दुनिया में सबसे प्रभावशाली माने जाने वाले देश के राष्ट्रपति का कार्यकाल न केवल उस देश की नीतियों को प्रभावित करता है, बल्कि इसका वैश्विक स्तर पर भी दूरगामी असर होता है।
ये प्रभाव आर्थिक नीतियों से लेकर कूटनीतिक फ़ैसलों तक होते हैं।
20 जनवरी को डोनाल्ड ट्रंप अमेरिका के 47वें राष्ट्रपति के रूप में अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत करेंगे। इस बार उनके साथ उप-राष्ट्रपति के रूप में जेडी वांस कार्यभार संभालेंगे।
ट्रंप को अक्सर ‘अनप्रिडिक्टेबल’ कहा जाता है, यानी किसी भी मुद्दे पर उनका रुख़ क्या होगा, इसका अंदाज़ा पहले से नहीं लगा सकते। कुछ लोग इसे उनकी ताकत मानते हैं, तो कुछ इसे उनकी कमजोरी मानते हैं।
अब जबकि ट्रंप दूसरा कार्यकाल शुरू करेंगे, पहले कार्यकाल के मुक़ाबले दुनिया काफ़ी बदल चुकी है और नई चुनौतियां सामने आ चुकी हैं।
ऐसे में ट्रंप के इस कार्यकाल में क्या संभावनाएं हो सकती हैं?
क्या भारत को अमेरिका के लिए सामान निर्यात करने पर ज़्यादा टैक्स देना पड़ेगा? अमेरिका और चीन के रिश्ते में क्या बदलाव आएगा? इसराइल और हमास के बीच जो संघर्ष विराम का समझौता हुआ है, वह मध्य पूर्व में कितनी स्थायी शांति लाएगा?
रूस-यूक्रेन युद्ध का अंत होने की क्या संभावना है? जलवायु परिवर्तन पर अमेरिका का रुख़ क्या होगा? और दक्षिण एशिया में भारत को अमेरिका से किस तरह की अपेक्षाएं रखनी चाहिए?
बीबीसी हिन्दी के साप्ताहिक कार्यक्रम, ‘द लेंस’ में कलेक्टिव न्यूज़रूम के डायरेक्टर ऑफ़ जर्नलिज़्म मुकेश शर्मा ने इन सभी सवालों पर चर्चा की।
इस चर्चा में कूटनीतिक मामलों की वरिष्ठ पत्रकार इंद्राणी बागची, कूटनीतिक विश्लेषक राजीव नयन और यरूशलम से वरिष्ठ पत्रकार हरिंदर मिश्रा शामिल हुए।
इसराइल के लिए कैसा होगा ट्रंप का दूसरा कार्यकाल?
इसराइली कैबिनेट ने गज़़ा में युद्धविराम और बंधकों की रिहाई के लिए हमास के साथ हुए समझौते को मंज़ूरी दे दी है। ये समझौता रविवार से लागू होगा।
अमेरिकी चुनाव अभियान के दौरान डोनाल्ड ट्रंप ने यूक्रेन-रूस और मध्य पूर्व में संघर्षों को लेकर कहा था कि अगर वो सत्ता में आए तो ये युद्ध जल्द से जल्द समाप्त हो जाएंगे।
उनके कार्यभार संभालने से पहले ही इसराइल और हमास के बीच गज़़ा युद्धविराम समझौते को मंज़ूरी मिल गई है। ऐसे में सवाल उठता है कि इस युद्धविराम में ट्रंप ने क्या भूमिका निभाई है।
इस पर यरूशलम से वरिष्ठ पत्रकार हरिंदर मिश्रा कहते हैं, ‘संघर्ष विराम की दिशा में ट्रंप की भूमिका को लेकर यहां एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसे ट्रंप ने अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर भी साझा किया।’
उनके मुताबिक़, ‘इस लेख में कहा गया है कि जो काम जो बाइडन अपने कार्यकाल के दौरान नहीं कर पाए, वही ट्रंप के एक विशेष दूत ने केवल एक मुलाक़ात में इसराइल के प्रधानमंत्री बिन्यामिन नेतन्याहू के साथ पूरा कर दिखाया।’
‘इस मुलाक़ात को लेकर कहा जा रहा है कि यह बहुत तनावपूर्ण थी और इसमें नेतन्याहू पर दबाव डाला गया कि किसी भी हालत में संघर्ष विराम हो और बंधकों की रिहाई होनी चाहिए।’
हरिंदर मिश्रा के अनुसार, ‘ऐसा माना जा रहा है कि ट्रंप के नए प्रशासन में वह उन देशों पर अधिक दबाव डालेंगे जो इसराइल के विरोधी हैं या जिनके इसराइल के साथ शत्रुतापूर्ण संबंध हैं।’
ट्रंप के पहले कार्यकाल में इसराइल के प्रति उनकी प्रतिबद्धता बहुत स्पष्ट थी और उन्होंने इसराइल की सुरक्षा को प्राथमिकता दी थी। अब उनके दूसरे कार्यकाल में भी यही उम्मीद की जा रही है कि उनका रुख़ पहले जैसा ही रहेगा।
हालांकि हरिंदर मिश्रा का ये भी कहना है कि, ‘ट्रंप के संभावित फ़ैसलों का अंदाज़ा लगा पाना मुश्किल बना रहेगा। यह हर किसी को सतर्क रखेगा कि उनके रुख़ के बारे में अभी कोई स्पष्टता नहीं है और यह अनिश्चितता बनी रहेगी।’
उन्होंने बताया, ‘नेतन्याहू और ट्रंप के रिश्ते पहले बहुत अच्छे थे, लेकिन ट्रंप का पहला कार्यकाल समाप्त होने और चुनाव हारने के बाद उनके बीच संबंध नहीं थे। अब नेतन्याहू की कोशिश है कि वह ट्रंप से अपने रिश्तों को फिर से सुधारें, लेकिन ट्रंप ने अभी तक इस पर कोई स्पष्ट संकेत नहीं दिए हैं। लेकिन यह ज़रूर है कि इसराइल की सुरक्षा के प्रति उनकी प्रतिबद्धता बरकरार रहेगी।’
कूटनीतिक मामलों की वरिष्ठ पत्रकार इंद्राणी बागची ने ट्रंप की भूमिका पर टिप्पणी करते हुए कहा, ‘ट्रंप के पहले कार्यकाल में इसराइल के साथ उनके रिश्ते गहरे थे। उन्होंने अमेरिकी दूतावास को यरूशलम स्थानांतरित किया और 'अब्राहम अकॉर्ड' समझौते की प्रक्रिया शुरू की। मुझे लगता है कि अब्राहम समझौते का प्रभाव इस संघर्ष के बावजूद भी बना है, जो एक सकारात्मक संकेत है।’
इंद्राणी ने आगे कहा, ‘यह देखना होगा कि यह युद्धविराम समझौता कितनी देर तक क़ायम रहता है और क्या यह अंतत: एक स्थायी शांति समझौते में बदल सकता है या नहीं।’
उन्होंने यह भी कहा, ‘यह संघर्ष विराम समझौता 30 मई को हुआ था, लेकिन इसे लागू नहीं किया जा सका था। अब देखना यह होगा कि यह नया प्रयास कितनी दूर तक जाता है।’
सऊदी अरब से क्या चाहते हैं ट्रंप?
अब्राहम समझौते के तहत इसराइल को संयुक्त अरब अमीरात, मोरक्को, सूडान और बहरीन से मान्यता मिली और इसके लिए अमेरिका ने इन देशों को कई प्रस्ताव दिए।
अमेरिका का लक्ष्य यह है कि सऊदी अरब, जो इस क्षेत्र का सबसे प्रमुख देश है, वह भी इस समझौते में शामिल हो जाए, क्योंकि इससे स्थिति में बड़ा बदलाव आ सकता है।
अब तक, सऊदी क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान इस समझौते से पूरी तरह सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि पहले फ़लस्तीन को एक स्वतंत्र देश का दर्जा मिलना चाहिए और उन्हें उनकी ज़मीन दी जानी चाहिए, तभी दूसरी चीज़ें हो सकती हैं।
सवाल यह है कि क्या ट्रंप प्रशासन इस अब्राहम समझौते को इतना आगे बढ़ा सकता है कि इसराइल फ़लस्तीन को पहचान दे?
इस पर कूटनीतिक विश्लेषक राजीव नयन ने ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के संदर्भ में सऊदी अरब और अन्य अरब देशों के भविष्य के रुख़ पर चर्चा करते हुए कहा, ‘हमारा मानना है कि इस क्षेत्र में फ़लस्तीन और अरब देशों के पक्ष में बहुत बड़ा परिवर्तन होने की संभावना नहीं है। जहां अमेरिका का वर्चस्व है, वहीं इसराइल का भी वर्चस्व रहेगा।’
उन्होंने आगे कहा, ‘सऊदी अरब और यूएई जैसे देश, जो पहले ‘ओपेक प्लस' की राजनीति में सक्रिय थे और रूस और चीन की ओर भी जा रहे थे, अमेरिका के साथ अपने संबंधों को संतुलित करने की कोशिश कर रहे थे। ऐसे में, अमेरिका यह नहीं चाहेगा कि ये देश लाभ का सौदा करें।’
राजीव नयन ने रूस की स्थिति पर भी टिप्पणी करते हुए कहा, ‘रूस, जो सीरिया में प्रभावी रूप से कुछ नहीं कर पाया क्योंकि वह खुद यूक्रेन संकट में फंसा हुआ है, उसकी क्षमता फिलहाल सीमित है। इस समय रूस की स्थिति इतनी मज़बूत नहीं है कि वह सीरिया में सक्रिय रूप से हस्तक्षेप कर सके।’
उन्होंने कहा, ‘अगर ट्रंप और पुतिन के बीच अच्छे संबंध बनते हैं, तो निश्चित रूप से सऊदी अरब, यूएई और अन्य अरब देशों पर दबाव बढ़ेगा।’
राजीव नयन ने कहा, ‘इन देशों के लिए यह चुनौती है कि वे अपने वैकल्पिक राजनीतिक दृष्टिकोण को लेकर इसराइल पर ज़्यादा दबाव नहीं बना पाएंगे, क्योंकि इन देशों की शक्ति और उनके पीछे कौन खड़ा है, इस पर भी बहुत कुछ निर्भर करेगा।’
रूस-यूक्रेन संघर्ष पर कैसा होगा ट्रंप का रुख़?
मध्य पूर्व के संघर्ष के बाद, रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध भी एक महत्वपूर्ण वैश्विक मुद्दा बन गया है। यह चर्चा हो रही है कि जब ट्रंप राष्ट्रपति बनेंगे, तो वह रूस पर दबाव डालकर एक समझौते की स्थिति में पहुंचा सकते हैं।
ऐसे में सवाल उठता है कि ट्रंप रूस-यूक्रेन के बीच जारी संघर्ष को कैसे रोक सकते हैं?
वरिष्ठ पत्रकार इंद्राणी बागची ने ट्रंप की भूमिका पर चर्चा करते हुए कहा, ‘यह आशंका इस कारण व्यक्त की जा रही है क्योंकि ट्रंप और पुतिन के बीच एक पुराने रिश्ते की चर्चा है।’
उन्होंने स्पष्ट किया, ‘मुझे नहीं लगता है कि ट्रंप यूक्रेन को कहेंगे कि आप ऐसे ही रहिए, क्योंकि जिस शांति समझौते की उम्मीद होगी, वह यूरोपीय दृष्टिकोण से होगा। ऐसा नहीं होगा कि रूस को यह कहा जाए कि आपने जो क्षेत्र कब्ज़ा किया है, वह सही है। क्योंकि, जिस भी नज़रिए से देखा जाए रूस ने जो किया है वह अंतरराष्ट्रीय क़ानून के हिसाब से ग़लत है।’
इंद्राणी बागची ने कहा, ‘मुझे नहीं लगता कि ट्रंप इस तरह के समझौते के लिए आ रहे हैं।’
इस पर राजीव नयन ने कहा, ‘बाइडन और ट्रंप के नेतृत्व में फर्क़ है। बाइडन ने पूरी तरह से यूक्रेन का समर्थन किया है, जबकि ट्रंप की स्थिति इससे अलग हो सकती है।’
उन्होंने आगे कहा, ‘वर्तमान में अमेरिकी जनमानस यूक्रेन के साथ खड़ा है और अगर ट्रंप इसे बदलने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें अमेरिकी जनमानस को तैयार करना होगा।’
राजीव नयन ने आगे कहा, ‘ट्रंप में क्षमता है कि बातचीत के ज़रिए कोई रास्ता निकाल सकते हैं। हो सकता है कि एक-दो दिन में रास्ता न निकले, लेकिन 5-6 महीने के अंदर आप आमूल परिवर्तन देखेंगे।’
क्या भारत को टैरिफ वॉर में उलझा देंगे ट्रंप?
भारत और अमेरिका के व्यापार संबंधों में एक नई दिशा देखने को मिल सकती है, क्योंकि ट्रंप प्रशासन ‘अमेरिका फस्र्ट’ नीति पर ज़ोर देता है, जिसका भारत को सामना करना पड़ सकता है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि भारत इस स्थिति को डिप्लोमैटिक तरीके से कैसे संभालेगा।
इस पर इंद्राणी बागची ने कहा, ‘पिछली बार भी ट्रंप ने भारत के स्टील और एल्युमिनियम पर टैरिफ लगाए थे। और कुछ हफ्ते पहले भी उन्होंने टैरिफ़ को लेकर बात कही थी।’
उन्होंने कहा, ‘देखना होगा कि मोदी सरकार इस बार अपने तीसरे कार्यकाल में अमेरिका के साथ समझौते को लेकर क्या रणनीतिक दृष्टिकोण अपनाती है और यह न केवल भारत के लिए बल्कि अमेरिका के लिए भी लाभकारी हो।’
उन्होंने आगे कहा, ‘अगर हम कहते हैं कि भारत विश्व में चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है तो कोई हमारे साथ उस तरह से समझौता नहीं करेगा। हमें देखने की ज़रूरत है कि कहां पर हम अपने आप को मज़बूत कर सकते हैं।’
भारत, पाकिस्तान और अफग़ानिस्तान के बीच संतुलन बनाना अमेरिकी रणनीति के लिए महत्वपूर्ण है। इन तीन देशों का अपने-अपने संदर्भ में अमेरिका के साथ गहरा संबंध है और दक्षिण एशिया की अमेरिकी रणनीति में इन देशों की भूमिका बहुत अहम रहेगी।
दक्षिण एशिया में भारत, पाकिस्तान, अफग़़ानिस्तान, भूटान, नेपाल, श्रीलंका, बांग्लादेश और मालदीव आते हैं। विश्व बैंक का अनुमान है कि इस इलाक़े में 1।94 अरब लोग रहते हैं। दक्षिण एशिया में भारत एक तेज़ी से उभरती हुई अर्थव्यवस्था है।
इन देशों में भारत ने कुछ सालों में अपनी स्थिति मज़बूत बनाई है। ऐसे में सवाल ये उठता है कि क्या ट्रंप के दूसरे कार्यकाल में भारत की स्थिति वैसे ही रहेगी?
इस पर इंद्राणी बागची ने कहा, ‘अमेरिका के साथ पाकिस्तान और अफग़ानिस्तान के बीच के रिश्ते में काफ़ी बदलाव आ चुका है।’
उन्होंने कहा, ‘पिछले कई हफ्तों में अमेरिका ने पाकिस्तान की मिसाइल संस्थाओं पर प्रतिबंध लगाए हैं। अमेरिका का कहना है कि पाकिस्तान एक लंबी दूरी वाली मिसाइल बना रहा है। अमेरिका ने सोचा कि ये मिसाइल उनके खिलाफ जा सकती है।’ (bbc.com/hindi)