-प्रवीण शर्मा
डोनाल्ड ट्रंप को शिकस्त देने के साथ ही जो बाइडन का अमेरिकी राष्ट्रपति बनने का रास्ता साफ़ हो गया है.
77 साल के बाइडन ओबामा प्रशासन के दोनों कार्यकाल में उप राष्ट्रपति रह चुके हैं. बाइडन का राजनीतिक सफ़र बहुत लंबा रहा है.
बतौर उप राष्ट्रपति भी उनका अच्छा-ख़ासा अनुभव रहा है और उन्हें विदेश मामलों का जानकार माना जाता है.
ऐसे में दुनिया के सबसे ताक़तवर मुल्क का राष्ट्रपति बनने के बाद दुनिया के अलग-अलग देशों को लेकर उनकी नीतियां क्या रहेंगी और क्या वे ट्रंप के प्रशासन के दौरान रही नीतियों से बिलकुल अलग रास्ता अख़्तियार करेंगे, इन तमाम सवालों को लेकर विश्लेषकों ने कयास लगाने शुरू कर दिये हैं.
बतौर राष्ट्रपति बाइडन की भारत को लेकर नीतियां किस तरह की रहेंगी और क्या वे डोनाल्ड ट्रंप के दौरान भारत से क़रीबी रिश्ते रखने की नीति पर कायम रहेंगे या नए प्रशासन में भारत के साथ अमेरिका का व्यवहार बदलेगा, इस पर भी तमाम तरह के आंकलन किए जा रहे हैं.
कारोबार से लेकर एच1बी वीज़ा, अमेरिका में भारतीयों को मिलने वाली नौकरियों, रक्षा भागीदारी, पाकिस्तान को लेकर अमेरिका का रुख़, चरमपंथ, ईरान को लेकर फ़ैसले, कश्मीर पर रुख़ जैसे ऐसे कई अहम पहलू हैं जिन पर बाइडन की अगुवाई में बनने वाला नया प्रशासन किस तरह का रवैया रखता है यह देखना भारत के लिए बेहद अहम होगा.
पूर्व राजनयिक पिनाक रंजन चक्रवर्ती कहते हैं कि किसी भी देश की विदेश नीति बदलती तो है, लेकिन उसमें सततता भी रहती है. वो कहते हैं कि क्लिंटन के ज़माने से देखें तो उस वक़्त भारत के परमाणु विस्फोट के बाद दोनों देशों के बीच संबंधों में दरार आई, लेकिन बाद में संबंधों में सुधार भी हुआ, क्लिंटन का भारत दौरा भी हुआ.
पिनाक कहते हैं, "यहां तक कि राष्ट्रपति बुश के ज़माने में न्यूक्लियर वाले सबसे विवादित मसले पर ही दोनों देशों के बीच डील भी हो गई. बाद में ओबामा दो बार भारत आए, ट्रंप का भी दो बार भारत दौरा हुआ." वो कहते हैं, "डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन दोनों में विदेश नीति में एक कॉन्टिन्यूटी जारी रही है और मुझे नहीं लगता कि बाइडन के आने के बाद इसमें कोई बड़ा बदलाव आएगा."
पिनाक कहते हैं कि हालांकि, ट्रंप और बाइडन अलग-अलग पर्सनैलिटी हैं, ऐसे में ज़ाहिर है कुछ चीज़ों में अंतर होगा, लेकिन बड़े मसलों में कोई अंतर नहीं आएगा.
वो कहते हैं, "ट्रेड, सिक्योरिटी और चरमपंथ जैसे मसलों पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा. इन चीज़ों पर एक कॉमन प्लेटफॉर्म बन ही गया है. कोई भी नया प्रेसिडेंट इनमें बदलाव की कोशिश नहीं करेगा."
हर्ष पंत कहते हैं कि मोटे तौर पर तो भारत और अमेरिका के संबंधों में इंडीविजुअल्स का रोल कम होता जा रहा है और संस्थाओं की भूमिका बढ़ती जा रही है और ऐसे में बाइडन भी इन संबंधों को आगे ही ले जाएंगे.
ऑब्ज़र्वर रिसर्च फ़ाउंडेशन नई दिल्ली के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम के निदेशक प्रो. हर्ष पंत कहते हैं, "चार साल पहले ये कहा जा रहा था कि ट्रंप पता नहीं क्या करेंगे, भारत के लिए ट्रंप का रवैया कैसा रहेगा, लेकिन बाद में ट्रंप ने अपनी विदेश नीति में भारत को अहम भूमिका दी क्योंकि अमेरिका चाहता है कि भारत एक बड़ी भूमिका निभाए. ऐसा ही ओबामा के वक़्त भी हुआ था."
चीन को लेकर बाइडन की एप्रोच बनेगी भारत की दिक़्क़त?
अमेरिका में बाइडन के राष्ट्रपति बनने के बाद सबसे बड़ी चिंता चीन को लेकर उनकी एप्रोच से जुड़ी हुई है. ट्रंप के शासन के दौरान चीन को लेकर अमेरिका का रुख़ काफ़ी कड़ा था और इस लिहाज़ से भारत के लिए नीति अनुकूल थी. लद्दाख में चीन के साथ भारत के बढ़ते तनाव में भी अमेरिका ने खुलकर भारत का साथ दिया था. लेकिन, अब बाइडन के आने के साथ इस बात की आशंका पैदा हो रही है कि वो चीन को लेकर नरम रुख़ अपना सकते हैं.
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी (जेएनयू) के प्रोफेसर चिंतामणि महापात्रा कहते हैं, "भारत और अमेरिका के संबंध में सबसे अहम तीन मसले हैं. एक है चरमपंथ और पाकिस्तान दूसरा है चीन और तीसरा है आर्थिक संबंध." महापात्रा कहते हैं, "चीन का असर भारत-अमेरिका संबंधों पर रहता है और जिस तरह से ट्रंप ने चीन को लेकर कड़ा रुख़ अपनाया था, वो शायद जो बाइडन नहीं रखेंगे." वो कहते हैं, "चूंकि, भारत और चीन के बीच में एलएसी पर अभी भी तनाव है, ऐसे में अगर बाइडन का चीन को लेकर नरम रुख़ रहता है तो वह भारत को शायद पसंद नहीं आएगा." महापात्रा कहते हैं, "चीन को लेकर ट्रंप और बाइडन दोनों की टोन, भाषा और एप्रोच में अंतर है. और इसका भारत और अमेरिका के संबंधों पर असर पड़ सकता है."
प्रो. पंत कहते हैं कि चीन को लेकर ट्रंप भारत के लिए काफ़ी अच्छे रहे हैं. वो कहते हैं कि चीन को लेकर ट्रेड डील समेत दूसरे मसलों पर कुछ न कुछ क़दम अमेरिका ज़रूर उठाएगा और इस पर भारत की नज़र रहेगी.
डेमोक्रेटिक पार्टी में आंतरिक कलह का भारत पर असर
प्रो. हर्ष पंत कहते हैं, "डेमोक्रेटिक पार्टी में इस वक़्त काफी उथल-पुथल है और लेफ्ट साइड के लोग काफ़ी मुखर हैं." वो कहते हैं पिछले कुछ सालों में एक चलन रहा है कि अमेरिका भारत के आंतरिक मामलों में दखल नहीं देता है. लेकिन, सीएए, आर्टिकल 370 जैसे मसलों पर डेमोक्रेटिक पार्टी के लेफ्ट मेंबर्स और ख़ासतौर पर कमला हैरिस समेत भारतीय समुदाय के लोगों ने काफ़ी आपत्ति जताई थी.
पंत कहते हैं कि इसी मसले पर नाराज़गी के चलते विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने प्रमिला जयपाल से मिलने से इनकार कर दिया था. पंत कहते हैं, "ऐसे में क्या ये चीज़ें फिर से खड़ी हो सकती हैं और अगर ऐसा होता है तो भारत इसको कैसे हैंडल करेगा? हालांकि, भारत को उम्मीद है कि बाइडन सेंट्रिस्ट हैं तो वे भारत के पक्ष में ही रहेंगे." हालांकि वो कहते हैं कि अगर डेमोक्रेटिक पार्टी में लेफ्ट का दबदबा ज़्यादा बढ़ा तो भारत पर उसका असर पड़ सकता है.
कश्मीर को लेकर दिए बयान
इस साल जून के महीने में जो बाइडन ने कश्मीरियों के पक्ष में बयान देते हुए कहा था कि कश्मीरियों के सभी तरह के अधिकार बहाल होने चाहिए. बाइडन ने कहा था कि कश्मीरियों के अधिकारों को बहाल करने के लिए जो भी क़दम उठाए जा सकते हैं, भारत सरकार उठाए. उन्होंने भारत के नागरिकता संशोधन क़ानून यानी सीएए को लेकर भी निराशा ज़ाहिर की थी. इसके अलावा उन्होंने नेशनल रजिस्टर ऑफ़ सिटिज़न यानी एनआरसी को भी निराशाजनक बताया था. जो बाइडन की कैंपेन वेबसाइट पर प्रकाशित एक पॉलिसी पेपर में कहा गया है, "भारत में धर्मनिरपेक्षता और बहुनस्लीय के साथ बहुधार्मिक लोकतंत्र की पुरानी पंरपरा है. ऐसे में सरकार के ये फ़ैसले बिल्कुल ही उलट हैं." नवंबर 2010 अपने भारत दौरे में ओबामा ने कश्मीर विवाद को लेकर कहा था, "कश्मीर विवाद में हमारी कोई भूमिका नहीं है लेकिन अगर दोनों पक्ष चाहें तो हम मदद कर सकते हैं."
पिनाक कहते हैं कि डेमोक्रैट्स थोड़ा ह्यूमन राइट्स की बातें ज़्यादा करते हैं, लेकिन बाइडन कश्मीर को लेकर और धारा 370 ख़त्म करने के भारत के फ़ैसले को उलटने के लिए दबाव नहीं बना पाएंगे. महापात्रा के मुताबिक़, कश्मीर पर बाइडन के कुछ बयान भारत को पसंद नहीं आए हैं. लेकिन, वो कहते हैं, "इस तरह की चीज़ें केवल बयानों तक ही सीमित रहेंगी और इनका असर दोनों देशों के रणनीतिक संबंधों पर नहीं दिखेगा."
व्यापार को लेकर क्या होगा रुख़?
ट्रंप के पूरे कार्यकाल के दौरान भारत और अमेरिका के बीच ट्रेड डील पर कोई सहमति नहीं बन सकी. व्यापक ट्रेड डील पर जब गतिरोध ख़त्म नहीं हो सके तो 'मिनी डील' की कोशिशें हुईं, लेकिन दोनों देश इस पर भी राज़ी नहीं हो पाए. हालांकि बाइडन को दशकों तक सीनेटर और आठ साल तक उप-राष्ट्रपति के पद पर रहते हुए अब तक भारत के दोस्त के तौर पर ही देखा जाता रहा है. बाइडन भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय व्यापार बढ़ाने की भी वकालत करते रहे हैं. वो भारत-अमेरिका व्यापार को 500 अरब डॉलर तक ले जाने की बात करते रहे हैं. लेकिन, क्या बाइडन भारत के साथ ट्रेड डील करने में सफलता हासिल कर पाएंगे?
पिनाक कहते हैं कि ट्रेड डील भले ही नहीं हो पाई है और उसमें कुछ मसले हैं, लेकिन इसकी बुनियाद रखी जा चुकी है और इसमें कोई बड़ा बदलाव होना मुश्किल है. महापात्रा कहते हैं कि ट्रेड के मसले पर भारत का डेमोक्रैट्स और रिपब्लिकंस दोनों के साथ मतभेद रहा है. वो कहते हैं कि ट्रंप ने इस मुद्दे पर सख़्त रवैया रखा था और ऊंचे इंपोर्ट टैरिफ़ लगाए थे. फ़रवरी में भी ट्रंप के भारत दौरे पर ट्रेड डील होने की उम्मीद थी, लेकिन ऐसा नहीं हो पाया. महापात्रा कहते हैं, "इस महामारी के दौर में दोनों देशों के हित में है कि वे ट्रेड के मसले को जल्द से जल्द सुलझाएं." पंत कहते हैं कि ट्रेड का मसला ट्रंप के दौर में हल होने की उम्मीद थी और अब देखना होगा कि बाइडन इस मसले पर कैसे आगे बढ़ते हैं.
सुरक्षा परिषद में भारत की दावेदारी का मसला
भारत लगातार संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) में सुधार करने की मांग करता रहा है और इसका सदस्य बनने की दावेदारी रखता रहा है. अमेरिका ने भी कई दफ़ा भारत की दावेदारी का समर्थन किया है. हालांकि, अभी तक इस पर कोई बड़ा क़दम उठाया नहीं गया है. 8 नवंबर 2010 को भारतीय संसद में अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा ने कहा था कि अमेरिका चाहता है कि "भारत संयुक्त राष्ट्र में बड़ी भूमिका निभाए और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बने."
उन्होंने ये भी कहा था कि भारत को 'विश्व स्तर के नेताओं की ज़िम्मेदारियां भी निभानी होंगी.' बाइडन के आने पर भी इस मसले पर कोई बड़ा बदलाव आने की आशंका कम ही है. महापात्रा कहते हैं कि दोनों देशों के बीच संबंधों को लेकर यह कोई बड़ा मसला नहीं है.
भारतीयों को नौकरियां और एच1बी वीजा
एच1बी वीजा और इमीग्रेशन को लेकर ट्रंप की नीतियां सख़्त रही हैं. अमेरिकियों को रोज़गार मुहैया कराने के मक़सद से ट्रंप ने दूसरे देशों से अमेरिका में नौकरी करने आने वालों की संख्या कम करने की कोशिश की है. इसी साल जून में ट्रंप ने एच1बी और एच4 वीजा जैसे अस्थायी वर्क परमिट को सस्पेंड कर दिया था. इस फ़ैसले ने हज़ारों लोगों को अमेरिका में नौकरी हासिल करने और वर्क-स्टडी प्रोग्राम्स से जुड़ने से रोक दिया.
हालांकि, माना जा रहा है कि बाइडन इस मामले में उदार रहेंगे और वो एच1बी वीज़ा की संख्या बढ़ा सकते हैं.
पिनाक कहते हैं, भारत और अमेरिका के बीच इमीग्रेशन जैसे कुछ मसलों पर विवाद हैं जो रह सकते हैं, लेकिन इनका ज़्यादा फ़र्क नहीं पड़ेगा.
भारत और अमेरिका के बीच एक बड़ा मसला नौकरियों को लेकर रहा है. 2010 में ओबामा के भारत दौरे के वक़्त मनमोहन सिंह ने कहा था कि भारत अमेरिकी लोगों की नौकरियां नहीं छीन रहा है. भारत के साथ समझौतों से अमेरिकी कार्यक्षमता बढ़ेगी.
पाकिस्तान और चरमपंथ पर क्या होगा रुख़?
पिछले 14 साल से कोई भी अमेरिकी राष्ट्रपति पाकिस्तान के दौरे पर नहीं गया है. जॉर्ज डब्ल्यू बुश पाकिस्तान के दौरे पर गए आख़िरी अमेरिकी राष्ट्रपति थे.
बराक ओबामा और उनके बाद राष्ट्रपति बनने वाले ट्रंप ने भारत के दौरे तो किए, लेकिन वे कभी भी पाकिस्तान नहीं गए.
चरमपंथ और अफ़ग़ानिस्तान को लेकर पाकिस्तान की नीतियों के चलते अमेरिका और पाकिस्तान के बीच गुज़रे कई सालों से रिश्तों में खटास बनी हुई है.
अमेरिका की स्पेशल फ़ोर्सेज़ ने जब ओसामा बिन लादेन को पाकिस्तान में मारा उसके बाद से दोनों देशों के बीच अविश्वास की खाई और बढ़ गई थी.
अपने शासनकाल में ट्रंप ने पाकिस्तान को दिए जाने वाले अरबों डॉलर भी रोक दिये.
साल 2016 में जब ओबामा अपने दूसरे कार्यकाल की समाप्ति पर थे तो व्हाइट हाउस की तरफ़ से उनके पाकिस्तान दौरे को लेकर बयान जारी किया गया था.
व्हाइट हाउस ने कहा था कि पाकिस्तान के साथ 'जटिल संबंधों' की वजह से राष्ट्रपति का दौरा नहीं हो सका था.
ऐसे में बाइडन की पाकिस्तान को लेकर नीतियों में क्या कोई बड़ा बदलाव आएगा? बाइडन के पाकिस्तान को लेकर रवैये पर भारत की नज़रें ख़ासतौर पर टिकी होंगी क्योंकि भारत और पाकिस्तान के रिश्ते लंबे अरसे से तल्ख़ी का शिकार रहे हैं और निकट भविष्य में भी इनमें किसी तरह की नरमी की उम्मीद नज़र नहीं आ रही है.
पाकिस्तान को लगता है कि बाइडन की जीत उसके लिए फ़ायदे की बात है.
पाकिस्तान के अख़बार एक्सप्रेस ने लिखा है, "बाइडन की सफलता से भारत प्रशासित कश्मीर पर सकारात्मक प्रभाव की संभावना बढ़ी."
अख़बार के अनुसार 2008 में जब आसिफ़ अली ज़रदारी पाकिस्तान के राष्ट्रपति थे, उस समय जो बाइडन को पाकिस्तान के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान हिलाल-ए-पाकिस्तान से नवाज़ा गया था. बाइडन को यह सम्मान पाकिस्तान को अमेरिका से डेढ़ अरब डॉलर की आर्थिक मदद दिलवाने में अहम भूमिका निभाने के कारण दिया गया था.
महापात्रा कहते हैं, "एक अवॉर्ड देने से कोई लीडर क्रिटिकल मसलों पर अपनी राय नहीं बदलता. दूसरा, बाइडन के उपराष्ट्रपति रहते हुए ही पाकिस्तान में लादेन को मारा गया था."
वो कहते हैं कि ऐसे में पाकिस्तान को लेकर बाइडन कोई नरम नीति अपनाएंगे, ऐसा मुश्किल लगता है.
बाइडन उन कुछ अमेरिकी नेताओं में शामिल रहे हैं जो पाकिस्तान को आर्थिक मदद देने के समर्थक रहे हैं.
पिनाक रंजन कहते हैं, "पाकिस्तान को लग रहा है कि शायद बाइडन की उन्हें लेकर नीति में शायद कुछ बदलाव आए. मुझे लगता है कि पाकिस्तान को लेकर बाइडन नीति पहले जैसी ही रखेंगे."
वो कहते हैं कि बाइडन भी अफ़ग़ानिस्तान से निकलना चाहते हैं, लेकिन वो अफ़ग़ानिस्तान में थोड़ी मौजूदगी रखना चाहते हैं और ऐसे में पाकिस्तान की ज़रूरत पड़ सकती है. उन हालात में पाकिस्तान की भूमिका हो सकती है.
वो कहते हैं, "लेकिन, चरमपंथ पर बाइडन ने भारत के रुख़ का समर्थन कर दिया है."
मोदी-ट्रंप की नज़दीकी और नए राष्ट्रपति
इसी साल फ़रवरी में गुजरात के अहमदाबाद में डोनाल्ड ट्रंप का स्वागत किया गया. इस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मौजूद थे. इसे 'नमस्ते ट्रंप' नाम दिया गया था.
सितंबर 2019 में टेक्सस के ह्यूस्टन में 'हाउडी मोदी' कार्यक्रम आयोजित हुआ था.
दोनों नेता एक-दूसरे को अपना अच्छा दोस्त मानते हैं. ऐसे में यह सवाल भी पैदा हो रहा है कि क्या ट्रंप के साथ मोदी की दोस्ती बाइडन के भारत के साथ भविष्य के रिश्तों को प्रभावित कर सकती है?
पिनाक कहते हैं, "अमेरिका में कोई भी नया राष्ट्रपति बनता है तो सब उसके साथ अच्छे संबंध रखना चाहते हैं. दोनों देशों के संबंध आगे ही बढ़ेंगे. मोदी और ट्रंप की दोस्ती से इस पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा." (bbc.com/hindi)