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सिद्धार्थ-जाह्नवी की परम सुंदरी में ऐसा क्या है जिससे छिड़ गई है बहस
08-Sep-2025 2:02 PM
सिद्धार्थ-जाह्नवी की परम सुंदरी में ऐसा क्या है जिससे छिड़ गई है बहस

-मेरिल सेबेस्टियन और अनाहिता सचदेव

बॉलीवुड की एक नई फि़ल्म ने एक बार फिर से इस बहस को हवा दे दी है कि देश का सबसे बड़ा और प्रभावशाली फि़ल्म उद्योग गैर-हिंदी भाषी रायों के किरदारों को किस तरह पेश करता है।

सिद्धार्थ मल्होत्रा और जाह्नवी कपूर अभिनीत रोमांटिक कॉमेडी फि़ल्म परम सुंदरी, दक्षिण भारत के राय केरल की एक महिला और उत्तर भारत के दिल्ली के एक पुरुष की प्रेम कहानी है। परम और सुंदरी पहले आपस में झगड़ते हैं और फिर प्यार में पड़ जाते हैं। इसके बाद फि़ल्म में ये दोनों अपने बीच के सांस्कृतिक मतभेदों को सफलतापूर्वक पार कर लेते हैं। यह विचार बिल्कुल नया नहीं है। बॉलीवुड लंबे समय से उत्तर-दक्षिण के सांस्कृतिक अंतर को रोमांटिक कॉमेडी के ज़रिए दिखाता आया है। आलोचक मानते हैं कि बहुभाषी देश में अगर इस तरह की कहानियां संवेदनशीलता के साथ दिखाई जाएं तो वो हिट साबित हो सकती हैं। हालांकि केरल और दक्षिण भारत के आलोचकों और सोशल मीडिया पर लोगों ने इस फि़ल्म की आलोचना की है। उनका कहना है कि केरल की छवि को सतही तौर पर दिखाया गया है। फि़ल्म की नायिका सुंदरी के व्यंग्यात्मक चित्रण को लेकर भी आलोचना की जा रही है। इस? फि़ल्म में जाह्नवी कपूर यानी सुंदरी अक्सर अपने बालों में चमेली के फूलों का गजरा पहनती हैं। वो हाथियों से बातचीत करती हैं और नारियल के पेड़ों पर चढऩा उनका शौक है। ये वो स्टीरियोटाइप हैं, जिन्हें अक्सर केरल से जोड़ा जाता है। फि़ल्म में दिखाया गया है कि सुंदरी का किरदार निभा रही जाह्नवी कपूर केरल में पली-बढ़ी हैं, लेकिन उसकी मलयालम बेहद कमज़ोर दिखाई गई है। दरअसल फि़ल्म का ट्रेलर सामने आते ही इसकी आलोचना शुरू हो गई थी। कई दर्शक इस बात से भी हैरान हैं कि सुंदरी का किरदार अपने ही नाम का सही उचारण तक नहीं कर पा रहा है। इसे लोग वि?वादित फि़ल्म द केरला स्टोरी में दिखाई गई शालिनी उन्नीकृष्णन (अदा शर्मा अभिनीत) के किरदार से जोडक़र देखने लगे हैं। दोनों फि़ल्मों में एक जैसी बात सामने आती है। केरल में पली-बढ़ी नायिकाएं बातचीत में हिंदी बोलती हैं लेकिन ये अछे से मलयालम नहीं बोल पाती हैं। फि़ल्म परम सुंदरी की शुरुआत में ही एक दृश्य विवाद का कारण बन गया है। फि़ल्म में दिखाया गया है कि जब परम का दोस्त सुनता है कि वे केरल के एक गांव नांगियारकुलंगरा जा रहे हैं, तो वह नाम को तोड़मरोड़ कर उचारित करता है और मज़ाक में पूछता है, वो कहां है? अफ्रीका? आलोचकों का कहना है कि इस तरह का संवाद स्टीरियोटाइप को बढ़ावा देता है और इसमें नस्लवाद के सामान्यीकरण की झलक भी दिखाई देती है। केरल पहुंचने के बाद फि़ल्म वहां की तस्वीरें दिखाने में लग जाती है। कहानी में बैकवॉटर्स, चारों ओर दिखाई देने वाले नारियल के पेड़, वहां की देशी शराब, हाथी और सबसे लोकप्रिय त्योहार ओणम की तस्वीरों को तेज़ी से एक-एक कर दिखाया जाता है। आलोचकों का कहना है कि यह एक तरह से पर्यटक के दृष्टिकोण से बनी चेकलिस्ट जैसी लगती है, जिसमें राय की वास्तविक विविधता को नजऱअंदाज़ कर दिया गया है। एक समीक्षक ने फि़ल्म को केरल टूरिज़्म का विज्ञापन बताते हुए टिप्पणी की कि यह किसी भी सांस्कृतिक बारीकियों की संभावना को ख़त्म कर देती है। फि़ल्म में नारियल से जुड़े भरपूर मज़ाकिया दृश्य हैं। परम और सुंदरी की पहली मुलाक़ात नारियल के एक पेड़ के पास होती है। सुंदरी नारियल तोडक़र अपना गुस्सा निकालती है, और अंत में वह एक पेड़ के ऊपर से अपने प्यार का इज़हार करता है।

कई दर्शकों के लिए सांस्कृतिक असलियत की कमी कोई बड़ी समस्या नहीं है। बिहार के रहने वाले राजीव परम सुंदरी को ऐसी मज़ेदार फि़ल्म के रूप में देखते हैं जो उन्हें अनजानी संस्कृति से परिचित कराता है। उनका कहना है कि फि़ल्म में दिखाई गई चीजें भले ही हकीकत से मेल न खाती हों लेकिन पूरी तरह से वास्तविकता दिखाने के चक्कर में फि़ल्म बोझिल हो सकती है। राजीव ने कहा, शायद यह धीरे-धीरे बदलेगा लेकिन फि़ल्म को रोचक बनाने के लिए इतनी कलात्मक स्वतंत्रता ठीक है। दूसरी ओर, कई लोगों का मानना है कि दर्शकों को संस्कृति से परिचित कराने का फि़ल्म का प्रयास आधा-अधूरा है। समीक्षक सौम्या राजेन्द्रन ने फि़ल्म को साधारण, थकाऊ और आपत्तिजनक करार दिया है। उन्होंने लिखा कि यह फि़ल्म घिसी-पिटी कहानी को एक्सॉटिक केरल की पृष्ठभूमि के पीछे छिपाती है और संगीत के ज़रिए इस धरती के अनजाने पहलू को ज़रूरत से ज़्यादा उभारती है। कास्टिंग को लेकर फि़ल्मों को आलोचना झेलनी पड़ती है, लेकिन कई बार वे बॉक्स ऑफि़स पर सफल भी हो जाती हैं। उदाहरण के तौर पर, 2013 में आई फि़ल्म चेन्नई एक्सप्रेस को समीक्षकों की कठोर आलोचना झेली पड़ी, फिर भी कमाई के मामले में फि़ल्म ने सफलता हासिल की। 2014 में जब मेरी कॉम फि़ल्म के निर्माताओं ने मणिपुर की ओलंपिक पदक विजेता मुक्केबाज़ का किरदार निभाने के लिए प्रियंका चोपड़ा को चुना, तो इस पर भी कड़ी आपत्तियां दर्ज की गईं। खुद प्रियंका चोपड़ा ने बाद में माना कि पीछे मुडक़र देखें तो यह भूमिका उत्तर-पूर्व की किसी अभिनेत्री को मिलनी चाहिए थी। इसके बावजूद फि़ल्म सफल रही और प्रियंका को उनके दमदार अभिनय के लिए पुरस्कार भी मिला। वहीं, 1968 की फि़ल्म पड़ोसन में महमूद द्वारा निभाया गया एक तमिल गायक का किरदार आज भी क्लासिक माना जाता है। महामारी के बाद भारतीय मनोरंजन का परिदृश्य बदल गया है। सिनेमाघरों के बंद होने और ऑनलाइन स्ट्रीमिंग प्लेटफ़ॉर्म के बढऩे के कारण बॉलीवुड हिट फिल्में बनाने में संघर्ष कर रहा है और बड़े बजट की फ्लॉप फि़ल्मों ने इसकी बादशाहत को भी हिला दिया है।

अब गैर-हिंदी फि़ल्में नेटफ्लिक्स और अमेजऩ प्राइम वीडियो जैसे प्लेटफ़ॉर्म्स के ज़रिए पूरे देश तक  डब संस्करणों की मदद से इन फि़ल्मों को नए दर्शक मिल रहे हैं, जबकि बॉलीवुड की बड़ी फि़ल्में अब सिनेमाघरों में पहले जैसी पकड़ नहीं बना पा रही हैं। रिलीज़ के बाद से परम सुंदरी ने धीमी लेकिन स्थिर कमाई की है, वहीं मलयालम महिला-सुपरहीरो फि़ल्म लोकाह अपनी नई कहानी और बेहतरीन प्रस्तुतिकरण की सराहना के साथ सुपरहिट बन गई है। परम सुंदरी पर अपने लेख में लेखिका क्रिस ने बताया है कि किस प्रकार अनेक भारतीय फि़ल्म उद्योग, अपनी संस्कृति से बाहर की भूमिकाएं निभाने वाले अभिनेताओं को स्वीकार करते हैं।

वह लिखती हैं, जब पात्र किसी राय या उसके लोगों के कार्टून जैसे लगते हैं, तो दर्शक बुरा मान जाते हैं।

परम सुंदरी अपनी कहानी में संतुलन बनाए रखने की कोशिश करती है। सुंदरी एक से ज़्यादा बार परम और उसके दोस्त को अपनी स्थिति के बारे में उनकी धारणाओं के बारे में समझाती है। एक बार तो वह उन्हें अज्ञानी, अनपढ़, घमंडी और हक़दार की तरह व्यवहार करने के लिए उनकी आलोचना करते हुए उत्तर भारतीयों के पूर्वाग्रह दिखाती है।

फिल्में सांस्कृतिक विविधता का बेहतरीन उदाहरण

विश्लेषकों का कहना है कि भारत के गतिशील समाज में फिल्में सांस्कृतिक विविधता के कई बेहतरीन उदाहरण पेश कर रही हैं।

गोधा (2017) केरल में एक पंजाबी पहलवान की दो सांस्कृतियों के बीच पनपी रोमांस की कहानी को कुशलतापूर्वक प्रस्तुत करती है।

अक्सोन (2019) उत्तर-पूर्व भारत के लोगों द्वारा झेले जाने वाले भेदभाव को हास्यपूर्ण अंदाज़ में दिखाती है। कऱीब कऱीब सिंगल (2017) मुंबई में एक मलयाली महिला की कहानी है। वहीं कान्स विजेता ऑल वी इमेजिन ऐज़ लाइट (2024) प्रवासियों के संघर्षों को बारीकी से पेश करती है।

 

बॉलीवुड अकेला नहीं है। लेखिका और कवयित्री अलीना के अनुसार, मलयालम सिनेमा में अक्सर जनजातियों, दलितों (पहले अछूत) और तमिल पात्रों को रूढि़वादी ढंग से चित्रित किया गया है, जबकि हिंदी बोलने वालों को दक्षिण भारतीय फि़ल्मों में कार्टून जैसी छवि में पेश किया जाता है।

अलीना का मानना है कि यह पावर डायनामिक्स और प्रतिनिधित्व का बड़ा सवाल है। वह किसी समुदाय की अपनी कहानियों को आकार देने में उसकी भूमिका पर ज़ोर देती हैं उनका कहना है कि किसी समुदाय की कहानियों में उस समुदाय की वास्तविक आवाज़ को शामिल किए बिना उसका चित्रण असंतुलित और पक्षपाती हो सकता है। अलीना कहती हैं, हमें लोगों को उस कला का सक्रिय सहभागी या फिर हिस्सेदार बनना चाहिए, जिसे हम बनाने की कोशिश कर रहे हैं।

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित (bbc.com/hindi/)

 

 


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