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सीसे का ज़हर सबसे ज़्यादा घुल रहा है भारतीय बच्चों के ख़ून में
02-Aug-2020 9:41 AM
सीसे का ज़हर सबसे ज़्यादा घुल रहा है भारतीय बच्चों के ख़ून में

PURE EARTH

-नवीन सिंह खड़का

बीबीसी पर्यावरण संवाददाता

लेड पॉइज़निंग यानी सीसे के ज़हर से संबंधित एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार बच्चों में लेड यानी सीसे के ज़हर के मामले में दुनिया भर में भारत सबसे आगे है.

यूनिसेफ़ और प्योरअर्थ नाम के एक संगठन द्वारा तैयार की गई इस रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में हर तीन बच्चे में से एक लेड पॉइज़निंग का शिकार है जिसके कारण उसकी सेहत को गंभीर नुक़सान पहुंच सकता है.

रिपोर्ट के अनुसार विश्व में 80 करोड़ बच्चे लेड पॉइज़निंग से प्रभावित हैं और इनमें से अधिकांश गरीब और कम आय वाल देशों में हैं. इतनी बड़े पैमाने पर लेड के असर को पहले माना नहीं गया था.

इतनी बड़ी संख्या का आधा हिस्सा अकेले दक्षिण एशिया में हैं जबकि भारत में सीसा से 27.5 करोड़ बच्चे प्रभावित हैं.

'मेरे बेटे की उल्टियां नहीं रुक रहीं'

साल 2009 में चार साल के सरबजीत सिंह को लगातार उल्टियां हो रही थीं. उनके पिता मनजीत सिंह को समझ नहीं आ रहा था कि उनके बेटे की उल्टियां रुक क्यों नहीं रहीं.

उत्तर प्रदेश में रहने वाले मनजीत सिंह अपने बेटे को लेकर डॉक्टर के पास पहुंचे. शुरूआती जांच में डॉक्टर ने उनसे कहा कि सरबजीत के अनीमिया है यानी ख़ून की कमी है. हालांकि इसका कारण डॉक्टर नहीं बता पाए.

अगले कुछ महीनों तक सरबजीत सिंह की तबीयत में कुछ अधिक सुधार नहीं हुआ, उसे बार-बार उल्टियां होती रहीं.

जब सरबजीत के ख़ून की जांच हुई तो पता चला कि उसके ख़ून में सीसा की मात्रा जितनी होनी चाहिए उससे चालीस फीसदी अधिक थी.

सीसा के जोखिम के संबंध में हुए वैश्विक शोध के अनुसार सरबजीत दुनिया के उन 80 करोड़ बच्चों में से एक है जो घातक सीसा के संपर्क में आया है और जिसके कारण उसके स्वास्थ्य को गंभीर क्षति पहुंची है.

इस रिपोर्ट में यूनिवर्सिटी ऑफ़ वॉशिंगटन के किए आकलन ग्लोबल बर्डन ऑफ़ डिज़ीज़ेज़ और इंस्टीट्यूट ऑफ़ हेल्थ एंड इवेल्युएशन के आंकड़ों के विस्तार से विश्लेषण किया गया है.

लेड पॉइज़निंग का असर बच्चों के मस्तिष्क, उनके दिमाग़, दिन, फेफड़ों और गुर्दे पर होता है.

रिपोर्ट में कहा गया है, "लेड एक शक्तिशाली न्यूरोटॉक्सिन है यानी दिमाग़ की नसों को पर असर करने वाला ज़हर है. कम एक्सपोज़र के मामलों में बच्चों में बुद्धिमत्ता की कमी यानी कम आईक्यू स्कोर, कम ध्यान देना और जीवन में आगे चल कर हिंसक व्यवहार और यहां तक ​​कि आपराधिक व्यवहार का कारण भी बन सकता है."

"अजन्मे बच्चों और 5 साल से कम उम्र के बच्चों को सीसा के कारण अधिक जोखिम हो सकता है. उनमें इस कारण हमेशा के लिए मानसिक और कॉग्निटिव समस्याएं यानी समझ और बुद्धिमत्ता की कमी और पर्मानेंट शारीरिक हानि भी हो सकती है. लेड पॉइज़निंग के कारण कई बच्चों में मौत का भी ख़तरा हो सकता है."

भारत के बाद जो देश बच्चों में लेड पॉइज़निंग से सबसे बुरी तरह प्रभावित हैं वो हैं, अफ्रीका और नाइजीरिया. वहीं इस सूची में तीसरे और चौथे स्थान पर पाकिस्तान और बांग्लादेश का नाम है.

किन कारणों से हो सकती है लेड पॉइज़निंग

रिपोर्ट के अनुसार लेड पॉइज़निंग का प्रमुख कारण लेड एसिड बैटरी का असुरक्षित तरीके से री-साइक्लिंग करना है.

लेकिन इसके साथ ही इलेक्ट्रॉनिक कचरा, ख़नन और मसालों में इसके इस्तेमाल, पेंट, बच्चों के खिलौने भी सीसा के अहम स्रोत हो सकते हैं.

रिपोर्ट के प्रमुख लेखक निकोलस रीस ने बीबीसी को बताया, "साल 2000 के बाद से गरीब औऱ कम आय वाले देशों में गाड़ियों की संख्या में भारी इज़ाफा हुआ है और इस कारण लेड एसिट बैटरी के इस्तेमाल और इनकी रीसाइक्लिंग में भी इज़ाफा हुआ है. इनकी री-साइक्लिंग कई बार असुरक्षित तरीके से की जाती है."

रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में लेड का जितना कुल उत्पादन होता है उसके 85 फीसदी हिस्से का इस्तेमाल लेड एसिड बैटरी बनाने में होता है. इसका एक बड़ा हिस्सा गाड़ियों में इ्तेमाल होने वाले लेड बैटरी की रीसाइक्लिंग से आता है.

रिपोर्ट के अनुसार, "नतीजा ये होता है कि इस्तेमाल की जा चुकी लेड एसिड बैटरी में से कम से कम बैटरियां अनौपचारिक अर्थव्यवस्था तक पहुंचती हैं."

"अनियंत्रित तरीके से और अधिकतर अवैध रूप से होने वाले इस रीसाइक्लिंग के काम में लेड बैटरी को असुरक्षित तरीके से खोला जाता है. इस कारण एसिड और लेड डस्ट ज़मीन पर गिरता है, खुली भट्टियों में लेड को पिघलाया जाता है जिससे इसका ज़हरीला धुंआ हवा में फैलता है और आस पास के पूरे इलाक़े को प्रदूषित करता है."

घरों में बैटरी रीसाइक्लिंग का काम

जानकार कहते हैं कि भारत में ये चिंता का विषय है.

रिपोर्ट के सह-प्रकाशक प्योरअर्थ की प्रोमिला शर्मा कहती हैं, "हमने पूरे भारत में मौजूद 300 लीड-दूषित जगहों का आकलन किया है, इनमें से ज़्यादातर अनौपचारिक बैटरी रीसाइक्लिंग की जगहें हैं और अलग-अलग तरह के कारखानों वाले ओद्योगिक इलाक़े हैं."

इकट्ठा किए तथ्यों का आकलन अलग से उनकी संस्था ने किया था जो एक स्वयंसेवी संगठन है और पार्यावरण के मानव और धरती पर असर पर काम करती है.

प्रोमिला कहती हैं, "हमारा आकलन इस पहाड़ जैसी मुश्किल समस्या का छोटा-सा हिस्सा है."

वो कहती हैं "ऐसी कई जगहें हैं जहा लेड एसिड बैटरी की अवैध रीसाइक्लिंग होती है, लेकिन अक्सर इन जगहों पर काम छिप कर किया जाता है. कई बार घरों के पिछवाड़े में लोग ये काम करते हैं और इससे उस इलाके में रहने वालों के लिए ख़तरा बढ़ जाता है."

उनके संगठन ने पाया कि पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में इस तरह के अनियमित लेट-एसिड बैटरी रीसाइक्लिंग का काम सबसे अधिक होता है.

"हमने यह भी पाया कि इन जगहों पर अब बांग्लादेश और नेपाल से आयात की गई पुरानी बैटरियों की री-साइक्लिंग का काम भी अधिक हो रहा है."

दस साल पहले तक उत्तर प्रदेश के रहने वाले मनजीत सिंह बैटरियों की रीसाइक्लिंग का काम कर अपने परिवार के पेट भर रहे थे. वो ये बैटरी अपने घर पर ही रखा करते थे.

मनजीत कहते हैं, "मुझे इस बात के बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था कि मेरे काम के कारण मेरे बेटे की तबीयत इस कदर बिगड़ जाएगी."

बेटे का स्वास्थ्य बिगड़ने के बाद मनजीत ने ये काम तुरंत छोड़ दिया. कई साल तक सरबजीत का इलाज चलता रहा, उसके शरीर में कई बार ख़ून चढ़ाया गया. सरबजीत के शरीर के निचले अंग विकृत हो गए थे और उसे चलने के लिए ख़ास जूतों की ज़रूरत पड़ने लगी.

इस बात को दस साल बीत चुके हैं और अब सरबजीत की सेहत में सुधार दिखने लगा है. सरबजीत सिंह अब 16 साल का है और स्कूल में उसकी पढ़ाई भी ठीक चल रही है.

लेकिन उसके परिवार को उसकी फिक्र रहती हैं क्योंकि उसके ख़ून में अब भी सीसा की मात्रा अधिक है.

मनजीत सिंह कहते हैं, "अब उसे एनीमिया नहीं है लेकिन उसे हाइपरएक्टिविटी जैसी दूसरी स्वास्थ्य समस्याएं हैं."

इन्वर्टर से लेड लीक होने की समस्या

भारत में लेड के संपर्क में आने की एक बड़ी वजह इन्वर्टर को भी बताया जाता है, जिसका इस्तेमाल बिजली कटौती के दौरान घरों या दुकानों में बिजली की आपूर्ति के लिए किया जाता है.

लखनऊ के किंग जॉर्ज मेडिकल यूनिवर्सिटी में बायोकेमिस्ट्री विभाग के प्रमुख डॉक्टर अब्बास मेहदी कहते हैं, "उत्तर प्रदेश में हमने एक ऐसा ही मामला देखा जिसमें इन्वर्टर से लीक होने वाले लेड का बुरा असर बच्चे के स्वास्थ्य पर पड़ने लगा था."

"बच्चे के माता-पिता इस बात से बिल्कुल अनजान थे कि इन्वर्टर से गिरने वाला तरल पदार्थ, जिसको वो पोंछे से साफ कर रहे हैं वो असल में ऐसा कर के उसे पूरे फर्श पर फैला रहे हैं. इसी फर्श पर उनका बच्चा खेला करता था और उसके शरीर में लेड जाने लगा."

भारत में इलेक्ट्रॉनिक के कचरे और खनन के उत्पादों के अनियमित संचालन से भी लेड पॉइज़निंग का ख़तरा हो सकता है.

मानव शरीर में सीसा पहुंचने का एक और स्रोत कुछ मसाले और हर्बल दवाइयां भी हो सकती हैं.

डॉक्टर अब्बास मेहदी कहते हैं, "हल्दी और लाल मिर्च के पावडर में सीसा प्रिज़र्वेटिव के रूप में इस्तेमाल किया जाता है और कुछ मामलों में उनका रंग बढ़ाने के लिए भी इसका इस्तेमाल किया जाता है."

यूनिसेफ़ की रिपोर्ट के अनुसार भारत के 27.5 करोड़ बच्चों के ख़ून में सीसा की मात्रा पांच माइक्रोग्राम प्रति डेसीलिटर तक है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन और अमरीका के सेन्टर ऑफ़ डिज़ीज़ कंट्रोल एंड प्रीवेन्शन के अनुसार सीसा का ये स्तर ख़तरनाक है और इसे सरकारों के इस माममे में कदम उठाने की ज़रूरत है.

बच्चों के लिए क्यों है अधिक जोखिम?

रिपोर्ट के अनुसार शिशुओं और पांच साल से कम उम्र के बच्चों के लिए लेड पॉइज़निंग का जोखिम अधिक है क्योंकि ये उनके मस्तिष्क को पूरी तरह बनने से पहले ही नुक़सान पहुंचाना शुरू कर देता है. इस कारण उन्हें हमेशा के लिए मानसिक और कॉग्निटिव समस्याएं पैदा कर सकता है. उनके किसी अंग में इस कारण विकृति भी आ सकती है.

जानकार कहते हैं कि शरीर के वजन के अनुपात की तुलना में वयस्कों के मुकाबले बच्चे पांच गुना अधिक खाना खाते हैं, पानी पीते हैं और हवा भीतर लेते हैं.

निकोलस रीस कहते हैं, "इसका मतलब ये है कि वो ज़मीन, पानी या हवा में फैले इस घातक न्यूरोटॉक्सिन को भी बड़ों के मुकाबले अधिक मात्रा में शरीर में अवशोषित कर सकते हैं."

रिपोर्ट के अनुसार कम उम्र में लेड के संपर्क में आने के ख़तरे के मामले में सबसे बड़ी चुनौती ये है कि इसके लक्षण कई साल तक दिखाई नहीं देते. ख़ास कर जब एक्पोज़र का स्तर कम हो और ख़ून में इसकी मात्रा कम हो.

डॉक्टर मेहदी कहते हैं, "इस मामले में जागरूकता की कमी अभी भी बड़ा मुद्दा है, लेकिन धीरे-धीरे स्थिति में सुधार हो रहा है."

वो कहते हैं "भारत में साल 2000 में लीड वाले ईंधन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था. अब देश में इस्तेमाल होने वाले पेंट्स में भी लीड की मात्रा सीमित कर 90 पीपीएम (पार्ट्स पर मिलियन) करने की ज़रूरत है."

लेकिन ये सवाल अभी भी जस का तस है कि क्या लेड एसिड बैटरी, इलेक्ट्रॉनिक कचरा और मसालों में लेड के इस्तेमाल को नियंत्रित किया जाएगा?(bbc)

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