के पूर्व नेता प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि कोई भी पार्टी एक जाति से नहीं चल सकती है और मुझे लग रहा है कि यादव भी आरजेडी के साथ अब पूरी तरह से एकजुट नहीं हैं.

प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ''दानापुर में अगर यादव पूरी तरह से आरजेडी के साथ होते तो रामकृपाल यादव की बढ़त नहीं होती बल्कि रीतलाल यादव की होती. राघोपुर में कांटे की टक्कर नहीं होती. पूर्णिया में लोकसभा चुनाव में आरजेडी की उम्मीदवार बीमा भारती महज़ 27 हज़ार वोट नहीं पातीं और पप्पू यादव जीत हासिल नहीं कर पाते.''

प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ''मुसलमान भी इनसे छिटक रहे हैं. हिना शहाब को सिवान में पिछले साल लोकसभा चुनाव में तीन लाख से ज़्यादा वोट मिले थे. ज़ाहिर है कि मुसलमानों ने इन्हें वोट किया था, जबकि वह आरजेडी की उम्मीदवार नहीं थीं. सीमांचल में ओवैसी की पार्टी पांच सीटें नहीं जीत पाती.''

लालू यादव इसी साल 24 जून को लगातार 13वीं बार राष्ट्रीय जनता दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष चुने गए थे. 28 साल पुरानी पार्टी का लालू यादव के अलावा कोई राष्ट्रीय अध्यक्ष नहीं रहा. 77 साल के लालू यादव सेहत से जुड़ी कई समस्याओं से जूझ रहे हैं.

लालू यादव सक्रिय राजनीति से भी दूर हैं लेकिन पार्टी में अब भी वह काफ़ी अहमियत रखते हैं. 10 मार्च 1990 को लालू यादव ने बिहार के 25वें मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी.

लालू यादव कॉलेज के दिनों से ही राजनीति में आ गए थे. पहला चुनाव लालू यादव ने 1977 में छपरा लोकसभा क्षेत्र से जीता था. तब लालू यादव की उम्र महज़ 29 साल थी.

महज़ 42 साल की उम्र में लालू यादव चार बड़े चुनाव जीत चुके थे. ये चुनाव थे, 1977 और 1989 में सांसदी के चुनाव और 1980, 1985 में बिहार में विधायक का चुनाव.

लालू यादव जब मुख्यमंत्री बने तो उनके शासन का अंदाज़ बिल्कुल नए तेवर में था. शुरुआती महीनों में लालू स्कूलों और सरकारी दफ़्तरों में अचानक दस्तक दे देते थे. सार्वजनिक रूप से नौकरशाहों को डांटते थे. ग़रीबों के साथ खाना खाते थे और गांवों में कैबिनेट की बैठक कर लेते थे.

लालू यादव ने मुख्यमंत्री बनने के बाद 1992 में मैथिली को बिहार की एक आधिकारिक भाषा का दर्जा ख़त्म कर दिया था.

90 के दशक में हिन्दुस्तान टाइम्स के पॉलिटिकल रिपोर्टर रहे संजय सिंह कहते हैं, ''मैथिली को ब्राह्मणों से जोड़कर देखा जाता था और लालू यादव के उदय से पहले बिहार की राजनीति में मैथिली ब्राह्मणों का दबदबा रहा था. कहा जाता है कि लालू यादव इस दबदबे को हर स्तर पर तोड़ना चाहते थे. लालू यादव ने पिछड़े, दलितों और अल्पसंख्यकों की हितैषी वाली छवि बनाई. दशकों की राजनीति के बावजूद लालू यादव इस छवि से बाहर नहीं निकलना चाहते हैं.''

लेकिन बिहार अब वह राज्य नहीं है, जिस पर कभी लालू यादव ने शासन किया था और न ही लालू यादव अब वह शख़्स हैं, जो कभी मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे थे. लालू यादव की सेहत ठीक नहीं रहती है और उनका किडनी ट्रांसप्लांट हुआ है. वह सक्रिय राजनीति से भी बाहर हैं.

संजय सिंह कहते हैं कि लालू यादव की दो तरह की विरासत है और एक विरासत तेजस्वी यादव पर हर चुनाव में भारी पड़ती है.

संजय सिंह कहते हैं, ''लालू यादव की एक विरासत तेजस्वी की मज़बूती है. वह विरासत है, लालू का एमवाय समीकरण. अब भी आरजेडी के साथ यादव और मुसलमान बने हुए हैं. दूसरी विरासत है कि लालू और उनकी पत्नी राबड़ी देवी के राज में बिहार पटरी पर नहीं था. तेजस्वी यादव अब भी इस राजनीतिक विरासत की छाया से बाहर नहीं निकल पाए हैं. जब-जब चुनाव क़रीब आता है, यह नैरेटिव मज़बूत हो जाता है कि यादवों के पास सत्ता आई तो वे क़ानून व्यवस्था अपने हाथ में ले लेंगे.''

संजय सिंह कहते हैं, ''तेजस्वी यादव के लिए आगे की राह बहुत मुश्किल है. उनके ऊपर चार दिसंबर से भ्रष्टाचार के मामले में ट्रायल शुरू होगा. परिवार के भीतर फूट पहले से ही है. लालू यादव की सेहत अच्छी है नहीं. लालू यादव का उभार तब हुआ था, जब कांग्रेस बिल्कुल कमज़ोर स्थिति में भी."

शिवानंद तिवारी का बयान ग्राफ़िक्स में
"1989 में भागलपुर दंगे के बाद मुसलमान विकल्प खोज रहे थे. लेकिन अब स्थिति बिल्कुल अलग है. बीजेपी बहुत मज़बूत पार्टी है. नीतीश कुमार के साथ रहने से बेहतरीन सामाजिक समीकरण बन जाता है. ऐसे में यादव और मुसलमान साथ होकर भी आरजेडी को जीत नहीं दिला पाते हैं.''

राष्ट्रीय जनता दल के वरिष्ठ नेता रहे और राबड़ी देवी की कैबिनेट में आबकारी मंत्री रहे शिवानंद तिवारी कहते हैं कि तेजस्वी यादव को अगर लगता है कि वह अपने पिता की राजनीति अभी के समय में कर लेंगे तो यह उनका ग़लत आकलन है.

शिवानंद तिवारी कहते हैं, ''तेजस्वी यादव ने पूरी पार्टी को वन मैन शो बना दिया है. पार्टी का पूरा कैंपेन देखिए तो एक व्यक्ति की परिधि में रहा. लालू यादव के वक़्त में भी यही हाल था. अब तो परिवार के भीतर ही सत्ता को लेकर संघर्ष शुरू हो गया है. मैं राबड़ी देवी की सरकार में मंत्री था और मुझे पता है कि सरकार कैसे चलती थी. अगर लोग कहते हैं कि लालू राज में क़ानून व्यवस्था एक परिवार के हाथ में आ जाती है, तो इसमें तथ्य भी हैं.''

शिवानंद तिवारी कहते हैं, ''तेजस्वी यादव के साथ यादव हैं. मुसलमान मजबूरी में साथ हैं.''

टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस में प्रोफ़ेसर रहे पुष्पेंद्र कहते हैं कि राष्ट्रीय जनता दल अपने साथ नए मतदाताओं को नहीं जोड़ पा रहा है.

पुष्पेंद्र कहते हैं, ''आप एनडीए को देखिए तो उसके साथ यादव और मुसलमान छोड़कर सारी जातियां हैं. लेकिन आरजेडी अपने साथ नए मतदाताओं को नहीं जोड़ पा रही है. लालू यादव का उभार तब हुआ, जब बिहार सामंती जकड़ में था. लालू यादव ने इस जकड़न पर चोट की और तोड़ा भी. लालू यादव को पता था कि इसके दम पर दस साल तो शासन किया ही जा सकता है. लेकिन सामंतवाद कमज़ोर होने के बाद लालू यादव को जो करना था, वो नहीं कर पाए. नीतीश कुमार ने कोई क्रांतिकारी बदलाव नहीं किया लेकिन सड़क और बिजली का श्रेय तो उन्हें दे ही सकते हैं.''

पुष्पेंद्र कहते हैं, ''विपक्ष तो वादा ही कर सकता है लेकिन सत्ताधारी पार्टी के पास अपने वादों को लागू करने का अधिकार होता है. मैं ये कहना चाह रहा हूं कि महागठबंधन या इंडिया गठबंधन के कई अच्छे वादों को एनडीए ने अपनी सरकारों में लागू किया है."

"बिहार में 40 लाख से ज़्यादा स्कीम वर्कर हैं. यानी मिड डे मील बनाने वाले, आंगनबाड़ी और अन्य तरह के कर्मचारी, जिनकी सैलरी चुनाव से पहले दोगुनी कर दी गई. जीविका से जुड़ी बिहार की लाखों महिलाओं के खाते में 10-10 हज़ार रुपये ट्रांसफ़र किए गए. दूसरी तरफ़ तेजस्वी यादव जो वादे कर रहे थे, उन पर किसी ने भरोसा नहीं किया. जैसे बिहार में हर परिवार के एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी. इस पर कौन भरोसा करता?''

पुष्पेंद्र कहते हैं कि आरजेडी को परिवार की परिधि से बाहर निकलना होगा और उसे यह भी समझना होगा कि यादवों को भी हिन्दुत्व की राजनीति रास आ रही है.

पुष्पेंद्र कहते हैं, ''मुसलमान आरजेडी के साथ मजबूरी में हैं और यादवों के लिए भी हिन्दुत्व की राजनीति अछूत नहीं है. ऐसे में ये नए वोटर जोड़ने के बदले अपना पुराना वोट बैंक भी खो सकते हैं.'(bbc.com/hindi)


अन्य पोस्ट