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वंदना
बात जुलाई 1972 की है जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो भारत आए थे और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के साथ शिमला में अहम बातचीत चल रही थी.
कोई 19 साल की रही बेनज़ीर भुट्टो भी अपने पिता के साथ भारत आई थीं. अचानक उन्होंने फ़िल्म पाकीज़ा देखने की ख़्वाहिश ज़ाहिर कर डाली. कुछ महीने पहले ही 4 फ़रवरी 1972 को पाकीज़ा रिलीज़ हुई थी.
पूर्व आईएएस अधिकारी एमके कॉ ने अपनी किताब 'एन आउटसाइडर एवरीवेयर' में लिखा है, "मैंने शिमला के डिप्टी कमिश्नर से तुरंत बात की. बेननज़ीर के लिए रिट्ज़ सिनेमा में विशेष शो रखवाया गया. हॉल में बस तीन लोग थे."
ये छोटा सा किस्सा बताता है कि कैसा था 50 साल पहले 4 फ़रवरी 1972 को रिलीज़ हुई कमाल अमरोही और मीना कुमारी की फ़िल्म पाकीज़ा का जादू.
फ़िल्म के एक सीन से इस जादुई फ़िल्म की रूह को समझने की कोशिश करते हैं.
"कल हम एक मुजरे में जा रहे हैं..एक दिन के लिए तुम्हारी तक़दीर हमें चाहिए, परसों लौटा देंगे."
फ़िल्म में सामने वाले कोठे के छज्जे से जब वो तवायफ़ मीना कुमारी यानी साहिबजान से ये अलफ़ाज़ कहती है तो आप समझ जाते हैं कि दुनिया की नज़रों में साहबिजान की तक़दीर बुलंदियों पर है. सबको उससे रश्क़ है.
लेकिन कोठे पर बैठी साहिबजान (मीना कुमारी) एक अजीब सी बेरुख़ी से जवाब देती हैं, "हाँ हाँ ज़रूर ले जाना (तक़दीर), फिर चाहे वापस भी मत करना."
फ़िल्म पाकीज़ा में साहिबजान बनी मीना कुमारी के ये अलफ़ाज़ साहिबजान की ज़िंदगी, उसके जज़्बात, उसकी कश्मकश, उसकी बेबसी सब कुछ बयां कर देते हैं.
वैसे बारीकी से देखेंगे तो पाकीज़ा की कहानी कई बार कही जा चुकी है. एक तवायफ़, एक 'इज़्ज़तदार' घराने का लड़का और उनकी प्रेम कहानी.
कहानी शायद कुछ ख़ास अलग तो नहीं है पर ये जिस तरह से कही गई है वही पाकीज़ा को ख़ास बनाती है.
ये एक तवायफ़ साहिबजान (मीना कुमारी) और सलीम (राज कुमारी) की दास्तां है- रात में ट्रेन के एक डिब्बे में इश्क़ की ऐसी कहानी जहाँ सलीम ने बस साहिबजान के हसीन पैर देखे हैं.
और साहिबजान ने सिर्फ़ चंद अल्फ़ाज़ों वाली वो चिट्ठी पढ़ी है जिसे सलीम चुपके से उसके लिए छोड़ गया है- "आपके पाँव देखे बहुत हसीन हैं, इन्हें ज़मीन पर मत उतारिएगा मैले हो जाएँगे."
लेकिन दो लोगों की प्रेम कहानी से परे ये दरअसल साहिबजान की जद्दोजहद, ख़्वाहिश और तड़प की कहानी है- तड़प कि वो जैसी है, उसका माज़ी जो भी है, क्या समाज उसे उसी हाल में स्वीकार करेगा या उसे नकार देगा?
और यही सवाल निर्देशक कमाल अमरोही की फ़िल्म पाकीज़ा को टाइमलेस भी बनाता है क्योंकि पाकीज़ा एक ऐसे इंसानी जज़्बात को छूकर जाती है जिससे इंसान कभी न कभी जूझता ही है- स्वीकारे जाने का सवाल.
राज कुमार का वो डायलॉग -इन्हें ज़मीन पर मत...
फ़िल्म में हर रात मीना कुमारी ट्रेन की आवाज़ सुनती है और उस अनजान शख़्स को याद करते हुए कहती है- "हर रात तीन बजे एक रेलगाड़ी अपनी पटरियों से उतर कर मेरे दिल से गुज़रती है...और मुझे एक पैग़ाम दे जाती है."
एक तवायफ़ की ये तड़प उस ग़ुमनाम इंसान के लिए है जो उसके पैरों के नाम एक हसीन प़ैगाम लिख गया है. वो पैर जो सिर्फ़ औरों के लिए शामों को थिरकते रहे हैं.
लेकिन कोठो में रहने वाली साहिबजान (मीना कुमारी) की दोस्त उसे हक़ीकत का एहसास दिलाती है - "ये पैग़ाम तेरे लिए नहीं है. उस वक़्त तेरे पैरों में घुँघरू बंधे हुए नहीं होंगे. अगर घुँघरू बंधे हुए होते तो कैसे कोई कहता कि इन पैरों को ज़मीं पर मत रखना. ये पैग़ाम तो है लेकिन भटक गया है."
पाकीज़ा जज़्बातों की कहानी है, तवायफ़ों और कोठों की कहानी है, मुस्लिम समाज को दर्शाती एक दास्तां है लेकिन सबसे ख़ूबसूरत बात है कि ये औरत के नज़रिए से ही कही एक औरत की कहानी है जो अमूमन कम देखने को मिलता है.
मीना कुमारी की बेमिसाल अदाकारी
यूँ तो पाकीज़ा में कई किरदार हैं मसलन राज कुमार, अशोक कुमार, पर फिल्म की जान मीना कुमारी ही हैं.
अपनी अदायगी से मीना कुमारी ने एक औरत के सपनों और एक तवायफ़ की कश्मकश को बड़ी संजीदगी और कोमलता से निभाया है.
दुनिया के लिए साहिबजान कोठे पर बैठी सिर्फ़ एक तवायफ़ है.
फ़िल्म में मीना कुमारी की आँखों का वो दर्द सच्चा मालूम होता है जब टूटी हुई साहिबजान कहती है-"ये हमारे कोठे, हमारे मक़बरे हैं जिनमें मुर्दा औरतों के ज़िंदा जनाज़े सजा कर रख दिए जाते हैं. हमारी कब्रें पाटी नहीं जातीं, खुली छोड़ दी जाती हैं. मैं ऐसी ही किसी खुली हुई क़ब्र की बेसब्र लाश हूँ."
राज कुमार यानी सलीम से दुनिया जहाँ की मोहब्बत मिल जाने के बाद भी साहिबजान (मीना कुमारी) अपने आपको इस 'अपराध बोध' से आज़ाद नहीं कर पाती कि वो आख़िर है तो एक तवायफ़ ही.
या कहें कि समाज उसे कभी ये भूलने ही नहीं देता. उस वक्त वो समाज से नहीं, ख़ुद से भी लड़ रही होती है.
मीना कुमारी और कमाल अमरोही के टूटे रिश्तों की कहनी
इस फ़िल्म को बनाना मीना कुमारी और कमाल अमरोही दोनों के लिए ही आसान नहीं था.
फ़िल्म के बनने की कहानी दिलचस्प और उतार-चढ़ाव वाली है. पाकीज़ा कमाल अमरोही का आलीशान ख़्वाब था. 1954-1955 के आसपास इस फ़िल्म की शूटिंग शुरु हुई.
मीना कुमारी और कमाल अमरोही का इश्क़ अपने उफ़ान पर था और दोनों का निकाह भी हो चुका था.
लेकिन धीरे-धीरे मीना कुमारी और कमाल अमरोही में दूरियाँ बढ़ने लगीं और 1964 के बाद दोनों अलग-अलग रहने लगे.
फ़िल्म पर दम तोड़ते रिश्तों की धूल जमती रही और फ़िल्म का काम पूरी तरह बंद हो गया.
इस बीच मीना कुमारी बहुत बीमार रहने लगीं. फ़िल्मी दुनिया की शिखर पर बैठी मीना शराब की आदी हो गईं. इलाज के लिए वो विदेश चली गईं. उनके चेहरे और शरीर में कई बदलाव आ चुके थे.
बीमार मीना कुमारी की जगह बॉडी डबल...
दिलों में बैठ चुकी सख़्ती को कुछ वक़्त ने कम किया तो कुछ हालातों ने. सब कुछ एक तरफ़ रखते हुए मीना कुमारी और कमाल अमरोही ने 1968 में फिर से फ़िल्म पर जी जान से काम शुरु किया.
फ़िल्म पाकीज़ा के गाने और मुजरे इस फ़िल्म की आत्मा हैं. लेकिन जब फ़िल्म दोबारा शुरु हुई तो मीना कुमारी की सेहत ऐसी नहीं थी कि वो कठिन डांस स्टेप्स कर सकें.
इसलिए फ़िल्म में कुछ चुनिंदा जगह बॉडी डबल का इस्तेमाल किया गया है. मेघनाद देसाई ने अपनी किताब में इसका ज़िक्र किया है.
पाकीज़ा के आख़िर में एक मुजरा है जो फ़िल्म को क्लाइमेक्स तक ले जाता है.. जब साहिबजान अपने ही प्रेमी सलीम की शादी पर मुजरा कर रही हैं- 'आज हम अपनी दुआयों का असर देखेंगे, ज़ख्मे जिगर देखेंगे'. इस मुजरे में अभिनेत्री पदमा खन्ना को डबल के तौर पर इस्तेमाल किया गया था.
मीना कुमारी की सेहत के हिसाब से बने कपड़े
फ़िल्म का एक और ख़ूबसूरत गाना है 'मौसम है आशिक़ाना'. फ़िल्मफेयर मैगज़ीन को दिए एक इंटरव्यू में मीना कुमारी के सौतेले बेटे ताजदार अमरोही अपनी छोटी अम्मी को याद करते हुए बताते हैं, "जब पाकीज़ा की शूटिंग दोबारा शुरु हुई तो 'मौसम है आशिक़ाना' गाना शूट हो रहा था. बाबा (कमाल अमरोही) ने उस गाने में छोटी अम्मी को कुर्ता और लुंगी पहनवाई क्योंकि लिवर की बीमारी की वजह से उनका पेट फूल चुका था. बाद में वो ट्रेंड बन गया. ख़राब सेहत की वजह से वो काफ़ी थक जाया करती थीं पर शॉट शुरू होते ही फिर जोश मे आ जातीं.
"फ़िल्म के आख़िरी मुजरे में उन्हें तेज़ और गोल-गोल घूमना था और फिर गिर जाना था, लेकिन सेहत को देखते हुए उनके क्लोज़-अप बैठी हुई मुद्रा में ही लिए गए. जब राज कुमार के साथ निकाह के समय वो सीढ़ियों पर दौड़ते हुए भाग जाती हैं, वहाँ भी बॉडी डबल का इस्तेमाल किया गया. 'चलो दिलदार चलो' गाने में भी उनके चेहरे पर ज़्यादा फ़ोकस नहीं रखा गया."
लेकिन इन तमाम दिक़्क़तों के बावजूद न मीना कुमारी का हौसला डिगा न कमाल अमरोही का.
ब्लैक और व्हाइट में शूट हुआ 'इन्हीं लोगों ने..
वैसे टूटते रिश्तों की दरारों के बीच अटकी इस फ़िल्म को दोबारा शुरु कराने का श्रेय नरगिस को भी दिया जाता है.
मेघनाद देसाई अपनी किताब 'पाकीज़ा -एन ओड टू ए बाइगॉन वर्ल्ड' में लिखते हैं कि एक बार नरगिस और सुनील दत्त ने पाकीज़ा के शुरुआती प्रिंट देखे और देखकर कमाल अमरोही से कहा कि इस फ़िल्म को पूरा होना ही चाहिए.
यूट्यूब पर 1956 में ब्लैक और व्हाइट में शूट हुआ 'इन्हीं लोगों ने ले लीना' का एक क्लिप भी आपको मिल जाएगा जिसमें मीना कुमारी थिरकती नज़र आती हैं.
छह महीने में बना बाज़ार-ए-हुस्न का सेट
पाकीज़ा जितनी अपनी अदाकारी और निर्देशन के लिए जानी जाती है, उतनी ही दूसरी चीज़ों के लिए भी, मसलन फ़िल्म के सेट की वजह से.
दिल्ली और लखनऊ के कोठों की दुनिया को कमाल अमरोही ने अपनी कल्पना के मुताबिक़ बख़ूबी ढालने की कोशिश की.
बाज़ार-ए-हुस्न का सेट जहाँ 'इन्हीं लोगों ने' शूट किया गया था, उसे बनाने में कोई छह महीने लगे.
जेवर जयपुर से मंगवाए गए और शूटिंग के दौरान साहिबजान (मीना कुमारी) के कमरे में बेहतरीन और असली इत्र की शीशियाँ रखी जाती थीं.
मीना कुमारी ने कॉस्ट्यूम डिज़ाइन का ज़िम्मा ख़ुद संभाला था और फ़िल्म क्रेडिट से ये ज़ाहिर भी होता है.
पाकीज़ा एक तवायफ़ की कहानी है और इसका संगीत और एक-एक गाना इस कहानी की रूह है. फ़िल्म शुरू ही होती है घुँघरुओं की थाप से और आप समझ जाते हैं कि सफ़र संगीत से भरा होने वाला है.
ग़ुलाम मोहम्मद यूँ तो सम्मानित संगीतकार थे, लेकिन उस वक़्त दूसरे संगीतकारों का बोलबाला था. लेकिन कमाल अमरोही की ज़िद थी कि संगीत ग़ुलाम मोहम्मद ही देंगे. 12 धुनों में से 6 धुनें कमाल अमरोही ने रखीं और एक एक गाना आज की तारीख़ में नगीना माना जाता है.
जब मीना कुमारी ग़ुलाबी रंग के लिबास में ये मुजरा कर रही होती हैं तो आप बैकग्राउंड में अलग-अलग कोठों पर कोई 10-12 तवायफ़ों को नाचते हुए देख सकते हैं. कमाल अमरोही ने सिनेमास्कोप मे ये गाना बहुत ख़ूबसूरती से शूट किया था.
संगीतकार की तरह ही जर्मन सिनेमेटोग्राफ़र जोसेफ़ वर्शिंग का भी बीच फ़िल्म में ही निधन हो गया था और कई सिनेमेटोग्राफ़रों ने मिलकर इस फ़िल्म का काम पूरा किया.
परफ़ेक्शनिस्ट थे कमाल अमरोही
वैसे 'इन्हीं लोगों ने' वाला गाना हिंदी सिनेमा में कई बार फ़िल्माया जा चुका है. चाहे वो 1941 में फ़िल्म 'हिम्मत' के लिए शमशाद बेग़म का गाया गाना हो या फिर 'आबरू' में याकूब का गाया वर्ज़न.
फ़िल्म से जुड़ा एक दिलचस्प किस्सा मेघनाद देसाई अपनी किताब में बयां करते हैं. वो लिखते हैं, "कमाल अमरोही ने फ़िल्म के लिए विदेश जाकर लेंस ख़रीदे, लेकिन तब लेंस कैमरे में लगे हुए नहीं आते थे. उन्हें फ़िट करना जटिल काम था. ख़ैर अमरोही ने लेंस से शूटिंग की. लेकिन कुछ दिन बाद उन्होंने कहा कि सब कुछ आउट ऑफ़ फ़ोक्स है. कोई विशेषज्ञ मानने को तैयार नहीं था."
"आख़िकर एमजीएम कंपनी लंदन में टेस्ट करवाने को राज़ी हुई. फिर हॉलीवुड लैब में भी टेस्ट हुआ तो पता चला कि 1000र केएकवें हिस्से के मार्जिन से लेंस ऑफ़ फ़ोकस था. इस हद तक अमरोही परफ़ेक्शनिस्ट थे."
संगीत और गीत भी बेजोड़
दूसरे पहलूओं की बात करें तो पूरी फ़िल्म में साउंड का कमाल का प्रयोग हुआ है- रात के सन्नाटे को बार-बार चीरती रेल की वो सीटी जो साहिबजान को उस अनजान शख़्स की याद दिलाती है जिसने तवायफ़ की पहचान से परे उसे देखा और साहिबजान के मन में उम्मीद जगाई.
और दूसरा लता की आवाज़ में वो आलाप जो हर बार सुनाई देता है जब भी साहिबजान गहरी उदासी में होती है.
मजरूह सुल्तानपुरी (ठाड़े रहिओ), कैफ़ी आज़मी (चलते चलते यूँ ही कोई..), कैफ़ भोपाली (चलो दिलदार चलो) जैसे दिग्जग गीतकारों के बोल इस फ़िल्म में हैं. मौसम है आशिक़ाना के बोल तो ख़ुद कमाल अमरोही ने लिखे हैं.
पाकीज़ा को मिले थे ख़राब रिव्यू
फ़िल्म का संगीत हो या बोल या इसके संवाद ...हर पहलू में एक नफ़ासत झलकती है. मसलन एक रईस, तवायफ़ साहिबजान को अपने साथ रात बिताने शिकारे पर ले जाता है.
लेकिन साहिबजान तो एक अनजान शख़्स के प्यार में ग़ुम हो चुकी है. ख़्यालों में खोई हुई साहिबजान को देखकर वो रईस कहता है- "तुम्हें ख़रीदा तो था पर नुक़सान हो गया. दिल कहता है तुम कोई चुराई हुई चीज़ हो, जिसे ख़रीदना जुर्म है."
ये फ़िल्म जब 4 फ़रवरी 1972 को रिलीज़ हुई तो अपने वजूद में आने के क़रीब 15 साल बाद पर्दे पर आ रही थी. सिनेमाप्रेमी अमिताभ बच्चन की दुनिया में क़दम रख चुके थे.
धीमी और शायराना अंदाज़ से बनी इस फ़िल्म को पहले दिन क्रिटिक्स से बहुत ख़राब रिव्यू दिया.
विनोद मेहता ने अपनी किताब में 'मीना कुमारी दि क्लासिक बायोग्राफ़ी' में लिखा था, "उस वक़्त टाइम्स ऑफ़ इंडिया ने पाकीज़ा को लैविश वेस्ट करार दिया था यानी एक आलीशान बर्बादी. जबकि फ़िल्मफ़ेयर के क्रिटिक ने पाकीज़ा को सिर्फ़ एक स्टार दिया था."
लेकिन मराठा मंदिर में रिलीज़ हुई पाकीज़ा धीरे-धीरे अपना जादू बिखेरने लगी.
फ़िल्मफ़ेयर में पाकीज़ा को कई पुरस्कार मिलने की उम्मीद थी. लेकिन इस वक्त लोगों को काफ़ी हैरत हुई थी जब बेस्ट फ़िल्म, बेस्ट डायेरक्टर और बेस्ट संगीत का अव़ॉर्ड फ़िल्म 'बेईमान' को मिला.
प्राण को जब 'बेईमान' के लिए बेस्ट सहायक कलाकार का पुरस्कार मिला तो उन्होंने ये कहते हुए लेने से इनकार कर दिया था कि उनकी अपनी फ़िल्म 'बेईमान' की जगह 'पाकीज़ा' सर्वश्रेष्ठ संगीत के पुरस्कार की हक़दार है.
लेकिन इस सब से परे 'पाकीज़ा' कई मायनों में ख़ास रही. फ़िल्म 4 फ़रवारी 1972 को रिलीज़ हुई और 31 मार्च 1972 को मीना कुमारी ने दुनिया को अलविदा कह दिया. सिने प्रेमियों के लिए पाकीज़ा उनका आख़िरी तोहफ़ा था.
कमाल अमरोही ने अपनी ज़िंदगी में चार ही फ़िल्में बनाईं जिनमें से पाकीज़ा ने उन्हें हमेशा के लिए सिनेमाई इतिहास में दर्ज कर दिया.
फ़िल्म के आख़िर में एक सीन है जहाँ साहिबजान को सलीम (राजकुमार) की शादी पर मुजरे का न्योता मिलता है. सलीम से निकाह की पेशकश वो ख़ुद ही पहले ठुकरा चुकी है.
साहिबजान (मीना कुमारी) दिल खोल कर नाचती है और वहाँ टूटे काँच पर थिरकते हुए उसके पैर लहू लुहान हो जाते हैं. वही पैर जिसके लिए कभी राजकुमार ने कहा था कि इन्हें ज़मीन पर मत रखिएगा.
लेकिन इस फ़िल्म में आख़िरकर एक औरत ही औरत के लिए आवाज़ उठाती है. साहिबजान की मासी ख़ुद कोठा चलाती हैं और वो साहिबजान की माँ के साथ हुई नाइंसाफ़ी देख चुकी हैं. वो साहिबजान को आख़िरकर उसका हक़ दिलाती हैं.
फ़िल्म में मीना कुमारी का डबल रोल है- तवायफ़ माँ जो अशोक कुमार की बेटी यानी साहिबजान को जन्म देकर गुज़र जाती है.
यूँ तो ये फ़िल्म उस फ़्रेम पर ख़त्म हो सकती थी जब अंत में मीना कुमारी कोठे से दुल्हन के रूप में रुख़सत होती है और राज कुमार के साथ उसका निकाह होता है.
वो एक ख़ूबसूरत मंज़र होता, लेकिन कमाल अमरोही फ़िल्म 'पाकीज़ा' को उसी कोठे की एक अनजान तवायफ़ के चेहरे पर लाकर ख़त्म करते हैं- उसकी आँखों में भी वही तलाश, वही सवाल, वही तड़प होती है जो साहिबजान की आँखों में हुआ करती थी.
शायद एक और साहिबजान यहाँ से जन्म लेगी या फिर वहीं क़ैद होकर रह जाएगी.
बेमिसाल अदाकारी, ख़ूबसूरत लिबास, नक्काशी वाले आलीशान महल, क़ीमती ज़ेवर, दिलकश नज़ारों से सजा कैमरे का हर फ़्रेम, संगमरमर की तरह तराशा हुआ संगीत, शायरी में ढले संवाद और गीत- 'पाकीज़ा' देखने पर ये समझ पाना मुश्किल है कि आप किसके लिए ये फ़िल्म देखना चाहते हैं.
विनोद मेहता बकौल मीना कुमारी किताब में लिखते हैं - "पाकीज़ा एक ऐसा ख़्वाब था जिसके पीछे उनकी (कमाल अमरोही) रूह बरसों से भटकती रही है. ये वो महबूबा है जो उनकी कल्पना में न जाने कब से बसी हुई थी."
असल ज़िंदगी में मीना कुमारी और कमाल अमरोही की अधूरी प्रेम कहानी भले अधूरी रही, लेकिन दोनों ने मिलकर 'पाकीज़ा' का आलीशान सपना पूरा किया. (bbc.com)


