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‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : जुर्माने की जगह पुरस्कार की नीति बड़ी भयानक है!
03-Nov-2025 6:08 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : जुर्माने की जगह पुरस्कार की नीति बड़ी भयानक है!

छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के नगर निगम ने बिजली के खम्भों और दूसरी सरकारी जगहों पर लगाए गए बैनर-पोस्टर, या होर्डिंग हटाने के लिए ठेका देना तय किया है। शहर के हर चौराहे पर, डिवाइडर पर, हर खम्भे पर ऐसे पोस्टर-बैनर टंगे रहते हैं जिनसे निगम को कोई कमाई नहीं होती। और बात सिर्फ कमाई की नहीं है, सडक़ों पर ये ट्रैफिक लाईटों को ढांक लेते हैं, हवा में लहराते रहते हैं जो कि जान के लिए खतरा रहते हैं, डिवाइडरों पर रास्ता रोकने जितने चौड़े रहते हैं। और इन सबसे परे यह भी है कि किसी भी तरह के होर्डिंग या पोस्टर-बैनर इन दिनों इस्तेमाल होने वाले सिंथेटिक फ्लैक्स का इस्तेमाल तो 4-6 दिनों का रहता है, लेकिन उसकी जिंदगी सैकड़ों-हजारों बरस की रहती है। फ्लैक्स की शीट एक बार इस्तेमाल के बाद सफाई कर्मचारियों के कचरा ढोने के काम की रह जाती है, और उसका कोई भी संगठित उपयोग सरकार या म्युनिसिपल ने सोचा नहीं है। प्रदेश के आज के पर्यावरण मंत्री ओ.पी.चौधरी इसी राजधानी में म्युनिसिपल कमिश्नर भी रहे हैं, और कलेक्टर भी। उन्हें हर दिन लगने वाले दसियों हजार फ्लैक्स का पर्यावरण पर नुकसान अच्छी तरह मालूम है, लेकिन मोटेतौर पर राजनीतिक और धार्मिक उपयोग वाले ऐसे फ्लैक्स पर रोक लगाना पर्यावरण को बचाने के लिए भी उन्हें जरूरी नहीं लग रहा है।

 
प्रशासन और म्युनिसिपल कई बार यह तय करते हैं कि अनाधिकृत पोस्टर-बैनर और होर्डिंग नहीं लगने दिए जाएंगे, लेकिन जनता अराजक है, बेकाबू है, और सार्वजनिक जगहों पर मानो हर किसी का निजी कब्जा है। इस मुद्दे पर आज लिखना जरूरी इसलिए है कि जिन पोस्टर-बैनर और होर्डिंग से म्युनिसिपल को जुर्माना लगाकर मोटी कमाई करनी चाहिए, उसे वह भुगतान करके हटाने का ठेका दे रही है। किसी भी शहर या प्रदेश की जनता में अराजकता को बढ़ाने का इससे अधिक असरदार और कोई तरीका नहीं हो सकता कि उसकी की गई मनमानी और बर्बादी को सुधारने पर जनता का पैसा खर्च किया जाए। इसके बाद जो दुकानदार सडक़ों पर दूर तक अपने पुतले खड़े रखते हैं, और ट्रैफिक जाम करते हैं, उनके पुतलों को हटाने का भी ठेका देना चाहिए, और उसके लिए भी म्युनिसिपल को भुगतान करना चाहिए। सरकार और म्युनिसिपल जनता के पैसों को बर्बाद करने के और भी कुछ तरीके ढूंढ सकते हैं, सरकारी दीवारों पर निजी इश्तहार मिटाने के लिए ठेका दिया जा सकता है, बजाय ऐसे इश्तहार वालों के खिलाफ रिपोर्ट लिखाने, और उन पर जुर्माने लगाने के। छत्तीसगढ़ के शहरों के बाजार नियमित रूप से थोक में कचरा उगलते हैं, बहुत से कारोबार ऐसे हैं जहां से पैकिंग का कचरा बड़ी मात्रा में निकलता है, किसी भी रात या सुबह शहर का चक्कर लगाने पर बहुत ही कमजोर नजर वालों को भी ऐसे ढेर साफ-साफ दिख सकते हैं। लेकिन इन पर जुर्माना लगाने के बजाय म्युनिसिपल कचरा इकट्ठा करने के ठेकों पर खर्च बढ़ाती चलती है। हर दुकानदार से कचरा फैलाने पर जुर्माना लेकर जो कमाई हो सकती थी, उसे कचरा उठाने पर खर्च बढ़ाकर जनता को ही चूना लगाया जा रहा है।

सरकार का हाल गजब का रहता है। छत्तीसगढ़ में एक-एक करके करीब दर्जन भर जिलों में अलग-अलग वक्त पर ऐसे एसपी रहे जिन्होंने बिना हेलमेट दुपहिया चलाने वाले लोगों को हेलमेट भेंट किए। जिन्हें जुर्माने की पर्ची मिलनी थी, उन्हें मुफ्त में हेलमेट मिल गया, और जुर्माना तो कहीं किया नहीं जाता, लापरवाह लोग उस हेलमेट को भी औने-पौने मेें बेचकर पांच लीटर पेट्रोल डलवा सकते हैं, और अगले किसी रहमदिल एसपी का इंतजार कर सकते हैं जो कि फिर हेलमेट भेंट करे। ये हेलमेट सरकारी टैक्स से जनता की जेब से आते हैं, या किसी कारखाने के सीएसआर फंड से, ये अराजकता को बढ़ावा देते हैं। पूरी दुनिया में पुरस्कार और सजा को एक सुधार के लिए इस्तेमाल करने की सोच रहती है, इधर छत्तीसगढ़ जैसे प्रदेश में जिस बात पर सजा मिलनी चाहिए, उस बात पर पुरस्कार दिया जाता है। होर्डिंग और बैनर-पोस्टर की सिर्फ वीडियोग्राफी करके अगर किसी एक दिन की रिकॉर्डिंग पर जुर्माना लगाया जाए, तो राजधानी रायपुर में एक दिन में दस करोड़ रूपए की कमाई म्युनिसिपल की हो सकती है, लेकिन यह करने के बजाय म्युनिसिपल अपने पैसे खर्च करके ये पोस्टर-बैनर हटाने जा रही है, और राजनीतिक भावनाएं विचलित न हो जाएं, इसलिए इनसे निकलने वाले फ्लैक्स के झोले भी नहीं बनाए जा सकेंगे। यह अपने आपमें एक रहस्य है कि ऐसे फ्लैक्स का आखिर होता क्या है? क्या यह अघोषित कमाई का एक और जरिया बन गया है?
 
 

जब शहर को साफ-सुथरा और सुंदर बनाने की बात आती है तो हर दीवार, हर खम्भे पर चिपके हुए कागजी पोस्टर खूबसूरती का मुंह चिढ़ाते हैं। मजे की बात यह है कि पोस्टर चिपकाने का यह काम देर रात शुरू होता है, जब लोग सो चुके रहते हैं, और सुबह की रौशनी के पहले खत्म हो जाता है। सडक़ों पर पोस्टर चिपकाने वाले रहते हैं, और पुलिस रहती है। अगर पुलिस, प्रशासन, या म्युनिसिपल चाहे तो पोस्टर चिपकाने वालों से यह जानकारी मांग सकती है कि जहां वे पोस्टर चिपका रहे हैं, उन इमारतों के या दीवारों के मालिकों से उन्होंने इजाजत ली है क्या? अपनी इस छोटी सी बुनियादी जिम्मेदारी को अगर अफसर पूरा करेंगे, तो कुछ दिनों के भीतर शहर साफ-सुथरा हो जाएगा। पुलिस की नजरों में आए बिना कोई दो पोस्टर भी नहीं चिपका सकते। फिर हर पोस्टर में कोई न कोई नाम-पता, फोन नंबर, कारोबार की जानकारी देखी ही जा सकती है, और उन्हें नोटिस भेजकर कार्रवाई की जा सकती है। लेकिन जब कोई कार्रवाई नहीं होती, तो लोगों की जरूरी जानकारी के बोर्ड, और डिवाइडर पर लगने वाले लाईट-रिफ्लेक्टर पर भी लोग पोस्टर चिपका देते हैं, और यह मनमानी जंगल की आग की तरह बढ़ती ही रहती है। यह पूरा सिलसिला शहर को बदशक्ल बना देता है। लोगों को मनमानी गुंडागर्दी करने देना, और उसे सुधारने पर जनता के पैसे खर्च करना, यह एक बड़ी गैरजिम्मेदारी का काम है।

राज्य सरकार को पूरे प्रदेश के लिए शहरी बसाहट की एक नीति बनाना चाहिए, और म्युनिसिपलों से कहना चाहिए कि वे अपनी आय के साधन बढ़ाने के लिए नियम तोडऩे वाले अराजक लोगों से जुर्माना वसूलने के काम को कड़ाई से करे, ताकि कमाई भी बढ़े, और मनमानी खत्म हो। यह देखना हक्का-बक्का करता है कि म्युनिसिपल गुंडागर्दी से लगाए गए पोस्टर-बैनर, और होर्डिंग हटाने के लिए जनता का पैसा खर्च करने जा रही है। सरकारी खम्भों पर टंगकर जाने वाले तरह-तरह के केबल को हटाने के लिए हाईकोर्ट तक ऑर्डर दे चुका है, लेकिन हर खम्भे से टंगे हुए, और सडक़ों पर बिखरे हुए केबल जिंदगी पर खतरा बने हुए बिखरे हुए हैं, और वहां से भी किसी जुर्माने की कमाई की कोशिश नहीं की जा रही है। शहरों में नियमों के खिलाफ ऐसी गुंडागर्दी को बढ़ावा देने के नुकसान प्रदेश आज भी झेल रहा है, और आने वाले कल इससे अधिक झेलेगा। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)


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