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एचआईवी सबसे पहले जानवरों में मिला था
19-Mar-2021 12:13 PM
एचआईवी सबसे पहले जानवरों में मिला था

दुनिया भर के डॉक्टर तीन दशक से ह्यूमन इम्यूनो डेफिशिएंसी वायरस यानी एचआईवी के बारे में जानकारी जुटा रहे हैं। इन सालों में तीन करोड़ से अधिक लोग एड्स के कारण अपनी जान गंवा चुके हैं। 
एचआईवी सबसे पहली बार 19वीं सदी की शुरुआत में जानवरों में मिला था।  माना जाता है की इंसानों में यह चिंपांजी से आया।  वर्ष 1959 में कांगो के एक बीमार आदमी के खून का नमूना लिया गया।  कई साल बाद डॉक्टरों को उसमें एचआईवी वायरस मिला।  माना जाता है कि यह पहला एचआईवी संक्रमित व्यक्ति था।  वर्ष 1981 में एड्स की पहचान हुई। 
लॉस एंजिलिस के डॉक्टर माइकल गॉटलीब ने पांच मरीजों में एक अलग किस्म का निमोनिया पाया।  इन सभी मरीजों में रोग से लडऩे वाला तंत्र अचानक कमजोर पड़ गया था।  ये पांचों मरीज समलैंगिक थे इसलिए शुरुआत में डॉक्टरों को लगा कि यह बीमारी केवल समलैंगिकों में ही होती है।  इसीलिए एड्स को ग्रिड यानी गे रिलेटिड इम्यून डेफिशिएंसी का नाम दिया गया। बाद में जब दूसरे लोगों में भी यह वायरस मिला तो पता चला कि यह धारणा गलत है। वर्ष 1982 में ग्रिड का नाम बदल कर एड्स यानी एक्वायर्ड इम्यूनो डेफिशिएंसी सिंड्रोम रखा गया।वर्ष 1983 में सेन फ्रांसिस्को में समलैंगिकों ने इस विषय पर जागरूकता फैलाने के लिए प्रदर्शन भी किए। वर्ष 1983 में फ्रांस के लुक मॉन्टेगनियर और फ्रांसोआ सिनूसी ने एलएवी वायरस की खोज की।  इसके एक साल बाद अमेरिका के रॉबर्ट गैलो ने एचटीएलवी 3 वायरस की पहचान की। वर्ष 1985 में पता चला कि ये दोनों एक ही वायरस हैं। 
वर्ष 1985 में मॉन्टेगनियर और सिनूसी को नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।  जबकि गैलो ने अपने परीक्षण का पेटेंट कराया।  वर्ष 1986 में पहली बार इस वायरस को एचआईवी यानी ह्यूमन इम्यूनो डेफिशिएंसी वायरस का नाम मिला। इसके बाद से दुनिया भर के लोगों में एड्स को ले कर जागरूकता फैलाने के अभियान शुरू हो गए।  कंडोम के इस्तेमाल को केवल परिवार नियोजन के लिए ही नहीं, बल्कि एड्स से बचाव के रूप में देखा जाने लगा। 1988 से हर साल एक दिसंबर को वल्र्ड एड्स डे के रूप में मनाया जाता है।  1987 में पहली बार एड्स से लडऩे के लिए दवा तैयार की गई,लेकिन इसके कई साइड इफेक्ट्स थे और मरीजों को दिन में कई खुराक लेनी पड़ती थी।  90 के दशक के अंत तक इसमें सुधार आया।  कुछ क्विक टेस्ट भी आए जैसे तस्वीर में ओरा क्विक।  इसका दावा था कि लार के परीक्षण से 20 मिनट में बताया जा सकता है कि शरीर में वायरस है या नहीं।  1991 में पहली बार लाल रिबन को एड्स का निशान बनाया गया।  यह एड्स पीडि़त लोगों के खिलाफ दशकों से चले आ रहे भेदभाव को खत्म करने की एक कोशिश थी।  संयुक्त राष्ट्र ने मलेरिया और टीबी की तरह एड्स को भी महामारी का नाम दिया है।  विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक 2012 के अंत तक एक करोड़ लोगों को एंटीरिट्रोवायरल थेरेपी मिल रही है, लेकिन बाकी एक करोड़ 60 लाख लोग इससे 2013 में भी वंचित हैं।  अधिकतर लोग यह बात नहीं समझ पाते कि अगर वक्त रहते वायरस का इलाज शुरू कर दिया जाए तो एड्स से बचा जा सकता है।  आज तक एचआईवी के रोकथाम के लिए कोई टीका नहीं बन पाया है।  यह वायरस कई तरह का होता है और शरीर की प्रतिरोधक प्रणाली पर बुरा असर डालता है।  वैज्ञानिकों के लिए यह टीका चुनौती बना हुआ है। 
 


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