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राजस्थान का मंत्रिमंडल भाजपा को लोकसभा के भंवर से कितना पार लगा पाएगा?
31-Dec-2023 1:50 PM
राजस्थान का मंत्रिमंडल भाजपा को लोकसभा के भंवर से कितना पार लगा पाएगा?

त्रिभुवन

पिछले कुछ दिन से राजस्थान की सियासत के सुलगते आंगन में शनिवार को ख़्वाबों की ऐसी बारिश हुई कि कहीं कोंपलें महक उठीं और कहीं नए-नवेले पत्ते निकल आए.

मंत्रिमंडल के लिए चुने गए चेहरों से आख़िर उस क़िस्से की हक़ीक़त तारी हो ही गई कि इतने इंतज़ार के पीछे क्या वजहें थीं और ख़ौफ़ क्या थे. इसे ख़ौफ़ न भी कहें तो एक सजगता भी मान सकते हैं.

विधानसभा चुनावों के शुरू होने से ठीक पहले भाजपा के हिंदुत्व कार्ड के बरअक्स मूल ओबीसी के समर्थन में एक आवाज़ देश के कई कोनों में प्रबल वेग से गूंज रही थी.

इसका बहुत अधिक तो नहीं, लेकिन कुछ असर राजस्थान में भी दिखाई दिया था. भाजपा का हाईकमान अपने हिंदुत्व कार्ड के मुक़ाबले मूल ओबीसी के पक्ष में उठी आवाज़ों से बहुत चौकन्ना है और वह लोकसभा चुनावों को लेकर किसी तरह की ढील नहीं देना चाहता.

चुनाव और जातिगत समीकरण

मंत्रिमंडल का चयन साफ़ बताता है कि भाजपा हाईकमान सिर से पांव तक सुलगती शाम के मंज़र को भांप चुका है और उसने सियासत की नई चुनौतियों के बीच एक जादू की बस्ती बसाने की कोशिश की है.

लोकसभा चुनावों के जातिगत समीकरण साधने की यह कवायद इतनी दिलचस्प है कि उसने ऊसर-बंजर बियाबाँ में एक फूलों भरा रास्ता बनाने की बाज़ीगरी की है. राजस्थान के इतिहास में शायद पहली बार दो भील मीणा कैबिनेट मंत्री बनाए गए हैं.

मीणा वर्चस्व वाली राजस्थानी सियासत में अब तक पूर्व के मीणाओं का ही प्रभुत्व रहा है. लेकिन इस बार भाजपा ने इस समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले और सब समाजों के लिए लड़ाके नेता की भूमिका निभाने वाले डॉ. किरोड़ीलाल मीणा के अलावा किसी को कैबिनेट मंत्रियों में नहीं लिया है.

इससे साफ़ लगता है कि भाजपा ने सियासत की उस ऋतु को भांपने की कोशिश की है, जो राजस्थान के आदिवासी इलाक़े में नए सियासी मंज़र खड़ा कर चुकी है.

राजनीतिक प्रेक्षकों के अनुसार भाजपा के रणनीतिकारों से इस मामले में एक चूक भी हुई है. उन्होंने बांसवाड़ा और डूंगरपुर के दो ज़िलों को मिलाकर बनने वाली बांसवाड़ा लोकसभा सीट के तहत आने वाले किसी विधायक को मंत्री नहीं बनाया है.

जिन दो भील मीणाओं को कैबिनेट मंत्री बनाया गया है, उनमें एक उदयपुर के झाड़ोल से हैं और दूसरे प्रतापगढ़ से.

भील मीणाओं से बहुल दो ज़िलों की आठों विधानसभाओं को देखते हुए यह अनदेखी एक तरह का जोख़िम भी है, क्योंकि इस इलाके में भारतीय आदिवासी पार्टी और भारतीय ट्रायबल पार्टी अपना प्रभाव बढ़ाती जा रही हैं.

ओबीसी को दी अहमियत

राजस्थान में ढेरों ऐसी जातियां हैं, जिन्हें सरकारों में आज़ादी के बाद से कभी भी सही प्रतिनिधित्व नहीं मिला.

हालात ऐसे हैं कि अनुसूचित जाति और मूल पिछड़ा वर्ग की कितनी ही जातियों के बच्चे आज भी स्कूलों की देहरी तक देख भी नहीं पाए हैं.

इन हालात में बरसों से अनुसूचित जातियां और अन्य पिछड़ा वर्ग की मूल जातियां प्रदेश की सत्ता में जाटों-राजपूतों और ब्राह्मणों का वर्चस्व देखकर अपनी आस्तीनें भिगोती रही हैं.

भाजपा अब तक हिंदुत्व और इस बार सनातन के सहारे सियासत में नए मंत्र लेकर उतरी तो कांग्रेस के रणनीतिकारों ने उसकी काट मूल ओबीसी के मुद्दों के रूप में देखी और घोषणा की कि उनकी सरकार बनी तो वे जातिगत जनगणना करवाकर प्रतिनिधित्व को तो सही करेंगे ही, सामाजिक न्याय की नई राहें भी तलाशेंगे.

भाजपा के रणनीतिकारों को लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र महसूस हुआ है कि पहले तो सियासत की राहगुज़र इस तरह न थी. लिहाज़ा, उसने इस बार मूल ओबीसी की जातियों के चार कैबिनेट मंत्री बना डाले.

इनके अलावा एक को स्वतंत्र प्रभार वाला राज्य मंत्री बनाया है तो छठे विधायक को राज्य मंत्री का दर्जा दिया है.

इस तरह भाजपा के रणनीतिकारों ने कलबी-पटेल, रावत, माली, कुमावत, धाकड़ और देवासी जैसे समाजों को प्रतिनिधित्व देकर उपेक्षित मूल ओबीसी संबंधित जातियों के बिफरे और बिखरे हुए दरिया में नई मौज उतारने की कोशिश की है.

नाराज़ ब्राह्मणों को भी संतुष्ट करने की कवायद

उत्तर भारत में कुछ समय से ब्राह्मण समुदाय से जुड़ी जातियों में भाजपा के प्रति एक नाराज़गी का सुर शुरू होता दिख रहा था.

इस वर्ग के लोग मानकर चल रहे थे कि ब्राह्मणों की पार्टी होने के भ्रम के बावजूद अब भाजपा अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़ा वर्ग को अधिक अहमियत दे रही है और इस वर्ग की उम्मीदें बिखर रही हैं.

वे तर्क दे रहे थे कि भाजपा ने राष्ट्रपति पद अनुसूचित जनजाति को, उपराष्ट्रपति पद उच्च ओबीसी को और प्रधानमंत्री पद ओबीसी को दे रखा है. वह राज्यों में भी इन वर्गों को ही आगे बढ़ा रही है.

इन हालात में भाजपा ने प्रदेश में 33 साल बाद मुख्यमंत्री का पद ब्राह्मण समुदाय को सौंपा है. पार्टी के सामान्य कार्यकर्ता भजनलाल शर्मा को जिस समय मुख्यमंत्री चुना गया और जिस तरह एक पर्ची पर उनका नाम खुला, वह पूर्व मुख्यमंत्री और पार्टी की ताक़तवर नेता वसुंधरा राजे को ही नहीं, आम अवाम को भी अवाक कर गया था.

ब्राह्मण वर्ग को अब मुख्यमंत्री के साथ-साथ स्वतंत्र प्रभार वाला एक राज्य मंत्री पद भी मिल गया है.

भाजपा के रणनीतिकार ऐसे जातिगत समुदायों को बहुत अच्छी तरह भांपते हैं, जिनमें उसकी जड़ें इतनी गहरी हैं कि कई सियासी आंधियों की ज़द में आने पर भी उसके ये रिश्ते नहीं बिखरे.

प्रेक्षक मानते हैं कि भाजपा रणनीतिकार इन जातियों की मज़बूरियों का भी फ़ायदा उठाना जानते हैं. इस मंत्रिमंडल में भी यह बात साफ़ दिखाई दे रही है.

राजपूत समाज को दीया कुमारी के रूप में उपमुख्यमंत्री का एक पद मिला है तो दो कैबिनेट मंत्री के भी.

राजपूतों और गुर्जरों को प्रतिनिधित्व

राजपूत बहुल ज़िलों की सीटों से किसी को प्रतिनिधित्व नहीं मिलने से कुछ निराशा भी है, लेकिन अभी तो इस सियासत में सब कुछ बाग़-बाग़ दिख रहा है.

जयपुर के राजभवन में जिस समय शपथग्रहण पूरा हो रहा था, एक राजनीतिक प्रेक्षक चुटकी ले रहे थे कि कुछ जातियां भाजपा को कूद-कूद कर वोट दे रही थीं. उन्हें मंत्रिमंडल में अपना प्रतिनिधित्व देखने के लिए बहुत ऊंचा कूदना पड़ेगा और फिर भी शायद ही दिखे.

गुर्जर समाज के कुछ नेता कांग्रेस के युवा नेता सचिन पायलट की उपेक्षा का हवाला देकर कांग्रेस के ख़िलाफ़ और भाजपा के पक्ष में वोट देने की बात करते हुए बहुत जगहों पर चुनावों के दौरान देखे गए थे. लेकिन इस समाज को एक ही मंत्री पद मिला है और वह भी राज्यमंत्री का.

गुर्जरों की राह पर ही बिश्नोई समाज भी है. इस समुदाय को भी एक ही मंत्री पद मिला है और वह भी राज्य मंत्री का.

भाजपा की वैचारिक आबो-ताब में वैश्य समुदाय को भी माना जाता है. इस समुदाय को भी राज्य मंत्री का ही एक पद मिला है.

प्रेक्षक कह रहे हैं कि गुर्जरों, वैश्यों और कुछ अन्य समुदायों से बेहतर स्थिति में तो जाट दिख रहे हैं. इस समुदाय को स्वतंत्र प्रभार वाला राज्य मंत्री पद तो मिला ही है, साथ ही बिना चुनाव जीते ही.

भाजपा ने गंगानगर जिले की श्रीकरणपुर सीट से चुनाव लड़ रहे अपने उम्मीदवार सुरेंद्रपाल सिंह टीटी को अभी से मंत्रिमंडल में ले लिया और शपथ दिला दी.

इस सीट पर कांग्रेस नेता गुरमीत सिंह कुन्नर की मृत्यु हो गई थी तो मतदान टल गया था और काँग्रेस का उम्मीदवार नए सिरे से तय हुआ. यहाँ पांच जनवरी को मतदान है.

लेकिन पार्टी ने एक बड़ा दांव खेलते हुए टीटी को चुनाव प्रचार से बुलाकर शपथ दिला दी है.

अब इस पर कांग्रेस और भाजपा के नेताओं के बीच विवाद हो रहा है. कांग्रेस के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, पार्टी प्रदेशाध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा और पार्टी नेता संयम लोढ़ा ने चुनाव आयोग को शिकायतें करके कार्रवाई करने को है.

भाजपा के प्रमुख नेता राजेंद्रसिंह राठौड़ ने कांग्रेस नेताओं की इन शिकायतों को आधारहीन बताया है और तर्क दिया है कि संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार कोई भी पात्र नेता मंत्री बनने के बाद छह माह तक कभी भी चुनाव जीतकर आ सकता है.

प्रदेश में लोकसभा की 25 सीटों पर जीत की कोशिशों के तहत जाट समाज को चार मंत्री पद दिए गए हैं. इनमें दो कैबिनेट और एक-एक स्वतंत्र प्रभार राज्य मंत्री और राज्य मंत्री के हैं.

अनुसूचित जाति वर्ग से तीन विधायकों को मंत्री बनाया गया है. एक उपमुख्यमंत्री, एक कैबिनेट मंत्री और एक राज्यमंत्री. इसमें भी जातिगत संतुलन रखने की कोशिश की गई है. उप मुख्यमंत्री बैरवा हैं तो कैबिनेट मंत्री खटीक और राज्यमंत्री मेघवाल.

केवल दो ही महिला चेहरे

भाजपा संसद में 33 प्रतिशत महिला आरक्षण का समर्थन तो करती है लेकिन राज्य सरकार में केवल दो महिला चेहरा मौजूद हैं, उप मुख्यमंत्री दीया कुमार के अलावा मंजु बाघमारे को राज्य मंत्री बनाया गया है.

लेकिन सियासत के बहुत बड़े साज़ में कई बार नन्हें से मिज़राब की चूक भी संगीत की सुरावलियों के रिश्तों को बेसुरा कर देती हैं. मंत्रिमंडल विस्तार की इस कवायद में 25 में से सात लोकसभा क्षेत्रों को प्रतिनिधित्व ही नहीं मिलना कुछ ऐसी ही नज़ीर है.

राज्य के 18 ज़िलों को भी प्रतिनिधित्व नहीं मिला है. इन इलाक़ों की सियासत के हाथों की मेंहदी फीकी पड़ गई है और आंखों का काजल गीलेपन से चेहरे पर साफ़ नज़र आ रहा है.

लेकिन इस मंत्रिमंडल के भीतर से मदमाती पवन में उड़ता सुकून का एक आंचल भी लहरा रहा है और वह यह है कि पहली बार किसी मंत्रिमंडल में उच्च जातियों के बजाय अनुसूचित जाति के प्रतिनिधि कहीं अधिक शिक्षित हैं.

पीएचडी शिक्षित मंजु बाघमार सुखाड़िया विश्वविद्यालय में तो उप मुख्यमंत्री प्रेमचंद बैरवा राजस्थान विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर रहे हैं.

कांग्रेस की सरकारों में आम तौर पर कभी भी पहली बार चुनाव जीते विधायकों को मंत्रिमंडल में शामिल नहीं किया गया.

मंत्रिमंडल के इस विस्तार का विश्लेषण कर रहे एक नेता कहते हैं, "हमारे लोग स्याने रास्तों के हीरों को भी पत्थर के बुत मानकर छोड़ते रहे और एक ये हैं, जो एक बार में ही 17-17 नए चेहरों को मंत्रिमंडल में जगह दे रहे हैं और यही नहीं पहली बार वाले एक अनाम से चेहरे को मुख्यमंत्री भी बना रहे हैं."

लोकसभा का चुनाव इस बार राजस्थान में कई तरह से नई समीकरणों को आकार देता दिख रहा है.

अब देखना यह है कि सत्तारूढ़ दल का यह मंत्रिमंडल आने वाली सुबहों तक रातों के कितने अंधे तूफ़ानों को गिनेगा. कितने इस नई रंगत वाली सियासत के साहिल पर डूबेंगे या डुबोएंगे और कितने भंवर के पार उतरेंगे या उतारेंगे. (bbc.com)
 


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