यह जो ज़रा-ज़रा सी बात पर दुखी होकर आत्महत्या करने का चलन बढ़ता जा रहा है, उसके प्रति सजग रहें, अपने मन का ख्याल रखें. जीवन में दुखी होने के अवसर बहुत से मिल जाते हैं, लेकिन प्रेम, स्नेह से साथ रहने के मौके कम मिलते हैं.
जब खूब बुरा लगे. सामने वाले की बात सुनकर शरीर थर-थर कांपने लगे. जब लगे की उसकी सारी बातें अप्रिय हैं. ऐसा तो आपने सोचा ही नहीं. कभी आपके विचार में ऐसा कुछ आया नहीं! उसके बाद भी यह व्यक्ति आपके ऊपर अपना कचरा फेंके ही जा रहा है. ऐसे में खूब गुस्सा होना, मन को बुरा लगना सहज और स्वाभाविक है. कुछ तो लगेगा ही! लेकिन कितना, यह हम पर ही निर्भर करता है. यात्रा में खूब सारे स्पीड-ब्रेकर मिलते हैं. बड़े खराब-खराब. हम स्पीड-ब्रेकर की नहीं, अपनी गाड़ी की चिंता करते हैं, गाड़ी एकदम धीमी कर लेते हैं. इतनी कि कभी-कभी बंद भी हो जाती है, लेकिन हमारा पूरा ध्यान इस पर रहता है कि गाड़ी को नुकसान न पहुंचे.
हम गति, स्पीड-ब्रेकर की चिंता नहीं करते, उसे चुनौती नहीं देते. सावधानी से गाड़ी निकालकर आगे बढ़ जाते हैं. भले ही स्पीड ब्रेकर कितने ही बेतरतीब क्यों न बने हों. खराब और बुरे अनुभवों से हमें ऐसे ही गुजरना है.
'जीवन संवाद' जीवन के लिए है, उसकी मुश्किलों के लिए नहीं. मुश्किलें तो आती-जाती रहेंगी, स्थायी केवल जीवन है! पिछले कुछ दिनों में कम से कम दो बार ऐसा हुआ, जब मुझे लगा कि दूसरे की वजह से, उनके वक्तव्यों की वजह से मुझे बहुत खराब महसूस हुआ. उस वक्त मैंने केवल यही सोचा, भले ही यह मेरे समझाने पर मेरी बात सुनने को राजी न हों, लेकिन मुझे अपने सोचने का तरीका नहीं बदलना है.
जीवन संवाद: कोरोना और शादी!
भीतर से खराब लगने पर भी स्वयं को संभालने की कला जितनी फूल में होती है, उतनी दूसरों में नहीं! धूल हमेशा कोशिश करती है कि फूल के चेहरे पर बैठ जाए. उसे अपने रंग में रंग ले, लेकिन फूल कोमलता नहीं छोड़ते. बहुत बुरा लगने पर भी नहीं! हमें भी इसका अभ्यास करना है. दूसरे के जैसा होते जाने से हम जीवन में अपने लिए कुछ बाकी नहीं रख पाएंगे.
महात्मा बुद्ध का बहुत सुंदर प्रसंग है. एक व्यक्ति एक बार बुद्ध के पास आए. बुद्ध को खूब सारी गालियां दीं. अपशब्द कहे उनके परिवार को. उनके विचार और सोच को. उनके शिष्य आनंद खूब क्रोधित हुए, तो बुद्ध ने इतना ही कहा, इन्होंने आने में जरा देर कर दी. दस साल पहले आते तो खूब मजा आता (उस समय तक बुद्ध को संन्यास लिए दस वर्ष ही हुए थे). जरा देर से आए. हमने गाली लेनी बंद कर दी है! इसका मौसम जा चुका है. अब तुम इन्हें इनके घर ले जाओ. बहुत बीमार हैं. दया आती है, इन पर. मैं इनसे कुछ भी नहीं ले सकता. वह कितना ही क्रोध, हिंसा हमारी ओर आमंत्रित करें, हमें चाहिए ही नहीं. मुफ्त के भाव भी नहीं!
हमें भी बुद्ध और फूल के रास्ते ही जाना है. अपनी जिंदगी को दूसरों के अनुसार नहीं अपने स्वाद के अनुसार आगे बढ़ाना है. जीवन के प्रति आस्थावान बनना है. यह जो ज़रा-ज़रा सी बात पर दुखी होकर आत्महत्या करने का चलन बढ़ता जा रहा है. उसके प्रति सजग रहें, अपने मन का ख्याल रखें. जीवन में दुखी होने के अवसर बहुत से मिल जाते हैं, लेकिन प्रेम, स्नेह से साथ रहने के मौके कम मिलते हैं. हमें अपना ध्यान ऐसे अवसरों पर केंद्रित करना चाहिए. (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
अभी भी भारत में आने वाली शादियों के लिए बड़ी संख्या में रेल टिकट बुकिंग से लेकर शादी हॉल, खानपान की व्यवस्था देखकर कहीं नहीं लग रहा कि कोरोना का अस्तित्व बचा भी है!
अमेरिका से आज खबर आई है कि वहां एक शादी में 55 लोग शामिल हुए. इनमें से कोई एक कोरोना पॉजिटिव था. उनसे 177 लोगों में संक्रमण फैला, जिसके कारण उन 7 लोगों की मौत हो गई, जो उस विवाह का हिस्सा नहीं थे. यह अमेरिका की बात है, इसलिए इस पर हर कहीं चर्चा हो रही है, लेकिन हमारे अपने देश में अब हालात कहीं अधिक खराब होने की तरफ बढ़ रहे हैं. भारत में शादी-ब्याह को लेकर जितनी अधिक भावुकता है, दुनिया के दूसरे देशों में ऐसा कम देखने/पढ़ने को मिलता है. इस बारे में हमारे ऐसे पाठक अधिक बता सकते हैं, जिनको दुनिया की यात्रा का अनुभव है. दिल्ली से लेकर मध्य प्रदेश तक मेरे खुद के अनुभव विचित्रतापूर्ण, विविधतापूर्ण और सबसे बढ़कर हैरान, परेशान करने वाले रहे हैं. उम्र में छोटे और बड़े दोनों को ही कोरोना की गंभीरता समझा पाना बहुत मुश्किल है. सबको यही लग रहा है कि संकट उन पर नहीं है. उनको कैसे कोरोना हो सकता है! यह सनक, भावुकता जीवन पर भारी पड़ रही है. जिन पर हम आगे विस्तार से बातचीत करेंगे.
हम दिल्ली में शादी और निजी उत्सवों में 200 लोगों की अनुमति का परिणाम देख चुके हैं. दिल्ली में कोरोना के कारण हर दिन बड़ी संख्या में लोग अपनी जान गंवा रहे हैं. यह विशुद्ध रूप से समाज की लापरवाही से हो रही मौतें हैं. कैसा समाज है, जो हर मौत पर संवेदनशील होने की जगह रस्म अदायगी में जुटा हुआ है. दिल्ली से बाहर तो हालत और अधिक खराब होते जाएंगे, क्योंकि दिल्ली से हम जैसे-जैसे दूर निकलते जा हैं, कोरोना वायरस हमारी चिंता से वैसे वैसे बाहर होता जाता है.
इन दिनों शादी-ब्याह के निमंत्रण हम सभी को मिल रहे हैं, लेकिन सबसे खतरनाक बात यह है कि कोई इस पर बात नहीं करना चाहता. मेरी जिन लोगों से भी बात हुई है इस तरह के निमंत्रण को लेकर, उन सभी में लोगों का जोर कार्यक्रम में आने को लेकर अधिक है, न कि सेहत को लेकर.
मास्क को लेकर भारतीय समाज का रवैया हमारी वैज्ञानिक समझ को स्पष्टता से रेखांकित करने वाला है. दिल्ली से जैसे जैसे दूर होते जाते हैं, चेहरे से मास्क की दूरी बढ़ती चली जाती है. मुझे स्वयं मास्क के प्रति आग्रह के कारण कई जगह अपमानित होना पड़ा, लेकिन उसके बाद भी मैंने अपनी ओर से आग्रह नहीं छोड़ा है. आप भी मत छोड़िएगा! माता-पिता, रिश्तेदार संभव है, कुछ समय के लिए नाराज रहें, लेकिन उनकी नाराजगी से कहीं अधिक जरूरी है, उनका स्वस्थ जीवन! हमें उनके जीवन की रक्षा करनी चाहिए.
मास्क और कोरोना को लेकर सबसे खतरनाक है, युवा मन की लापरवाही, साथ ही उत्सव, शादी-ब्याह में हिस्सेदारी के प्रति बुजुर्गों के पुराने आग्रह का कम न होना! जीवन के प्रति इस लापरवाही से हम अपनों की मदद नहीं कर रहे, बल्कि उन्हें संकट में डाल रहे हैं! सामाजिकता से हम दूर नहीं जा सकते, लेकिन इसके लिए अपने और दूसरों के जीवन को दांव पर लगाना जीवन के प्रति आस्था की कमी बताने वाला है!
अभी भी भारत में आने वाली शादियों के लिए बड़ी संख्या में रेल टिकट बुकिंग से लेकर शादी हॉल, खानपान की व्यवस्था देखकर कहीं नहीं लग रहा कि कोरोना का अस्तित्व बचा भी है! यह एक तरह का सामाजिक मनोविकार है, जिसमें हम देख करके भी संकट की ओर से आंखें मूंदे हुए हैं. ऐसा करने से संकट घटता नहीं है, बढ़ता ही चला जाता है. हमें उम्मीद करनी चाहिए कि युवा इस मामले में विरोध सह करके भी अपने लोगों की फिक्र करेंगे और रस्म-रिवाज की जगह मनुष्य के जीवन को महत्व देंगे. (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
कोरोना ने हमारे बीच रिश्तों की कमजोर नींव को उजागर किया है. जीवन में संकट आते जाते रहते हैं. कोरोना वायरस भी जाएगा ही, लेकिन इसने हमारे जीवन के जिन गंभीर संकटों पर प्रश्न किए हैं, हमें उन्हें समय रहते सुलझाना चाहिए.
हम एक-दूसरे के साथ रहते हुए भी एक-दूसरे से दूर होते जाएं, तो इससे हमारी निकटता दूरी में बदलती जाती है. देशभर में कोरोना के आगमन के बाद हम लोग एक नए तरीके के जीवन में प्रवेश कर गए हैं. पहले हम कहते थे, एक-दूसरे के लिए समय नहीं. अब स्थिति यह हो गई है कि एक-दूसरे से दूरी के लिए छटपटाने लगे हैं. रिश्तों में कितनी ही निकटता क्यों न हो, लेकिन फिर भी निजता का ख्याल बहुत ही कोमल और जरूरी है. कोरोना ने हमारे बहुत सारे मिथक तोड़ दिए हैं. कोरोना ने हमें बता दिया है कि एक-दूसरे से बहुत अधिक निकटता के परिणाम कितने घातक हो सकते हैं. देशभर में जिस तरह से पारिवारिक अदालतों में घर के विवाद सामने आए हैं वह चौंकाने वाले तो हैं, लेकिन आश्चर्यचकित नहीं करते. बहुत-सी चीजों पर हम पर्दा डालते रहते हैं, लेकिन पर्दा डालते रहने से कुछ समय तक उससे नजर हटाई जा सकती है, लेकिन समस्या तो भीतर ही भीतर बढ़ती जाती है. हमारे परिवार और समाज में संवाद की कमी पर लंबे समय से ऐसे ही कुछ पर्दे डाले हुए थे.
परिवार में आर्थिक विषयों, संकट को लेकर पुरुषों का रवैया, महिलाओं की आर्थिक विषयों से दूरी इनमें से प्रमुख है. जीवन संवाद को इस बारे में देशभर से संदेश प्राप्त हुए हैं. जहां, पढ़े-लिखे और जागरूक परिवारों में भी यह देखा गया कि पुरुष आर्थिक संकट से खराब तरीके से जूझ रहे हैं, लेकिन इसे अपने जीवनसाथी से साझा करने में उन्हें शर्म महसूस होती है!
कोरोना के कारण लंबे समय तक घर में रहने से बहुत-सी बातचीत अनजाने में सार्वजनिक हो गई. इससे घर में तनाव बढ़ा. आर्थिक मामलों में भारतीय पुरुष स्वयं को बहुत अधिक जानकार मानने का भ्रम रखते हैं, जबकि स्थिति ठीक इसके उलट होती है.
मुझे यह कहने में बिल्कुल भी संकोच नहीं कि अधिकांश भारतीय परिवारों की खराब आर्थिक स्थिति का कारण पति-पत्नी में घर की अर्थव्यवस्था के प्रति पारदर्शिता की कमी और अपनी आर्थिक स्थिति का दिखावा करने की धारणा है. हम दूसरों से तुलना में इतने अधिक व्यस्त हो जाते हैं कि अपनी असली स्थिति से बहुत दूर चले जाते हैं. एक छोटा-सा उदाहरण मैं आपसे साझा करता हूं, संभव है इससे मेरी बात अधिक स्पष्ट हो सके.
मेरे एक परिचित ने दोपहर में मुझे फोन किया. उनकी आवाज में थोड़ी चिंता थी, उन्होंने मुझसे कुछ वित्तीय सहायता मांगते हुए कहा कि उनकी पत्नी अस्पताल में हैं और कुछ रुपयों की आवश्यकता है. उनके द्वारा मांगी गई रकम मेरी सीमा के भीतर थी और मैंने तुरंत उन्हें उपलब्ध कराई. कुछ समय बाद मुझे पता चला कि उन्हें यह रकम सरलता से उनके अपने आस-पड़ोस से मिल सकती थी, लेकिन उन्होंने ऐसा इसलिए नहीं किया ताकि उनकी छवि एक मजबूत व्यक्ति की बनी रहे. इतना ही नहीं वह अनेक वर्षों से कर्ज लेकर खर्च कर रहे हैं, लेकिन उनकी पत्नी को इसकी कोई जानकारी नहीं थी. उनकी पत्नी बहुत सुलझी हुई महिला हैं. संयोगवश एक दिन हमारा मिलना हुआ, तो उन्होंने मुझसे कहा कि अगर कभी किसी तरह के वित्तीय सहयोग की जरूरत हो, तो मैं उन्हें जरूर बताऊं! मेरे साथ एक मित्र थे. उन्होंने हिम्मत करके सारा किस्सा उनसे बयान कर दिया, क्योंकि वह भी मित्र-मंडली का हिस्सा हैं. उसके बाद परिचित ने कहा कि वह अपनी छवि के प्रति बहुत सतर्क हैं. आसपास में प्रतिष्ठा बनी रहे, इसलिए उन्होंने उनसे मदद नहीं ली.
कोरोना ने हमारे बीच रिश्तों की कमजोर नींव को उजागर किया है. जीवन में संकट आते जाते रहते हैं. कोरोना वायरस भी जाएगा ही, लेकिन इसने हमारे जीवन के जिन गंभीर संकटों पर प्रश्न किए हैं, हमें उन्हें समय रहते सुलझाना चाहिए. (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
रिश्तों की सेहत के प्रति सजगता होनी जरूरी है. पेड़ को बचाए रखने के लिए पत्तियों में नहीं, जड़ों में पानी देना होता है. रिश्ते हमारी जिंदगी की जड़ हैं. यही जिंदगी को ताज़ा बनाए रखते हैं. रोशनी बख्शते हैं.
क्या रिश्ते भी बासी हो सकते हैं! संभव है, बहुत से पाठक इस शीर्षक से सहमत न हों, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता. जिस किसी चीज से जीवन में प्रेम छूटता जाता है, समय और स्नेह छूटता जाता है. वह बासी होती जाती है! हमारी जिंदगी में बासी होते रिश्ते इसकी गवाही दे रहे हैं. जिंदगी को प्रेम की धूप दीजिए! थोड़ा इत्मिनान दीजिए! स्मार्टफोन आने के बाद से जिंदगी में सबसे ज्यादा उथल-पुथल हुई है. पहली बार टेलीविजन की जिंदगी में आने पर समय की कमी महसूस हुई. उसके बाद स्मार्ट टीवी जब कमरे-कमरे में लगते गए, तो लगा कुछ घट रहा है. अब जब स्मार्टफोन है और असीमित इंटरनेट, तो जहां एक तरफ हम निजता का उत्सव मनाने में व्यस्त हैं, वहीं मन के किसी कोने में अकेलापन बढ़ रहा है. जो मन को खुरदरा बनाता जाता है!
हम रो नहीं रहे. भावुक नहीं होते. बस हमारे दिल में बेचैनी और उदासी के दौर गहरे होते जा रहे हैं. इंटरनेट के कंधे पर सवार होकर, स्मार्टफोन के रास्ते हमारे मन में अनियंत्रित और सुनियोजित हिंसा परोसी जा रही है. टीवी ने जिस काम की शुरुआत की थी, वेबसीरीज के साथ हम सही मायने में बुद्धू बक्से के सामने बैठे रहते हैं. टेलीविजन ने हमारी सोचने समझने की शक्ति को कमजोर करने की दिशा में धीरे-धीरे कदम बढ़ाया. अब स्मार्टफोन और व्हाट्सएप ने हमारी जिंदगी के समानांतर एक ऐसी दुनिया बना दी है, जिसमें गहरी शून्यता और अकेलापन है.
'गैंग्स ऑफ वासेपुर-2' का नायक फैजल पूरी फिल्म में गहरी उदासी में है. जब फिल्म/ उसकी जिंदगी अंतिम पड़ाव की ओर पर बढ़ रही होती है, तो संभवत: एक ही दृश्य में उसे रोते हुए दिखाया गया है. इसमें उसकी उदासियों का ब्यौरा है. जिंदगी कहां से कहां चली गई, इस दृश्य में उसकी कहानी है! रिश्ते के एक छोटे से छल ने उसकी आत्मा पर सबसे बड़ा बोझ लाद दिया था!
ऐसे छोटे-छोटे छल हमारी जिंदगी में बहुत बड़ा असर डाल देते हैं. रिश्तों की सेहत के प्रति सजगता होनी जरूरी है. पेड़ को बचाए रखने के लिए पत्तियों में नहीं, जड़ों में पानी देना होता है. रिश्ते हमारी जिंदगी की जड़ हैं. यही जिंदगी को ताज़ा बनाए रखने हैं. रोशनी बख्शते हैं.
बुद्ध का एक सुंदर प्रसंग है. बुद्ध के पास एक प्रौढ़ व्यापारी आता है. जिसकी पीड़ा बस इतनी है कि उसे कटु अनुभवों से मुक्ति नहीं मिल रही. वह जीवन को समाप्त करने की बात करता है. बुद्ध कहते हैं, समाप्ति से कुछ नहीं होगा. जो कल हो गया है उसे आज में लाने से बचना होगा. हर दिन पुरानी स्मृति से ही आगे बढ़ना होगा. सूरज अगर हर दिन के बादलों के बारे में सोचने लगे, तो वह अपनी यात्रा जारी ही नहीं रख पाएगा. धर्म अगर कुछ है तो वह केवल इतना है कि प्रकृति की तरह जीवन के प्रति आस्थावान बने रहना. एक-दूसरे को छोटी-छोटी चीजों के लिए क्षमा करते रहने का अभ्यास मन को मजबूत बनाता है. मन में काई जमने से रोकता है. मन को नरम, उदार बनाए रखने के लिए कोमलता के बीज बोते रहिए. अपेक्षा नहीं केवल स्नेह पर जोर दीजिए!
हर दिन नई यात्रा आरंभ करने का खुद से वादा, अतीत की गलियों में भटकने से रोकता है. किसी यात्री की तरह. यात्री हर दिन की यात्रा से सबक लेते हैं, लेकिन थमते नहीं हैं! जीवन में अलग-अलग मोड़ पर अलग-अलग तरह के रिश्ते मिलते हैं. उनके प्रति सही दृष्टिकोण, दूसरों के प्रति करुणा और स्नेह से ही जीवन को गतिमान बनाया जा सकता है. रिश्तों को प्रेम की धूप जितनी अधिक मिलेगी, जिंदगी उतनी ही रोशन होगी. (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
रिश्तों की सेहत के प्रति सजगता होनी जरूरी है. पेड़ को बचाए रखने के लिए पत्तियों में नहीं, जड़ों में पानी देना होता है. रिश्ते हमारी जिंदगी की जड़ हैं. यही जिंदगी को ताज़ा बनाए रखते हैं. रोशनी बख्शते हैं.
क्या रिश्ते भी बासी हो सकते हैं! संभव है, बहुत से पाठक इस शीर्षक से सहमत न हों, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता. जिस किसी चीज से जीवन में प्रेम छूटता जाता है, समय और स्नेह छूटता जाता है. वह बासी होती जाती है! हमारी जिंदगी में बासी होते रिश्ते इसकी गवाही दे रहे हैं. जिंदगी को प्रेम की धूप दीजिए! थोड़ा इत्मिनान दीजिए! स्मार्टफोन आने के बाद से जिंदगी में सबसे ज्यादा उथल-पुथल हुई है. पहली बार टेलीविजन की जिंदगी में आने पर समय की कमी महसूस हुई. उसके बाद स्मार्ट टीवी जब कमरे-कमरे में लगते गए, तो लगा कुछ घट रहा है. अब जब स्मार्टफोन है और असीमित इंटरनेट, तो जहां एक तरफ हम निजता का उत्सव मनाने में व्यस्त हैं, वहीं मन के किसी कोने में अकेलापन बढ़ रहा है. जो मन को खुरदरा बनाता जाता है!
हम रो नहीं रहे. भावुक नहीं होते. बस हमारे दिल में बेचैनी और उदासी के दौर गहरे होते जा रहे हैं. इंटरनेट के कंधे पर सवार होकर, स्मार्टफोन के रास्ते हमारे मन में अनियंत्रित और सुनियोजित हिंसा परोसी जा रही है. टीवी ने जिस काम की शुरुआत की थी, वेबसीरीज के साथ हम सही मायने में बुद्धू बक्से के सामने बैठे रहते हैं. टेलीविजन ने हमारी सोचने समझने की शक्ति को कमजोर करने की दिशा में धीरे-धीरे कदम बढ़ाया. अब स्मार्टफोन और व्हाट्सएप ने हमारी जिंदगी के समानांतर एक ऐसी दुनिया बना दी है, जिसमें गहरी शून्यता और अकेलापन है.
'गैंग्स ऑफ वासेपुर-2' का नायक फैजल पूरी फिल्म में गहरी उदासी में है. जब फिल्म/ उसकी जिंदगी अंतिम पड़ाव की ओर पर बढ़ रही होती है, तो संभवत: एक ही दृश्य में उसे रोते हुए दिखाया गया है. इसमें उसकी उदासियों का ब्यौरा है. जिंदगी कहां से कहां चली गई, इस दृश्य में उसकी कहानी है! रिश्ते के एक छोटे से छल ने उसकी आत्मा पर सबसे बड़ा बोझ लाद दिया था!
ऐसे छोटे-छोटे छल हमारी जिंदगी में बहुत बड़ा असर डाल देते हैं. रिश्तों की सेहत के प्रति सजगता होनी जरूरी है. पेड़ को बचाए रखने के लिए पत्तियों में नहीं, जड़ों में पानी देना होता है. रिश्ते हमारी जिंदगी की जड़ हैं. यही जिंदगी को ताज़ा बनाए रखने हैं. रोशनी बख्शते हैं.
बुद्ध का एक सुंदर प्रसंग है. बुद्ध के पास एक प्रौढ़ व्यापारी आता है. जिसकी पीड़ा बस इतनी है कि उसे कटु अनुभवों से मुक्ति नहीं मिल रही. वह जीवन को समाप्त करने की बात करता है. बुद्ध कहते हैं, समाप्ति से कुछ नहीं होगा. जो कल हो गया है उसे आज में लाने से बचना होगा. हर दिन पुरानी स्मृति से ही आगे बढ़ना होगा. सूरज अगर हर दिन के बादलों के बारे में सोचने लगे, तो वह अपनी यात्रा जारी ही नहीं रख पाएगा. धर्म अगर कुछ है तो वह केवल इतना है कि प्रकृति की तरह जीवन के प्रति आस्थावान बने रहना. एक-दूसरे को छोटी-छोटी चीजों के लिए क्षमा करते रहने का अभ्यास मन को मजबूत बनाता है. मन में काई जमने से रोकता है. मन को नरम, उदार बनाए रखने के लिए कोमलता के बीज बोते रहिए. अपेक्षा नहीं केवल स्नेह पर जोर दीजिए!
हर दिन नई यात्रा आरंभ करने का खुद से वादा, अतीत की गलियों में भटकने से रोकता है. किसी यात्री की तरह. यात्री हर दिन की यात्रा से सबक लेते हैं, लेकिन थमते नहीं हैं! जीवन में अलग-अलग मोड़ पर अलग-अलग तरह के रिश्ते मिलते हैं. उनके प्रति सही दृष्टिकोण, दूसरों के प्रति करुणा और स्नेह से ही जीवन को गतिमान बनाया जा सकता है. रिश्तों को प्रेम की धूप जितनी अधिक मिलेगी, जिंदगी उतनी ही रोशन होगी.
-दयाशंकर मिश्र
हम अक्सर करुणा और प्रेम की शक्ति को कमतर मानते हैं, लेकिन जिन्होंने इसे महसूस किया है, वह मानते हैं कि इससे जीवन की किसी भी कठिनाई का सामना किया जा सकता है!
हमारे जीवन से एक बरस की यात्रा अब थोड़ी-सी दूरी पर है. यह साल अपनी यात्रा पूरी ही करने वाला है. त्योहार भारतीय जीवन पद्धति का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. मेरा ख्याल है कि हम सबको अपने आसपास मौजूद लोगों के प्रति थोड़ी अधिक उदारता दिखानी चाहिए. फेसबुक पर इन दिनों एक वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें पंजाब की बहुत ही भावुक कहानी है. कोरोना और लॉकडाउन के कारण बढ़ती बेरोजगारी में अपनी तरह से स्थितियों से लोहा लेने का काम अपना छोटा-सा कारोबार संभालने वाली पूजा करती हैं. पूजा अपने साथियों को इस तरह से संभालती हैं कि उन्हें बड़े-बड़े लोग पूजा दीदी कहने लगते हैं. इस विज्ञापन का शीर्षक भी पूजा दीदी ही है. इसे देखने वाले बड़ी मुश्किल से अपनी आंखों की नमी रोक पाते हैं. इस कहानी में पूजा बहुत बड़ा काम नहीं कर रहीं, लेकिन वह आगे बढ़कर समाज का दुख और परेशानी कम करना चाहती हैं. अपने हिस्से की सुविधा को थोड़ा कम करते हुए.
यह जो पूजा का किरदार है, हमारा पुराना वाला भारत यही है. थोड़ा पीछे जाकर हम देखते हैं, तो पाते हैं कि अपने यहां मुश्किल दिनों में भी लोगों को नौकरी से निकालने का तरीका जितना इधर पंद्रह- बीस वर्षों में फैला है, उतना पहले नहीं था.
हम धीरे-धीरे सारे सपने केवल अपने लिए बुनने लगे हैं. ऐसी आंखें जिनके सपने की सीमा बहुत सीमित होती है, वह अपने जीवन को विस्तार नहीं दे पातीं. अपने साथ थोड़ा दूसरों के लिए सोचना, जिंदगी को सुकून, आनंद और सुख देता है. एक-दूसरे का साथ देते हुए जिंदगी में आगे बढ़ने के लिए हुनर से अधिक हौसले और करुणा की जरूरत होती है. हम अक्सर करुणा और प्रेम की शक्ति को कमतर मानते हैं, लेकिन जिन्होंने इसे महसूस किया है, वह मानते हैं कि इससे जीवन की किसी भी कठिनाई का सामना किया जा सकता है.
'जीवन संवााद' के सभी पाठकों को दीपावली और नववर्ष की शुभकामना. मैं आप सभी से अनुरोध करना चाहता हूं कि अपनी जिंदगी में थोड़ी-थोड़ी उदारता बढ़ाएं. एक-दूसरे की गलतियों को अनदेखा करना हमारी कमजोरी नहीं है. असल में एक-दूसरे को सहना है. एक-दूसरे को बर्दाश्त किए बिना जिंदगी बहुत मुश्किल हो जाएगी! अपनी-अपनी परेशानी और कमजोरियों के बाद भी जिंदगी मुमकिन है. इसका साथ बहादुरी और बड़े दिल के साथ करने से बड़े-बड़े बोझ हल्के होते जाते हैं!
-दयाशंकर मिश्र
तनाव के पलों में हर पल जीतने के उन्माद से मुक्त होकर हम अपना जीवन सुकून से जी सकते हैं. हमेशा अपने को सही साबित करने से बचें, इससे जिंदगी में केवल तनाव बढ़ता है, और कुछ नहीं.
जीवन के अनेक संकट अपने आप ही दूर हो जाएं, अगर हम हर बात पर जीतने की ज़िद छोड़ दें. हारने को राजी हो जाएं. किसी एक दिन सोचकर देखें कि बस आज जीतने की ज़िद नहीं करेंगे. आज हारकर ही काम चला लेंगे. इस वादे को निभाया जा सके, तो आप पाएंगे कि दिन बड़ा ही खूबसूरत हो जाता है. दिन खूबसूरत होते ही जिंदगी पर उसका असर देखा जा सकता है.
मेरा बचपन खूब सारी कहानियों के बीच गुजरा. इनमें से एक कहानी बहुत पसंद है, जिसे आपसे साझा करने जा रहा हूं. एक बार एक राजा ने कहा कि किसी सुखी व्यक्ति को खोजकर लाओ. बहुत सारे लोग राजा के सामने खड़े कर दिए गए, लेकिन उसके चतुर मंत्री के सामने कोई भी ऐसा न टिक पाता, जिसे कोई दुख न हो. असल में लोग इनाम के लालच में सुख के मुखौटे लगाकर दरबार में आते थे. राजा और उसका मंत्री कुछ ही देर में उनकी असलियत समझ जाते.
कई दिन तक यह खेल चलता रहा. कोई भी ऐसा व्यक्ति नहीं मिला जिसके बारे में कहा जा सके कि वह सुखी है. एक दिन राजा ने इनाम की घोषणा करते हुए कहा, जो कोई भी किसी सुखी व्यक्ति को ले आएगा उसे भी इनाम दिया जाएगा. अब तक तो बात यह थी कि सुखी आदमी को इनाम मिलेगा, लेकिन अब तो सुखी आदमी को खोजने वाले को भी इनाम की घोषणा हो गई.
गांव के किनारे रहने वाला एक गरीब आदमी एक ऐसे व्यक्ति को जानता था, जो हमेशा अपनी मौज में रहता था. वह उसके पास पहुंचा और कहा कि आप मेरी गरीबी दूर करें. पहले तो वह राजी न हुआ, लेकिन उस जरूरतमंद की मदद के लिहाज से वह तैयार हो गया. राजा ने उससे पूछा, क्या तुम सच में सुखी हो! सुख का राज क्या है? उसने मुस्कराते हुए कहा, जीतने से मुक्ति, लेकिन केवल इससे सुख नहीं मिल जाता. मैं तो बिना लड़े ही हारने को तैयार हूं. उससे पूछा गया, क्या उसने कभी दुख को महसूस किया! उसने बड़ा सुंदर उत्तर दिया, मैंने कभी भी सुख को समझने की कोशिश नहीं की. सुख-दुख अलग-अलग नहीं हैं. एक को खोजने जाएंगे, तो दूसरा मिल ही जाएगा.
अपनी बात स्पष्ट करते हुए उसने कहा, मेरा कोई अपमान नहीं कर पाया, क्योंकि मैंने कभी अपने सम्मान की व्यवस्था नहीं की. मैं सबसे पीछे खड़े रहने को तैयार हूं. मुझे कौन पीछे करेगा. जो सबसे पीछे रहने को तैयार है, उसे कौन पीछे छोड़ेगा! राजा ने अंततः मान लिया कि सबसे सुखी व्यक्ति उसे मिल गया है.
हर दिन की भागदौड़ भरी जिंदगी में, तनाव के पलों में हर पल जीतने के उन्माद से मुक्त होकर हम अपना जीवन सुकून से जी सकते हैं. हमेशा अपने को सही साबित करने से बचें, इससे जिंदगी में केवल तनाव बढ़ता है, और कुछ नहीं. (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
हमने बाहरी चीज़ों पर सुख की निर्भरता इतनी अधिक बढ़ा दी है कि अगर वह नहीं है तो भी हमें उसे दिखाना है. जो नहीं है, उसको दिखाने का काम ही मुखौटा करता है.
खुद को सुखी और प्रसन्न रखना अच्छी बात है, लेकिन भीतर से ऐसा नहीं होते हुए केवल वैसा प्रदर्शित करना कुछ ऐसा है जैसे एक मकान बाहर से चमकदार है, लेकिन भीतर से कमजोर और खोखला होता जा रहा है. बाहर तो मकान में जमकर रंग-रोगन किया गया है, लेकिन भीतर उसे लगातार जर्जर होने दिया जा रहा है.
दीपावली, निकट है. इसलिए, मकान का उदाहरण अधिक प्रासंगिक है. हमने बाहरी चीज़ों पर सुख की निर्भरता इतनी अधिक बढ़ा दी है कि अगर वह नहीं हैं, तो भी हमें उन्हें दिखाना है. जो नहीं है उसको दिखाने का काम ही मुखौटा करता है.
असुविधा, संकट और दुख अलग-अलग होने के साथ ही हमारे जीवन के निकट संबंधी हैं. इनसे ऐसा व्यवहार नहीं करना चाहिए कि मानो यह अपरिचित हों. इनका सामना करने में शर्मिंदगी का भाव अपने मन को कमजोर बनाने सरीखा है.
एक बार शहर के एक बड़े उद्योगपति मनोचिकित्सक के पास पहुंचे. उन्होंने कहा, 'सबकुछ होने के बाद भी मैं सुखी महसूस नहीं कर पाता. हमेशा डर बना रहता है, कहीं सबकुछ खत्म ना हो जाए'. मनोचिकित्सक ने उनसे कहा, 'क्या आप कभी दुखी दिखते हैं. किसी से कह पाते हैं कि आप दुखी हैं'. उन्होंने कहा, ' नहीं, समाज में मेरी बहुत प्रतिष्ठा है. मुझे हर हाल में खुद को खुश और सबसे आगे दिखाना होता है'. बुजुर्ग मनोचिकित्सक ने जवाब देते हुए कहा, 'यह सब बाहरी आवरण है. मन में काई जमी रहेगी, तो बाहर से उस पर प्रसन्नता के फूल खिलाने का कोई अर्थ नहीं.'
इस बात को समझना जरूरी है कि भीतर से हम कैसा महसूस करते हैं. दुनिया की सारी प्रतिष्ठा और कामयाबी मनुष्य के जीवन से बढ़कर नहीं है. जैसे ही हम किसी भी चीज को जीवन से बढ़कर मान लेते हैं, हमारा जीवन दोयम दर्जे का होता चला जाता है.
इसलिए हमें सबसे पहले असफलता को स्वीकार करने की ओर बढ़ना होगा. रेलगाड़ी के गुजर जाने के बाद प्लेटफार्म उसकी याद में बैठे नहीं रहते. उनको तो हर क्षण नई रेलगाड़ी का स्वागत करने के लिए तैयार रहना होता है. हमें भी जीवन में इसी तरह की सतत तैयारी रखनी होती है. अपने स्वभाव को हम जितना सहज और सामान्य रहने देंगे, मन पर उतनी ही कम मैल जमेगी.
जापान में इन दिनों एक सुंदर प्रयोग हो रहा है. विज्ञान और तकनीक से वहां के समाज की निकटता इतनी अधिक हो गई कि लोग अपनी भावनाएं प्रकट करना भूल गए. इसलिए वहां रोने का अभ्यास कराया जा रहा है. भावनाओं को प्रकट करने पर जोर दिया जा रहा है. अच्छी बात है कि हमारा समाज अभी उस स्थिति में नहीं पहुंचा है, लेकिन हम बस उसी ओर जा रहे हैं, इसलिए स्वभाव के मुखौटे के प्रति सावधान रहिए. सुखी हैं तो कहिए और अगर किसी कारण से मन उदास है. उस पर दुखी छाया पड़ रही है, तो भी कहने से पीछे मत हटिए. (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
हम उतने ही अधिक असुरक्षित होते जा रहे हैं, जितने ज्यादा सुरक्षा के इंतजाम करते जा रहे हैं! यह कुछ-कुछ ऐसा है, जैसे पेड़ का ख्याल रखने के नाम पर हम केवल फूल और पत्तियों को पानी देते रहें, जड़ को भूल ही जाएं!
हम सब इसी डर से जिए जा रहे हैं कि किस तरह से खुद को सुरक्षित कर लिया जाए. कहीं ऐसा न हो कि कोई ऐसी स्थिति आए जहां हम असुरक्षित पाए जाएं. यह ऐसा विचार है, जिसमें अमेरिका जैसे शक्तिशाली राष्ट्र से लेकर जनसामान्य तक शामिल हैं. कितनी मजेदार बात है कि हर कोई खुद को सुरक्षित करने के फेर में असुरक्षित होता जा रहा है. कॉलोनी के बाहर भारी-भरकम दरवाजों की उपस्थिति से आगे बढ़े, तो घर के बाहर लोगों ने छोटे-छोटे दुर्ग बना लिए हैं. सुरक्षा के बड़े तगड़े इंतजाम हैं. हम उतने ही अधिक असुरक्षित होते जा रहे हैं, जितने ज्यादा सुरक्षा के इंतजाम करते जा रहे हैं!
यह कुछ-कुछ ऐसा है, जैसे पेड़ का ख्याल रखने के नाम पर हम केवल फूल और पत्तियों को पानी देते रहें, जड़ को भूल ही जाएं! हम पेड़ की जड़ों की अनदेखी करके उनको नहीं बचा सकते. अपने जीवन के साथ भी हम कुछ ऐसा ही कर रहे हैं. हम स्वस्थ होने पर उतना अधिक ध्यान नहीं देते, जितना हमारा ध्यान बीमार पड़ने की तैयारी के लिए होता है. हमारा ध्यान स्वस्थ चित्त की जगह बीमारी का उपचार करने पर है. हम पहले से अधिक स्वस्थ नहीं हो रहे हैं. हां, बीमार पड़ते ही हमारे पास इलाज के बहुत सारे साधन जरूर इकट्ठे हो गए हैं. थोड़ा ध्यान देकर देखेंगे, तो पाएंगे हमारे घर, अपार्टमेंट और कॉलोनियां डर से कांप रहे हैं. सुरक्षा के एक से बढ़कर एक इंतजाम, लेकिन उसके बाद भी चैन की नींद नहीं. हमें इस बात का ख्याल करना चाहिए कि सीसीटीवी कैमरे पर हमने अपने पड़ोसी से कहीं अधिक भरोसा कर लिया है. इससे हुआ यह कि पड़ोसी छूट गए और सीसीटीवी कैमरे बढ़ते गए.
टूटते घर, परिवार और समाज की कहानी से अलग नहीं हैं. हर कोई थोड़ी-सी आर्थिक स्थिति मजबूत होते ही असुरक्षित महसूस करने लगा. अपने ही भाइयों और परिवार से. रांची से जीवन संवाद की पाठक रुचि वर्मा लिखती हैं, 'जैसे ही संयुक्त परिवार में कोई एक व्यक्ति दूसरों के मुकाबले आर्थिक रूप से मजबूत होता जाता है, वह अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करने लगता है. वह अपने वक्तव्य देने लगता है. बाकी लोगों को कमतर मानने लगता है.' रुचि ने परिवार के मनोविज्ञान की सही रग पर हाथ रखा है. असल में हर कोई अपना प्रभाव जमाना चाहता है. उसे लगता है, वही सही है. दूसरे (अपने अतिरिक्त हर कोई) उसकी हासिल संपदा का महत्व समझने को राजी नहीं. यहीं से परिवार में एक-दूसरे के खिलाफ मनमुटाव और विरोध शुरू हो जाता है. विरोध सही गलत का नहीं होता. मन के अहंकार का होता है. असुरक्षा की दीवार बहुत तेजी से बढ़ने लगती है. एक बार दीवार उठ गई, तो फिर उसे तोड़ना बड़ा मुश्किल हो जाता है.
पूरी दुनिया असल में वैसी ही है, जैसे हम हैं! उतनी ही नेक, हमदर्द और ईमानदार. जितने हम हैं. दुनिया के सारे युद्ध असुरक्षित मन के युद्ध हैं. गलत व्याख्या के युद्ध हैं. जीवन को असुरक्षा और गलत व्याख्या से बचाए रखना अपने ही प्रति सबसे बड़ा प्रेम है! अपने मन को हमें थोड़ा भरोसा देने की जरूरत है. प्यार और विश्वास देने की जरूरत है. खुद को असुरक्षित होने से ऐसे ही बचाया जा सकता है. (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
युवाओं के बीच एक चीज बहुत तेजी से लोकप्रिय हो रही है. किसी भी कीमत पर अपनी हैसियत कम न बताना. अपनी सामाजिक हैसियत को कर्ज के सहारे चमकदार बनाने की चाहत ने हमें गहरे संकट में डाल दिया है.
कोरोना के हमारे जीवन में प्रवेश के बीच हमारी नजर कुछ ऐसे संकटों पर भी पड़ रही है, जिन पर पहले हमारा ध्यान ही नहीं था. कुछ दिन पहले क्रेडिट कार्ड से जुड़ी एक संस्था ने अपनी रिपोर्ट जारी करते हुए बताया है कि क्रेडिट कार्ड से कर्ज लेने वालों की संख्या पिछले छह महीने में कई गुना बढ़ गई. इतना ही नहीं अब छोटे और मध्यम दर्जे के शहरों में भी क्रेडिट कार्ड लोकप्रिय होते जा रहे हैं. इनसे जुड़ी कंपनियों के लिए निश्चित रूप से अच्छी खबर हो सकती है, लेकिन बढ़ता हुआ कर्ज व्यक्तियों के लिए बहुत संकटकारी है. युवाओं के बीच एक चीज बहुत तेजी से लोकप्रिय हो रही है. किसी भी कीमत पर अपनी हैसियत कम न बताना. दूसरों के पास जो चीजें हैं, उसे किसी भी तरह अपने पास ही रखना, जिससे सामाजिक हैसियत चमकदार बनी रहे. भले ही बुनियाद खोखली होती जाए.
मनोवैज्ञानिक इसे टेंपरेरी मैडनेस (अस्थाई पागलपन) कहेंगे. याद रहे, गुस्से को भी मनोविज्ञान की भाषा में टेंपरेरी मैडनेस ही कहा जाता है. जब यह अस्थायी भाव, स्थायित्व की ओर बढ़ने लगे, तो हमें स्वीकार करना होगा कि हम संकट वाली सुरंग में प्रवेश कर गए हैं. जंगल में टहलना अलग बात है और भटक जाना दूसरी बात. अपने जीवन-मूल्यों की निरंतर उपेक्षा के कारण हम जीवन के रास्ते में भटक गए हैं. बड़ी संख्या में कर्ज पर निर्भरता जिंदगी की बुनियाद को कमजोर करने वाली है.
आप सोच रहे होंगे गुस्से और कर्ज से अपनी झूठी शान बघारने को मैं जोड़ क्यों रहा हूं! यह इसलिए, क्योंकि दोनों के ही मूल में उलझन है. हम सुलझने के रास्ते पर नहीं हैं. हमारी चेतना और मन रास्ते से भटककर उलझ गए हैं. जो कर्ज में डूबता जा रहा है, उसे ख्याल ही नहीं कि तैर नहीं रहा है, बल्कि डूब रहा है. डूबने वाले को कभी नहीं लगता कि वह डूब रहा है. उसे हमेशा यही लगता है कि उसे डुबोया जा रहा है. हम खुद को बहुत अधिक मासूम और भोला समझते हैं. दूसरों पर हंसते हुए. उनकी निंदा करते हुए. उनका मजाक उड़ाते हुए हमें ख्याल ही नहीं रहता कि हम किस दिशा में जा रहे हैं!
मैं अपने अनुभव की बात करूं, तो पिछले 6 महीने में मैं कम से कम ऐसे 10 लोगों से मिल चुका हूं, जो आर्थिक संकट के कारण जीवन समाप्त करने की कगार तक पहुंच चुके थे. जीवन से इतने अधिक निराश हो गए थे कि कोई रास्ता ही नहीं दिखता था. सब तरफ से केवल अंधेरा था. असल में यह सब बहुत अधिक आशावादी लोग थे. इतनी अधिक आशा ओढ़ ली थी इन्होंने कि उसके बाद निराशा ही बाकी थी. जब हमने इनसे बात शुरू की तो देखा पिछले कई वर्षों से इन सबके जीवन में कर्ज बढ़ता ही जा रहा था. व्यापारिक कौशल, सूझबूझ की कमी के कारण यह नुकसान इतना अधिक नहीं हुआ जितना झूठी शान-शौकत और बहुत अधिक वैभव के प्रदर्शन में हुआ. जिसको आजकल 'स्टेटस मेंटेन' करना भी कहते हैं.
आपसे इसके बारे में एक बात और साझा करना चाहता हूं कि इनमें से अधिकांश पुरुष थे और उन्होंने कभी अपनी जीवनसाथी से आर्थिक संकट का जिक्र नहीं किया, क्योंकि इससे उनके अहंकार को चोट पहुंचती थी. संभव है अब आप अहंकार, गुस्से और कर्ज के आपसी संबंध को समझ पाएं. अहंकार का अर्थ ही हुआ कि हम स्वीकार नहीं करेंगे! मानेंगे ही नहीं कि हम गलत हैं. हम भला गलत कैसे हो सकते हैं. गुस्सा इसलिए, क्योंकि जैसे ही कोई हमसे बात शुरू करता है, हमारी कमजोरी पर हम भड़क जाते हैं. अब इसको कर्ज़ से जोड़िए. जो विनम्र हैं, संभव है भावुक होकर अपने परिवार से अपना कष्ट कह दें. जो विनयशील हैं, उनके भीतर खुद के छोटा दिखने का डर नहीं रहता. वह भी अपना संकट परिवार से कह देते हैं, लेकिन जो गुस्से और अहंकार से भर गए हैं, वह संकट में भी खुद को खोल नहीं पाते. कर्ज की खाई में धंसते ही जाते हैं! इसलिए जरूरी है कि हम अपनी अर्थव्यवस्था के प्रति जागरूक बनें. अपने नजरिए रवैया को विनम्र और पारदर्शी बनाएं. इससे जीवन को सुलझाने में मदद मिलेगी. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग आपके बारे में क्या सोचते हैं. फर्क इससे पड़ता है कि आपका परिवार और आप संकट से कैसे खुद को बचाते हैं!
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-दयाशंकर मिश्र
जब तक दूसरों के मुकाबले सुख को देखना हम बंद नहीं करेंगे। हम भटकते ही रहेंगे। बाजार का उपयोग हमें करना है, वह हमारा इस्तेमाल करने लगा। इससे बचने की जिम्मेदारी हमारी है।
यह पता करना मुश्किल नहीं है कि महत्वाकांक्षा ने हमें सुखी करने की जगह कहीं गहरे में जाकर दुखी किया है! हमारी नजर केवल उन चीजों पर टिकी रहती है, जो बहुत अधिक चमकदार हैं, जबकि हमें कहीं अधिक ध्यान देने की जरूरत है उस ओर जहां मुलायम और कोमल हिस्सा है। आज संवाद की शुरुआत एक छोटी-सी कहानी से करते हैं।
किस्सा नदी के किनारे बसे गांव का है। गांव में बाढ़ आ गई। सबका बहुत नुकसान हुआ। एक आदमी चिंतित होकर बैठा है। गहरी सोच में डूबा हुआ। उसका घर, पशु, जरूरी सामान और खेत सब कुछ बाढ़ में नष्ट हो गए। तभी उसके पास उसका पड़ोसी पहुंचा और उसने बताया कि गांव में किसी का कुछ नहीं बचा। उस व्यक्ति का भी नहीं, जो गांव में सबसे अधिक सक्षम था। उसका भी नहीं जो गांव में हमारा शत्रु था। किसी का कुछ नहीं बचा सबका सब कुछ तबाह हो गया है। कुछ देर तक वह व्यक्ति सूचना देता रहा कि क्या-क्या नष्ट हो गया है किस-किस का। थोड़ी देर बाद चिंतित आदमी उठ खड़ा हुआ और उसने कहा कि असल में सवाल यह नहीं था कि मेरा सब बह गया। सवाल यह भी था कि किसका क्या क्या बचा रह गया! अब तुम कह रहे हो कि सबका सब कुछ नष्ट हो गया, तो अब हम सब बराबरी पर हैं। कहीं कोई दिक्कत नहीं। कोई बड़ा-छोटा नहीं। कोई सबसे पहले नहीं। अब सब बराबरी पर हैं!
सोचने-समझने का तरीका कुछ इसी तरह से हमारे दिमाग में बैठा हुआ है। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि जीवन के आंगन में सुख उतरा है। दुख आया है। दिमाग में केवल यही है कि किसके हिस्से कितना आया।
दूसरे से मुकाबला करते हुए हम निरंतर हारते ही रहते हैं। इस मुकाबले को बंद करना होगा। इससे जि़ंदगी में कोमलता कम हो रही है। नमी केवल आंखों से कम नहीं होती, वह तो भीतर से सूखती है। जब तक दूसरों के मुकाबले सुख को देखना हम बंद नहीं करेंगे। हम भटकते ही रहेंगे। बाजार का उपयोग हमें करना है, वह हमारा इस्तेमाल करने लगा। इससे बचने की जिम्मेदारी हमारी है। भटकाव की यात्रा पर हमें हर कोई ले जाने को तैयार है।
‘जीवन संवाद’ को रिश्तों, करियर और रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़े हर दिन ऐसे अनुभव मिलते हैं जिनमें हर कोई इसलिए दुखी नहीं है कि उसके जीवन में सुख नहीं है। वह दुखी ही केवल इसलिए है, क्योंकि उसके मुकाबले लोग बहुत आगे निकल गए हैं। असल में लोग भी कहीं दूर नहीं निकले हैं बस यही उनका भ्रम है। आगे निकले हुए लोगों से इत्मिनान से बात करने पर समझ में आएगा कि वह तो उसके लिए तरसते हैं जो पीछे छूट गया है!
हमारे जीवन में बढ़ता हुआ कर्ज, हर कीमत पर खुद को सबसे बड़ा दिखाने की इच्छा, हमें ऐसी बंद गली की ओर ले जा रहे हैं, जहां से आगे का रास्ता बहुत साफ नहीं दिखाई देता।
इससे पहले कि यह रास्ते हमेशा के लिए बंद हो जाएं, हमें समय रहते रोशनदान बनाने की जरूरत है।
-दयाशंकर मिश्र
अपने भीतर कोमलता और रिक्तता को बनाए रखना बहुत जरूरी है। दूसरों के लिए मन में जगह बनाए बिना अपने लिए भी प्रेम को बचाए रखना मुश्किल हो जाएगा!
हम अक्सर ऐसी स्मृतियों को मिटाने की कोशिश में रहते हैं जो हमारे अंतर्मन को परेशान करती रहती हैं। किसी को भी खत्म करने की कोशिश असल में उसके बहुत सारे रूपों को जिंदा करने जैसी है। पूरी तरह किसी भी चीज का होना बड़ा ही मुश्किल है। जीवन, केवल आंकड़ों में बंटा हुआ नहीं है। केवल आंकड़ों के आधार पर जिंदगी को समझना संभव नहीं। हम कोशिश तो जरूर करते हैं, लेकिन जीवन के अतिरिक्त दूसरे क्षेत्रों में ही ऐसा कर पाना संभव होता है। जिंदगी में हमेशा आर या पार जैसा कुछ नहीं होता। कुछ ऐसा होता है, जो दोनों के बीच अटका रहता है।
जीवन को थामने वाली बहुत सी चीजें हमसे छूटकर भी नहीं छूटतीं। मन से स्मृतियों की धूल तो झाड़ी जा सकती हैं, लेकिन कुछ गहरे निशान ऐसे होते हैं, जो हमेशा साथ रहते हैं। उनको मिटाना संभव नहीं होता। हां, भुलाने की ओर बढ़ा जा सकता है। इसके लिए पहले हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि इसे मिटाया नहीं जा सकता। हां, धीरे-धीरे विस्मृत किया जा सकता है। आहिस्ता-आहिस्ता उससे बाहर जाया जा सकता है!
प्रकृति के अलावा किसी में पूर्णता नहीं। न तो बुद्धि में पूर्णता है, न ही बुद्धि से बाहर। एक छोटा-सा किस्सा सुनिए!
बचपन में मेरे साथ एक बड़ा अनूठा सहपाठी था। एक बार शिक्षक महोदय ने उसकी पिटाई कर दी। माहौल ही कुछ ऐसा रहता था कि शिक्षक की पिटाई के लिए वह छात्र ही सबसे उपयुक्त था। उसके माता-पिता का स्पष्ट विचार था कि बच्चों को ऐसे ही ठीक किया जा सकता है। शारीरिक रूप से वह काफी तंदुरुस्त था। इसलिए छोटी-मोटी हिंसा को सरलता से झेल जाता था। एक दिन गुरुजी का मन कुछ बदला हुआ था। वह पिटाई करने के ‘मूड’ में नहीं थे। उन्होंने उससे कहा, ‘तुम पूरी तरह गधे हो!’ हमारे मित्र का मूड भी कुछ दूसरा था, ‘उसने कहा था, ‘’ाप मेरी झूठी तारीफ न करें। आप ही तो कहते हैं संसार में कुछ भी पूर्ण नहीं! तो मैं पूरी तरह गधा कैसे हुआ! आप मेरी झूठी तारीफ मत कीजिए!’
उसके इस बोधवाक्य से कक्षा में हंगामा हो गया। उस दिन के बाद गुरु जी ने कई दिन बिना बात के ही अपना हिसाब-किताब बराबर किया। संभव है, वह हमारे बीच स्थापित करना चाहते हों कि केवल वही पूर्ण हैं! हम सब तो इस बात को जानते थे, केवल उन्हें ही भ्रम था!
पूर्णता का भ्रम, हमारे जीवन के सबसे कठिन, खतरनाक भ्रम में से एक है। पूरी जिंदगी हम इसमें उलझे रहते हैं। कभी हमें लगता है कि हमें किसी की ओर देखने की जरूरत नहीं। न सुनने, न समझने की। जीवन में इस तरह एक किस्म की कठोरता घर करती जाती है। हमारा रास्ता अकेला और कठोर होता चला जाता है। इसलिए, अपने भीतर कोमलता और रिक्तता को बनाए रखना बहुत जरूरी है। दूसरों के लिए मन में जगह बनाए बिना, अपने लिए प्रेम को बचाए रखना मुश्किल हो जाएगा! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
अपने प्रेम को अगर हम केवल फेसबुक लाइक, शेयर और रीट्वीट के सहारे छोड़ देंगे, तो हमारी जिंदगी कागज के फूलों के आसपास ही सिमटकर रह जाएगी। जाहिर है, जीवन की सुगंध से हम दूर होते चले जाएंगे!
कागज पर कितने ही सुंदर फूल खिला लिए जाएं, खुशबू के लिए तो असली फूल लाने ही होंगे। आभास अलग बात है, खुशबू का सामने होना अलग अनुभव है। सोशल मीडिया की भीड़ में हम इस अंतर को भूलते ही जा रहे हैं। हम एक-दूसरे से इतने अधिक दूर होते जा रहे हैं कि इस बात को समझना लगभग मुश्किल होता जा रहा है कि हमें एक-दूसरे की कितनी परवाह है। हमारे मन कभी नदी के किनारों सरीखे थे। दूर थे, लेकिन इतने नहीं कि नजर न आ सकें। एक-दूसरे की आंखों के सामने आए बिना भी मिले रहते थे। अब दूरी इतनी बढ़ती जा रही है कि हमारे लिए एक-दूसरे को बर्दाश्त करना लगभग मुश्किल होता जा रहा है। जिंदगी में तकनीक को हम इसलिए लेकर आए थे कि थोड़ा वक्त बचा जा सकें। जिंदगी को दुलार और प्रेम के लिए अतिरिक्त समय मिल सके, लेकिन कहानी दूसरी दिशा में मुड़ गई। स्मार्टफोन, इंटरनेट हमारे मन और दिमाग के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनते जा रहे हैं। करोड़ों युवा अपनी रचनात्मकता और जिंदगी को किसी सार्थक दिशाा में ले जाने की जगह मोबाइल पर सतही और दिमाग को बोझिल बनाने वाली सामग्री में उलझे हुए हैं।
मदद करने वाले की जगह हम तमाशा खड़ा करने, देखने वाले समाज के रूप में बदलते जा रहे हैं। सडक़ किनारे घायलों की मदद करने वालों की जगह उनका वीडियो बनाने वालों की बढ़ती संख्या यह संकेत कर रही है कि समाज में प्रेम और सद्भाव चिंताजनक स्तर तक पहुंच गए हैं।
हम वही शिकायत कर रहे हैं, जैसा खुद दूसरों के साथ कर रहे हैं। इस बात को समझना बहुत जरूरी है कि जो कुछ भी हम हासिल करते हैं, वह अंतत: हमसे ही चिपका रहेगा। हम तक ही सिमटा रहेगा। दूसरों को जो दिया जाना है, असल में केवल वही प्रेम है। अनुराग है। कागज के फूल कभी बाग के फूलों के मुकाबले नहीं टिक सकते। हमने इंटरनेट को जिंदगी में इतना महत्व दे दिया कि माता-पिता, बच्चे और भाई-बहन सब पीछे छूटते जा रहे हैं। हम प्रेम करना नहीं चाहते, लेकिन प्रेम करते हुए दिखना चाहते हैं। सहायता नहीं करना चाहते, लेकिन तस्वीरों के फ्रेम इस तरह रचते हैं कि सब ओर हम ही दिखें। हम दूसरों की जगह अपने अहंकार के प्रेम में उलझे हुए हैं। एक छोटी-सी कहानी कहता हूं-
एक बार शहर के सबसे अमीर आदमी की तबीयत खराब हुई। बहुत कोशिश हुई, लेकिन उसका मन ठीक न हो सका। तब एक दिन उसके वैद्य ने कहा कि उसे किसी मन के जानकार से मिलना चाहिए। उस समय तक मनोचिकित्सा जैसी विधा सामने नहीं आई थी, लेकिन मन भी था और उसका इलाज भी!
बुजुर्ग वैद्यजी ने थोड़ी देर सेठ जी से बात करने के बाद कहा, ‘अपनी ओर से जोडऩा बंद कर दो, सब ठीक हो जाएगा’! सेठ जी को बात समझ में नहीं आई। बुजुर्ग वैद्य जी ने प्यार से समझाया, ‘जब हम किसी से प्रेम करते हैं, तो उसके प्रेम में डूबते ही जाते हैं। उसके अवगुण भी गुण में बदलते जाते हैं। ठीक इसी तरह जब किसी से नाराज होते हैं, उससे मन खट्टा होता है, तो उसमें भी अपनी ओर से खटाई जोड़ते जाते हैं। इससे मन की सेहत बिगड़ती जाती है, क्योंकि प्रेम तो हम कम लोगों से ही करते हैं, लेकिन घृणा, नफरत और नाराजगी अनेक लोगों से रखते हैं, इसलिए मन का संतुलन बिगड़ता जाता है।
सोशल मीडिया के समय भी वैद्य जी की सीख पुरानी नहीं पड़ती। हम प्रेम के पुल कम बना रहे हैं, दूसरों के प्रति नाराजगी, घृणा और नफरत की जगह हर दिन बढ़ाते जा रहे हैं।
अपने प्रेम को अगर हम केवल फेसबुक लाइक, शेयर और रीट्वीट के सहारे छोड़ देंगे, तो हमारी जिंदगी कागज के फूलों के आसपास ही सिमटकर रह जाएगी। जाहिर है, जीवन की सुगंध से हम दूर होते चले जाएंगे!
-दयाशंकर मिश्र
अपनी ओर देखना, मन पर जमा होने वाली धूल को साफ करते रहना मुश्किल तो नहीं लेकिन आसान भी नहीं। भीतर से इसके प्रति सजग नहीं होने के कारण हम इससे दूर ही रहते हैं!
होश संभालने से लेकर बड़े होने और जीवन के अंतिम चरण में प्रवेश करने तक हम अपनी ओर कितना कम ध्यान देते हैं। इसका शायद ही हमें कभी ख्याल रहता हो। हमारा पूरा ध्यान दूसरों पर ही केंद्रित रहता है। यहां जोर देकर कहना चाहूंगा कि यहां ‘आपके’ अतिरिक्त हर कोई दूसरा है। अपनी ओर देखना, मन पर जमा होने वाली धूल को साफ करते रहना मुश्किल तो नहीं, लेकिन आसान भी नहीं। भीतर से इसके प्रति सजग नहीं होने के कारण हम इससे दूर ही रहते हैं!
सबसे मुश्किल काम है अपनी ओर सहजता से देखते रहना। हर छोटी-छोटी बात पर हमारे आसपास जो तनाव गहरा होता जा रहा है, उसकी जड़ में सबसे अधिक एक दूसरे को सुनने की कमी के साथ ही प्रेम का सूखते जाना भी है। हमारे भीतर प्रेम केवल दूसरों के कारण ही कम नहीं होता। यह हमारे प्रति हमारी अपनी लापरवाही से भी कम होता जाता है! अपनी ही ओर से हम ध्यान हटा लेते हैं। सारा ध्यान दूसरे पर जो लगा रहता है!
थोड़ा ठहरकर सोचिए। सबसे अधिक परेशान क्या करता है। मन को सबसे अधिक नुकसान क्या पहुंचाता है। अपने ही विचार और भावना पर नियंत्रण नहीं होना हमारी सबसे बड़ी समस्या है। इस समस्या को हम हमेशा दूसरों की ओर धकेलते रहते हैं। हर चीज़ के लिए दूसरों की ओर देखते रहते हैं। अपनी ओर से एकदम संतुष्ट होकर हम दूसरों की ओर चीज़ों को उछलते रहते हैं। इस तरह हमारे आसपास समस्याएं बढ़ती जाती हैं, लेकिन समाधान कहीं नहीं होता। क्योंकि वह बाहर कहीं है ही नहीं।
कोरोना के कारण आर्थिक और मानसिक संकट दोनों गहरे हुए। जैसे एक तेज रफ्तार में चलती हुई रेलगाड़ी अचानक रुक जाए। चलते रहने से सब कुछ गति में होता है लेकिन अचानक ठहर जाने से जोर का झटका लगता है। उसके बाद भले ही थोड़ी देर रेलगाड़ी फिर अपनी गति को प्राप्त तकिया जाए, लेकिन मन में संदेह बढ़ जाता है। कोरोना के बाद अब चीजें पटरी पर लौटने की ओर बढ़ रही हैं, लेकिन संदेह बना हुआ है। हमारा स्वभाव ऐसा है कि संदेह आसानी से मन में बैठ जाते हैं, लेकिन विश्वास को जमने में वक्त लगता है।
इसलिए कोरोना के कारण रिश्तो में बहुत अधिक उठा-पटक देखी जा रही है। संदेह, दुविधा और अहंकार की टकराहट बढ़ती जा रही है। इसके लिए दूसरे कारणों के साथ अपनी ओर न देख पाना भी शामिल है। बल्कि इसे इस तरह से समझना चाहिए कि यह सभी कारणों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। एक छोटी सी कहानी से मैं अपनी बात समाप्त करूंगा। इससे संभव है मेरी बात अधिक स्पष्ट हो सकेगी।
एक राजा को इस बात का बहुत अधिक अभिमान था कि वह बहुत अधिक विनयशील है। सबसे मिलता भी वह बड़े ही प्रेम से था। उसकी विनम्रता और व्यवहार के किस्से बड़े ही मशहूर थे। एक दिन उसे पता चल कि बड़े प्रतिष्ठित, सिद्ध महात्मा के गांव से गुजरने वाले हैं। वह तुरंत उनकी सेवा में उपस्थित हो गया। राजा ने संत से कहा, ‘मैंने अपने सारे सुख त्याग दिए जनता के लिए। बहुत ही सादा जीवन जीता हूं।’ संत ने उसकी बात काटते हुए कहा, ‘यहां आकर आपने मेरे ऊपर कृपा नहीं की है! यहां लोभ में ही आए हो।’
संत की बात सुनकर राजा का चेहरा गुस्से से लाल हो गया। उनका हाथ कमर में टंगी तलवार तक पहुंच गया। संत ने खिलखिलाते हुए कहा, ‘राजन! अपनी ओर भी ध्यान देना है।’ अहंकार हर चीज के लिए घातक है। भले ही वह विनयशीलता, परोपकार का क्यों ना हो। तुमने इतना अधिक ध्यान दूसरों पर लगा दिया कि अपने ही मन से दूर हो गए!’ हमें देखना चाहिए कि हम भी क्या इसी ओर बढ़ रहे हैं।
-दयाशंकर मिश्र
बांध बनाने के बाद हम अपने तालाब, कुओं की उपेक्षा करने लग जाएं, तो पानी, पर्यावरण कैसे बचेगा! रिश्तों पर भी यही बात लागू होती है। जीवन और प्रकृति एक-दूसरे के सहयात्री हैं, विरोधी नहीं!
हम जीवन में जिसकी ओर मुड़े होते हैं, उसके अतिरिक्त दूसरे पक्ष के प्रति हमारी संवेदनशीलता धीरे-धीरे खत्म होती जाती है। हम अपने को दूसरे से जब इतना अधिक जोड़ लेते हैं कि उसके अतिरिक्त किसी और की ओर देखना संभव नहीं होता, तो ऐसी दशा में हमारे फैसले केवल किसी खास व्यक्ति के आसपास सिमटकर रह जाते हैं। इसे इस तरह भी समझ सकते हैं कि हम एक ही रिश्ते में बंधकर रह जाते हैं। ऐसा करना कभी भी मन और जीवन की सेहत के लिए हितकारी नहीं हो सकता है।
यह कुछ ऐसा है, मानिए बांध बनाने के बाद हम अपने तालाब, कुओं की उपेक्षा करने लग जाएं, तो पानी, पर्यावरण कैसे बचेगा! रिश्तों पर भी यही बात लागू होती है। जीवन और प्रकृति एक-दूसरे के सहयात्री हैं, विरोधी नहीं! गांव में किसी एक के साथ निर्भरता का संकट उतना नहीं, जितना शहरों में है। गांव में कोई कितना भी सबल हो, उसका अकेले चलना संभव नहीं। गांव की बुनियाद सहयोग, निर्भरता पर आधारित है। शहर में सारे नियम धीरे-धीरे उलटते चले गए, क्योंकि यहां एक नई चीज ने जन्म ले लिया- ‘उपयोग करो और फेंक दो’! पहले वस्तु, उसके बाद यही नियम हमने मनुष्यों पर लागू कर दिया। हम खुद को अंधेरे की ओर धकेलते जा रहे हैं, जहां से जीवन के रोशनदान दूर होते जा रहे हैं। जीवन के नियम बहुत स्पष्ट हैं, अब यह हम पर है कि हम उन्हें कैसे देखते हैं!
‘जीवन संवाद’ को हर दिन एक-दूसरे से छल, साथ छोड़ देने और मुश्किल में किनारा कर लेने के बारे में संदेश मिलते रहते हैं। हम जब यह शिकायत कर रहे होते हैं कि जिंदगी में किसी ने हमारा साथ नहीं दिया, तो ऐसा करते हुए हम भूल जाते हैं कि जब मौके आए, छोटे ही सही, तो हमने किसी की मदद की? मदद करने का हमारा रिकॉर्ड कैसा है!
मदद, साथ देने के मायने हमेशा यही नहीं होते कि आप किसी डूबते को हिंद महासागर से बचाएं। मदद के मायने हमेशा किसी की आर्थिक मदद के लिए तत्पर रहना नहीं होता। मदद, एक-दूसरे का साथ बहुत छोटी-छोटी चीजों, ख्याल रखने से दिया जा सकता है। लगातार बातचीत, नियमित आत्मीयता, शरद पूर्णिमा के चंद्रमा की तरह मन को शीतल करते हैं। हम छोटी-छोटी कोशिश को इसलिए महत्व नहीं देते, क्योंकि हमारा मन बड़ी-बड़ी योजना बुनता रहता है। हम भूल जाते हैं कि बड़े-बड़े जंगल, बाग भी छोटे-छोटे पौधरोपण से ही अपनी यात्रा आरंभ करते हैं। इसलिए कोशिश होनी चाहिए कि रिश्तों की हरियाली किसी एक जंगल पर केंद्रित न हो। हमारे नायक, चाहे वह ऐतिहासिक हों या धाार्मिक, उनकी जीवन यात्रा हमें यही समझाती है कि संकट की नदी को केवल एक पुल के सहारे पार नहीं किया जा सकता। उसके लिए अनेक छोटे रास्तों और अस्थायी पुलों की जरूरत होती है।
अपने जीवन में झांकिए। देखिए अगर रिश्तों की खिडक़ी एक ही आंगन में खुलती है, तो खिडक़ी न सही, रोशनदान ही बनवा लीजिए। इससे एक रिश्ते पर निर्भरता कम होगी, जीवन कहीं संतुलित गति से आगे बढ़ेगा।
-दयाशंकर मिश्र
हमारे बुजुर्गों के पास जीवन को जानने-समझने का गहरा, विविधतापूर्ण अनुभव रहा है, लेकिन हमने उसे नकार दिया। कोरोना जैसे ही संकट हमारे पहले की पीढिय़ों ने देखे। उन्होंने कहीं अधिक कुशलता से इनका सामना किया था।
इस समय जिस तरह से वातावरण में कोरोना का डर बैठा हुआ है। ऐसे में बहुत जरूरी है कि अपने मन को मजबूत बनाया जाए। मुश्किल स्थितियों का सामना करने योग्य बनाया जाए। कोरोना पर मुझे सबसे अधिक ऊर्जा उस समय मिलती है, जब मैं अपने बुजुर्गों से बात करता हूं। ऐसे लोगों से बात करता हूं, जिनके पास 75 से लेकर 85 वर्ष तक के जीवन का अनुभव है। वह सभी एक ही बात दोहराते हैं, ऐसे संकट पहले भी आए हैं। बस, घबराना नहीं है। जब उनसे पूछा जाता है कि पहले के संकट और इस संकट में अंतर क्या है? तो यही कहते हैं कि अंतर संकट में नहीं, सामना करने वालों के मन में होता है! पहले मन की घबराहट इतनी नहीं होती थी। धैर्य, भरोसा और एक-दूसरे का साथ गहरा था। बुजुर्ग कह रहे हैं कि बाहर तो सब ठीक हो जाएगा, पहले अपने मन को ठीक रखो!
मेरी दादी को प्रकृति ने सुंदर, सुदीर्घ, स्वस्थ जीवन दिया, जिसमें पर्याप्त कठिनाइयां थीं, लेकिन आशा के बीज भी उतने ही गहरे थे। मैं जब छोटा था, तो उनसे कहता, ‘चाय के प्याले इतने नाजुक क्यों हैं। जऱा-सी ठेस लगते ही टूट जाते हैं!’ वह बड़ा सुंदर जवाब देतीं, ‘प्याले नाज़ुक नहीं हैं, तुम्हारे हाथ से इसलिए टूट जाते हैं, क्योंकि तुम्हें इनका अभ्यास नहीं’।
‘जीवन संवाद’ को सारी ऊर्जा उनके साथ की गई यात्राओं से ही मिलती है। यात्रा करने वालों में व्यक्तियों को पहचानने और आशा रखने का गुण निरंतर निखरता रहता है। दादी साक्षर नहीं थीं, लेकिन जीवन को समझने और उसमें आस्था रखने में वह बहुत अधिक शिक्षित थीं। जब आशा के उजाले दिमाग के जालों को पार करके मन की गहराई तक पहुंच जाते हैं, तो उन्हें किसी शिक्षा की जरूरत नहीं होती। उनकी एक और सीख बहुत भली मालूम होती है। वह हमेशा कहती थी, ‘झगड़ा कितना भी कर लो, लेकिन दो चीजें कम नहीं करनी हैं। समय पर भोजन करना और बात करना’।
हमारे बुजुर्गों के पास जीवन को जानने समझने का गहरा, विविधतापूर्ण अनुभव रहा है, लेकिन हमने उसे नकार दिया। कोरोना जैसे ही संकट हमारे पहले की पीढिय़ों ने देखे। उन्होंने कहीं अधिक कुशलता से इनका सामना किया था, लेकिन अगर आप यथासंभव उपलब्ध आत्महत्या, तनाव और अवसाद के अध्ययनों से गुजरेंगे, तो पाएंगे कि कोरोना और आर्थिक संकट से निपटने में वास्तविक संकट से अधिक हमारी मानसिक कमजोरी सामने आई है।
हमारा मन कर्ज और बीमारी से उतना अधिक नहीं टूट रहा है, जितना अधिक इस बात से बिखर रहा है कि न जाने आगे क्या होगा? आगे का तो छोडि़ए, हमारे पास अगले कल तक का हिसाब नहीं है। ऐसे में जरूरी है कि हम अपनी वित्तीय और शारीरिक स्थितियों के प्रति सतर्क तो जरूर रहें, लेकिन उनकी चिंता में न घुलें। चिंता में घुलना, चिंतित होते चले जाना, एक तरीके के अकेलेपन की शुरुआत है, जिसमें हम कहानियां बुनने लगते हैं। एकतरफा कहानियां! जिसमें अतीत की कड़वाहट और भविष्य की आशंका मिलकर हमारे वर्तमान को तंग करने लगती हैं। मन कमजोर होने की तरफ बढऩे लगता है। मन को कमजोर होने से बचाना है। उसे लड़ाकू और जीवन में आस्था रखने वाला बनाना है। यकीन मानिए, ऐसा करना बहुत मुश्किल नहीं है, बस जीवन के प्रति विश्वास बना रहे! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
अपने कष्ट और दुख में अंतर करने से हम सुख को कहीं बेहतर ढंग से समझ पाएंगे। शरीर का संबंध कष्ट से है। मन का संबंध दुख से है। हमें दोनों को अलग-अलग तरह से समझना पड़ेगा।
सुख को हम कितनी ही चीजों से तौलते रहते हैं। तलाशते रहते हैं। सुखी होने के अवसर खोजना किसी राही के कड़ी धूप में इस जिद पर अड़ा रहने सरीखा है कि वह केवल बरगद के नीचे ही विश्राम करेगा। घनी छांव के बिना वह कहीं नहीं ठहरेगा! जबकि संभव है, उस रास्ते बरगद मिले ही नहीं! हम सब जाने अनजाने कुछ इसी तरह का जीवन जीते चले जाते हैं।
एक मित्र के दांत में बहुत तेज दर्द था। डॉक्टर को दिखाया गया, दवाई दी गई। लेकिन वह बार-बार यही कहते दर्द ठीक हो जाए, तो मैं सुखी हो जाऊंगा। मैंने उनसे निवेदन किया, जब दांत का दर्द नहीं था, तो आप पूरी तरह सुखी थे! वह कुछ सोच-विचार में पड़ गए। इसी तरह एक मित्र को कुत्ते ने काट लिया, तो उनके परिजन ने कहा, बड़ा दुख हो गया। कुत्ते ने अमुक जगह की जगह कहीं और काटा होता, तो ठीक होता!
मित्र से कहा, अपने ही शरीर के अंगों से इतना भेदभाव ठीक नहीं! ईश्वर की बड़ी कृपा है कि पांव में काटा। हाथ में काटता तो अधिक कष्ट होता। काटा, लेकिन इस तरह नहीं काटा कि कामकाज में समस्या आ जाए। यहां जीवन को ऐसे ही देखने की परंपरा है। दांत के दर्द वाले मामले हमारे बीच बहुत सारे हैं और हमारे सुखी होने की राह में आए दिन बाधा पहुंचाते हैं। अगर दांत का दर्द नहीं था और उसके पहले आप सुखी नहीं थे, तो यह जो कष्ट आया है, उसके जाने के बाद भी आप सुखी हो जाएंगे, इसकी कोई गारंटी नहीं!
सुखी होने के बारे में बड़ी सुंदर बात मुझे एक लघु कहानी में मिली। एक बार एक राजा बहुत परेशान होकर एक साधु के पास पहुंचा और उससे कहा, सब कुछ है, लेकिन सुख नहीं। साधु ने कहा, सुखी होना मुश्किल नहीं है। लेकिन, अभी होना होगा! सुख अगर कहीं है, तो वह इसी क्षण में है। अभी है। अभी सुखी हो जाओ, अगले क्षण का क्या भरोसा! जब हमारा जीवन इतना अनिश्चित है, तो सुख का क्या भरोसा। सुख को कुछ घटने से मत जोडक़र देखो!
मुझे यह बात बहुत प्रीतिकर लगती है। अभी, सुखी हो जाना! अपने किए गए परिश्रम और प्रयास के परिणाम से सुख-दुख की आशा करना हमारा स्वभाव तो है, लेकिन इससे जीवन में सुख नहीं उतरता। महाभारत में पांडवों की कहानी से बढक़र दूसरा सुख का उदाहरण नहीं। वे प्रयास कर रहे हैं, परिश्रम कर रहे हैं। यात्रा कर रहे हैं। गलतियां कर रहे हैं, लेकिन कृष्ण निरंतर उनके मन को कोमल और सुखी बनाने का प्रयास कर रहे हैं। शक्तिशाली तो वे हैं ही, कृष्ण केवल उनको सुख को समझाने का प्रयास कर रहे हैं। जिससे मन में आनंद का भाव बना रहे। निराशा से कुंठा प्रबल न हो जाए।
पांडव कितनी ही गलतियां कर रहे हैं, लेकिन वह अपने सुख-दुख के लिए स्वयं को ही जिम्मेदार मानते हैं। यह महाभारत की बड़ी शिक्षा है। अपने कष्ट और दुख में अंतर करने से हम सुख को कहीं बेहतर ढंग से समझ पाएंगे।
शरीर का संबंध कष्ट से है। मन का संबंध दुख से है। हमें दोनोंं को अलग-अलग तरह से समझना पड़ेगा। कष्ट और दुख एक नहीं हैं। पैर में चोट लगने पर कष्ट तो हो सकता है, लेकिन दुख नहीं। इसी तरह किसी के प्रवचन से हमें दुख होता है, कष्ट नहीं!
इस अंतर को गहराई से मन के स्वीकार करते ही हम अनेक प्रकार के मानसिक संकटों से बाहर निकल आते हैं। इस अंक में फिलहाल इतना ही। इस पर हम विस्तार से बात जारी रखेंगे! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
परस्पर विश्वास और प्रेम का पुल कितना ही मजबूत क्यों न हो, अगर उस पर संवाद का रंगरोगन न किया जाए, तो देर-सबेर दीमक लगने ही लगती है!
कई बार हम बहुत अधिक नजदीकी रिश्ते में संवाद को अनदेखा करते रहते हैं। एक साथ रहने, समय बिताने और साथ भोजन करने का यह अर्थ यह नहीं है कि हम हमेशा एक दूसरे के मन को ठीक से पढ़ पाएं। मन के भीतर चल रही उठापटक तक पहुंचने के लिए उससे कहीं अधिक आगे पहुंचना जरूरी है। इस तरह के अनेक अनुभव मिलते हैं, जब हमें पता चलता है कि किसी ऐसे व्यक्ति ने जीवन में अप्रिय निर्णय ले लिया, जिसकी इस तरह की कोई संभावना ही नहीं थी। फिर किसी दिन हमें पता चलता है, अरे! यह क्या हो गया। उसके बारे में तो कभी इस तरह सोचा ही नहीं था। वह भी ऐसा कदम उठा सकता है/सकती है! इसीलिए जीवन संवाद में हम सबसे अधिक जोर इस बात पर देते हैं कि हम एक-दूसरे के मन को शक्ति प्रदान करते रहें। परस्पर मन टटोलते रहें। ऐसा न हो कि भीतर कुछ घुटन चल रही हो, लेकिन हमें उसका एकदम अंदाजा ही न हो।
आज का संवाद खास है। अगर आपके छोटे भाई हैं, तो आप इस संवाद को जरूर पढ़ें। अगर आप खुद छोटे हैं, तो यह आपके लिए ही है।
इंदौर से जीवन संवाद के सुधी पाठक राजेश ठाकुर ने लिखा कि बहुत दिनों से वह महसूस कर रहे थे कि उनका छोटा भाई कुछ परेशानी में है, लेकिन जब भी वह बात करते, तो वह टाल देता- ‘मैं एकदम ठीक हूं, आप बेकार परेशान हो रहे हैं।’ राजेश, कोशिश तो कर रहे थे बात करने की, लेकिन आपसी रिश्तों का संकोच, परंपरावादी संयुक्त परिवार के कारण खुलकर बात कर पाने में हिचक रहे थे।
जब उनसे मेरी बात हुई, तो मैंने उन्हें विनम्रतापूर्वक सुझाव दिया कि इस काम में अपनी पत्नी को भी शामिल करें। उन्होंने बताया था कि उनकी पत्नी, छोटे भाई और उसकी पत्नी के बीच बहुत ही मधुर संबंध हैं। थोड़ी हिचक के बाद उन्होंने इस बात को स्वीकार कर लिया। वह, उनकी पत्नी और भाई चार घंटे के लिए एकदम अलग जगह मिले। बिल्कुल इत्मिनान से। बिना गुस्से में आए। एक-दूसरे को सुना गया। गलतियों को स्वीकार किया गया। आगे का रास्ता बुना गया। जबसे बातचीत हुई दोनों भाई सुकून में हैं।
परस्पर विश्वास और प्रेम का पुल कितना ही मजबूत क्यों न हो, अगर उस पर संवाद का रंगरोगन न किया जाए, तो देर-सबेर दीमक लगने ही लगती है!
संवाद से गुजरने के बाद राजेश ने बताया कि उनका भाई दस साल से बस इसी कोशिश में है कि किसी तरह रातोंरात अमीर बन जाए। दस साल से वह किसी एक काम में ध्यान देने की जगह रोज ही नए काम की तैयारी में जुटा रहता है। इसी कारण उसने अपनी शानदार नौकरी छोड़ दी थी। उसे अपने दोस्तों की तरह बिजनेस में अपार सफलता की संभावना दिख रही थी। उसके बाद उसे शुरुआती सफलता तो नहीं मिली, लेकिन वह आने वाली सफलता को संभालने की स्थिति में भी नहीं था। उसके पास पैसे खूब आए। जमकर आए, लेकिन दूसरों से नकल की होड़, स्वयं को सबसे बेहतर साबित करने की वजह से बेपनाह खर्च बढ़ते गए। हर छह महीने में नए दोस्त बनते गए। यहां तक कि एक समय ऐसा आया, जब राजेश खुद ही भाई से उपेक्षित महसूस करने लगे, लेकिन उनकी पत्नी की समझबूझ से दोनों भाइयों का रिश्ता टूटने से बचता रहा!
आज जब छोटा भाई कर्ज में डूबने की कगार पर है, तो वही बड़ा भाई उसे किनारे पर लाने के प्रयास कर रहा है, जिसे दोस्तों की भीड़ के बीच अकेला छोड़ दिया गया था।
यह संवाद छोटे-बड़े से अधिक एक-दूसरे के लिए दिल में जगह बचाए और बनाए रखने के लिए है। इसे हमेशा ध्यान में रखें! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
यह कहानी ईमानदार कोशिश के साथ परिवार की शक्ति को बताने वाली है। संकट का सामना करने में वित्तीय समझदारी से अधिक जीवन की आस्था, साहस की भूमिका होती है!
कोरोना के कारण दुनियाभर में छाए संकट के बीच कुछ ऐसी कहानियां जीवन संवाद को मिलीं, जिनमें जीवन की आस्था, मनुष्यता और साहस का गहरा बोध है। आज ऐसी ही एक कहानी के लिए आपको मैं भोपाल लिए चलता हूं। खेती-किसानी से जुड़े खाद-बीज, छोटे-छोटे उपकरण बनाने वाली एक कंपनी के बड़े अधिकारी अमिताभ त्रिवेदी नौकरी छोडक़र अपना काम शुरू करने का फैसला करते हैं। दस बरस पहले लिया गया फैसला सही साबित होता दिख रहा था। तभी उनके एक प्रोडक्ट की असफलता ने उनको भारी कर्ज की ओर धकेल दिया। देनदारियां इतनी बढ़ गईं कि अपना घर उन्हें गिरवी रखना पड़ा। उसके बाद भी बात नहीं बनी, तो बेचकर अपने ही घर में किराएदार बनना पड़ा। इस बीच उनके कारोबार में अहम भूमिका निभाने वाले पारिवारिक सदस्य के भ्रष्टाचार के बारे में जानकारी मिली।
पारिवारिक दृष्टि से वह व्यक्ति इतना महत्वपूर्ण था कि अचानक उस पर संदेह करना संभव नहीं था, लेकिन जांच-पड़ताल के बाद अमिताभ जब इस नतीजे पर पहुंचे कि उसकी गतिविधियां उनके कारोबार को डुबोने की ओर बढ़ रही हैं। उस व्यक्ति पर निर्भरता इतनी अधिक थी कि उसके बिना कारोबार के बारे में सोचना ही संभव नहीं था, लेकिन कड़े फैसले करते हुए अमिताभ ने उसे स्वयं से अलग कर लिया। नए सिरे से कंपनी को खड़ा करने का काम किया। ऐसा करते हुए हर दिन आर्थिक संकट बढ़ता गया। लगभग चार करोड़ रुपए तक!
उन्होंने अपने सभी लेनदारों को इकट्ठा किया। साफ-साफ सब कुछ बताया। जब इतना अधिक कर्ज हो, तो सबसे बड़ी चुनौती मानसिक संतुलन बनाए रखने की होती है। इस काम में उनकी पत्नी ने अपनी भूमिका का निर्वाह बेहद संवेदनशीलता, आत्मीयता से किया। अपने दोनों बच्चों की पढ़ाई-लिखाई को यथासंभव इस संकट से बचाए रखा। उन्होंने अपनी जीवनशैली को इतनी स्पष्टता और ईमानदारी से पैसा देने वालों के सामने रखा कि हर किसी ने इस बात का भरोसा किया कि अमिताभ का पैसा उनकी किसी लापरवाही, फिजूलखर्ची से नहीं डूबा, बल्कि विशुद्ध रूप से व्यापार में नुकसान के कारण हुआ। इसकी भी बड़ी वजह मौसम और तकनीकी विफलता है।
अमिताभ और उनकी पत्नी के साथ संवाद के दौरान मैंने इस बात को निरंतर महसूस किया कि पति-पत्नी की आपसी समझबूझ से किसी भी संकट को सरलता से सहा जा सकता है। अमिताभ के कर्ज अब धीरे-धीरे समाप्ति की ओर बढ़ रहे हैं। वह जोर देकर कहते हैं कि मृत्यु और शारीरिक बीमारी के अलावा कोई भी ऐसा संकट नहीं, जिसका समाधान न हो।
अपने इस संकट को संभालने की योग्यता उन्हें एक वित्तीय सलाहकार (कंसलटेंट) के रूप में भी बाजार में स्थापित कर रही है। अपने कारोबार के साथ वह नए लोगों को मुश्किल आर्थिक स्थितियों को संभालने की सलाह दे रहे हैं। यह कहानी ईमानदार कोशिश के साथ परिवार की शक्ति को बताने वाली है। संकट का सामना करने में वित्तीय समझदारी से अधिक जीवन की आस्था, साहस की भूमिका होती है!
‘जीवन संवाद’ के पाठकों को याद होगा, पिछले कुछ समय में हमें भोपाल, जयपुर और लखनऊ सहित देश के अनेक शहरों से ऐसी कहानियां मिलीं, जिनमें आर्थिक संकट के कारण आत्महत्या करने, एक शहर से दूसरे शहर चले जाने, अपनी पहचान छुपा लेने की बात है, लेकिन अमिताभ की यह कहानी कुछ और ही कहती है। अगर आपके व्यवहार में ईमानदारी है। आप अपनी कही बात/वादे निभाने का हुनर रखते हैं, तो मुश्किल समय में अगर बहुत से लोग आपका साथ छोड़ भी देते हैं, तो भी कुछ लोग जरूर आपके साथ खड़े रहते हैं! आपको संकट से बाहर निकालने के लिए बहुत से लोगों की नहीं, केवल कुछ लोगों की जरूरत होती है। कई बार तो एक ही व्यक्ति पर्याप्त होता है। हमें अपने सुख के दिनों में हमेशा यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारा सबसे बड़ा संकटमोचक कौन है। जिनने संकट में मदद की, उनका हमेशा ख्याल रखिए। सुख की व्यस्तता में उनको मत भूलिए। मदद करते वक्त ध्यान रहे कि अपने लिए ही कुछ किया जा रहा है, दूसरों के लिए नहीं। जैसे हम पौधे लगाते हैं! (hindi.news18.com)
-दयाशंकर मिश्र
दुनियाभर में आत्महत्या के बढ़ते आंकड़े बताते हैं कि पुरुष अपने जीवन को संभालने में स्त्रियों के मुकाबले कहीं कमजोर साबित हुए हैं। आंसुओं की कमी इसकी मुख्य वजहों में से एक है!
अपने जीवन के संघर्ष, तनाव को संभालने के मामले में दुनियाभर में स्त्रियां पुरुषों से कहीं आगे हैं। यही वजह है कि असमय अपने जीवन को समाप्त करने वाले पुरुषों की संख्या बहुत अधिक है। पुरुष स्त्रियों से दोगुनी संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं। सामान्य सोच यह बताती है कि इस मामले में स्त्रियों की संख्या अधिक होगी, लेकिन आंकड़ों का अध्ययन यह नहीं कहता। इस बात को थोड़ा धीरज के साथ समझने की जरूरत है कि कोमलता, संवेदनशीलता और प्रेम को कमजोरी के रूप में देखने वाला पुरुष समाज आखिर इतना कठोर कैसे होता जा रहा है कि वह अपने ही जीवन को समाप्त करने के लिए तैयार हो जाता है। आत्महत्या की अनेक परतें हैं। एकदम प्याज की तरह परत के ऊपर परत। जिस तरह अच्छे से प्याज काटना हो तो आंसुओं से गुजरना होता है, उसी तरह मन की तह तक जाने के लिए जरूरी है कि हम उसके भीतर उतरते चले जाएं।
जीवन में कठोरता को हमने इतना अधिक जरूरी मान लिया कि कोमलता से लज्जित होने लगे। विनम्रता और शालीनता से बात करने को हमने उपेक्षित करना शुरू कर दिया। हमारे आसपास एक ऐसा वातावरण बनता जा रहा है, जहां हमारा वाचाल होना, बढ़-चढक़र दावे करना बहुत जरूरी बना दिया गया है! हमारी कोमलता पीछे छूटती जा रही है।
लाओत्से, कहते हैं, ‘तुमने कभी फूल की शक्ति देखी है। निर्बल होकर भी वह कितना शक्तिशाली है। उसे तुम ईश्वर को चढ़ाते समय नतमस्तक हो जाते हो। प्रेमिका को देते समय प्रेम से भर जाते हो। कोमलता ही जीवन है। हम सब रोते हुए ही इस दुनिया में आते हैं, लेकिन धीरे-धीरे आंसुओं से दूरी बना लेते हैं। यह दूरी ही हमें मनुष्यता से दूर धकेलती रहती है।’
हमें लाओत्से को ध्यान से सुनना होगा। कोमल बनने की ओर बढऩा होगा। आंसुओं को फिर से पुकारना है! भीतर फूल खिलने देना है, चट्टान नहीं। चट्टान यह सोचती जरूर है कि वह कितनी कठोर, बलशाली है, लेकिन वह भूल जाती है कि कमजोर दिखने वाली जल की धारा ही अंतत: जीतती है, चट्टान को रेत होकर बहना ही होता है!
लखनऊ से अवसाद से जूझ रहे एक युवा उद्योगपति ने फोन किया। कई हफ्तों की बातचीत के बाद उन्हें इस बात के लिए राजी किया जा सका कि भावनाओं को रोकें नहीं। खुद को सुपरमैन मानने से बचें, जब रोने का मन करे जीभर रो लें। आपसे यह कहते हुए प्रसन्नता हो रही है कि अब वह काफी बेहतर महसूस कर रहे हैं। दुनियाभर में आत्महत्या के बढ़ते आंकड़े बताते हैं कि पुरुष अपने जीवन को संभालने में स्त्रियों के मुकाबले कहीं कमजोर साबित हुए हैं। आंसुओं की कमी इनकी मुख्य वजहों में से एक है!
जिस पश्चिम की दुनिया की चकाचौंध में हम अक्सर डूबे रहते हैं, वहां तो जान देने वालों में पुरुषों की संख्या कहीं अधिक है। जापान में इस दिशा में कुछ वर्ष पहले से अद्भुत प्रयोग हो रहा है। वहां विश्वविद्यालय युवाओं को रोना सिखा रहे हैं। अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करना सिखाया जा रहा है। दुख को जमने नहीं देना है। जमते-जमते वह मन के लिए भारी चट्टान बन जाता है। आंसू में वह शक्ति है, जो चट्टान को अपने कोमल स्पर्श से एक बार फिर रेत में बदल दे।
‘जीवन संवाद’ में हम लगातार कोशिश करते हैं कि मन को आंसुओं के नजदीक रख सकें। जैसे ही कोई व्यक्ति मन के दुख को आंसू उपलब्ध करा देता है, उसका बहुत सारा बोझ हल्का हो जाता है। सहज हो जाता है। अपने आसपास उन लोगों को देखिए, जो थोड़ी-सी बात पर भावुक हो जाते हैं। आप पाएंगे कि उनका मन और तन दोनों कहीं अधिक निरोगी हैं। स्वस्थ हैं। इस दिशा में पहला कदम यह होना चाहिए कि जब कोई रो रहा हो, तो उसे रोकें नहीं। उसके निर्मल बनने में उसके सहभागी बनें। अगर हम अपने लडक़ों को रोना सिखा सकें, तो संभव है दुनिया आगे चलकर कुछ सुंदर बन जाएगी।
पुरुष का आक्रोश और उसकी कुंठा सरलता से प्रेम की ओर बढ़ पाएंगे। यह जो पुरुषों की क्रूरता है, यह बरसों की आंसुओं से दूरी भी है। यह दूरी मिटाना सरल तो नहीं, लेकिन असंभव एकदम नहीं है! हम सबको जीवन की ओर बढऩे के लिए कठोरता के खोल से बाहर निकलने की जरूरत है! यह यात्रा स्वयं से शुरू होकर ही दुनिया की ओर जाएगी।
-दयाशंकर मिश्र
बच्चे पेड़ के पत्ते नहीं हैं, जो वह पेड़ की मर्जी से ही कदमताल करें। उनका स्वतंत्र जीवनबोध है। इस बात को हम जितनी सरलता से स्वीकार कर लेंगे, हमारे रिश्ते उतने ही महकेंगे।
जीवन में यात्रा का कितना महत्व है। यात्राएं बंद होने पर यह बात समझ में आती है। यात्रा बंद होने का अर्थ हुआ, अब जीवन के तट पर काई जमने लगेगी। जो हमेशा ही चलने को तत्पर है, जीवन का आनंद उसे ही मिलेगा! खानाबदोशी, जीवनशैली है, जिसे हासिल हुई, वही आनंद बता सकता है। अष्टावक्र के दृष्टांत को पढ़ते-समझते हुए ‘खानाबदोश’ शब्द के नए अर्थ मिले। रजनीश कहते हैं, खाना यानी घर और बदोश यानी कंधे पर।
जिसका घर अपने कंधे पर है, वही खानाबदोश। जो खानाबदोश है, वही जीवन का मर्म समझ पाएगा। वह कहते हैं, ठहरना मत यहां, अधिक से अधिक टेंट लगा लेना। लेकिन रुक मत जाना! मनुष्य के रूप में हमें कितनी आजादी और स्वतंत्रता मिली है, यह बात हम स्वयं ही भूल चुके हैं। इसलिए, हम नई-नई जकडऩें तैयार करते रहते हैं। नए-नए बंधन बांधे ही जाते हैं। इन बंधनों को ही हम कामयाबी समझते हैं। जबकि असली कामयाबी है, हमारी चेतना की स्वतंत्रता।
जीवन संवाद को रांची? से एक ई-मेल मिला। पिता राधेश्याम जी ने चिंतित होकर पूछा है, ‘मेरा बेटा मेरे बताए रास्ते पर नहीं चलता। इससे हमारे बीच बहुत मुश्किल हो गई है। समझ में नहीं आ रहा क्या किया जाए! कैसे इस परिस्थिति को संभालूं। सरकारी कर्मचारी हूं, अब रिटायरमेंट नजदीक है, लेकिन बेटा मेरी किसी बात पर राजी नहीं। सोचता हूं रिटायरमेंट से पहले उसकी शादी कर दूं। लेकिन वह तैयार नहीं। मैं चाहता हूं सरकारी नौकरी करे, लेकिन वह अपनी प्राइवेट नौकरी से ही संतुष्ट है। जहां उसे पैसे तो ठीक मिल रहे हैं, लेकिन नौकरी की गारंटी नहीं’!
मैं राधेश्याम जी के प्रश्न के बाद से ही सोच रहा हूं कि संकट क्या है? यह अकेले उनका संकट नहीं है। अधिकांश भारतीय माता-पिता अभी भी अपने बच्चों को उसी चश्मे से देख रहे हैं, जो चश्मा खुद उनकी नजऱ के हिसाब से सही नहीं है। अभिभावक होने का अर्थ यह नहीं कि आप हर वक्त केवल इसी चिंता में घुलते रहें कि आपका बच्चा आपके हिसाब से सपने नहीं बुन रहा। राधेश्याम जी से मैंने कहा, ‘क्या उन्होंने पिता का मनचाहा सपना पूरा किया था? क्या उन्होंने पिता की हर बात मानी थी’।
उन्होंने मजेदार उत्तर दिया, ‘अगर मैं उनका कहा मानता, तो मैं किसान ही बना रहता अफसर नहीं बन पाता’। मैंने कहा, ‘जो आप नहीं कर पाए, उसकी अपेक्षा बेटे से मत करिए’!
खानाबदोशी का अर्थ केवल इतना नहीं है कि हम यहां-वहां टहलते रहें। उससे अधिक यह हर व्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रतिनिधि विचार है। अपने बच्चों को निर्णय लेने की स्वतंत्रता देना। जीवन में बहुत बड़ा कदम है, दिखने में छोटा, लेकिन यह मन? में नन्हा पौधा लगाने जैसा है! बड़े से बड़ा वृक्ष भी पौधे से ही तैयार होता है। हम अपने आसपास व्यक्तियों को जितनी स्वतंत्रता दे पाएंगे, और वह उस स्वतंत्रता का जितना सार्थक उपयोग कर पाएंगे, हमारा जीवन उतना ही रचनात्मक होगा।
जीवन को बांधना नहीं है, उसे बहने देना है। कई बार बच्चों पर थोपा गया अत्यधिक अनुशासन उनकी रचनात्मकता के रास्ते रोक लेता है। आत्मविश्वास से उनको आगे नहीं बढऩे देता, क्योंकि सारे निर्णय कोई और कर रहा होता है।
बच्चे पेड़ के पत्ते नहीं हैं, जो वह पेड़ की मर्जी से ही कदमताल करें। उनका स्वतंत्र जीवनबोध है। इस बात को हम जितनी सरलता से स्वीकार कर लेंगे, हमारे रिश्ते उतने ही महकेंगे।
-दयाशंकर मिश्र
जो अपने भीतर करुणा, प्रेम और कोमलता रखते हैं। उनके भीतर ही कुछ घटने की संभावना अधिक होती है। जीवन का सुख चट्टान से अधिक मिट्टी में है!
एक ही जैसी घटनाओं पर हमारे विचार अक्सर अलग-अलग होते हैं। यहां तक तो ठीक है, लेकिन अगर हम चीजों को ध्यान से देखने लगें, ढंग से देखने लगें, तो पाते हैं कि देखने के एक ढंग से चीज एक तरह से दिखाई पड़ती है। दूसरे ढंग से दूसरी तरह की दिखाई पड़ती है। चीज तो वही है, लेकिन हमारा देखने का ढंग मायने बदल देता है! घटना एक जैसी ही घटती है, हम सबके जीवन में, लेकिन हमारी दृष्टि की भिन्नता अर्थ बदल देती है। हम लोग जीवन में कितनी ही शव यात्राएं देखते हैं। बुजुर्ग बीमारों को देखते हैं, लेकिन हम पर कोई असर नहीं होता। सिद्धार्थ एक दिन देख लेते हैं और उसके बाद वह कभी सिद्धार्थ नहीं रह पाते। वह हमेशा के लिए गौतम बुद्ध बन जाते हैं। अगर बुढ़ापा और अंतिम यात्रा देखने से जीवन की दृष्टि बदलती, तो हम सब बदल चुके होते, लेकिन ऐसा नहीं है। बदलता केवल वही है, जिसके भीतर कुछ घुमड़ रहा हो। बिना बादल के बारिश नहीं होती। बादल होने ही चाहिए और वह भी भीतर से भरे हुए!
एक छोटी-सी कहानी कहता हूं आपसे, संभव है इससे मेरी बात अधिक स्पष्ट हो पाएगी। एक दिन एक राजा ने सपना देखा कि उसके महल के छप्पर पर कोई चल रहा है। उसने जाकर पूछा, ‘तुम कौन हो और छत पर क्या कर रहे हो’? व्यक्ति ने कहा, ‘मेरा ऊंट गुम गया है। उसे ही खोज रहा हूं’। राजा को हंसी आ गई। उसने कहा, ‘तुम पागल मालूम होते हो। कभी छप्पर पर भी ऊंट मिलता है’!
ऊंट खोजने वाले ने कहा, ‘कैसी बात करते हो! अगर तुम्हारे धन और वैभव से सुख मिल सकता है, तो ऊंट भी छप्पर पर मिल सकता है’। राजा को नींद न आई उसके बाद, रातभर। कुछ दिन पहले उसने किसी से इसी तरह की बात कही थी कि सुख तो धन और साधन में है। राजा ने नगर में सब ओर अपने गुप्तचर दौड़ा दिए और कहा कि पता लगाइए कोई बड़ा फकीर आया है।
सैनिक तो खोज न सके, लेकिन एक दिन एक सूफी फकीर ने महल के दरवाजे पर आकर कहा, ‘जाओ, राजा से कहो, इस सराय में मैं रुकना चाहता हूं। मैं पहले भी यहां ठहरता रहा हूं।’ दरबान ने कहा, ‘आपको कोई गलतफहमी हो गई है! यह सराय नहीं, राजा का महल है’। बात काफी बढ़ गई। राजा तक पहुंची, तो वह दौड़ा हुआ चला आया। वह आदरपूर्वक उनको ले आया।
राजा ने फकीर से पूछा, ‘आप इस महल में जब तक चाहें, रहें, लेकिन इस महल को आप सराय क्यों कह रहे हैं, मैं समझ नहीं पा रहा हूं’। फकीर ने कहा, ‘मैं पहले भी यहां आया था, लेकिन तब यहां के राज सिंहासन पर कोई और बैठा था’। राजा ने कहा, ‘वह मेरे पिता थे’। फकीर ने कहा, ‘उसके पहले आया, तो कोई और था! राजा ने कहा, ‘वह मेरे दादा थे’!
फकीर ने ठहाका लगाते हुए कहा, ‘इसीलिए तो मैं इसे सिंहासन कह रहा हूं। यहां लोग बैठते हैं, फिर चल देते हैं। तुम भी भला कितनी देर बैठोगे। यह घर नहीं है। घर तो वहां होता है, जहां बस गए हो बस गए! जहां से हटना संभव न हो’।
सुनते हैं फकीर की बात सुनकर राजा सिंहासन से उतर आया और फकीर से प्रणाम करके कहा, ‘यह सराय है। आप यहां रुकें, मैं जाता हूं’। ऐसा नहीं है कि यह शब्द केवल फकीर ने उस राजा से ही कहे होंगे। फकीर तो एक ही जैसी बात सबसे करते हैं। उनको हमारे कुछ होने और न होने से कोई सरोकार नहीं। जो अपने भीतर करुणा, प्रेम और कोमलता रखते हैं। उनके भीतर ही कुछ घटने की संभावना अधिक होती है। जीवन का सुख चट्टान से अधिक मिट्टी में है! जहां नमी नहीं होगी, वहां कोमलता कैसे होगी। कोमलता के बिना प्रेम, अहिंसा को उपलब्ध होना संभव नहीं। इनके बिना जीवन को पाना सरल नहीं है। जिंदगी बांहें फैलाए खड़ी है, लेकिन कदम हमें ही बढ़ाना है।
-दयाशंकर मिश्र
छोटी-छोटी बात पर हम रिश्ते खत्म करने लगें, तो कोई रिश्ता बाकी ही न रहेगा। सहना, असल में प्रेम का ही पर्यायवाची है। सहना, मनमुटाव से कहीं अधिक प्रेम के निकट है। महाभारत इसकी सरल व्याख्या है!
डॉ. राही मासूम रजा ने महाभारत के संवाद लिखते समय बेहद खूबरसूरत, एक से बढक़र एक शब्दों का उपयोग किया। इन्हीं में से एक कौरव-पांडवों के बीच निर्णायक युद्ध के समय का है। कर्ण के सामने सहदेव हैं। जाहिर है, मुकाबला बराबरी का नहीं है। अपने वचन से बंधे कर्ण, सहदेव को घायल करके आगे बढ़ जाते हैं। जाते हुए वह सहदेव से इतना ही कहते हैं, शिविर में जाकर स्नेहलेप लगाओ, युद्ध अपनी बराबरी वालों से किया जाता है। कितना सुंदर शब्द है, स्नेहलेप! सहदेव को स्नेहलेप की उस समय जितनी जरूरत रही होगी, उससे कहीं अधिक जरूरत इस समय हमारे समाज को है। हम सब एक-दूसरे के लिए बहुत अधिक कठोर होते जा रहे हैं।
हम भूल रहे हैं कि प्रेम ही सर्वोत्तम मार्ग है। हमें एक-दूसरे को सहन, बर्दाश्त करना सीखना होगा। सहनशीलता कमजोरी नहीं, जीवनशैली है। प्रेम को संभालने की कला ही हमें स्नेहन की ओर ले जाएगी। कटु स्मृति, वचन और अपमान स्नेहलेप की प्रतीक्षा में हैं।
एक-दूसरे को बर्दाश्त करने, सहन करने का अर्थ यह नहीं कि हम किसी के अत्याचार को सहन करने की बात कर रहे हैं। परस्पर सहने, बर्दाश्त करने के मायने हुए कि हम गुणों के बीच जितना एक-दूजे की कमजोरी का ख्याल कर जाएं, उस समय जबकि गुस्सा सातवें आसमान पर होता है। मेरे अपने जीवन में मुझसे उम्र में कहीं बड़े एक व्यक्ति हुए जिनसे गहरा प्रेम तो था, लेकिन अनेक विषयों पर भारी असहमति थी।
असहमति के बीच भी हमने एक-दूसरे को बर्दाश्त करना नहीं छोड़ा। अंतत: असहमति गल गई। केवल प्रेम बाकी रहा। छोटी-छोटी बात पर हम रिश्ते खत्म करने लगें, तो कोई रिश्ता बाकी ही न रहेगा। सहना, असल में प्रेम का ही पर्यायवाची है। सहना, मनमुटाव से कहीं अधिक प्रेम के निकट है। महाभारत इसकी सरल व्याख्या है!
इसलिए, हमें समझना होगा कि जिंदगी उतनी बड़ी नहीं, जितनी हम माने बैठे हैं। एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते, मान-अपमान करते, सहते हम कई बार भूल जाते हैं कि जीवन बहुत लंबी यात्रा नहीं। यह तो प्री-पेड सिम कार्ड की तरह है। इधर, टॉकटाइम खत्म उधर संवाद समाप्त। जीवन कोमल, क्षमायुक्त होना चाहिए। एक-दूसरे को बर्दाश्त करने की क्षमता हम जितनी जल्दी विकसित कर लें, उतना ही सुंदर, सुगंधित हमारा जीवन होगा।
एक छोटा किस्सा आपसे कहता हूं। मुंबई से ‘जीवन संवाद’ के पाठक आयुष्मान त्रिपाठी अपने भाई को किसी अप्रिय घटना के लिए क्षमा करने को राजी न थे। मन में गांठ पुरानी हो चली थी। वह उनका जिक्र आते ही असहज हो जाते थे। कई बरस बीते, सब चाहते कि भाइयों में संवाद कायम हो। सब कोशिश में लगे थे। इस बीच, एक कोशिश मैंने भी की। आयुष्मान से कहा कि अगर तुम्हारे भैया कल किसी वजह से न रहें, तब भी यही नाराजगी कायम रहेगी।
वह विचलित, नाराज होकर बोले- अरे! आप ऐसा कैसे कह सकते हैं। वह मेरे बड़े भाई हैं। मैंने कहा, बस यही तो आप भूल गए! यह भाई का प्यार जो भीतर है, उसे थोड़ा बाहर लाइए। प्रेम को इतना संकुचित मत कीजिए कि वह जीवित के लिए समाप्त हो जाए। केवल किसी के न रहने पर प्रकट हो।
हम अक्सर देखते हैं कि किसी सगे-संबंधी, मित्र को हम बीमारी की हालत में देखने नहीं पहुंच पाते, लेकिन अगर किसी कारण से वह न रहें, तो तुरंत सब काम छोडक़र उनकी ओर दौड़ते हैं। मेरा सुझाव है कि हमें इस दिशा में बदलाव की जरूरत है। हमें जीवित को कहीं अधिक महत्व देने की जरूरत है। हम अभी भी अपने रिवाजों का अधिक ख्याल रखते हैं, बजाय व्यक्तियों के। मैं रिवाज की जगह जीवत से प्यार, स्नेह और उसकी पीड़ा पर स्नेहलेप करने को महत्व देने का निवेदन कर रहा हूं! (hindi.news18)
-दयाशंकर मिश्र
जब बच्चे के नंबर कम आएं/ उसका प्रदर्शन आपके हिसाब से ठीक न हो, तो उस वक्त उसके साथ खड़े होने के लिए बहुत प्रेम और स्नेह की जरूरत होती है। अधिकांश लोग ऐसा कर पाने में सफल नहीं हो रहे हैं!
‘मैं अपने स्कूल के साथियों से बहुत ज्यादा परेशान हूं। उनकी बातें मुझे बहुत चुभती हैं। जब मैं इसके बारे में स्कूल और घर में बात करती हूं, तो कोई गंभीरता से नहीं लेता। अब मैं इससे तंग आ गई हूं, मुझे लगता है जिंदगी छोडक़र चली जाऊं! परीक्षा में प्रदर्शन को लेकर एक-दूसरे को परेशान करने, तंग करने का काम स्कूल न जाने से रुका नहीं। यह काम तो आसानी से ऑनलाइन पढ़ाई के दौरान भी हो रहा है। केवल शिक्षक के भरोसे यह नहीं रुकने वाला।’
जीवन संवाद को फेसबुक मैसेंजर पर देर रात यह संदेश मिला। एक बहुत ही प्यारी बच्ची का, जो फेसबुक पर अपने पापा के अकाउंट के पोस्ट पढ़ते हुए मुझसे जुड़ गई। उसने मैसेज भेजने के बाद यह भी कहा कि उसका नाम कहीं न लिया जाए। उसका संदेश मिलने के बाद मैं ठीक से सो नहीं पाया रातभर।
कैसी दुनिया बना ली है, हमने! मेरी तकलीफ उस समय और बढ़ गई, जब उस बच्ची ने कहा कि उसने अपनी मां को जब बताया कि कम नंबर आने पर उसके साथी, दोस्त उसे तरह-तरह से ताना मारते हैं। परेशान करते हैं, तो मां ने कहा, ‘बच्चे ठीक ही करते हैं। जब तुम पढ़ती नहीं हो, तो उस वक्त क्यों नहीं सोचती। अगर मेहनत नहीं करोगी, तो दूसरे तो चिढ़ाएंगे ही।’
मैं उनकी मां को जानता हूं, सुलझी, सुशिक्षित और व्यवहार कुशल हैं। लेकिन कई बार इतना ही काफी नहीं होता। अपने बच्चे के लिए हम कठोर हो जाते हैं। हमें नंबरों के पीछे नहीं जाना है, केवल किताबी पढ़ाई -लिखाई ही सबकुछ नहीं, ऐसी बातें करने में तो वह बहुत भली लगती हैं, लेकिन जब अपने बच्चे के नंबर कम आएं, तो उस वक्त उसके साथ खड़े होने के लिए बहुत प्रेम और स्नेह की जरूरत होती है। अधिकांश लोग ऐसा कर पाने में सफल नहीं हो रहे हैं!
माता-पिता का सबसे बड़ा संकट यह है कि वह बच्चों के साथ अपने भविष्य को जोडक़र चलते हैं। वह यह मानकर भी चलते हैं कि बच्चों के बारे में सारे फैसले उनको ही करने हैं। बच्चों को मानसिक रूप से मजबूत बनाना, मेरे ख्याल में सबसे जरूरी काम है। बच्चे एक-दूसरे की टिप्पणी का सही तरीके से सामना कर पाएं, यह बहुत जरूरी है। उनके मन को समझना और संभालना हमारा सबसे पहला काम होना चाहिए।
अगर मेरा बेटा/मेरी बेटी अपेक्षा के अनुकूल प्रदर्शन नहीं कर पा रहे हैं, तो किसकी ‘जिम्मेदारी’ है, जैसे शब्द का उपयोग न करें। नतीजे ठीक नहीं आने के पीछे बहुत सारे कारण होते हैं। बच्चे की रुचि, उसकी क्षमता, दिए गए वक्त में काम पूरा करने की योग्यता जैसे बहुत सारे पैमाने हैं, जिनके आधार पर नंबर तय होते हैं।
मजेदार बात यह है कि दुनिया को सुंदर, रहने लायक और प्रेमपूर्ण अधिकांश वह लोग नहीं बनाते, जो खूब अच्छे नंबर लेकर आए। इनमें ज्यादा संख्या ऐसे बच्चों की है, जिनको स्कूल, शिक्षा संस्थान समझने में असफल रहे!
रवींद्रनाथ टैगोर की प्रतिभा से हम सब अच्छी तरह परिचित हैं। उनकी पूरी शिक्षा-दीक्षा स्कूल में नहीं घर में हुई। आइंस्टीन को तो उनके स्कूल ने ही यह कहकर निकाल दिया कि इसके कारण दूसरे बच्चे पीछे रह जाएंगे! यहां केवल दो उदाहरण का अर्थ यह नहीं कि दुनिया में ऐसे लोगों की कमी है। दुनिया में ऐसे लोग इतने अधिक हैं कि उनको गिनना संभव नहीं।
असल में स्कूल सारे बच्चों के लिए नहीं हैं। वह सबके लिए बनाए ही नहीं गए। वह केवल उनके लिए बनाए गए हैं, जो उनके सांचे में फिट होते हैं। अब यह हमारी गलती है कि हम अपनी पहचान की कीमत पर उसमें जगह पाना चाहते हैं!
हम सबको समझना होगा कि प्रतिस्पर्धा बढ़ जाने का मतलब यह नहीं कि मनुष्यता के सिद्धांतों से दूर चले जाएं। मैं बार-बार दोहराना चाहता हूं कि बच्चा हमारा है, स्कूल का नहीं। स्कूल की दिलचस्पी बच्चे में नहीं उसके रिजल्ट में है। इसलिए, हमें अपने बच्चे के पक्ष में खड़े होना है। बच्चे के हिसाब से स्कूल बदलने हैं, स्कूल के हिसाब से बच्चे को नहीं।
‘जीवन संवाद’ को अपने हृदय के कष्ट साझा करने के लिए इस बच्ची को स्नेह और प्यार। मैंने केवल उसे यही समझाने की कोशिश कि जो आपसे साझा कर रहा हूं। उसके सपने, जीवन उसका अपना है उस पर दूसरे किसी की छाया नहीं पडऩी चाहिए।
सबसे जरूरी बात है कि उसका मन इतना मजबूत बनाना है कि वह दूसरों की बातों से हताश न हो जाए। निराश होकर कभी भी खुद को अकेला और कमजोर न समझे। कई बार ऐसा होता है जब माता-पिता बच्चे के मन को नहीं समझ पाते, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं होता कि वह उससे प्रेम नहीं करते। मन को न समझते हुए, वह असल में गलती कर रहे होते हैं, और गलती करने का अर्थ यह नहीं कि प्रेम कम है!
-दयाशंकर मिश्र
हमें अपनी भाषा को भी प्रेम देना है। बिना प्रेम के भाषा कमजोर होती जाती है। हमारे आसपास बढ़ता गुस्सा, बर्दाश्त करने की क्षमता का कम होना बताता है कि हमारी भाषा खोखली होती जा रही है, अति की ओर बढ़ती जा रही है, उसे प्रेम का साथ मिलना जरूरी है। इससे ही हम मन को घृणा की ओर बढऩे से रोक पाएंगे।
अपनी हर दिन की जिंदगी में हम अक्सर इस तरह की बातें सुनते रहते हैं, ‘मैं उनसे बहुत प्रेम करता हूं। उनके विरुद्ध कुछ नहीं सुन सकता। मैं उनसे इतनी घृणा करता हूं कि उनके प्रति आदर का मामूली टुकड़ा भी मेरे मन में नहीं!’ असल में हम सब ऐसे समय में हैं जहां अतिवादी शक्तियों का ही वर्चस्व है। टेलीविजन, राजनीति ने हमारे सामान्य जीवन को अपेक्षा से कहीं अधिक प्रभावित कर दिया है।
क्या हम सामान्य नहीं रह सकते। प्रेम और घृणा के बीच भी कुछ है। उसे उपलब्ध होना इतना कठिन तो नहीं, जितना हमने बना लिया है। हमारा रवैया कुछ-कुछ ऐसा है, मानिए, हम गाड़ी चलाएंगे तो अधिकतम सीमा पर ही चलाएंगे, नहीं तो घर ही बैठे रहेंगे। सबकुछ, अति पर जाकर खत्म हो रहा है।
हमने राजनीति को कुछ ज्यादा ही महत्व अपने जीवन में दे दिया है। हमारा सामान्य जीवन भी उनसे इतना प्रभावित हो गया कि हमारी भाषा, विचार और संवाद तक उनके जैसे होने लगे। किसी सभ्य नागरिक समाज के लिए यह बहुत आदर्श स्थिति नहीं मानी जा सकती। समाज कभी राजनीति का नकलची बंदर नहीं हो सकता। समाज के बीच से राजनीति आती है, राजनीति से समाज पैदा नहीं होता। हां, राजनीति चाहे तो उसे आगे चलकर अपने हिसाब से बदलने की कोशिश कर सकती है।
इसलिए नागरिक, समाज को अपने जीवनमूल्यों की रक्षा स्वयं करनी पड़ती है। हम सबको इस बात की पड़ताल करने की जरूरत है कि हमारा जीवन सामान्य बना रहे। प्रेम और घृणा दोनों की अत्यधिक निकटता असल में जीवन को प्रभावित करती है। जब हम बहुत अधिक प्रेम में होते हैं, तो असल में एक ऐसी जगह होते हैं जहां से टकराव का कोई भी द्वार खुल सकता है, क्योंकि प्रेम को हम तुरंत ही अधिकार से जोड़ लेते हैं। घर, परिवार, कारोबार और समाज हर जगह आपसी रिश्तो में टकराव का सबसे बड़ा कारण प्रेम को अधिकार में बदलने की जल्दबाजी है।
टकराव बढऩे पर अगर उसे समय पर न संभाला जाए, तो उसके घृणा की ओर बढऩे में देर नहीं लगती। इसलिए यह बहुत जरूरी है कि जीवन में संतुलन बना रहे। प्रकृति की पाठशाला में कितना सुंदर संतुलन है। काश! हम इसे समझने की ओर बढ़ पाते।
एक छोटी-सी कहानी आपसे कहता हूं। संभव है, इससे मेरी बात आप तक सरलता से पहुंच सके। एक बार महात्मा बुद्ध से एक नए साधक ने कहा, ‘मैं आपसे बहुत प्रेम करता हूं। आपके विरुद्ध कुछ भी सुनना मेरे लिए संभव नहीं। जब भी आपकी आलोचना सुनता हूं, मन में बेचैनी और हिंसा के विचार आने लगते हैं’।
बुद्ध ने उसकी ओर देखते हुए कहा, अभी तो आए हो। खुद को थोड़ा देखो। अभी तुम्हारा ही मन कमजोर है, तो दूसरों से संवाद कैसे कर सकोगे! मुझसे प्रेम का अर्थ दूसरे के प्रति असहिष्णु हो जाना नहीं है। प्रेम का अर्थ असहमति के द्वार बंद करना नहीं है। असहमति अपनी जगह और प्रेम अपनी जगह!
अपने प्रेम को संकुचित मत करो, उसकी सबके लिए उपलब्धता ही जीवन में सुख का प्रवेश द्वार है। हमें इनको मिलाने की जरूरत नहीं। जब भी किसी के प्रति इतना प्यार हो जाए कि वह दूसरे के लिए संकटकारी हो जाए, तो उसे प्रेम नहीं कहेंगे। असल में वह प्रेम की सरल नदी नहीं है, वह तो प्रेम की बाढ़ हो जाएगी! बाढ़ से किसी का भला नहीं होता।
हमें अपनी भाषा को भी प्रेम देना है। बिना प्रेम के भाषा कमजोर होती जाती है। हमारे आसपास बढ़ता गुस्सा, बर्दाश्त करने की क्षमता का कम होना बताता है कि हमारी भाषा खोखली होती जा रही है। अति की ओर बढ़ती जा रही है, उसे प्रेम का साथ मिलना जरूरी है। इससे ही हम मन को घृणा की ओर बढऩे से रोक पाएंगे।
-दयाशंकर मिश्र