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DILIP SHARMA
-दिलीप कुमार शर्मा
"कुछ लोग हम जैसे बच्चों की उपेक्षा करते हैं. मेरे बारे में कुछ लोग कहते थे कि सुबह-सुबह अंगहीन को देखना नहीं चाहिए. जीवन में ऐसी बहुत सारी तकलीफे़ं देखी हैं, लेकिन मैंने हार नहीं मानी. भगवान मेरे दोनों हाथ बनाना भूल गए लेकिन मैं कभी निराश नहीं हुई. मैंने अपने पैरों से सारे काम करना सीख लिया है."
21 साल की प्रिंसी गोगोई जब ये बातें कहती हैं तो उनकी आँखें अटूट विश्वास से और चमकने लगती हैं.
असम के एक छोटे से शहर सोनारी में 12 जुलाई 1999 में पैदा हुई प्रिंसी के जन्म से ही दोनों हाथ नहीं हैं. सामान्य बच्चों से अलग प्रिंसी कई मुश्किलों से गुज़री हैं, लेकिन आगे बढ़ने की राह में शारीरिक अक्षमता को बाधा नहीं बनने दिया.
फ़िलहाल बिना हाथ वाली यह लड़की गुवाहाटी के एक प्राइवेट हॉस्पिटल में फ्रंट डेस्क एग्जीक्यूटिव की नौकरी कर अपने घर का ख़र्च उठा रही हैं.
प्रिंसी की चार बहनें और एक छोटा भाई है. उनसे बड़ी उनकी दो बहने हैं. सिवाए उनके, परिवार में आजतक कोई भी बच्चा विकलांग पैदा नहीं हुआ है.
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कुछ लोगों की मानसिकता आज भी नहीं बदली
प्रिंसी को दुख है कि विकलांग बच्चों के प्रति कुछ लोगों की मानसिकता आज भी नहीं बदली है.
वह कहती हैं, "जब मेरा जन्म हुआ था तो अस्पताल में ही लोग बातें बनाने लग गए थे. मां ने मुझे सबकुछ बताया है. वे लोग ऐसे बच्चे को अशुभ मानते हैं. मेरी मां को बहुत सहना पड़ा है. आस-पास के लोग बात तक नहीं करते थे. वह किसी शादी या बैठक में नहीं जाती थीं. लोग कहते थे कि ऐसी लड़की को क्यों जन्म दिया है."
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वह कहती हैं, "मुझे अपने गांव के एक सरकारी स्कूल में कक्षा पांच में दाख़िला केवल इसलिए नहीं दिया गया, क्योंकि मेरे दोनों हाथ नहीं हैं. स्कूल के एक शिक्षक ने मुझे मानसिक तौर पर विक्षिप्त कहकर अपने स्कूल में भर्ती करने से मना कर दिया. लेकिन कहते हैं कि एक दरवाज़ा बंद होता है, तो ईश्वर दूसरा खोल देता है. बाद में हमारे गांव के ही एक व्यक्ति की मदद से मेरा दाख़िला एक प्राइवेट स्कूल में हो गया और वहीं से मैंने 10वीं पास की. दुनिया में सारे लोग एक जैसे नहीं होते. जीवन में कुछ ऐसे लोग भी मिले जिनकी मदद से आज बहुत कुछ बदला है."
प्रिंसी बताती हैं, "मैं डॉक्टर हितेश बरुआ सर की बहुत आभारी हूं जिन्होंने मुझे अपने अस्पताल में नौकरी दी. यहां काम करने वाले सभी साथी मुझे प्यार करते हैं. मेरी मदद करते हैं. मैं भले ही दूसरों से अलग हूं लेकिन कमज़ोर नहीं हूं. मैं अस्पताल में इलाज के लिए आने वाले सभी लोगों की मदद करने का प्रयास करती हूं. मुझे बहुत खुशी होती है कि अस्पताल के लोग मुझे विकलांग लड़की के तौर पर नहीं देखते और मुझे सामान्य समझते हैं."
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मेडिकल साइंस में बिना हाथ-पैर के पैदा होने वाले बच्चों को टेट्रो अमेलिया सिंड्रोम कहते है जो एक जेनेटिक बीमारी मानी जाती है. ऐसे बच्चों के माता-पिता या फिर उनकी किसी पीढ़ी में इस बीमारी के जीन्स होते हैं.
ऐसा कहा जाता है कि कई पीढ़ियों बाद ये किसी बच्चे में उभरकर सामने आ जाते हैं. हालांकि ऐसे मामले लाखों में एक होते हैं. प्रिंसी की मां रंजू गोगोई अपनी इस बेटी को सबसे विशेष बच्ची मानती हैं.
वो कहती हैं, "प्रिंसी का जन्म एक सरकारी अस्पताल में हुआ था और डॉक्टर ने जब उसे पहली बार देखा तो वे घबरा गए थे. लेकिन मेरे लिए प्रिंसी बहुत स्पेशल है. उसमें अनोखी प्रतिभाएं हैं. आर्थिक तौर पर बेहद कमज़ोर होने के बाद भी आज प्रिंसी की हिम्मत की बदौलत हम गुवाहाटी जैसे शहर में रह रहे हैं."
रंजू गोगोई कहती हैं कि उन्हें याद नहीं कि उनकी किसी पीढ़ी में ऐसे किसी बच्चे का जन्म हुआ था, जिसके हाथ या फिर पैर न हों.
अपनी आर्थिक परेशानियों का ज़िक्र करते हुए प्रिंसी की मां कहती हैं, "प्रिंसी के पिता दिहाड़ी मज़दूरी कर घर का ख़र्च निकाल रहे थे. हमने कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन प्रिंसी घर का ख़र्च उठाएगी. 12वीं की बोर्ड परीक्षा में प्रशासन की एक ग़लती के कारण प्रिंसी को तीन पेपरों में अनुपस्थित बताया गया था, जबकि उसने सारे पेपर दिए थे. उसी सिलसिले में प्रिंसी गांव से गुवाहाटी आई थी. इसके बाद उसने कॉलेज की पढ़ाई गुवाहाटी में करने का निर्णय लिया. इस बीच गुवाहाटी में नेमकेयर अस्पताल के प्रबंधक निदेशक डॉ. हितेश बरुआ ने प्रिंसी को देखा और उसे अपने अस्पताल में नौकरी दे दी. फिलहाल प्रिंसी ही अपने छोटे भाई-बहन की पढ़ाई का ख़र्च उठा रही हैं."
सरकारी मदद के बारे में वह कहती हैं, "असम के स्वास्थ्य मंत्री हिमंत बिस्व सरमा की तत्परता से चार साल पहले प्रिंसी को कृत्रिम हाथ लगाने के लिए तीन लाख रुपए की मदद मिली थी. कृत्रिम हाथ लगवाने कोलकाता भी गए थे, लेकिन कृत्रिम हाथ प्रिंसी के काम नहीं आए. शरीर में जिस हिस्से से हाथ निकलते हैं, उस जगह प्रिंसी के शरीर में माँस ही नहीं है. चार किलो वज़न वाले हाथ प्रिंसी के शरीर में फिट नहीं हुए. हम चाहते हैं कि राज्य सरकार प्रिंसी को एक सरकारी नौकरी दे ताकि उसका बाकी जीवन आसानी से कट सके."
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आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ते कदम
प्रिंसी ने पैरों से लिखकर कला स्ट्रीम में 12वीं पास की है और वह आगे स्नातक की पढ़ाई गुवाहाटी स्थित कृष्णा कांता हैंडिक स्टेट ओपन यूनिवर्सिटी से कर रही हैं. अपने छुट्टी वाले दिन रविवार को प्रिंसी गुवाहाटी के एसबी देवरा कॉलेज में आयोजित होने वाले साप्ताहिक व्याख्यानों में भाग लेती हैं.
खुद को रिलैक्स करने के लिए प्रिंसी म्यूज़िक सुनती हैं और पेंटिंग, गाने के साथ स्पोर्ट्स का भी शौक है. अपने पैरों की उंगलियों से ब्रश को पकड़कर प्रिंसी ने कई शानदार पोर्ट्रेट पेंट किए हैं.
हाल ही में उन्होंने भगवान गणेश की एक तस्वीर बनाई है जिसे सोशल मीडिया पर बड़ी तारीफ़ मिली है. प्रिंसी ने अपनी इस प्रतिभा के दम पर राज्य स्तरीय कला और ड्राइंग प्रतियोगिताओं में कई पुरस्कार जीते हैं. वह मोबाइल फोन, कम्प्यूटर चलाने से लेकर चाय का कप उठाने तक सारे काम अपने पैरों से ही करती हैं.
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अपनी इस प्रतिभा पर वो कहती है, "पेंटिंग मेरा शौक है. मैंने 8 साल की उम्र से इसे औपचारिक रूप से सीखना शुरू कर दिया था. पहले शिवसागर में और अब गुवाहाटी में मेरे गुरू हैं जो मुझे पेंटिंग सिखा रहे हैं. मेरा मानना है कि दुनिया मे कोई भी व्यक्ति संपूर्ण नहीं होता. केवल अपने अंदर के विश्वास को मज़बूत करने की ज़रूरत होती है. मुझे पेंटिंग करने से ख़ुशी मिलती है और जब भी समय मिलता है, मैं घर पर अभ्यास करती हूं."
एक सवाल का जवाब देते हुए प्रिंसी कहती हैं, "लोग अक्सर अपनी ज़िंदगी में छोटी-बड़ी परेशानियों से निराश हो जाते हैं. लेकिन ज़रा सोचिए केवल एक दिन आपको बिना हाथ के जीना पड़े तो अचानक जीवन कितना मुश्किल में पड़ जाएगा. इसलिए मेरी सभी से गुज़ारिश है कि शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों से प्यार करें और उनको आगे बढ़ने में मदद करें."
असम सरकार ने प्रिंसी की प्रेरणा भरी कहानी को सातवीं कक्षा की असमिया किताब में शामिल किया है. गुवाहाटी में आयोजित होने वाले कई कार्यक्रमों में प्रिंसी को लोग अब अतिथि के तौर पर बुलाते हैं.
शारीरिक तौर पर अक्षम बच्चों के लिए एक आर्ट स्कूल खोलने का सपना पाल रहीं प्रिंसी केवल इतना चाहती हैं कि लोग किसी की विकलांगता को उसकी कमज़ोरी न समझें, क्योंकि हर इंसान के अंदर एक ख़ूबसूरत दिल धड़कता है. (bbc.com)