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2025 में भी भारत में 'डायन' बताकर की जा रही महिलाओं की हत्या
10-Jul-2025 1:09 PM
2025 में भी भारत में 'डायन' बताकर की जा रही महिलाओं की हत्या

महिलाओं को डायन बताकर उनकी हत्या करना सदियों से समाज का हिस्सा रहा है, ना सिर्फ भारत बल्कि दूसरे देशों में भी. हाल ही में बिहार में एक परिवार के पांच सदस्यों को जादू टोना करने और डायन होने के शक में जिंदा जला दिया गया.

 डॉयचे वैले पर रितिका की रिपोर्ट- 
यूरोप और अमेरिका के कई इलाकों में तेरहवीं शताब्दी से लेकर सत्रहवीं शताब्दी तक, महिलाओं को अलग अलग कारणों से डायन बता कर जिंदा जला दिया जाता था. कई मामलों में पुरुषों के साथ भी ऐसा होता था. अट्ठारहवीं शताब्दी आते आते कई देशों में इसके खिलाफ कानून लाए गए. आखिरकार इस प्रथा पर रोक लगी. हालांकि, इस बात का कोई आधिकारिक आंकड़ा मौजूद नहीं है कि कितने लोगों की मौत इस अंधविश्वास के कारण हुई.

यूरोप में आखिरी बार, 1734 में डायन बताकर जिस महिला का सिर कलम किया गया, उसका नाम आना गोल्डी था. इतिहास में उनका जिक्र 'आखिरी डायन' के नाम से भी मिलता है. यह करीब ढाई सौ साल पहले का यूरोप था, लेकिन वर्तमान के भारत के कुछ राज्यों में आज भी डायन प्रथा जारी है. साल 2025 में भी किसी महिला के आखिरी डायन होने का दावा नहीं किया जा सकता. इस प्रथा के जार रहने की वजहें आज भी वही हैं

हालिया घटना बिहार के पूर्णिया जिले की है. बीती 6 जुलाई की रात, टेटगामा गांव के ललित कुमार के माता-पिता, दादी, भाई और भाभी को जिंदा जला दिया गया. गांव वालों को शक था कि परिवार जादू टोना करता है और मृतक महिलाओं पर डायन होने का शक था. समाचार एजेंसी एएनआई से बातचीत के दौरान ललित ने कहा, "मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा कि मेरे परिवार को जिंदा जला दिया गया.”

पुलिस ने अब तक तीन लोगों को गिरफ्तार किया है लेकिन उनके मुताबिक इस घटना में गांव के कई लोग शामिल थे. पूर्णिया के जिलाधिकारी अंशुल कुमार के मुताबिक अब तक करीब 150 अज्ञात लोगों पर एफआईआर दर्ज की गई है और 23 आरोपियों की भी पहचान कर ली गई है.

राष्ट्रीय आपराधिक ब्यूरो के आंकड़े बताते हैं कि साल 2000 से लेकर अब तक भारत में डायन बताकर करीब 2500 से अधिक महिलाओं की हत्या की गई है. यह हत्याएं सिर्फ अंधविश्वास का नतीजा नहीं हैं बल्कि लिंग, जाति, अशिक्षा, वर्ग संघर्ष जैसे कई कारण इन हत्याओं की वजह बनते हैं. डायन का आरोप लगाकर महिलाओं की हत्या के अलावा सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार, उन्हें मल मूत्र खिलाना, यौन हिंसा, मारपीट जैसी यातनाएं दी जाती हैं.

हाशिये से आने वाली महिलाओं को डायन बताने का प्रचलन अधिक

भारत की नारीवादी संस्था निरंतर ट्रस्ट ने 2023-24 में डायन प्रथा पर एक सर्वे किया था. सर्वे के मुताबिक बिहार में करीब 75,000 महिलाएं इस डर में जीती हैं कि उन पर डायन होने का आरोप मढ़ दिया जाएगा. सर्वे में शामिल 10 जिलों के 114 गांवों  में कम से कम दो महिलाएं ऐसी जरूर मिलीं जिन्हें यह डर था. संस्था ने ऐसी 145 महिलाओं से भी बात की जिन पर कभी डायन होने या जादू टोना करने का आरोप लगाया गया था.

जिन महिलाओं पर ऐसे आरोप लगाए गए उनमें से सिर्फ एक महिला ही सवर्ण जाति की थी. सात महिलाएं मुस्लिम, 82 महिलाएं पिछड़ी जातिओं, 6 महिलाएं अनुसूचित जनजाति और 51 अनुसूचित जाति से थीं. 74 फीसदी महिलाओं की उम्र 45 से अधिक थी और उनमें से अधिकतर अशिक्षित थीं. रोजगार के नाम पर 67 फीसदी महिलाएं, दिहाड़ी मजदूरी करके अपना काम चला रही थीं.

संतोष शर्मा निरंतर ट्रस्ट से जुड़ी हैं और इस सर्वे में भी वह शामिल थी. डीडब्ल्यू से बातचीत के दौरान उन्होंने बताया "हमारे अध्ययन में जिन महिलाओं को डायन बताया गया, उनमें अधिकांश दलित और मुस्लिम समुदाय से थीं, जिनके पास कम सामाजिक, आर्थिक संसाधन हैं और जिनको समाज आसानी से निशाना बना सकता है."  शर्मा का कहना है, "जब हम गांवों में फील्ड वर्क कर रहे थे तो मैं एक महिला से बात कर रही थी, मैंने उनसे पूछा कि क्या ऊंची जातियों में भी ऐसी घटनाएं होती हैं? उन्होंने साफ कहा, नहीं, कोई हिम्मत नहीं करता किसी ऊंची जाति की औरत को डायन कहने की."

पिछड़ी जातियों से होने के साथ साथ गरीबी भी इन महिलाओं को डायन बताने की बड़ी वजह है. ट्रस्ट के सर्वे में यह भी निकलकर आया कि वे महिलाएं जो ज्यादा पूजा पाठ करती हैं, उन पर डायन होने का शक अधिक होता है. सर्वे में शामिल महिलाओं ने इसे ऐसे समझाया, "ऊंची जातियों से आने वाले लोगों के घर पक्के होते हैं, दीवारें होती हैं, दरवाजे होते हैं. हमें नहीं पता कि उनके घरों के अंदर क्या हो रहा है. लेकिन हमारे घर कच्चे होते हैं, सब कुछ खुला होता है. हम क्या खा रहे हैं, पूजा कर रहे हैं या नहीं, कहां नहा रहे हैं. सब कुछ समाज के सामने होता है. इसलिए हमें निशाना बनाना आसान होता है."

 

 

सीमाएं लांघने वाली महिलाएं डायन?

डायन प्रथा की घटनाएं सिर्फ बिहार नहीं बल्कि असम, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, झारखंड, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे राज्यों में भी दर्ज होती हैं. इन घटनाओं से यह तस्वीर साफ होती है कि गरीब, शोषित जातियों से आने वाली महिलाएं इस प्रथा से सबसे अधिक पीड़ित हैं. संतोष कहती हैं, "मेरा मानना है कि यह प्रथा इसलिए बनी हुई है क्योंकि यह गरीब और हाशिये की महिलाओं की समस्या है. उनके पास ना सामाजिक ताकत है, ना नेटवर्क, ना आर्थिक संसाधन.”

लाइब्रेरी ऑफ कांग्रेस में प्रकाशित एक पेपर के मुताबिक जिन महिलाओं को प्राचीन यूरोप में डायन बताकर निशाना बनाया जाता था वे भी हाशिये से आती थी. जैसे विधवा महिलाएं या जिनकी शादी नहीं हुई है या जिनका कोई पुरुष अभिभावक ना हो उन्हें समाज कमजोर महिला के तौर पर देखता था. फ्रांस में उन महिलाओं को भी डायन बता दिया जाता था जो पेशे से नर्स थी. खासकर तब जब अगर प्रसव के दौरान मां या बच्चे की मौत हो जाती तो नर्स को इसका दोषी माना जाता था.

कई सौ साल बीत जाने के बाद वजहें आज भी कमोबेश वही नजर आती हैं. संतोष शर्मा कहती हैं, "हमारी रिपोर्ट में शामिल 56 फीसदी महिलाएं किसी ना किसी नेतृत्व की भूमिका में थीं, जैसे आशा कार्यकर्ता, सहयोगी या गांव स्तर की समितियों की सदस्य. वे बाहर जाती थीं, लोगों से बातचीत करती थीं तो यह समाज की 'सीमाएं लांघने' जैसा था. इसलिए समाज उन्हें उनकी 'औकात' दिखाना चाहता है. हमारा सर्वे यह दिखाता है कि जो महिलाएं मुखर होती हैं, नेतृत्व की भूमिका में होती हैं, उन्हें अधिक खतरा होता है."

कानून से बेखबर व्यवस्था कैसे दिलाएगी न्याय?

बिहार उन पहले राज्यों में से भी एक है जहां डायन प्रथा के खिलाफ कानून लाया गया. असम, राजस्थान, छत्तीसगढ़, ओडिशा और झारखंड में भी डायन बताकर किसी को प्रताड़ित करना अपराध के दायरे में आता है. हालांकि कानूनों की मौजूदगी के बीच लैंगिक अपराध के इस रूप का सामान्यीकरण हो चुका है.

आंकड़ों के मुताबिक यह घटनाएं आमतौर पर ग्रामीण, पिछड़े इलाकों में दर्ज की जाती हैं. सर्वे में जिन महिलाओं पर डायन होने का आरोप लगाया गया उन्होंने बताया कि अगर वे इस बात की शिकायत करती भी हैं तो उन्हें कार्रवाई की कोई उम्मीद नहीं रहती है. महिलाओं का कहना था कि अगर वे इसकी शिकायत करेंगी तो समाज और समुदाय उनका और दुश्मन बन जाएगा.

संतोष इस बात से सहमति जताते हुए कहती हैं, "हमने 81 पंचायतों से बात की तो अधिकतर ने कहा कि उन्हें बिहार के डायन निषेध अधिनियम के बारे में कोई जानकारी नहीं है. पंचायतें, जो पहले संपर्क बिंदु होनी चाहिए, उन्हें खुद नहीं पता कि ऐसा कोई कानून है. उन्हें ना इसकी कॉपी मिली, ना कोई फंड. सिर्फ पांच फीसदी पंचों ने कहा कि उन्होंने इस मुद्दे पर कभी चर्चा की थी. जो संस्थाएं इसे रोक सकती हैं, वे खुद जागरूक नहीं हैं."

संतोष यह भी कहती हैं कि चूंकि ये महिलाएं समाज के कमजोर तबके से आती है इसलिए इन घटनाओं के खिलाफ उतना आक्रोश नहीं दिखता. उनका कहना है, 2012 दिल्ली गैंगरेप की घटना हो या 2024 में आरजीकर रेप केस तब जो रोष और आंदोलन हमने देखा वह तब नहीं होता जब कोई दलित लड़की के साथ लैंगिक हिंसा होती है. सरकार और समाज तभी प्रतिक्रिया देते हैं जब मामला प्रभुत्वशाली वर्ग की महिलाओं का होता है."


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