राष्ट्रीय
भारत और जर्मनी दोनों ही लोकतांत्रिक देश हैं. लेकिन इन दोनों देशों के चुनावी माहौल में काफी अंतर होता है. भारत में जहां चुनावी शोर जमकर सुनाई देता है, वहीं जर्मनी में विरोध प्रदर्शनों की गूंज दूर तक जाती है.
डॉयचे वैले पर आदर्श शर्मा की रिपोर्ट-
तारीख- 23 फरवरी, 2025. जर्मनी की राजधानी बर्लिन में आम दिनों की तरह चहलकदमी हो रही थी. सड़कों पर गाड़ियां रफ्तार भर रही थीं और फुटपाथ पर लोग घूम रहे थे. कुछ जगह पर पुलिस भी तैनात थी लेकिन माहौल देखकर इस बात का अंदाजा बिल्कुल नहीं लग रहा था कि ये जर्मनी के लिए बेहद खास दिन है. दरअसल, इस दिन यहां संसदीय चुनावों के लिए मतदान हो रहा था.
भारत में जहां लोकसभा चुनाव के लिए कई चरणों में मतदान होते हैं और पूरी प्रक्रिया में लगभग डेढ़ महीने का समय लग जाता है वहीं, जर्मनी में संसदीय चुनाव एक दिन में ही पूरे हो जाते हैं. मतदान के बाद उसी दिन शाम से नतीजे आने की भी शुरुआत हो जाती है. यहां मतदान केंद्रों पर ही वोटों की गिनती की जाती है और फिर आंकड़े आगे भेज दिए जाते हैं. हालांकि, कुल मिलाकर देखें तो जर्मनी में संसदीय चुनाव की प्रक्रिया भारत की तुलना में कहीं अधिक जटिल है.
भारत से 16 गुना कम हैं जर्मनी में मतदाता
जर्मनी में एक दिन में संसदीय चुनाव पूरे होने की एक वजह यह भी है कि यहां पर मतदाताओं की संख्या भारत की तुलना में काफी कम है. भारत में पिछले साल हुए लोकसभा चुनावों के दौरान पंजीकृत मतदाताओं की संख्या करीब 98 करोड़ थी. वहीं, जर्मनी में लगभग 5.9 करोड़ लोगों के पास ही वोट देने का अधिकार है. इसके अलावा, जर्मनी में चुनाव के दिन हिंसा का खतरा भी बेहद कम होता है. इसलिए एक दिन में चुनाव करवाना आसान हो जाता है.
जर्मनी में चुनाव के नतीजों को लेकर भारत जितनी उत्सुकता भी नहीं रहती. इसकी वजह यह है कि यहां के चुनावी सर्वे काफी हद तक सटीक होते हैं. इससे लोगों को पहले ही एक अनुमान मिल जाता है कि किस पार्टी को कितने प्रतिशत वोट मिल रहे हैं. इस बार के नतीजे भी जनमत सर्वेक्षणों में बताए गए आंकड़ों के बेहद करीब हैं. चुनावी सर्वे के आंकड़ों और वास्तविक नतीजों में कोई चौंकाने वाला अंतर नहीं है.
इस बार क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन (सीडीयू) और उसकी सहयोगी पार्टी क्रिश्चियन सोशल यूनियन (सीएसयू) को सबसे ज्यादा 28.6 फीसदी वोट मिले हैं. चांसलर ओलाफ शॉल्त्स की पार्टी सोशल डेमोक्रेटिक यूनियन (एसपीडी) को 16.4 फीसदी वोट मिले हैं. धुर-दक्षिणपंथी पार्टी अल्टरनेटिव फॉर डॉयचलैंड (एएफडी) के वोट पिछली बार के मुकाबले दोगुने हो गए हैं. उसे देश भर में 20.8 फीसदी वोट मिले हैं.
जर्मनी में अलग तरह से होता है चुनाव प्रचार
भारत में चुनाव के दौरान एक अलग ही माहौल होता है. प्रमुख नेताओं की बड़ी-बड़ी रैलियां और रोड शो होते हैं. सड़क-चौराहों पर बड़े-बड़े बैनर-पोस्टर लगाए जाते हैं. इसके अलावा, लाउडस्पीकर जैसे माध्यमों से भी प्रचार किया जाता है. लेकिन जर्मनी में चुनाव प्रचार इससे काफी अलग होता है. यहां छोटे-छोटे कार्यक्रमों के जरिए मतदाताओं को आकर्षित किया जाता है. इन कार्यक्रमों में शामिल होने वाले लोगों की संख्या बेहद सीमित होती है.
इसे एक उदाहरण से समझते हैं. डीडब्ल्यू हिंदी की टीम ने चुनाव के दौरान राजधानी बर्लिन और तीन राज्यों- थुरिंजिया, सैक्सनी और सैक्सनी-अनहाल्ट का दौरा किया था. थुरिंजिया की राजधानी एरफुर्ट में हमारी टीम ने सीडीयू पार्टी के एक कार्यक्रम को कवर किया. इस कार्यक्रम में थुरिंजिया के मुख्यमंत्री मारियो फॉइग्ट और सांसद पद के उम्मीदवार मिसाएल होसे समेत सीडीयू के कई बड़े नेता शामिल हुए थे. लेकिन कार्यक्रम में आए लोगों की संख्या 100 के आसपास ही थी.
जर्मनी में ज्यादातर चुनावी कार्यक्रम इसी तरह होते हैं. जिनमें राजनेता अपनी पार्टी का एजेंडा लोगों को बताते हैं और उन्हें प्रभावित करने की कोशिश करते हैं. हालांकि, चांसलर पद के उम्मीदवारों के चुनावी कार्यक्रमों में ज्यादा लोग जुटते हैं. लेकिन वह संख्या भी भारत की तुलना में बेहद कम होती है. दरअसल, जर्मनी में चुनावी कार्यक्रमों में जुटने वाली भीड़ किसी पार्टी या राजनेता की लोकप्रियता का पैमाना नहीं होती.
विरोध प्रदर्शनों में जुटती है ज्यादा भीड़
जर्मनी में इस बार रिकॉर्ड 83.5 फीसदी मतदान हुआ. यह 1990 में हुए जर्मनी के एकीकरण के बाद सबसे ज्यादा है. यह आंकड़ा दिखाता है कि जर्मन नागरिक इन चुनावों को लेकर कितने गंभीर थे. युवाओं ने भी इस बार मतदान में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. उन्होंने सीडीयू और एसपीडी के बजाय एएफडी और लेफ्ट पार्टी को ज्यादा वोट दिए. 18 से 24 साल के 25 फीसदी मतदाताओं ने लेफ्ट पार्टी और 21 फीसदी ने एएफडी को वोट दिया.
जर्मनी की युवा आबादी राजनीतिक तौर पर काफी मुखर रहती है. युवा अपनी पसंदीदा पार्टियों का समर्थन करते हैं तो विरोधी पार्टियों के खिलाफ प्रदर्शन भी करते हैं. इन प्रदर्शनों में हजारों की संख्या में भीड़ जुटती है. ये प्रदर्शन काफी रचनात्मक होते हैं. इनमें गाने गाए जाते हैं, नारे लगाए जाते हैं और रंग-बिरंगे पोस्टर और झंडे लहराए जाते हैं. इन पोस्टरों पर अलग-अलग संदेश लिखे होते हैं. बर्लिन में तो प्रदर्शनों के लिए एक खास बस भी मौजूद है, जिसमें लाइटें और म्यूजिक सिस्टम जैसी कई चीजें लगी हैं.
इस बार सबसे ज्यादा विरोध प्रदर्शन एएफडी के खिलाफ हुए. ये प्रदर्शन अलग-अलग शहरों में और अलग-अलग समय पर हुए. चुनावों में सबसे ज्यादा वोट पाने वाली पार्टी सीडीयू भी इन प्रदर्शनों से अछूती नहीं रही. जनवरी में प्रवासियों से जुड़े एक बिल पर सीडीयू को एएफडी का साथ मिला था. इसके बाद, कई शहरों में सीडीयू के खिलाफ प्रदर्शन हुए थे. बर्लिन में हुए एक विरोध प्रदर्शन में तो डेढ़ लाख से ज्यादा लोग शामिल हुए थे. यहां विरोध की इस संस्कृति को लोकतंत्र का अहम हिस्सा माना जाता है. (dw.com/hi)