विचार / लेख
- ईश्वर सिंह दोस्त
कांग्रेस में तेईस नेताओं का समूह कहलाने वाले नेताओं में से कुछ ने जम्मू में इकट्ठे होकर जो किया है, उसे बगावत का बिगुल कहा जाता है। अब तक समझा जा रहा था कि ये नेता कांग्रेस को फिर से एक देशव्यापी मजबूत पार्टी बनाने के लिए बेचैन हैं और इसके लिए ज्यादा आंतरिक जनतंत्र की मांग कर रहे हैं। मगर जम्मू के तुरंत बाद ही गुलाम नबी आजाद और आनंद शर्मा के बयानों से यह शक भी होने लगा है कि कहीं इनकी दाल किसी और के ईंधन पर तो नहीं पक रही है। एकजुट होकर चिट्ठी लिखने या कोई मांग उठाने से आगे जाकर यह समूह एक धड़े की शक्ल में उभर आया है, जो जम्मू के बाद हिमाचल और हरियाणा में अपनी ताकत का प्रदर्शन करना चाहता है।
इस समूह के नेताओं की राहुल से नहीं बनती, यह अब जगजाहिर है। इशारों में इसके पहले राहुल गांधी के बयानों पर भी इस समूह के कुछ नेता हमला बोल चुके हैं। यह सब तब हो रहा है जब पाँच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं। अप्रैल तक इन नेताओं को सब्र नहीं है तो इसके पीछे यह डर है कि चुनावों में राहुल के अच्छे प्रदर्शन से उनका कांग्रेस अध्यक्ष बनना कहीं तय न हो जाए। लगता है कि इनमें से कुछ नेता यह मन बना चुके हैं कि राहुल अध्यक्ष बनते हैं तो दूसरी पार्टी या गठबंधन बनाया जाए।
इन नेताओं में से भूपिंदर सिंह हुड्डा और आजाद को छोड़कर कोई भी न तो बड़ा क्षेत्रीय नेता है और न अखिल भारतीय स्तर पर कांग्रेस में उसकी स्वीकार्यता है। इसलिए अगर ये कांग्रेस छोड़ते हैं और राजग का हिस्सा नहीं बनते हैं तो एकमात्र चारा संग-साथ होकर असंतुष्टों को इकट्ठा करने और तीसरे मोर्चे जैसे किसी गठबंधन की राह पकड़ने का हो सकता है। यह बात इसलिए कि भले ही कांग्रेस अभी इन पर कोई अनुशासन की कार्रवाई कर इन्हें शहादत देना न चाहती हो, मगर अनुशासन की लक्ष्मण रेखा को कुछ नेता शायद समझते-बूझते हुए ही पार कर चुके हैं।
इन नेताओं में से एक पीजे कुरियन ने 2 मार्च को कहा भी कि कांग्रेस में सुधार होना चाहिए, मगर लक्ष्मण रेखा पार नहीं की जानी चाहिए। इसी तरह की बातें तीन और नेताओं वीरप्पा मोइली, संदीप दीक्षित और अजय सिंह ने कही। पृथ्वीराज चौहान, शशि थरूर, जितेन प्रसाद आदि पहले ही जी-23 से किनारा कर चुके हैं। अब अजीब नजारा है। कुछ नेता लक्ष्मण रेखा के उस पार चले गए हैं। कुछ रेखा पर हैं और कुछ रेखा के पहले ठिठक गए हैं।
राज्यसभा से गुलाम नबी आजाद की विदाई के वक्त मोदी के बहाए आंसूओं से रिश्ते की जिस जमीन को सींचा गया था, आजाद ने मोदी को सत्यवादी बता कर उसमें खाद डाल दी है। इसी तरह आनंद शर्मा के बयान हैं, जो कांग्रेस के बाहर से दिए गए नजर आते हैं। हालांकि बहुत से नेताओं के इस समूह से किनारा कर लेने के कारण यह असल में जी-23 से जी-10 हो चुका है। जम्मू में भी आजाद, आनंद, हुड्डा, सिब्बल, राज बब्बर, विवेक तन्खा और मनीष तिवारी ही जुटे थे। 23 तो वे थे, जिन्होंने कांग्रेस में चुनाव और आंतरिक जनतंत्र के लिए सोनिया को खत लिखा था। इसके बाद इनकी सोनिया के साथ बैठक हो चुकी है और जून में अध्यक्ष पद के चुनाव पर सहमति बन चुकी है।
कांग्रेस के भीतर की ऐसी असंतुष्ट गतिविधि में सत्तारूढ़ दल की खासी रुचि हो सकती है, जिसने कांग्रेस-मुक्त राजनीति की अपनी आकांक्षा को कभी छिपाया नहीं है। कोई बड़ी बात नहीं होगी यदि इसके पीछे कॉर्पोरेट हित भी हों, क्योंकि कांग्रेस के अमरिंदर सिंह, भूपेश बघेल और अशोक गहलोत जैसे जमीनी पकड़ वाले नेताओं की किसान समर्थक राजनीति की आंच कॉर्पोरेटी हितों तक पहुंच रही है। कांग्रेस का अतीत जो भी रहा हो, मगर आज की राजनीति में कार्पोरेट के हित में यही है कि कांग्रेस और कमजोर हो जाए।
कांग्रेस भले ही कम सीटों पर सिमट गई हो, मगर अपने अखिल भारतीय प्रसार के अलावा यह अब भी विमर्शों के शतरंज में भाजपा से आमने-सामने की स्थिति में है। इसलिए केंद्र सरकार के खिलाफ बिखरे हुए असंतोष को एक राजनीतिक कहानी में अगर कभी गूंथा गया तो कांग्रेस की भूमिका बनेगी। यह स्वयं भाजपा के नेहरू और गांधी परिवार को मुख्य निशाना बनाए रखने से जाहिर है। इसीलिए पहले कांग्रेस के समर्थन में नहीं रहे कई विश्लेषक भी अब यह मानते हैं कि कांग्रेस का और कमजोर होना भारत में लोकतंत्र के भविष्य के लिए ठीक नहीं है।
सवाल सिर्फ लक्ष्मण रेखा का नहीं, बल्कि इन नेताओं के इरादों का भी है। सिंधिया के सफल और पायलट के असफल प्रयासों के बाद एक रुझान यह भी हो गया है कि व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाओं लिए पार्टी के नेतृत्व के सामने ब्लैकमेल जैसी स्थिति निर्मित की जाए। फिर कांग्रेस की विचारधारा की कसमें खाते हुए कदम भाजपा की तरफ लड़खड़ाते जाएं! इन नेताओं को सहानुभूति भी मिल जाती है कि बेचारे कांग्रेस में कितने घुट रहे थे और गांधी परिवार इतने समर्पित, होनहार और भोले नेताओं को संभाल कर नहीं रख पा रहा है। आज जब पाला बदलने के लिए बड़ा समर्थन मूल्य उपलब्ध हो, तब कांग्रेस नेतृत्व की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह लक्ष्मण रेखा के पार चले गए और लक्ष्मण रेखा में रहकर आंतरिक सुधार की बात उठाने वाले नेताओं में फर्क करे और उनसे वास्तविक व प्रभावी संवाद कायम करे।