-गीता पांडे
बीवी रसोईघर में सब्जियाँ काट और छील रही है. कुछ पीस रही है. खाना बना और परोस रही है. बर्तन धो रही है. फर्श पर झाड़ू लगा रही है और सफ़ाई कर रही है. पति आराम से बैठ कर योग कर रहा है. सांस अंदर-बाहर कर रहा है. यह मलयालम भाषा में बनी एक कम बजट की फ़िल्म 'द ग्रेट इंडियन किचन' की कहानी है.
इस फ़िल्म ने बड़ी ख़ूबसूरती से भारतीय परिवार के अंदर मौजूद पितृसत्तात्मकता को दिखाया है और रोज़मर्रा की ज़िंदगी में मौजूद उसकी भयावहता पर रौशनी डाली है.
इसे पहले से ही 'साल की एक उल्लेखनीय फ़िल्म' कहा जा रहा है. यह फ़िल्म 'इज़्ज़तदार' मध्यमवर्गीय घरों के अंधेरे रसोईघरों की कहानी दिखाती है. केरल में इस फ़िल्म पर काफ़ी चर्चा हो रही है. सोशल मीडिया पर भी घरों में मौजूद लैंगिक भेदभाव को लेकर कई मुश्किल सवाल उठाए जा रहे हैं.
इस फ़िल्म के डायरेक्टर जीयो बेबी कहते हैं कि, "यह हर जगह की कहानी है. रसोईघर में एक महिला का संघर्ष भारत के लगभग सभी महिलाओं की कहानी है. पुरुष सोचते हैं कि महिलाएँ किसी मशीन की तरह होती हैं. वे चाय बनाने से लेकर कपड़े धोने से लेकर बच्चों के पालने तक सभी काम करती हैं."
वो बताते हैं कि 'द ग्रेट इंडियन किचन' की प्रेरणा उन्हें अपने रसोईघर से मिली. वो सुनाते हैं, "2015 में शादी होने के बाद मैं रसोईघर में बहुत सारा वक्त गुजारने लगा क्योंकि मैं लैंगिक समानता में विश्वास करता हूँ. तब मुझे यह एहसास हुआ कि खाना बनाने में बहुत झेलना पड़ता है."
वो कहते हैं कि कुछ ही वक्त के बाद वो "किचन की मुश्किलों, एकरसता और दोहरावपन से छुटकारा पाने की सोचने लगे."
वो कहते हैं, "मैं ऐसा महसूस कर रहा था कि मैं किसी जेल में फंस गया हूँ. और फिर तभी मैं उन महिलाओं के बारे में सोचना शुरू किया कि जो इस चक्र से बाहर नहीं आ सकती हैं. इस एहसास ने मुझे परेशान करना शुरू कर दिया."

JEO BABY
फ़िल्म की शुरुआत एक शादी से होती है. ज़्यादातर भारतीय शादियों की तरह यह भी एक अरेंज मैरेज है. इसमें दुल्हन और दूल्हे की मुख्य भूमिका में निमिशा सजयान और सूरज वेंजरामुडु हैं.
शादी से पहले इनकी बस एक बार परिवार की मौजूदगी में मुलाकात और बातचीत होती है.
शादी में आए मेहमानों के जाने के बाद रोज़मर्रा की जद्दोजहद शुरू होती है. नई दुल्हन अपनी सास के साथ रसोईघर का रुख़ करती है. उसका काम यह देखना है कि उसका पति अच्छे से खाए-पीए और ख़ुश रहे.
क्योंकि वो मशहूर कहावत है कि ना कि पति के दिल का रास्ता उसके पेट से होकर जाता है.
रात में बिस्तर पर भी उसकी ज़िंदगी उतनी ही बदतर है. उससे इस बात की उम्मीद की जाती है कि वो रात में सेक्स करने के लिए तैयार रहेगी भले ही उसकी इच्छा हो या ना हो. भारतीय पितृसत्तात्मक व्यवस्था में महिलाओं की दिल की बात के लिए बहुत कम जगह है.
यह फ़िल्म नीस्ट्रीम ऐप पर दिखाई जा रही है. नेटफ्लिक्स और अमेज़न ने इसे अपने प्लेटफॉर्म पर दिखाने से इनकार कर दिया था. इस फ़िल्म को समीक्षकों ख़ासकर महिलाओं की तरफ़ से काफ़ी सराहना मिल रही है.
इरिंजालकुडा शहर के क्राइस्ट कॉलेज की अंग्रेज़ी की असिस्टेंट प्रोफ़ेसर क्लिंटा पीएस बीबीसी से कहती हैं, "यह काफ़ी ख़ुद को जोड़ने का एहसास दिलाने वाली फ़िल्म है. फ़िल्म में कोई हिंसा नहीं है. किसी को बुरा नहीं दिखाया गया है. यह हमारे घरों में गहराई से मौजूद असंवेदनशीलता का वास्तविक चित्रण है."
प्रोफ़ेसर क्लिंटा कहती हैं कि उन्होंने अपनी माँ और दूसरी औरतों को रसोईघर में जूझते हुए देखा है क्योंकि केरल जैसे राज्य में खाना "बहुत बड़े पैमाने" पर बनता है.
"वे सब्जी काटना, मसाला पीसना, गार्निशिंग और धुलाई करने जैसे कई काम करती हैं. इसमें बहुत समय लगता है. इसे थोड़ा सामान्य स्तर पर किया जा सकता है लेकिन हम नहीं करते हैं. क्योंकि एक महिला को यह कहा जाता है कि उसके लिए उसका पति और परिवार ही सब कुछ है. उनका वजूद सिर्फ़ उन्हें ही ख़ुश रखने के लिए है. उन्हें सुपरवुमन बनने को कहा जाता है."

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प्रगतिशील केरल महिलाओं के मामले में पितृसत्तात्मक
केरल देश के सबसे प्रगतिशील राज्यों में से है. केरल के बारे में अक्सर कहा जाता है कि वो देश का इकलौता ऐसा राज्य है जहाँ 100 फ़ीसद साक्षरता है.
यहाँ बड़े पैमाने पर महिलाएँ संगठित क्षेत्रों में काम करती हैं. लेकिन क्लिंटा कहती हैं कि केरल का समाज भी उतना ही पितृसत्तात्मक है जितना कि देश के बाक़ी हिस्से.
वो कहती हैं, "केरल में हम महिला सशक्तीकरण की बात करते हैं. बड़े पैमाने पर महिलाएँ यहाँ काम पर जाती हैं लेकिन दिन ख़त्म होने पर उन्हें वो घर के सारे वो काम करने पड़ते हैं. एक बेहद प्रगतिशील और शिक्षित परिवार में भी यही देखने को मिलता है."
क्लिंटा बताती हैं कि उनके अपने घर में किसी भी तरह की कोई लैंगिक भेदभाव नहीं है. वो और उनके पिता दोनों ही घर का काम मिलकर करते हैं. लेकिन उनके अपने माता-पिता के घर में मामला अलग है. उनके पति उनके स्कूल के दोस्त रहे हैं.
वो कहती हैं, "पुरुष लैंगिक समानता की बात को लेकर सजग तो हैं लेकिन उनके अपने घर में यह उतना मायने नहीं रखता. ज़्यादातर भारतीय मर्दों की तरह मेरे पिता भी दोहरे मापदंड रखते हैं. मेरी उनसे माँ के प्रति रवैये को लेकर गर्मागर्म बहस हो जाती है. वो एक मॉडर्न और प्रगतिशील पुरुष हैं लेकिन घर में मेरी माँ ही घर के सारे काम अकेले करती हैं."
केरल में एक मशहूर कहावत है कि, "आप भले ही प्रगतिशील हो लेकिन अपनी प्रगतिशीलता घर के दरवाज़े पर रखिए."
घरों में लैंगिक समानता को लेकर बहस

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भारत में दुनिया के दूसरे हिस्सों की तरह ही देखभाल का काम महिलाओं के कंधों पर ही आता है. इसके लिए उन्हें किसी भी तरह का कोई भुगतान भी नहीं होता.
अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक़ साल 2018 में भारत में महिलाओं ने जहाँ अवैतनिक देखभाल के कार्य पर 312 मिनट खर्च किए थे तो वहीं पुरुषों ने इस काम पर अपने 29 मिनट खर्च किए.
ये वो हालात हैं जो 'द ग्रेट इंडियन किचन' अपने संदेश में बदलना चाहता है.
जीयो बेबी कहते हैं, "महिलाएँ पुरुषों के बनाए जेल में रह रही हैं. पुरुष निर्णय लेते हैं और महिलाएँ मज़दूर हैं. इसके लिए उन्हें कोई पैसा भी नहीं मिलता."
"फ़िल्म के माध्यम से मैं महिलाओं को कहना चाहता हूँ कि आप इस जेल से बाहर आइए. क्यों बर्दाश्त करते रहती हैं आप? यह आपकी भी दुनिया है. इसका आप भी आनंद लीजिए."
वास्तव में बदलाव आने में अभी वक़्त लगेगा, लेकिन 'द ग्रेट इंडियन किचन' ने ज़रूर घरों में लैंगिक समानता को लेकर बहस को जन्म दिया है.
मेरे एक मलयाली सहकर्मी ने मुझे बताया कि उनके सभी दोस्त और उनके परिवार अपने व्हाट्सएप ग्रुप में इस पर बात कर रहे हैं.
सोशल मीडिया पर आई प्रतिक्रिया
सोशल मीडिया पर भी इस पर ख़ूब बात हो रही है. बहुत सारे लोग ख़ासकर महिलाएँ ट्विटर, फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम पर फ़िल्म को लेकर बातें कर रही हैं. वे अपने दोस्तों और फॉलोवर्स से फ़िल्म देखने की अपील कर रही हैं.
एक ने लिखा है, "यह हमारी कहानी है." तो एक दूसरी यूज़र ने लिखा है. "यह हमारे नज़रिए को पेश करती है."
किसी ने लिखा है, "इस फ़िल्म की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि यह बढ़ाचढ़ा कर चीज़ों को नहीं दिखाती है और ना ही किसी पर उंगली उठाती है. यह फ़िल्म हमें दिखाती है कि कैसे मृदुभाषी सभ्य आदमी भी सबसे ज़हरीला हो सकता है."
कुछ ने तो यहाँ तक अंदाज़ा लगाया कि 'द ग्रेट इंडियन किचन' की डायरेक्टर जरूर कोई महिला होगी.
कुछ ने लिखा है कि इस फ़िल्म की सबसे बड़ी क़ामयाबी यह है कि इसने पुरुषों में घबराहट पैदा कर दिया है. एक आदमी ने फ़ेसबुक पर लिखा है कि फ़िल्म देखने के बाद वो ख़ुद को अपराधी महसूस कर रहे हैं.
एक ने लिखा है, "मैं इस बारे में ज़्यादा कुछ नहीं लिख सकता क्योंकि मैं उसी व्यक्ति (फिल्म में दिखाए गए पति) की तरह हूँ." एक अन्य ने इसे "आँख खोलने वाली" फ़िल्म बताया.
प्रोफ़ेसर क्लिंटा कहती हैं कि यह अच्छी बात है कि लोगों ने इस पर बात करना शुरू किया है लेकिन सदियों से चले आ रही इस सोच को बदलने में सालों लग जाएंगे.
वो कहती हैं, "मैं इन मुद्दों पर अपने सहकर्मियों और क्लास में चर्चा करती हूँ. मैं अपने लेक्चरों के माध्यम से छात्रों को संवेदनशील बनाने की कोशिश करती हूँ. लड़के सैद्धांतिक तौर पर लैंगिक समानता की बात को समझते तो हैं लेकिन मैं इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हूँ कि वो अपना विशेषाधिकार छोड़ने को राजी हैं." (bbc.com)