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छत्तीसगढ़ के बालोद में नासिक के विख्यात त्र्यंबकेश्वर मंदिर की तरह का एक विशाल मंदिर बनकर तैयार हुआ है जिसे पड़ोस के धमतरी जिले के रहने वाले एक व्यक्ति ने खेत बेच-बेचकर तीन करोड़ रूपए से बनवाया है। पिछले 21 बरस में यह 80 फीट की ऊंचाई का विशाल मंदिर बना है, और अगले बरस की शिवरात्रि तक सारी प्रतिमाएं आकर इसमें प्राण-प्रतिष्ठा की बात इसे बनवाने वाले ने कही है। दिलचस्प बात यह है कि इतने बड़े मंदिर का निर्माण बिना किसी नक्शे या डिजाइन के हुआ है, और न ही इसमें कोई आर्किटेक्ट या इंजीनियर रहे हैं। दैनिक भास्कर में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक 2004 से धमतरी के एक व्यक्ति ने इसे दो मिस्त्री, और गांव के कुछ मजदूरों को लेकर बनाना शुरू किया, और अब यह 8 मंजिला इमारत जितनी ऊंचाई का बड़ा सा मंदिर बना है।
अखबार की रिपोर्ट में इस बात पर कोई हैरानी जाहिर नहीं की गई है कि अगर इसकी कोई डिजाइन नहीं थी, कोई इंजीनियर नहीं था, तो फिर इसे किसी सरकारी विभाग से इजाजत भी नहीं मिली होगी। अब नासिक के विख्यात मंदिर की इस प्रतिकृति को देखने के लिए, और धार्मिक भावना से पूजा-पाठ के लिए जाहिर है कि यहां त्यौहारों पर, और खासकर सावन में, शिवरात्रि पर हजारों लोग जुटेंगे। उस वक्त इतनी भीड़ के बीच यह ढांचा कितना मजबूत रहेगा, इसकी जवाबदेही किस पर रहेगी? यह तो किसी धर्मालु के लिए बड़ी अच्छी बात है कि वह अपने खेत बेचकर मंदिर बनवाए, या कोई और उपासना स्थल बनवाए। आमतौर पर तो धार्मिक काम बताकर लोग चंदा इकट्ठा करते हैं, और कई जगहों पर उस रकम में अफरा-तफरी हो जाती है। ऐसे में अपने खेत बेचकर मंदिर बनवाना एक नैतिक ईमानदारी है, लेकिन सवाल सार्वजनिक सुरक्षा का है। और यह हमारी तरह दूर बैठे हुए लोगों की सुरक्षा की बात नहीं है, यह इस मंदिर को मानने वाले धर्मालुओं की सुरक्षा की बात है, और हमारी इस बात को आलोचना की तरह न मानकर एक चेतावनी या सलाह की तरह मानना चाहिए कि धर्मालुओं की भीड़ जहां लगनी है, वहां 8 मंजिला इमारत जितना ऊंचा मंदिर का विशाल ढांचा बिना डिजाइन, बिना इंजीनियर, बिना इजाजत बना लेना कितनी समझदारी और जिम्मेदारी की बात है?
धर्म से जुड़े हुए जितने निर्माण होते हैं, उनमें से अधिकतर अवैध कब्जे की जमीन पर होते हैं, और इसीलिए बिना किसी सरकारी इजाजत के भी होते हैं। चूंकि कोई नक्शा दाखिल ही नहीं करना है, इसलिए कोई भी मिस्त्री या ठेकेदार अपने अनुभव से ऐसे ढांचे बना देते हैं, और वे खासे अरसे बिना हादसे के चल भी जाते हैं। लेकिन ऐसे मामलों में सरकार की जिम्मेदारी क्या बनती है? हम छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगे हुए अमलेश्वर में नदी के किनारे उसकी चौड़ाई में ही कई मंजिला एक धार्मिक इमारत बनते देखते आए हैं। यह पिछले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का चुनाव क्षेत्र भी है, और वे पूरे पांच बरस इस निर्माण को देखते हुए ही आते-जाते रहे होंगे। यह शायद उनकी विधानसभा सीट का एकदम सडक़ किनारे का सबसे बड़ा धार्मिक निर्माण भी रहा होगा, और हमारा पूरा अंदाज है कि नदी से लगकर, सडक़ से लगकर इतने बड़े निर्माण की इजाजत नहीं मिल सकती थी। यह हाल देश के अधिकतर प्रदेशों में है, और किसी धर्म के अवैध निर्माण को छूने का हौसला किसी सरकार में नहीं दिखता। सुप्रीम कोर्ट बार-बार यह बात कह चुका है कि किसी भी सार्वजनिक जगह पर कोई धार्मिक अवैध निर्माण नहीं होना चाहिए, लेकिन हमने एक भी धार्मिक अवैध निर्माण को हटाया जाता नहीं देखा है।
कोई छोटे-मोटे धार्मिक अवैध निर्माण हों तो समझ आता है, लेकिन जब करोड़ों रूपए लगाकर 80 फीट ऊंचा मंदिर बनाया जा रहा है, तो क्या उस जिले के कलेक्टरों को इन 21 बरसों में यह नहीं दिखा कि ऐसा निर्माण जब भक्तों से भरेगा, तो उनकी हिफाजत की गारंटी किसकी रहेगी? शायद ही किसी धर्म का कोई ऐसा उपासना स्थल हो जिसका कोई नक्शा पास होता हो। जो सौ-दो सौ बरस, या और अधिक पुराने धर्मस्थान हैं, उनके बनते समय तो म्युनिसिपलों के नियम नहीं रहे होंगे, लेकिन अभी तो पिछले सौ-पचास बरसों से ये नियम चले आ रहे हैं, और ये जनता की हिफाजत के लिए है। किसी भगदड़ के बात मौतों की न्यायिक जांच करवाने से जिंदगियां नहीं लौटतीं। फिर किसी एक धर्म का अवैध निर्माण दूसरे धर्मों के अवैध निर्माणों को भी बढ़ावा देता है, और अपने धर्म के भीतर भी कुछ दूसरे उत्साही दानदाता पहले वाले से बढक़र कुछ बनाने में लग जाते हैं। ऐसा सार्वजनिक मुकाबला एक खतरे के बाद दूसरा खतरा खड़ा करता है।
अब सवाल यह उठता है कि जिस प्रशासन को ऐसे निर्माण पर पहले दिन से कार्रवाई करनी थी, उसने तो 21 बरस गुजर जाने पर भी इतने विशाल ढांचे का निर्माण जारी रहने दिया है, जिसके बारे में बनाने वाले का ही कहना है कि उसका कोई भी इंजीनियर या आर्किटेक्ट नहीं है। अब अगर सिर्फ मिस्त्री और मजदूर ऐसा विशाल ढांचा बना सकते हैं, तो फिर म्युनिसिपल और सरकार को किसी भी तरह के नक्शे का नियम क्यों रखना चाहिए? वोटरों को नाराज करने से कतराते चलने वाले नेताओं से इस बारे में कुछ नहीं होगा, और न ही उन नेताओं के मातहत उनके ताबेदार बनकर काम करने वाले अफसरों से कुछ होगा, सिर्फ अदालत यह पूछ सकती है कि इस ढांचे की, और ऐसे दूसरे धार्मिक ढांचों की कानूनी स्थिति क्या है। यह छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट की अपनी जिम्मेदारी इसलिए बनती है कि तकरीबन तमाम धार्मिक ढांचे सुप्रीम कोर्ट के बहुत साफ-साफ फैसले के खिलाफ बनते हैं, और जब ऐसी खबरें सार्वजनिक रूप से बाहर आती हैं, तो यह हाईकोर्ट की जवाबदेही रहती है कि उसका नोटिस ले। देखते हैं ऐसे मामलों में क्या होता है, और कम से कम इस अनूठे दान की तारीफ करने वाले बाकी पत्रकारों को यह बुनियादी सवाल भी पूछना चाहिए कि अगर इसमें कोई तकनीकी राय नहीं ली गई है, नक्शा पास नहीं कराया गया है, तो लोगों की हिफाजत की क्या गारंटी है? सरकार के नियम तो बिना नक्शा पास कराए चार लोगों के रहने वाले घर की इजाजत भी नहीं देते, और यहां तो हजारों की भीड़ जुटने का सामान खड़ा हो गया है, इतना बुनियादी सवाल तो अखबारों की जिम्मेदारी बनता है।