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-सुंदरम आनंद
2014 में 16वें मुंबई फ़िल्म फेस्टिवल में 'स्पेशल फ़िल्म प्रेज़ेंटेशन' के लिए राजुकमार हिरानी 'आनंद' (1971) फ़िल्म के विषय पर दर्शकों से मुख़ातिब हुए थे.
इस दौरान उन्होंने अपने बचपन का एक दिलचस्प क़िस्सा सुनाया था- हुआ यूं कि 'आनंद' फ़िल्म देखने हिरानी अपने एक रिश्तेदार के साथ थियेटर जाने वाले थे. जिस रोज़ उन्हें जाना था, उसी रोज़ किसी ने उनके रिश्तेदार का पॉकेट मार लिया.
राजकुमार हिरानी के बाल-हठ के कारण आख़िरकार उनके रिश्तेदार उन्हें साथ लेकर पर्स की गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखाने पुलिस के पास गए. उन्होंने पुलिस को बताया कि उस पर्स में पैसे और ड्राइविंग लाइसेंस के साथ 'आनंद' फ़िल्म की दो टिकटें भी हैं. संयोगवश उन्होंने टिकट नंबर भी बता दिया.
इतना सुनकर पुलिस वाले उन्हें थियेटर लेकर गए और चंद मिनट बाद बाक़ायदा पर्स और पॉकेटमार दोनों के साथ हाज़िर हो गए. पुलिसकर्मी ने उनसे मुस्कुराते हुए कहा कि मुझे पता था कि अगर इनके पास टिकट आ गई है तो ये इस फ़िल्म को देखने ज़रूर आएंगे.
राजकुमार हिरानी की यादों से जुड़ा यह क़िस्सा एक घटना भर नहीं है बल्कि 'आनंद' (1971) की सफलता और उसकी आकर्षण शक्ति का एक दिलचस्प दृष्टांत भी है.
अमिताभ बच्चन और राजेश खन्ना के साथ ऋषिकेश मुखर्जी
राज कपूर और 'बॉम्बे' शहर के प्रति समर्पण
'क्लास' और 'मास' दोनों को एक साथ मंत्रमुग्ध करने वाली इस फ़िल्म के बनने की कहानी भी कम भावपूर्ण नहीं है.
दरअसल, यह फ़िल्म ऋषिकेश मुखर्जी की तरफ़ से 'शोमैन' राज कपूर और बम्बई (मुम्बई) शहर को समर्पित एक 'सिनेमाई भाव-गीत' है. जिसकी झलक हम आसानी से फ़िल्म के ओपनिंग क्रेडिट में पा सकते हैं.
'ह्यूमन सिनेमा: द फ़िल्म्स ऑफ़ ऋषिकेश मुखर्जी' के लेखक रमेश ने मुखर्जी साहब के हवाले से बताया है कि वो और राज कपूर काफ़ी अच्छे दोस्त हुआ करते थे. एक बार राज कपूर बीमार पड़े और मुखर्जी साहब को लगा कि शायद उनके दोस्त अब नहीं बचेंगे. लिहाज़ा राज साहब की दोस्ती के नाम ही इस फ़िल्म को उन्होंने गढ़ा.
राज कपूर को मुखर्जी साहब 'बाबू मोशाय' कहा करते थे. उनके इस सम्बोधन को भी उन्होंने फ़िल्म में बखूबी इस्तेमाल किया.
राज कपूर के साथ-साथ ऋषिकेष मुखर्जी ने अपनी फ़िल्म को उस 'कॉस्मोपॉलिटन बॉम्बे' के नाम भी समर्पित किया है, जहां वे एक अजनबी की तरह आए थे और अपनी एक अलग पहचान बनाने में कामयाब हुए थे.
फ़िल्म में केन्द्रीय चरित्र आनंद (राजेश खन्ना) का यह डायलॉग ऋषिकेश मुखर्जी के इस शहर के प्रति उद्गार की ही अभिव्यक्ति है- ''बम्बई शहर का जवाब नहीं...पंजाब, सिंध, गुजरात, मराठा, द्राविड़, उत्कल बंगा...सब लोग यहीं तो हैं. मैंने फै़सला कर लिया है कि बाबू मोशाय जीना तो बम्बई में... मरना तो बम्बई में.''
'सुपरस्टार' और 'महानायक' की जुगलबंदी
'आनंद' की कास्टिंग को लेकर भी कई क़िस्से हैं. जिनमें से कुछ ने तो किंवदंतियों की भी शक्ल ले ली है. कहा जाता है कि फ़िल्म में भास्कर और आनंद का किरदार मूल रूप से किशोर कुमार और महमूद को ध्यान में रखकर लिखा गया था.
बाद में शशि कपूर और राज कपूर पर भी विचार किया गया. बहरहाल फ़िल्म के लीड रोल (आनंद) में राजेश खन्ना और सह-अभिनेता (भास्कर) के तौर पर अमिताभ बच्चन को साइन किया गया.
उस दौर में राजेश खन्ना अपनी 'रोमांटिक इमेज' के बूते सिने-प्रेमियों के दिलों पर राज कर रहे थे. लेकिन आनंद का किरदार उनकी उस स्थापित छवि से कहीं अलग था. साथ ही यहां उनके अपोज़िट कोई अभिनेत्री भी नहीं थी.
लेकिन राजेश खन्ना ने अपनी मोहक मुस्कान, वांछित भाव-मुद्रा एवं सटीक उतार-चढ़ाव वाली संवाद अदायगी से ऐसी रोमानियत गढ़ी कि यह फ़िल्म उनके सिनेमाई सफ़र में एक मील का पत्थर बन गई.
वहीं दूसरी तरफ़ रूखे और हालात पर चिढ़े भास्कर बनर्जी के किरदार में भविष्य के 'एंग्री यंग मैन' अमिताभ बच्चन ने भी अपनी अदाकारी की रेंज से पहली बार लोगों को रू-ब-रू कराया.
'आनंद' फ़िल्म इस मायने में भी महत्वपूर्ण मानी जा सकती है क्योंकि इसके बाद राजेश खन्ना का स्टारडम धीरे-धीरे मद्धम पड़ता गया और अमिताभ महानायक बनते चले गए.
इन दोनों के अलावा 'ईसा भाई' के रूप में जॉनी वॉकर और 'मिसेज डिसा' के रूप में ललिता पवार अपनी 'स्टीरियोटाइप्ड इमेज' से हटकर की गई अपनी अदाकारी से दिल को छू जाते हैं.
गुलज़ार-योगेश की कलमकारी
'आनंद' की बेशुमार सफलता में इस फ़िल्म के गीत-संगीत और संवादों का अहम योगदान रहा. 'सूत्र-वाक्य' शैली में ज़िंदगी का फलसफा बयां करते गुलज़ार के लिखे संवाद आज भी जीवंत और प्रासंगिक लगते हैं.
एक ऐसी फ़िल्म जिसके नायक की त्रासद-मृत्यु शुरुआत से ही निश्चित हो, उसमें गानों का होना अमूमन सोच से परे लगता है. लेकिन योगेश और गुलज़ार की कलम से निकले 'आनंद' के चारों गाने फ़िल्म के मूड और टोन को भास्वर बनाते हैं.
गहराई से देखें तो हम पाते हैं कि संवादों, गीतों और गुलज़ार की लिखी कविता- ''मौत तू एक कविता है'' ने दरअसल 'आनंद' को जीवन के नकार का 'शोक गीत' बनाने के बजाए जीवन के स्वीकार का 'भाव गीत' में बदल दिया.
सलिल चौधरी का संगीत अपनी मौलिकता और भाव-सापेक्षता से फ़िल्म को लिरिकल बना गया है.
ऋषिकेश मुखर्जी टच
'आनंद' संभवत: वह सबसे महत्वपूर्ण फ़िल्म है, जिसने ऋषिकेश मुखर्जी को हिंदी सिनेमा के विशिष्ट 'ऑतर (Auteur)' फ़िल्मकार के रूप में स्थापित किया है.
सिनेमाई भाषा और व्याकरण के तर्कसंगत इस्तेमाल से सीधे-सपाट प्लॉट और द्वंद्वात्मक स्थितियों की सटीक बुनावट से मुखर्जी साहब ने फ्रेंच सिने सिद्धांत के 'कैमरा-स्टाइलो' मुहावरे को यथार्थ रूप में हमारे सामने रख दिया है.
फ़िल्म की स्थिति-परिस्थिति के अनुरूप कैमरा मूवमेंट तथा कहानी की लयात्मकता के अनुरूप संपादन के ज़रिए अपेक्षाकृत कम 'विजुअल-अपील' वाली सिनेमैटोग्राफी से भी चुस्त कथा परदे पर गढ़ी जा सकती है, इस फ़िल्म से बखूबी सीखा जा सकता है.
कहने का अर्थ है, 'स्पेस' और 'टाइम' के सार्थक संयोग से ऋषिकेश मुखर्जी निस्संदेह 'आनंद' को 'ह्यूमन सिनेमा' बनाने में सफल रहे हैं.
'आनंद' की अहमियत
कई मायने में 'आनंद' अपने पीछे सुनहरी विरासत छोड़ने वाली फ़िल्म है. आप जितनी बार इसे देखें, ठहर कर सोचें उतने अर्थ-संदर्भ आपके सामने खुलते चले जाते हैं.
सौंदर्यशास्त्र के धरातल पर जहाँ यह आपको जपानी कला के 'वाबी-साबी' की सिनेमाई प्रतिकृति लग सकती है, तो वहीं दूसरी तरफ़ यह महान जापानी फ़िल्मकार अकीरा कुरोसावा की 'इकीरू' (Ikiru) फ़िल्म का भारतीय विस्तार नज़र आ सकती है.
एक तरफ़ इसमें आप लियो टॉलस्टॉय की महान कृति 'द डेथ ऑफ़ इवानइलिच' के कुछ तत्व इसमें तलाश लेंगे तो कई बार आपको इसमें बौद्ध-दर्शन के 'क्षणवाद' के कुछ रेशे लहराते नज़र आएंगे. शायद यही वजह है कि बाद के फ़िल्मकारों ने इस फ़िल्म को एक 'संदर्भ-ग्रंथ' की तरह लिया.
गौरतलब है कि आज से 50 साल पहले 1971 में आई इस फ़िल्म के बाद हिंदी सिनेमा में बाकायदा कैंसर आधारित फ़िल्मों का एक छोटा दौर चल पड़ा था. 'सफ़र', 'अनुराग', 'मिली', 'अखियों के झरोखे से' आदि कुछ ऐसी ही फ़िल्में हैं जिसका केंद्रीय चरित्र कैंसर से पीड़ित है.
इसके अलावा मानवीय संबंधों को उकेरने वाली स्थिति परक फ़िल्मों को भी 'आनंद' ने राह दिखाई जिसका शानदार विस्तार हम राज कुमार हिरानी की फ़िल्मों तक में देख सकते हैं.
कुल मिलाकर कहें तो 'आनंद' हिन्दी सिनेमा की उन चन्द फ़िल्मों में शुमार की जा सकती है, जो कालगत सीमाओं को तोड़कर मनोरंजन से कहीं ज़्यादा 'जीवन के लिए संदर्भवान' फ़िल्म कही जा सकती है. (bbc.com)


