-विष्णु नागर
कल मैं रायपुर में था। विनोद कुमार शुक्ल जी से उनके निवास पर भेंट हुई। साथ में लीलाधर मंडलोई भी थे। जीवन के ८६ वें वर्ष में चल रहे विनोद जी पर उम्र की सघन छाया पड़ रही है। कल उन्हें देखकर मन विकल हुआ। उन्हें कैथेटर लगा हुआ है, जिसकी थैली एक डिब्बे में रखे हुए वह हम लोगों के स्वागत के लिए अपने घर के दरवाजे तक आए और अंदर घर में ले आए।बाद में बहुत मना करने पर भी नहीं माने, छोड़ने भी आए।
विनोद जी का रहन-सहन हमेशा से बेहद सादगीपूर्ण रहा है। शायद किसी भी अन्य मध्यवर्गीय लेखक की तुलना में। वह उनके व्यक्तित्व तथा उनके निवास में भी झलकता है। कुछ बातें हुईं। अभी उनका मन बच्चों के लिए लिखने में रमा हुआ है। वह लिख रहे हैं। उनके दो कविता संग्रह भी तैयार हैं मगर अपने प्रकाशकों से वह संतुष्ट नहीं हैं रायल्टी को लेकर। राजकमल प्रकाशन के अशोक माहेश्वरी तो उन किताबों के प्रकाशनाधिकार लौटाते जा रहे हैं मगर दूसरे बड़े प्रकाशक उनके अनुसार अड़े हुए हैं।किताबों की धीमी बिक्री की बात कहकर प्रकाशनाधिकार वापिस करने में बहानेबाजी कर रहे हैं।
पिछले दिनों उनके समवयस्क कवि मित्र नरेश सक्सेना उन पर फिल्म बनाने रायपुर गए थे। रायपुर में तो शूटिंग का काम पूरा हो चुका है मगर उनके अपने बचपन के शहर राजनांदगांव का अभी शेष है। अभी तक का काम तो नरेश जी ने अपने संसाधनों से किया मगर यह महंगा काम है। राज्य सरकार के एक शीर्ष अधिकारी ने उत्सुकता तो दिखाई मगर कहा कि इसके लिए प्रार्थनापत्र लिख कर दीजिए। जब राज्य सरकार खुद आगे बढ़कर मदद करने की बजाय प्रार्थनापत्र मांगे तो नौकरशाही आगे क्या- क्या पेंच पैदा करेगी, इसकी कल्पना डराने वाली है। फिलहाल काम स्थगित है।
एक समवयस्क महत्वपूर्ण कवि द्वारा दूसरे समवयस्क महत्वपूर्ण कवि पर इस तरह का काम शायद ही पहले कभी हुआ हो मगर वह अधूरा ही रह जाने का भय है। अस्सी पार कर चुके इन कवियों का यह मिशन अधूरा न रहे, इसका कोई सम्मानजनक उपाय निकल सके तो अच्छा है। कोई संस्था आगे आए तो सबसे बेहतर है लेकिन कुछ भी ऐसा न हो, जिसके कारण इन दोनों कवियों के सम्मान को ठेस न पहुंचे।
-विष्णु नागर
हमारे अच्छे दिन लाने वाले को अपने बुरे दिनों के बारे में भी अब सोचना आरंभ कर देना चाहिए। वे कब किस रास्ते आ जाएँ, पता नहीं। उत्तर प्रदेश भी वह रास्ता हो सकता है। ठीक है कि उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल नहीं है मगर चुनाव हो जाने से पहले पश्चिम बंगाल भी पश्चिम बंगाल कब लग रहा था?आज अखिलेश यादव ममता बनर्जी नहीं लग रहे हैं तो कल ममता बनर्जी भी तो अखिलेश यादव ही लग रही थीं! वहाँ ममता बनर्जी ने भाजपा का खेल बिगाड़ दिया, यहाँ खेल बिगाडऩे के लिए आपके अपने योगीजी हैं। पाँच साल से लगे हुए हैं। उन्होंने इतना ‘विकास’ किया है कि अब उत्तर प्रदेश को आगे और ‘विकास’ की जरूरत नहीं रही। ‘विकसित’ हो चुका, इसकी ताईद आप यूपी जाकर कर भी आए हैं।
दूसरा योगी हार भी गये तो गोरखपंथ का धार्मिक छाता अपने ऊपर तान लेंगे। उसमें सुरक्षित रहेंगे। धर्माध्यक्ष को छूना आज की तारीख में किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं। राजनीति का पल्ला छोडऩा भी पड़ा तो उनका अपना एक सुरक्षित साम्राज्य है। अच्छे दिन वाले भाईसाहब के पास यह सुविधा नहीं है।बीस साल राजसुख भोगते-भोगते वक्ष भूल चुके हैं कि जब बुरे दिन आते हैं तो मित्र छिटक जाते हैं। अपना आगे का इंतजाम ठीक करने में व्यस्त हो जाते हैं। बाकी सत्ता में रहते जो दिखता है, वह सब माया होता है। पर्दा हटा कि जो दीखता था, छूमंतर हो जाता है। भक्त भी कामधंधे से लग जाते हैं। गोदी चैनलवाले आनेवाली सत्ता की गोदी में इस फुर्ती से बैठते हैं कि लगता है कि ये तो बेचारे इधर ही थे। हमें ही समझ में नहीं आ रहा था।
समय हो तो ज्यादा दूर नहीं, आडवाणी जी के घर जाकर मिल आओ। वैसे चंडीगढ़ भी दूर नहीं, अमरिंदर सिंह से मिल लो। वे बताएँगे, कल जो उनकी परिक्रमा करते थे, आज उनकी देहरी छूते भी डरते हैं। फोन करते भी घबराते हैं कि कहीं टैप न हो जाए। एक तरफ बुढ़ापा, दूसरी तरफ यह अकेलापन! बस बता रहा हूँ, मानने के लिए नहीं कह रहा हूँँ। सत्ता जाने के बाद का अकेलापन दिन में भी आधी रात की तरह लगता है, जिसमें चंद्रमा तक उगता नहीं, डूबता नहीं। चौबीस घंटे सांय-सांय हवा चलती रहती है, बिजली कडक़ती रहती है। डर लगता है मगर मुँह से किसी को पुकारने के लिए कंठ से आवाज तक नहीं निकल पाती। अकड़ भूल कर जब आदमी विनम्र हो जाता है, तो दयनीय लगता है।
-विष्णु नागर
कल एक खबर पढ़ी थी कि पुणे के दगडूशेठ हलवाई गणपति को एक भक्त ने 10 किलो सोने का रत्नजडि़त मुकुट भेंट किया है। इसकी कीमत छह करोड़ रुपये बताई जाती है। कारीगरों को इसके लिए अस्सी लाख रुपये का मेहनताना दिया गया है।
गणेशजी पर इतनी कृपा बरसाने वाले इस भक्त ने अपना नाम गुप्त रखा है। इस कलयुग में जब पाँच किलो अनाज के थैले पर प्रधानमंत्री का फोटो अनिवार्य रूप से छपता है, तब एक सतयुगी भक्त बनकर किसी का 6 करोड़ रुपयों का इस प्रकार गुप्त बलिदान करने के लिए प्रकट हो जाना सचमुच प्रशंसनीय और चकितनीय घटना है। मैंने घटना कहा है, कृपया इसे दुर्घटना न पढ़ें।
मेरी समस्या बस इतनी सी है कि 6 करोड रुपए खर्च करने की भक्ति सेठों में कब और कैसे उत्पन्न हो जाती है? कोई कारण तो होगा, अकारण तो इस दुनिया में कुछ होता नहीं। पृथ्वी तक सूरज का चक्कर 365 दिन में अकारण नहीं लगाती। चाँद तक अकारण पृथ्वी की परिक्रमा चौबीस घंटे में पूरी नहीं करता। चींटियाँ तक मिलकर अकारण कुछ खींचकर, उठाकर अपने बिल में नहीं ले जातीं! तो क्या इस भक्ति का कारण केवल गणेशजी का आशीर्वाद प्राप्त करना ही हो सकता है? याद रखिए यह भक्ति साधारण नहीं, 6 करोड़ रुपये इसमें इनवाल्व है। भक्त असाधारण है। ये गणेश भी असाधारण है। हर भक्त की इच्छा रहती है कि इनके दर्शन कम से कम एक बार अवश्य पास या दूर से प्राप्त करे। अब तो भक्त दगड़ूशेठ गणपति से अधिक उनके मुकुट के दर्शन में इंटेरेस्टेड होंगे।
सवाल यह है कि श्रद्धा के नाम पर खर्च करने के लिए 6 करोड़ रुपये किसी के पास आ कहाँ से जाते हैं? ऐसा तगड़ी भक्ति जिस सेठ में पाई है, उनके पास कम से कम 500 करोड़ पाए जाते होंगे। इतने बड़े करोड़पति में भी ऐसा भक्ति-भाव पाया जाता है, यह हृदय को विगलित-विजडि़त कर देने वाली घटना है। मेरी भक्त-पत्नी तो किसी भी मंदिर में 10 रुपये से ज्यादा नहीं चढ़ाती। हद से हद नारियल और हार-फूल पर भी वह कुछ अतिरिक्त खर्च कर देती है। इससे अधिक कुछ नहीं। इससे अधिक श्रद्धा उसमें है नहीं, जबकि वह काफी श्रद्धालु है। अभी जन्माष्टमी पर वह इतनी उत्साहित थी कि जैसे उसके बेटे या पोते का जन्मदिन हो। इस मंगलवार को ही उसने पाँच दिन बाद गणेशजी को पानी से भरी एक बड़े से पतीले में सम्मानपूर्वक बैठाकर रवाना किया है। रोज इन्हें उसने पकवान खिलाए हैं। इनके लिए रोज थोड़ा-थोड़ा मीठा बनाया है। गणेशजी के मजे हुए या नहीं मगर मेरे तो हो गए! मैं दगड़ूशेठ गणपति के दर्शन करने पुणे जाता तो इस सुख से वंचित हो जाता!
दगड़ूशेठ गणपति के ओ अप्रतिम भक्त, तू अगर इतना ही उदार हृदय है तो भाई एक शानदार स्कूल ही साधारण गरीब बच्चों के लिए खुलवा देता, जिसमें मुफ्त शिक्षा दी जाती। दगड़ूशेठ गणपति से मेरी इतनी तो पटती ही है कि मैं विश्वासपूर्वक कह सकता हूँ कि वह इस पर कतई नाराज नहीं होते। लेकिन सेठ, तुम स्कूल -कॉलेज या विश्वविद्यालय खुलवाओगे तो वहाँ एक के हजार बनाओगे। फिर किसी एक साल में वे छह करोड़ दगडूशेठ के गणपति को समर्पित कर आओगे। गोपनीय दान कर दोगे। गोपनीय दान तो राजनीतिक चंदे की गोपनीयता के प्रवर्तक, पालक, संचालक गणेश के खजांची को समर्पित कर आते, तो तुम्हारे 6 सौ करोड़ के काम बन जाते। उनसे बड़ा गणपति आज कहाँ और कौन है इस भारत भू पर?
अरे इन गणपति को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि उनके सिर पर मुकुट है या नहीं। और मुकुट अगर है तो कहीं छह करोड़ से कम का तो नहीं है? उन्होंने कभी नहीं कहा होगा कि मुझे 6 करोड़ का ही मुकुट चाहिए। उनकी मूर्ति के साथ जो मुकुट उन्हें मिलता है, उसी से उन्हें संतोष होगा बल्कि गर्मियों में यह परेशानी का कारण बन जाता होगा।
दगड़ूशेठ गणपति के भक्त, यह उनके सिर का मुकुट नहीं, तुम्हारा निर्दयता का असली प्रमाणपत्र है। यही भक्त किसी सार्वजनिक काम के लिए अगर और मेरा जोर अगर पर है, सौ रुपये भी खर्च करेगा तो खीसे निपोर कर फोटो जरूर खिंचवाएगा। अखबार में उसे मुफ्त छपवाएगा। अखबार वाले मुफ्त नहीं छापेंगे तो दस लाख का फुल पेज विज्ञापन देकर अंग्रेजी अखबार में छपवाएगा। हो सके तो किसी राष्ट्रीय कहे जाने वाले टीवी चैनल पर अपने कीर्तिगाथा दिखवाएगा। लेकिन यही सेठ गणेशजी को रत्न जडि़त सोने का मुकुट चढ़ाएगा तो गोपनीयता को प्राप्त होना चाहेगा। इसका नाम गुप्त था, गुप्त है और गुप्त रहने वाला है। सरकार से इस सेठ- भक्त की काफी तगड़ी सेटिंग होगी, जिसके सामने गुप्त कुछ भी नहीं रहता। सब प्रकट रहता है। हाँ, सरकार चाहे तो जनता से यह अप्रकट रह सकता है। छापामुक्त रह सकता है मगर इसकी एक निश्चित कीमत है। कीमत दो और गोपनीयता का सामान उठाकर आराम से घर ले जाओ। वैसे भी दगडूशेठ के गणपति से कौन सी सरकार दुश्मनी मोल लेना चाहेगी? वे नाराज हो गए तो सरकार अल्पमत में आ जाएगी। लेकिन दिल्ली दंगों में तमाम बेगुनाहों को थोक के भाव फँसा दिया जाएगा और अपराधियों को साफ बचा लिया जाएगा। दिल्ली पुलिस को आदेश होगा कि ऐसा ही करना है। यही ‘सांप्रदायिक सद्भाव’ के हित में है। तेलुगु कवि वरवर राव को एक झूठे केस में फँसाकर मुश्किल से जमानत देने दी जाएगी मगर स्टेन्स स्वामी की तो जान ले ही ली जाएगी। इससे दगडूशेठ के उस भक्त को कोई दुख, कोई रंज नहीं होगा। उसे इन सब पचड़ों में पडऩे की फुर्सत भी न होगी, पता होगा, तो भी पता न होगा, जैसा होगा। उसका दिल अव्वल तो होगा नहीं और होगा तो इन बातों से दुखने के लिए फ्री न होगा। उसका दिल तो 6 करोड़ के मुकुट में समाहित है। उसका दिमाग तो सरकारी पार्टी को दिए गए गोपनीय चंदे में समाहित है।
-विष्णु नागर
हमारे इस सड़े हुए समाज में कोई दूसरा रिपोर्टर इसे मामूली दैनिक घटना की तरह मशीनी ढँग से लिखकर उस दिन का अपना काम निबटा देता तो आश्चर्य नहीं होता।
इंडियन एक्सप्रेस के आनंद मोहन जे. ने ऐसा नहीं किया। मुझे और बहुतों को कल यह घटना बताकर विचलित कर दिया। बार-बार मन इस रिपोर्ट की तरफ जाता रहा।
पहले असली घटना।
55 वर्षीय दलित ने अपना नाम नहीं बताया रिपोर्टर को, इसलिए नाम कोई भी रख लीजिए। ख रख लेते हैं। ख के घर के आगे किसी पड़ोसी का कुत्ता टट्टी-पेशाब कर गया। उसने इसकी शिकायत की। विवाद बढ़ गया होगा। पड़ोसी सुनने को राजी नहीं हुआ होगा। उसने इस दलित के खिलाफ गाँठ बाँध ली कि अब इसे तगड़ा मजा चखाना ही है, छोडऩा नहीं है। रिपोर्ट नहीं बताती मगर जो बदला लेने की किसी भी हद तक चला गया, संभव है, वह कोई सवर्ण रहा होगा।
एक साधारण दलित को फँसाने का आसान तरीका था, उस पर आदतन बलात्कारी होने का आरोप चस्पां करना। अदालत ने छह साल बाद पाया कि यह आरोप न केवल झूठा था बल्कि उससे भी नीचतापूर्ण यह था कि इसके लिए परिवार से संबद्ध चार लड़कियों का इस्तेमाल किया गया। उनसे गवाही दिलवाई गई कि उनके साथ इसने समय-समय पर बलात्कार किया है। पितृसत्तात्मक दबाव में उन्होंने झूठ बोलने से गुरेज नहीं किया होगा मगर उन बच्चियों के लिए पुलिस तथा अदालत के सामने ऐसा कहना कम यातनादायक नहीं रहा होगा।
एक महीने पहले यह दलित तिहाड़ जेल से छूटा है।
कहानी इतनी ही नहीं है। इसकी भयावहता का पता उसकी मनस्थिति से चलता है, जो जेल में थी। जेल की कोठरी मे नींद आने पर सपने में वह पक्षी की तरह उडऩे लगता था।नीचे उसे जैसे ही उसे अपनी परेशानहाल पत्नी दीखती तो वह धड़ाम से नीचे गिर पड़ता। फिर वह बस में चढ़ता तो उसका सपना टूट जाता। जेल की दीवारों की हकीकत सामने आ जातीं। छूटने के बाद अब यह सपना उसे नहीं आता, जबकि वह फिर से कम से कम एक बार यह सपना देखना चाहता है।
कहानी यहाँ भी खत्म नहीं होती। और भी भयावह यह है कि अब वह घर बाहर जाने से घबराने लगा है। बाहर जाता है तो अपने घर का रास्ता भूल जाता है। भूख अब उसे नहीं लगती। उसे इतनी थकान महसूस होती है हर समय कि काम करने की हिम्मत नहीं।
वह खुद कहता है कि अब मेरा दिमाग काम नहीं करता, जबकि वह पहले एक बड़े बैंक अफसर के घर चौकीदार था। मालिक उसके कहते हैं कि जैसे उसके पैर में स्प्रिंग लगा हो।वह काम करता ही रहता था। ड्यूटी के बाद भी भागने की उसे जल्दी नहीं होती थी।
उसकी उम्र में कुछ बड़ी 58 साला पत्नी अब सडक़ पर रद्दी कागज आदि बीनकर कभी सौ रुपये, कभी और भी कम कमाती है।उसका तीस साल का बेटा बारह घंटे मजदूरी करके 12000 रुपये कमाता है। घर तो शायद किसी तरह इससे चला लिया जाता होगा मगर परिवार के सिर पर अब पाँच लाख रुपयों का कर्ज चढ़ है। उसे चुकाना है। अदालत ने इस निरपराध को छह साल जेल में रखने के आरोप में सरकार से उसे एक लाख रुपये का मुआवजा देने को कहा है। जिस देश में सर्वोच्च न्यायालय कहता हो कि सरकार हमारी नहीं सुनती, वहाँ स्थानीय अदालत के आदेश का सम्मान हो जाए, इसे चमत्कार से कम मानना मुश्किल है।
वह बैंक के जिन बड़े साहब के यहाँ चौकीदार था, उन्होंने जरूर उसका साथ दिया। उसके बलात्कारी न होने के पक्ष में अदालत में वे खड़े हुए।
जेल में उसका सहारा बाइबिल थी। उसे मुश्किल से ही समझ में आता था कि इन वाक्यों का अर्थ क्या है मगर उसे इतना समझ में जरूर आया कि ईश्वर हम सबका एक है। इसके प्रभाव में वह बताता है कि उसने अपने पर झूठा आरोप लगाने वालों को माफ कर दिया है। उसके मन में उनके प्रति अब कोई नफरत नहीं बची है, जबकि दलित होने के नाते उसकी जिंदगी के उन्होंने छह साल बर्बाद कर दिए।
जेल में एक ही राहत थी, जिसने उसे बचाकर रखा, वह यह थी कि उसे वहाँ चित्रकारी सीखने का मौका मिला। उसने हिंदू देवी-देवताओं, नेताओं के चित्र बनाए। दीपिका पादुकोण शायद उसकी प्रिय हीरोइन है, उनकी तस्वीरें भी बनाईं। बैंकों से संबंधित विज्ञापन चित्रित किए।
यह तो एक कहानी है। ऐसी लाखों कहानियाँ हैं। बस उन तक पहुँचने वाले आनंद मोहन दो- चार ही होंगे। कभी जाऊँगा उनके दफ्तर और उन्हें धन्यवाद देकर आऊँगा। उनके पास कम वक्त होगा तो उनसे चाय पिऊँगा। ज्यादा वक्त उनके पास हुआ तो कहूँगा आइए, आज मैं चाहता हूँ कि कहीं चलें और मैं आपको चाय पिलाऊँ। फिर पूछूँगा, यह बताइए मेरे युवा साथी, तुमने यह आँख कहाँ से पाई? अगर आज तुम मेरी भाषा के किसी बड़े अखबार के रिपोर्टर हुए होते तो एडीटर की बात तो छोड़ो, कुछ सभ्य किस्म का मेट्रो एडीटर हुआ होता तो कहता अच्छा ठीक है,देखता हूँ। एडीटर से बात करता हूँँ । फिर तुम्हारी आँख बचाकर इसे कूड़ेदान में फेंक देता। तुम पूछते तो कहता, एडीटर साहब कह रहे थे कि ये लडक़ा क्या डाऊन मार्केट स्टोरी करता रहता है। इससे कहो कि आगे से जो करना है, तुमसे ठीक से पूछ कर किया करे। अखबार का कीमती वक्त ऐसी फालतू स्टोरीज पर खर्च न करे। उजड्ड मेट्रो एडीटर तो तुम्हारी आँखों के सामने ही इसे फेंक देता और कहता-बकवास। ये तुम क्या- क्या फालतू काम करते रहते हो, आनंद। नौकरी करो, नौकरी। कहानियाँ लिखना हो तो हंस और कथादेश में लिखो। वहाँ कम से कम दस लोग तो पढ़ेंगे। यहाँ हमारे रीडर के पास बकवास पढऩे की फुर्सत नहीं है, समझे! इसलिए इंडियन एक्सप्रेस को भी धन्यवाद।
इसे कुछ लोग हमारी इस भाषा को जोश में आकर राष्ट्रभाषा कहते हैं, कुछ इसे राजभाषा। 14 सितंबर को राजभाषा दिवस है। इसे कुछ लोग हिंदी दिवस भी कहते हैं। अमूमन इसकी पत्रकारिता का यह सीन है।
-विष्णु नागर
मान लेते हैं कि गाय हमारी माता है। यह भी मान लेते हैं कि ऐसी वैसी नहीं, हमारी अपनी माँ से भी ज्यादा वह हमारी माँ है। हमारी माँ ने तो हमें हद से हद दो साल तक दूध पिलाया होगा मगर जेब में पैसे हों तो गाय या भैंस का दूध जिंदगीभर छककर पिया जा सकता है, जबकि माँ का नहीं। ब्रिटेन की एक खबर जरूर पढ़ी थी कि वहाँ बच्चे की माँ के दूध की आइसक्रीम मिलने लगी है और लोग शौक से खाने लगे हैं। हम अभी इतने एडवांस नहीं हुए हैं। हो जाते तो जाने कितनी माँओं के बच्चों का दूध छिन जाता! फाइव स्टार होटल में लोग पहले दारू पीते। फिर भोजन का समापन इस आइसक्रीम से करते! फिर एक और मँगाते। कुछ कहते हम तो एक और लेंगे। नशा उन्हें दारू का नहीं, आइसक्रीम का चढ़ता!
और फिर माँ तो अमूमन अपने बच्चे को ही दूध पिलाती है, गाय और भैंस तो सबको पिलाती है। शर्त एक है कि जेब में पैसा हो। पैसा नहीं तो न गाय माता है, न भैंस। जैसे गरीब माँ के स्तन का दूध जल्दी सूख जाता है, वैसे ही रोकड़ा न होने पर गोमाता या भैंसमाता का भी। यह सही है कि इसमें गोमाता या भैंसमाता का क्या दोष? वैसे ही गरीब माँ का भी क्या दोष?
चलिए यह लफड़ेवाला मामला है, इसे यहीं छोड़ते हैं।
एक और लफड़ा मेरे लिखने से पैदा हो गया होगा।पूछा जाएगा कि भैंस कब से माता होने लगी?धर्मग्रंथों में यह कहाँ लिखा है?नहीं लिखा होगा शायद मगर मेरे जैसे लोग-जो वैसे तो रोटी, दाल, सब्जी खाकर ही बड़े हुए हैं, गाय या भैंस का दूध पीकर नहीं-वे वास्तव में न गाय को माँ मानने की स्थिति में हैं, न भैंस को। हमें तो बचपन में कभी-कभी खीर के बहाने दूध मिल गया तो मिल गया। फिर जब दूध पीने की हैसियत हुई तो पतला-मोटा, शुद्ध या पानी मिला या डेयरी का दूध हुआ करता था-गाय या भैस का नहीं। होता भी होगा तो अपना उससे वास्ता नहीं रहा। तो आप ईजीली मान सकते हो कि बड़े होने के बाद जो दूध हमने पिया, वह भैंस का रहा होगा। इसका कारण है। एक तो भैंस, अमूमन गाय से ज्यादा दूध देती है, दूसरे उसके दूध में पानी मिलाना दूधिये के लिए भी आसान है, गृहिणियों के लिए भी। तो भैंस का दूध इस मायने में अधिक उपयोगी और गुणकारी है। तो अपनी भावनाओं को चोट न पहुँचने दें और हम जैसा कोई विधर्मी गाय की बजाय भैंस को माता मानना चाहे तो उसे मानने दें। इसका ये मतलब नहीं कि वह आपकी माता यानी गोमाता को मानने से इनकार कर रहा है। आपकी माँ, उसकी माँ मगर उसकी माँ क्या आपकी माँ? वैसे आप भी स्वतंत्र राष्ट्र के नागरिक हो, वह भी। आज आपके प्रधानमंत्री नरेन्द्र दामोदरदास मोदी हैं,तो उसके भी।
पर बंधुओ/भगीनियो, सच पूछो तो ये गाय या भैंस को माँ मानने में बड़ा लफड़ा है। अब एक ‘दुष्ट’ ने कहा कि ठीक है,जी, गाय हमारी माता है तो फिर हमारा कोई गोवंशीय पिता भी होता होगा? वह कौन है?और कोई नहीं है तो क्यों नहीं है? अब मैं ऐसे टेढ़ेमेढ़े सवाल का जवाब क्या देता? वेद-पुराण पढ़े होते, घोंटे होते तो जवाब दे भी देता। मौन रह गया। मुस्कुरा कर रह गया।
एक और ‘दुष्ट’ ने कहा कि गाय हमारी माता है तो उसके बछड़ा-बछिया हमारे क्या हुए? भाई-बहन हुए? बैल हमारा भाई है या नहीं है?बैल कुछ है तो फिर उसका एक और सहोदर हमारा कुछ है या नहीं? फिर आज की बछिया, कल गाय बन गई तो क्या वह भी हमारी माँ हो जाएगी?और जो गाय मेरी माँ है,वह मेरे बच्चों और उनके बच्चों की भी माँ हुई या कुछ और?
यह भी सवाल किया, उसने कि विदेशी नस्ल की गाय हमारी माँ नहीं क्यों नहीं हो सकती? आपमें से किसी के घर अगर गाय का दूध आता है तो क्या आप गारंटी से जानते हो कि वह देसी गाय का है? मान लिया कि देसी गाय का है तो फिर विदेशी नस्ल की जो गायें दूध देती हैं, उसका क्या होता है?वह उपयोग में लाया जाता है या फेंक दिया जाता है?और अगर जो गाय का दूध पीते हैं, वह देशी-विदेशी सभी नस्लों की गायों का होता है तो फिर विदेशी नस्ल की गाय भी उनकी माँ कैसे नहीं हुई ?नहीं हुई तो फिर उसका दूध वे क्यों पीते हैं?और पीते हैं, तो वह भी कुछ हुई या नहीं हुई?
अभी एक विद्वान न्यायाधीश ने एक फैसले में गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की बात कही ।सवाल यह है कि गाय पशु है या हमारी माँ है?क्या माँ को पशु कहा जा सकता है,भले ही वास्तव में वह पशु हो?
उन्होंने यह भी कहा कि गाय ऑक्सीजन लेती है और आक्सीजन ही छोड़ती है। उनके अनुसार वैज्ञानिक भी यह मानते हैं। मान लिया कि वैज्ञानिकों की एक हिन्दूवादी कोटि होती है। चलो मान लिया,यही सच है कि गाय आक्सीजन लेती और छोड़ती है मगर हम जो उसकी संतान हैं, कार्बनडाई आक्साइड क्यों छोड़ते हैं? या हम भी अब आक्सीजन छोडऩे लगे हैं? फिर देसी गायें ही आक्सीजन छोड़ती हैं या विदेशी गायें भी?कोरोना के संकट के समय सरकार ने इस आक्सीजन का उपयोग क्यों नहीं किया?विपक्ष इसके लिए जिम्मेदार है या नहीं है?उसके खिलाफ तब अविश्वास प्रस्ताव लाने से सरकार चूक क्यों गई?
आजकल ‘दुष्ट’ लोग ही सवाल किया करते हैं और भक्त लोगों को भडक़ाते हैं। ‘दुष्टों’ के पास और काम ही क्या है और मेरे पास भी? इसलिए ‘दुष्टों’ की संगत में रहता हूँ, उनकी बातें सुनता हूँ और अपनी बुद्धि को ‘भ्रष्ट’ करता रहता हूँ। आजकल समय इसी में बीत रहा है।
-विष्णु नागर
अगर देखने की एक खास दृष्टि को स्वीकार करें तो हम मनुष्य नहीं, मात्र उपभोक्ता हैं। इस दृष्टि से तो मैं जो लिख रहा हूँ, वह भी एक उत्पाद है, जो मैं जाने -अनजाने फेसबुक के लिए मुफ्त में उत्पादित कर रहा हूँ(जिससे उसकी तगड़ी कमाई होती है)जबकि मुझे यह भ्रम है कि मैं इसके जरिए अपने को अभिव्यक्त कर रहा हूँ। सच्चाई शायद दोनों के बीच है बल्कि दोनों है।
मेरे लिए जो अभिव्यक्ति है, फेसबुक के लिए वह एक मुफ्त का उत्पाद है, जिसका मालिक आज दुनिया के सबसे बड़े अमीरों में है। तो संकट यह है कि क्या मैं लिखना बंद कर दूँ और मैं इस पर आगे से लिखना बंद करके उत्पाद बनने से इनकार कर दूँ? मेरा और आपका संकट यह है कि जब अभिव्यक्ति के दूसरे बड़े माध्यम हमारी पहुँच से दूर होते गए हैं, तब हमें यह एक-दूसरे तक पहुँचाता है।
व्यक्ति और दुनिया किस तरफ जा रही है, वे सच्चाइयों के कौन से कोने हैं, संवेदनाओं के ऐसे कौन से क्षेत्र हैं, जिन्हें दूसरे लोकप्रिय माध्यम हमसे दूर रखते हैं (और अब फेसबुक भी छुपाता है। किसी दिन चुपचाप उसे गायब कर देता है।)। मेरे लिए फेसबुक का यह उपयोग है, दूसरों के लिए बेशक दूसरा भी है।
इस सवाल ने कल मेरे मन में अधिक स्पष्ट आकार तब लिया, जब मैंने एक बड़े अखबार समूह का एक विज्ञापन देखा, जो पिछले बीस बरसों से भी अधिक समय से खुलेआम अपने को उत्पाद कहता आ रहा है और जिसने फिर यही घोषित करते हुए विज्ञापन दिया है। इसका एक बड़ा अधिकारी बरसों पहले बहुत बेशर्मी से कह चुका है कि विज्ञापनों के बीच बची हुई जगह में जो चेंपा जाता है, उसे समाचार कहते हैं। उस समूह में मैं करीब दो दशक काम कर चुका हूँ और जिस दौर में मैं वहाँ रहा, उसके बारे में कह सकता हूँ कि वह एक बेहतर दौर था या यूँ कहें इतना बदतर नहीं था।
बहरहाल आप आज जो कुछ और हैं, वह तो हैं ही मगर किसी न किसी के लिए उपभोक्ता हैं या उपभोग के एक उत्पादक हैं। बच कर जाएँगे,कहाँ? जो थोड़ी- बहुत जगह पहले बची हुई थी, वह भी अब समाप्त -सी है। संकट बहुत बड़ा है। न हम इन माध्यमों को छोड़ सकते हैं, न एक-दूसरे तक पहुँचने की इच्छा को त्याग सकते हैं। क्या आपको भी ऐसा ही लगता है या आप इससे असहमत हैं?
जब से नरेन्द्र दामोदर दास मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, तब से देश में ‘गोमूत्र-गोबर विज्ञान’ का तीव्र गति से और ऐतिहासिक तथा अद्भुत विकास हुआ है। ऐसा विकास तो ऋषिमुनि सतयुग तथा त्रेतायुग में भी नहीं कर पाए थे। कांग्रेस वगैरह भी इस किस्म का विकास करने के योग्य नहीं थींं बल्कि अटलबिहारी वाजपेयी भी लगता है, यह काम मोदीजी के लिए छोड़ गए थे।
मैं तो प्रतीक्षा कर रहा था कि गोमूत्र-गोबर-विज्ञान (गोगोवि) मेंं उनके इस महती योगदान के लिए इस बार का चिकित्सा या रसायन का नोबल पुरस्कार प्रधानमंत्री को दिया जाएगा मगर खेद है कि निर्णायकों की दृष्टि अमेरिका और यूरोप के बाहर नहीं जाती। हमें एकमत से इसका विरोध करना चाहिए और 2021 में गोगोवि के विकास के लिए यह पुरस्कार मोदीजी को मिले, यह सुनिश्चित करना चाहिए। नोबेल कमेटी को यह चेतावनी देना चाहिए कि अगर अगला नोबेल पुरस्कार मोदीजी को नहीं दिया तो भविष्य में कोई भी भारतीय इसे स्वीकार नहीं करेगा। इतना ही नहींं भारतवासी कैलाश सत्यार्थी भी इसे वापिस कर देंगे।
अमेरिका के प्रवासी भारतीयों के एक बड़े हिस्से का यह नैतिक कर्तव्य है कि वे न केवल ट्रंप को जिताएँ बल्कि उनका अगला मिशन ‘मोदी-नोबेल’ होना चाहिए। इस पुण्य कार्य में वे ब्रिटेन आदि के प्रवासियों का भी सहयोग ले सकते हैं।बाकी यहाँ भक्तमंडली है ही। वह इसके लिए जीजान लड़ा देगी। बिहार और पश्चिम बंगाल के चुनाव के बाद उनका यही मिशन -2021 होना चाहिए।
प्रसन्नता की बात है कि गोगोवि में नित नई प्रगति चालू है। अभी बीते मंगलवार को कोई राष्ट्रीय कामधेनु आयोग है,उसके कोई अध्यक्ष हैं- वल्लभ भाई कथीरिया। उन्होंने हमें नवीनतम वैज्ञानिक ज्ञान दिया है कि गाय का गोबर एंटीरेडिएशन है। इसका इस्तेमाल मोबाइल में किया जा सकता है। चाहें तो इस ज्ञान का फायदा उठाकर मुकेश अंबानी, जियो को आगे और आगे रख सकते हैं।
गोगोवि के वैज्ञानिक आज भारत के कोने-कोने में फैले हुए हैं। बहुसंख्यकों के किसी भी मोहल्ले के किसी भी घर पर पत्थर मारो, 99 फीसदी से अधिक संभावना है कि वहाँ एक या अधिक गोगोवि वैज्ञानिक मिल जाएँँगे। इनकी संख्या इतनी बड़ी है कि जिन्हें बाकायदा वैज्ञानिक माना जाता है, वे इनके आगे कहीं नहीं ठहरते। विश्व के सारे वैज्ञानिकोंं की संख्या भी इनके आगे बमुश्किल दो प्रतिशत होगी।
यह भारत के लिए गौरव की बात है मगर 21वीं सदी के महान भारतीय वैज्ञानिक मोदीजी का इस पर गौरव प्रकट न करना लज्जा का विषय है। उनकी अचूक दृष्टि से भारत की यह श्रेष्ठ उपलब्धि चूक सकती है, इस पर भरोसा नहीं होता मगर करना पड़ रहा है।
गोमूत्र-गोबर वैज्ञानिकों की एक अत्यंत लोकप्रिय और अत्यंत सामयिक खोज है कि गोमूत्र से कोरोना ठीक हो सकता है। इसके अलावा कैंसर के इलाज में भी यह कारगर है। अगर मोदीजी एम्स समेत सब जगह कोरोना और कैंसर के इलाज में गोमूत्र सेवन अनिवार्य कर देंं तो कोरोना और कैंसर लंगोट छोडक़र भारत से हमेशा के लिए भाग जाएँगे। यह मिशन आत्मनिर्भरता की दिशा में एक बड़ा कदम होगा और 2024 के आमचुनाव में मोदीजी की विजय का यह विश्वगुरु टाइप नुस्खा साबित होगा। भारत की विश्व गुरू फिर से बनाने का जो मजाक उड़ाते हैं, उनके मुँह क्या जो-जो भी अंग बंद हो सकते हैंं, सब बंद हो जाएँँगे। ऐसे लोग मास्क पहनकर भी मुँह दिखाने लायक नहीं रह जाएँगे। मोदीजी स्ट्रेटेजिक गलती न करें और हर पिछले प्रधानमंत्री का हर रिकॉर्ड तोड़ते हुए नोबल पुरस्कार की दिशा में मजबूती से कदम बढ़ाएँ।
एक गोगोवि वैज्ञानिक ने शोध किया है कि गाय आक्सीजन लेती है और आक्सीजन ही छोड़ती है। यह ब्रह्मांड की सबसे बड़ी खोज है। इस वैज्ञानिक के आगे आइंस्टीन भी छूंछे साबित होते हैं। एक खोज यह भी है कि बंसी की धुन सुनकर गाय ज्यादा दूध देने लगती है। शायद पड़ोसन गाय से उधार लेकर दे देती होगी। वैसे भी गाय माँँ होने के कारण दयालु होती है। गोगोवि के क्षेत्र में इस बीच इतनी अधिक खोजें हुई हैं कि मैं कंप्यूटर को कलम समझकर सबकुछ लिखने की कोशिश करूँगा तो उसकी हार्डड्राइव फट जाएगी या गौरव से फूला हुआ मेरा सीना या दोनों एकसाथ।मैं इतना स्वार्थी हूँ कि दोनों की रक्षा करना चाहता हूँ। अत: इति गोमूत्र-गोबर विज्ञान पुराणे रेवाखंडे करके आपसे अनुमति चाहता हूँ।
-विष्णु नागर
जिसे विकास कहा जाता है, भाईसाहब वह एक ऐसी कुत्ती चीज है, जो जिसको नजर आना होती है, उसी को आती है। हर किसी को नहीं। जैसे हर सरकार को उसके कार्यकाल में हुआ ‘विकास’ अनिवार्य रूप से नजर आता है मगर विपक्ष को उतनी ही अनिवार्यता से नजर नहीं आता। दो और समस्याएँ हैंं। हर सरकार को अपने द्वारा किया गया विकास सूरज की तरह साफ दीखता है मगर दूसरे का भ्रष्टाचार भी उतना ही साफ दीखता है। मतलब सरकार और विपक्ष को दो-दो सूरज एकसाथ दीखते हैं। दूसरी ओर जिसके लिए विकास किया गया है, उस जनता को एक भी सूरज नहीं दिखाई देता।ये कुछ रघुकुल रीत की तरह है, जो आजादी के बाद से आज तक चली आई है और रामलला मंदिर बनने के बाद भी चली आती रहेगी और चली आती रहनी चाहिए वरना ‘विकास’ कैसे होगा! चाहे आँकड़ों में हो मगर होना चाहिए वरना ‘विकास’ करने वालों का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा और उनका भविष्य मोस्ट इंपार्टेंट है।वह देश और जनता के भविष्य की तरह व्यर्थ सवाल नहीं है।
जैसे अपने मोदीजी हैं यानी नरेन्द्र दामोदरदास मोदी।उन्हें भी पिछले छह सालों में उनके द्वारा किया गया ऐसा जबरदस्त विकास नजर आता है कि जितना पिछले साठ साल में पहले कभी नहीं हुआ था। जैसे विकास मोदीजी की प्रतीक्षा में ही बैठा था और मोदीजी भी प्रधानमंत्री बनने के इंतजार में थे कि बनें और विकास की मशीन को हाईस्पीड में चालू कर दें और रातदिन विकास ही विकास करते रहें। अटलजी को भी यही लगता था कि उन्होंने इतना अधिक ‘विकास’ कर दिया है कि ‘इंडिया शाइन’ करने लगा है मगर बदले में इंडिया ने उन्हें शाइन करने से इनकार कर दिया। जब चंद्रशेखर जी प्रधानमंत्री बने थे तो उन्होंने तो हद ही कर दी थी। कहा था कि उन्होंने चालीस दिन में ही इतना ‘विकास’ कर दिया है कि उतना पिछले चालीस वर्षों में भी नहीं हुआ! मतलब हदें छूने की होड़ लगी रहती है, जिसमें हर प्रधानमंत्री अपने कार्यकाल में आटोमेटिकली जीत जाता है।
वैसे मैं भी नकारात्मक नहीं हूँ। मानता हूँ कि पिछले छह सालों में बहुत ‘विकास’ हुआ है मगर ‘विकास’ की मोदीजी की लिस्ट दूसरी है, मेरी दूसरी। मोदीजी को महंगा से महंगा चश्मा पहन लेने पर भी जो ‘विकास’ नहीं दिखाई देता, मुझे नंबरवाला सस्ती फ्रेम का चश्मा पहन कर दीख जाता है। उधर उन्हें जो ‘विकास’ दीखता है, वह मुझे नहीं दीखता। आँखें उनकी भी दो हैं, मेरी भी दो। देश उनका भी और वे मानें तो मेरा भी यही है मगर उन्हें लगता है, मेरे चश्मे का नंबर गलत है, मुझे लगता है, उन्हें भी अब मेरी तरह बाईफोकल चश्मा पहन लेना चाहिए। उम्र के सत्तरवाँ साल पार करने के बाद उन्हें हीरोगीरी नहीं दिखाना चाहिए मगर ट्रंप जैसे महामना उनके आदर्श हैं। उन्होंने दुनिया को दिखा दिया है कि चश्मा हो न हो, जिन्हें फर्क नहीं पडऩा होता, नहीं पड़ता। ट्रंपजी को खुद कोरोना होने से पहले भी कोरोना नहीं दीखता था, अब तो और भी नहीं दीखता!
और तो और अब आदित्यनाथ जी को भी यह शिकायत होने लगी है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश में पिछले तीन सालों में जितना ‘विकास’ किया है, वह अंतरराष्ट्रीय ‘षडय़ंत्रकारी’ विपक्ष को नहीं दीखता। वैसे आदित्यनाथ जी विकास के लिए कभी प्रसिद्ध क्या बदनाम तक नहीं रहे! किसी का ध्यान ही नहीं जाता कि उनसे विकास की उम्मीद करना चाहिए और निराश होना चाहिए! उनकी ख्याति का असली क्षेत्र तो फर्जी इनकाउंटर है और इसमें उनका मुकाबला कोई मुख्यमंत्री नहीं कर सकता।इसमें उनका परफार्मेंस देश में ‘सर्वश्रेष्ठ’ है। हद से हद उनकी आलोचना राज्य में बलात्कार, हत्या और दमन के ‘विकास’ लिए की जा सकती है, जो सजायोग्य अपराध है। किसी बेवकूफ ने भी शायद उन पर ‘विकास’ करने या न करने की तोहमत लगाई हो, तो विपक्ष भी क्यों लगाएगा! समस्या यह है कि उन्होंने ‘विकास’ के जो प्रतिमान स्वयं स्थापित किए हैं, उनकी खुद वह चर्चा करना पसंद नहीं करते। वैसे सामान्यत: राजनीति में यह अच्छी बात नहीं मानी जाती मगर योगी होने का मतलब भी यही है कि अपने मुँह मियाँँ मि_ू न बनो! ऐसा भी नहीं है कि जिसे ‘विकास’ कहते हैं, उसके दावे उन्होंने पहले कभी नहीं किए मगर किसी ने न उनका खंडन किया, न मंडन। इस पर सर्वसम्मति है कि इस ओर उनका ध्यान भटकाकर न उनका समय बर्बाद करना चाहिए, न अपना।
-विष्णु नागर
विष्णु नागर
लगता है कि उत्तरप्रदेश सरकार और भाजपा यह सिद्ध करने पर आमादा है कि 19 साल की हाथरस की दलित लडक़ी के साथ बलात्कार नहीं हुआ था और वे लडक़े जिन पर ऐसा आरोप है,वे निर्दोष हैं या कम से कम बलात्कार के दोषी नहीं हैं। दोषियों की जाति के लोगों ने शुरू से ही यह घोषणा कर दी है कि उनकी जाति के युवा दोषी नहीं हैं। उनकी दबाव की राजनीति इस घटना पर देशभर में व्याप्त आक्रोश पर हावी है। पीडि़त परिवार जिस तरह के राजनीतिक, प्रशासनिक तथा उच्च कही जाने वाली जातियों के दबाव में लाया जा रहा है, उससे लगता है, वही असली दोषी है। बाकी थोड़ा-बहुत न्याय दिलाने का ड्रामा भी चल रहा है। यह ड्रामा ही है। इसे भाजपा आईटी सेल के प्रमुख अमित मालवीय तथा अन्य भाजपाइयों के ट्विटर एकाउंट और भाषणों, साक्षात्कारों से स्पष्ट है। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री, मुख्यमंत्री का सार्वजनिक मौन इसकी पुष्टि कर देता है। मौन स्वीकृति लक्षण।
एक भाजपाई विधायक दलित परिवार को ‘संस्कार’ का पाठ पढ़ा रहा है, दूसरा दोषियों को बचाने के लिए जाति की पंचायत कर रहा है। और कोई उन्हें रोकना नहीं चाहता बल्कि परदे के पीछे प्रोत्साहन साफ है।
मुख्यमंत्री की जाति और दोषियों की जाति का एक होना आज इस स्थिति का मुख्य कारण हो सकता है। धीरे-धीरे राजस्थान हो या जम्मू हो या उत्तरप्रदेश हर जगह अपराधियों को बचाने की जातिगत और सांप्रदायिक मुहिम सी चल पड़ी है। यह भी विशेषकर देश की भाजपा सरकार की ‘उपलब्धि’ है। अब तथ्यों की बात नहीं होगी क्योंकि तथ्य क्या हैं, यह जाति,धर्म और राजनीतिक दलों के बाहुबली तय करेंगे। मुख्यमंत्रियों के लिए भी न्याय की रक्षा नहीं, जाति की रक्षा पहली प्राथमिकता होगी। फिर इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सरकार किसकी है। धर्म के मामले में यह स्पष्ट रूप से होता दीख ही रहा था, अब इन छह सालों में ताकतवर जातियों के मामले में भी रहा-सहा संदेह खत्म हो रहा है। मुसलमानों के बाद दलितों को उनके हाथ में आई रही- सही राजनीतिक ताकत छीनने का वक्त लगता है,लाया जा चुका है।आदिवासी पहले ही लगभग किनारे हैं। मायावती भी कल मुख्यमंत्री बन गईं और मान लो,जिस उच्च कही जानेवाली जाति के साथ उनका उनका दीर्घकालिक गठबंधन का सफल-असफल प्रयोग चल रहा है,उस जाति के लडक़े,मान लो ऐसा कोई अपराध करेंगे तो वह भी थोड़ी चतुराई से सवर्णों को ही बचाएँगी।समाजवादी पार्टी ने अपने को यादवों का संरक्षक बना ही रखा है। थोड़ा-बहुत पर्दा है तो उसे भी तमाम दल हटा देंगे। भाजपा ने इसका राष्ट्रीय राजमार्ग खोल दिया है। फिर उत्तरप्रदेश क्या सारे भारत में यह और तेजी से होगा। सिर्फ अपराधी बचते रहेंगे। सभी जातियों की ताकत उन्हें बचाने में पूरी ताकत से लगेगी। आ गया रामराज्य, न्यू इंडिया, अच्छे दिन।
-विष्णु नागर
हिंदी लेखक शायद भारत का एकमात्र ऐसा प्राणी है, जिससे सबको मुफ्त सेवा चाहिए। हाँ धन्यवाद या थैंक्स जरूर कभी-कभी उसके हिस्से आ जाता है। वह भी सामने वाले की इच्छा पर है। धन्यवाद नहीं दिया तो लेखक उस पर मुकदमा तो नहीं कर देगा! करेगा तो लालची से लालची वकील भी भगा देगा : कहेगा आपका दिमाग तो ठीक है? इस न्यू इंडिया में दिमाग को ठीक रखना, लिखने से बड़ी चुनौती है।
ताजा संदर्भ यह है कि कल मेरे पास एक साहित्य संपादिका का संदेश आया कि आप फलां लेखक पर दो हजारों शब्दों का संस्मरणात्मक लेख एक सप्ताह में भेज दीजिए। अपना परिचय और तस्वीर भी साथ में। हमारे लिए यह संस्मरण एक उपलब्धि होगी और आगे भी हमें आपसे इसी तरह के सहयोग की अपेक्षा रहेगी। मतलब सारी अपेक्षाएं उन्हें लेखक से हैं। उन्हें लेखक का मोबाइल नंबर जरूर कहीं से मालूम है मगर लेखक का परिचय तक मालूम नहीं है,न वे गूगल पर उसकी तस्वीर ढूँढ सकती हैं। उन्हें मेरा या अन्य जिन लेखकों के बारे में कुछ पता नहीं होगा। बस किसी साहित्यप्रेमी ने उन्हें मेरा नाम और मोबाइल नंबर दे दिया है।ऐसा पहले भी कई बार हुआ है।
ऊपर से आग्रह 2000 शब्दों का भी है और समय भी एक सप्ताह का है। सब कुछ हम उनकी थाली में परोस दें और वे जीमने का कष्ट अवश्य कर लेंगे।
पूरे पत्र में भुगतान का कोई उल्लेख नहीं था। मैंने लिखा सम्मानजनक भुगतान करेंगे तो अवश्य लिख देंगे। जवाब आया हम तो खुद इस पक्ष में हैं.. अखबार नया है, यह जो रविवारीय संस्करण हम आरंभ कर रहे हैं वगैरह यानी मुफ्त में आप लिख दीजिए और लिखते रहिए। मैंने क्षमा माँग ली। उन्होंने इतना अवश्य किया कि शुक्रिया दे दिया।
यह सही है कि मैं अवकाश प्राप्त हूँ मगर अवकाश प्राप्त का अर्थ इतना खाली होना भी नहीं होता कि तुम अखबार चलाओ, मुझसे एक हफ्ते में दो हजार शब्दों का आलेख भी चाहो और मैं फटाफट लिखने बैठ भी जाऊँ और मिलने के नाम पर ठनठन गोपाल! आखिर क्योंं किसी व्यावसायिक संस्थान के लिए मुफ्त लिखें? तुम्हारा अखबार नया है वगैरह, यह मेरी जिम्मेदारी नहीं। और न आप इससे पहले मुझे जानते थे,न अब जानते हैं, क्यों करूँ यह तकलीफ। इस समय में कुछ बेहतर पढ़ूँगा, लिखूँगा और हो सकता है, मित्रों और परिवारजनों से गप ही लड़ाऊँ या टीवी देखूँ या सोशल मीडिया देखूँ। आपको फलां लेखक पर लिखवाना है तो जो लिखे, उससे लिखवाइए। और वैसे भी उन पर लिखने में मुझसे सक्षम बहुत हैं।
हाँ मेरा फेसबुक या अन्यत्र लिखा, मेरे कुछ मित्र छाप लेते हैं पूछ कर, यह अलग बात है। एक लेखक के तौर पर नये पाठकों तक पहुँचने की इच्छा भी रहती है लेकिन आप कमाई करेंगे तो एक लेखक को उसका पारिश्रमिक भी तो मिलना चाहिए। आप सबको पैसा देंंगे, बस लेखक को नहीं! वैसे हमसब लेखक बिना किसी आर्थिक या अन्य अपेक्षा के भी लिखते रहते हैं मगर वह जो लिखने को मन करता है, वह लिखते हैं और उन्हें देते हैं, जिनसे हमारा किसी तरह का कोई साबका है। वैसे फेसबुक पर लगभग रोज लिखता हूँ तो कोई आर्थिक क्या कोई और अपेक्षा भी नहीं रहती। कुछ रचनात्मक लिखा और किसी ने कहा कि हमें कुछ दीजिए और मन किया कि इसे छपवा लेने में बुराई नहीं तो सादर दे दिया मगर किसी के आदेश पर उनके बताए विषय पर क्यों लिखें?और आप क्या हैं,कौन हैं, हम नहीं जानते। आप भी हमारे बारे में कुछ नहीं जानते।
लिखने के बदले पारिश्रमिक मिले, तब भी यह लेखक का चुनाव होगा कि वह लिखे या न लिखे। और कहाँ लिखें, कहाँ न लिखे।
हिंदी जगत में लेखक से हर कोई मुफ्तिया काम करने की अपेक्षा रखता है। कितने हैं,जो उसके बदले कुछ देना चाहते हैं?और देते भी हैं तो क्या वह अक्सर सचमुच सम्मानजनक होता है? प्रकाशक आमतौर पर रायल्टी देना नहीं चाहते। देते भी हैं तो मात्र बहलाते हैं, उस राशि बताते हुए भी शर्म आती है, जबकि उन्हें देते हुए शर्म नहीं आती। छोटी पत्रिकाओं के लिए आप कुछ लिखते हैं तो यह मानकर ही चलते हैं कि अंक की एक प्रति मिलेगी। वही आपका पारिश्रमिक है मगर कई लघु पत्रिकाएं इतना सार्थक काम कर रही हैं कि उनका सहयोग करने की इच्छा रहती है।और सहयोग करते ही हैं तमाम लेखक।इस तरह हिंदी का कोई भी लेखक काफी मुफ्त सेवा करता रहता है मगर इसका अर्थ यह भी नहीं कि हर कोई उसे लिखनेत्सुक समझ ले, टेकन फार ग्रांटेड ले ले!
एक तरह से लेखक को सामान्यत: उसके परिश्रम का कोई प्रतिदानतो नहीं ही मिलता, ऊपर से तोहमतें भी उसे ही सबसे ज्यादा मिलती हैं। ऐसा क्यों कर दिया, क्यों कह दिया,क्यों लिख दिया, वहाँ क्यों चले गए, वहाँ क्यों नहीं गए, उसकी प्रशंसा या निंदा क्यों कर दी। बाकी रचनात्मक काम करने वालों के बारे में तो मानकर चला जाता है कि उन्हें तो समझौते करने ही हैं मगर लेखक का जरा सा विचलन उसे जनवादी से कलावादी और कलावादी से अलेखक बना दे सकता है।
-विष्णु नागर
मोदीजी की सबसे बड़ी खूबी यह है कि उन्हें एक वही काम नहीं आता,जो उन्हें आना चाहिए, बाकी सारे काम आते हैंं। मसलन वे प्रधानमंत्री हैं। उन्हें इसका भरपूर से भी भरपूर फायदा उठाना आता है मगर इस नाते जो उन्हें आना चाहिए, वह नहीं आता। मसलन वे प्रधानमंत्री बने, तब इकनॉमी ठीक-ठाक चल रही थी। उनके होते हुए भी यह इसी तरह चलती रहे, यह उन्हें बर्दाश्त नहीं हुआ। उन्हें इकानामी पर अपनी मोहर लगवाना थी। उन्होंने फटाफट नोटबंदी की और कहा कि देखो अभी इससे कालाधन छूमंतर हुआ जाता है और साथ में आतंकवाद भी गायब हो जाएगा। कोई बात नहीं करोड़ों लोग हैरान-परेशान हुए, कुछ लाइन में लगे- लगे मर गए, तो क्या! मरना -जीना तो ऊपरवाले के हाथ में है, एक्ट ऑफ गॉड है। चलो अब जीएसटी ले आते हैं। व्यापारियों की समस्या एक ही झटके मेंं खत्म। ये अलग बात है कि इससे व्यापारी ही खत्म हो जानेवाले थे। वह तो शुक्र है कि बालों-बाल बच गए। इतने से संतोष नहीं हुआ तो सारे देश में लॉकडाउन करवा दिया। कहा कि व्यापारी भाइयो, इस बार बर्बादी में तुम अकेले नहीं हो, फैक्ट्री-कारखानेदार, मजदूर, रेहड़ीवाले सभी शामिल हैं। तुम्हारे मन को इससे शांति मिलेगी कि बर्बादी संयुक्त है। जीएसटी की तरह इस बार तुम अकेले नहीं हो। और दिखाऊँ काबिलीयत, चलो इकॉनामी को मैं शून्य से भी नीचे-27 पर ले आता हूँ। अब खुश! नहीं? चलो अभी वक्त है। मेरे कमाल देखते जाओ।
अब क्या-क्या गिनाएँ उनकी ऐसी महान ‘उपलब्धियाँ’! यह विषय इतना विस्तृत और गहन है कि इस पर ‘मोदी चरित मानस’ की रचना संभव है। इसके लिए आधुनिक तुलसीदास चाहिए और जहाँ तक दृष्टि जाती है, कोई दीखता नहीं। वैसे मोर और अन्य कविताएँ लिखकर मोदीजी ने साबित कर दिया है कि अपने मानस के तुलसीदास वे स्वयं हो सकते हैं। यह काम वे लॉकडाउन में करें तो यह रचना अमरग्रंथों की श्रेणी में सम्मिलित हो जाएगी। इससे भक्तों के सामने संकट पैदा हो जाएगा कि वे रामचरित मानस पढ़ें या ‘मोदीचरित मानस’!
तो खैर इस तरह वह देश की सारी समस्याएँँ ‘हल’ करते चले जा रहे हैं। रुके नहीं, थमे नहीं, पीछे मुडक़र नहीं देखा कभी। बेरोजगारी एक बड़ी भारी समस्या थी, चाय-पकोड़ा उद्योग का पुनरुत्थान करके उसे हल कर दिया। कोरोना को उन्होंने ताली-थाली बजवाकर छूमंतर करा दिया। और जो समस्याएँ छूमंतर नहीं हो सकींं, उनके लिए जवाहर लाल नेहरू जिम्मेदार थे! फिर भी उन्होंने अपने ऊपर नेहरूजी के बनाए सरकारी उपक्रमों को बेचने की जिम्मेदार ली और बेशक उसे मन-प्राण से पूरा कर रहे हैं। और जहाँ वे कुछ नहीं कर पाए, वहाँ कम से कम नाम तो बदलवा ही दिए। रेसकोर्स रोड अब लोककल्याण मार्ग है। मुगलसराय स्टेशन अब दीनदयाल उपाध्याय स्टेशन है।योजना आयोग अब नीति आयोग है। सूरज का नाम सूरज और चाँद का नाम चाँद इसलिए है क्योंंकि ये नाम न नेहरू जी ने दिए थे, न मुगलों ने!
ऐसे सारे काम मोदीजी को खूब आते हैं। जंगल कटवा कर प्रकृति से प्रेम करना आता है। मोर पर कविता लिखना आता है। नगाड़ा बजाना आता है।योग करना और करवाना आता है। अंबानी के प्राडक्ट का विज्ञापन करना और अडाणी के खिलाफ सारे केस पक्ष में निबटवाना आता है। डिजाइनर कपड़े पहनना आता है। गुफा में तपस्या करना आता है। ज्ञान बघारना तो उन्हें इतना आता है कि बड़े-बड़े विद्वान शर्म से चुल्लू भर पानी में डूबने की ट्रेनिंग ले रहे हैं। मन है नहीं मगर मन की बात करना आता है। कभी अपने को इस योजना, कभी उस कार्यक्रम के माध्यम से लांच और रिलांच और रि-रि-रि लांच करना आता है। ऊँची से ऊँची मूर्ति बनवाने में उनका सानी नहीं। बच्चों को परीक्षा पास करवाना और खुद फर्जी डिग्री लेना आता है। भाषण देना और उसमें विशेष रूप से फेंकने की कला में उनका स्थान वही है, जो कला में पिकासो और कविता में कालिदास का है। फर्जी को असल बनाना उन्हें आता है। जरूरी बातों पर चुप रहना और फालतू बातों पर ट्वीट पे ट्वीट करना आता है। मीडिया से लेकर अदालत तक के मैनेजमेंट के वह जगद्गुरु हैं।उन्हें वह सब करना भी आता है, जिसका वे प्रधानमंत्री पद बनने से पहले विरोध करते थे। उन्हें अपने सारे विरोधियों को नाना प्रकार से ‘ठीक’ करना आता है।उन्हें ट्रंपादि चुनिंदा लोगों की झप्पीशप्पी इतनी जोर से लेना आता है कि सामने वाले की साँस घुट जाए! आँकड़ों और झूठ का घनघोर उत्पादन करने वाला तो उनके जैसा पराक्रमी देश के इतिहास में कभी हुआ नहीं। हिंदू-मुस्लिम करना तो जैसे उनके डीएनए में है।
इसके अलावा वह हर हफ्ते-पंद्रह दिन में एक नया नारा ईजाद करते हैं। परेशानी के बायस बन चुके नारों को लोग किस प्रकार भूलें, ये कला उन्हें आती है। उन्होंने आज तक ये इंडिया और वो इंडिया और वो भी इंडिया, ऐसे न जाने कितने इंडिया बनवा डाले हैं कि उन्हें भी अब याद नहीं कि ऐसे कितने बन और मिट चुके हैं। अभी ‘न्यू इंडिया’ बना रहे थे, अभी-अभी आत्मनिर्भर इंडिया बनाने लगे। एक- दो महीने बाद कोई और इंडिया बनाने लगेंगे। उनसे जो चाहे बिकवा लो, इंडिया तो बिकवा ही लो मगर इस नारे के साथ बिकवाना पड़ेगा कि मैं देश नहीं बिकने दूँगा।
-विष्णु नागर
भक्तों और वोटरों को इस सच्चाई की गाँठ बाँध लेना चाहिए कि लोकतंत्र वगैरह तो सब ठीक है। तुम-हम वोट देते हैं, यह भी ठीक ही है मगर सच ज्यादा संगीन है। हमें मालूम है मगर हम इसे स्वीकार नहीं करते, भक्त तो आज बिल्कुल ही मंजूर नहीं करेंगे कि वोट नहीं, बड़े सेठों के नोट लोकतंत्र का असली सारतत्व बन चुके हैं। इस भयानक मंदी में जब अर्थव्यवस्था माइनस 27 तक आ पहुँची है, जो आजादी के बाद आज तक नहीं हुआ था, मगर सेठ मुकेश अंबानी की संपत्ति फिर भी बढ़ रही है। देश डूब रहा है, वह विदेशी कंपनियाँ खरीद रहा है। तुम्हारी छोटी-मोटी नौकरी चली जाती है, धंधा पिट जाता है। कई आत्महत्या कर चुके हैं और कई और करेंगे अभी लेकिन सेठ साहब जीडीपी, भारत और वैश्विक मंदी से परे जा चुके हैं।
समस्त सेठ समाज अभी भी लगभग खुश है। नाराजगी थोड़ी है, वह औपचारिक है, दोस्ताना है। क्यों? क्योंकि तुम्हारे वोट और तुम्हारे हिंदुत्व से ज्यादा ताकतवर है, सेठ का पैसा, उसका समर्थन। जिस दिन सेठों ने तुम्हारे हिंदुत्व से हाथ खींच लिया, तुम्हारा हिंदुत्व भाँप की तरह आकाश में विलीन हो जाएगा और हाँ तुम्हीं हमसे ज्यादा हिंदुत्व विरोधी नजर आओगे, हाँ तुम्हीं। मोदीजी को गाली देने वालों की अग्रिम पंक्ति में हमसे आगे तुम रहोगे।
इन एंकर-एंकरानियों की भक्ति और वीरता कटी पतंग की तरह गोते खाते हुए नीचे आ जाएगी, माइनस के भी माइनस में चली जाएगी। ये एंकर-एंकरानियाँ मोदीजी की कृपा पर नहीं,चैनल मालिक की मेहरबानी पर निर्भर हैं। ये सेठ चाहें तो जिसको चाहें, धूल चटा दें और पहले अच्छे -अच्छों को चटाई भी है। हिंदुत्व तुम्हारे लिए है, ईज आफ डूइंग बिजनेस, आत्मनिर्भरता उनके लिए है। सेठ हिंदुत्व से पगलाया हुआ नहीं है, उसे यह भी ‘सूट’ करता है, इसलिए चुप है, समर्थक जैसा नजर आता है। जिस दिन हिंदुत्व उसे भार की तरह नजर आएगा,वह मोदीजी से कहेगा, रिवर्स गेअर में गाड़ी ले लो और मोदीजी खुशी-खुशी ले लेंगे। और नहीं लेंगे तो देखना जो विकल्पहीनता तुम्हें-हमें आज नजर आती है, अचानक भारत में विकल्पों की भरमार हो जाएगी। इस खेल को जो नहीं समझता, समझना नहीं चाहता, उसके लिए शब्द तो मेरे पास हैं मगर लिखूंगा नहीं।
विष्णु नागर
वही जस्टिस अरुण मिश्रा-जो प्रशांत भूषण मामले के कारण कुचर्चित होकर अवकाश ले चुके हैं-उनका एक और विवादास्पद निर्णय आया है-दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में रेलवे के किनारे बसी 48 हजार झुग्गी झोपडिय़ों को हटाने के बारे में।सरकार का पक्ष है कि राजनीतिक दखलअंदाजी के कारण ये झुग्गी झोपडिय़ाँ बसी हुई हैं।
मैं इन झुग्गी झोपडिय़ों के पक्ष में हजार तर्क नहीं दूँगा मगर एक सवाल उठाऊँगा-जो मशहूर जनपक्षधर अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज उठाते रहे हैं-कि सरकार कोई हो, अदालत कोई हो, उसके निशाने पर हमेशा झुग्गी बस्तियाँ क्यों रहती हैं? हर शहर में और हमारे दिल्ली महानगर में लाखों कारें और स्कूटर-मोटर साइकिलें वगैरह बारहों महीने सडक़ और पटरियों को घेरे रहती हैं। इस पर किसी सरकार का ध्यान क्यों नहीं जाता? जाएगा भी नहीं। किसी अदालत का भी नहीं जाएगा। आदेश कभी निकलता भी है तो अगले दिन फुस्स हो जाता है।
वजह है मध्यवर्ग-उच्च मध्यवर्ग की मजबूत, हल्लेबाज ब्रिगेड। वह सरकार की हवा टाइट कर देगी।मोदीजी जैसे शूरवीरों को भी जगह दिखा देगी। दूसरा यह वाहन उद्योग बहुत ताकतवर है।खरबों रुपये इसमें लगे हैं-देशी कम, विदेशी उद्योगपतियों के। चाहे जितना प्रदूषण फैले, चाहे जितनी दुर्घटनाओं में चाहे जितने लोग मरें, वैश्विक स्तर पर सरकारों में सहमति है कि किसी भी कीमत पर इसे बढ़ाना है। इसके लिए कोई कीमत अधिक नहीं। तीसरा इस तरह के निर्णय से कारपोरेट हित भी जुड़े हैं। झुग्गियों से जो जमीन खाली होगी, वह रेलवे निजीकरण की प्रक्रिया में कारपोरेट जगत को लाभ देगी और कारपोरेट जगत के लाभ में सरकार का और विपक्ष का, दोनों का हित है।
समान नहीं,तो असमान सही, मगर है।
और गरीबों की कोई लाबी तो है नहीं,चाहे उनकी तादाद करोड़ों में हो। ज्यादा से ज्यादा झुग्गी उजाड़ोगे तो वे रो लेंगे। गुस्सा करेंगे, तोडफ़ोड़ करेंगे, कुछ मर जाएँगे, कुछ मार दिए जाएँगे। गोदी चैनल इनके खिलाफ मुसलसल आंदोलन चला देंगे।
एक रवीश कुमार इनके पक्ष में ज्यादा से ज्यादा दो दिन-तीन दिन करुण दृश्य दिखा देगा। दो चार एनजीओवालों-वकीलों को बोलने का मौका दे देगा। रवीश को भी मालूम है कि इससे कुछ होगा नहीं।
उधर कारें, स्कूटर, मोटरसाइकिलें बदस्तूर सडक़ों-पटरियों को घेरे रहेंगी। उनसे किसी नियम कानून का उल्लंघन नहीं होगा, चाहे आप देश की ऊँची से ऊँची अदालत जाकर देख लो, सडक़ पर आंदोलन करके देख लो। ज्यादा करोगे तो हममें से कोई अर्बन नक्सल बना दिया जाएगा। पड़े रहो जेल में। होगा वही,जो जयश्री राम चाहेंगे और जयश्रीराम का मतलब यहाँ राजनीतिक राम हैं,भाजपा के, मोदीजी के राम हैं। राम भी सबके अलग-अलग हैं अब।
-विष्णु नागर
किराए के घर बदलने का सबका अपना- अपना एक दिलचस्प इतिहास होता है। मेरा भी है।
शाजापुर में तो जैसा भी था, अपना मकान था, घर था। घर बदलना क्या होता है, किराएदार होना क्या होता है, इसका कोई अनुभव नहीं था। वहाँ ज्यादातर दोस्तों के अपने मकान थे। कुछ के पिता छोटे-मोटे अफसर थे, उनके पिता का स्थाानांंतरण होता रहता था, इसलिए वे किराए के मकानों मेंं रहते थे मगर दोस्त खुद तब किराएदार-मकानमालिक संबंधों के बारे में कुछ जानते न रहे होंगे। कभी यह विषय हमारी बातचीत में आया नहीं। वहाँ उस समय वैसे किराएदार मिल जाना ही बड़ी बात थी, तो तंग भी कौन करता! हमारे कच्चे मकान में भी आठ, दस और पाँच रुपये महीने के तीन किराएदार थे मगर मेरी माँँ ने उन्हें कभी तंग किया, यह याद नहीं।
दिल्ली आने के बाद ही मैं किराएदार बना, घर पर घर बदले। उनकी गिनती करने बैठूँगा तो शायद गड़बड़ा जाऊँ। बहुत आरंभ मेंं करीब एक महीने तक नार्थ एवेन्यू के एक फ्लैट की छत पर रात को सोनेभर की सुविधा मिली। नित्यकर्म की सुविधा भी वहाँ नहीं थी लेकिन कडक़ी के दिनों में सोने का ठिकाना मुफ्त में मिला तो शिकायत कैसी? शुक्रिया सर्वेश्वरजी, शुक्रिया कमलेशजी। आप दोनों इस दुनिया में नहीं हैं तो क्या हुआ, शुक्रिया।
उसके बाद हमारी सवारी किराए के मकान के लिए पहली बार यमुना पार के लिए चली।तब कहावत थी कि सारे दुखिया जमना पार।हम कौनसे तब सुखिया थे, सो उधर ही चल पड़े। ऐसे ही घूमते -घामते ,पूछते एक गली के एक छोटे दूकानदार के पास पहुँचे। उसने अभी-अभी कुछ एक-एक कमरे किराए पर देने के लिए बनाए थे। मेरे सीमित साधनों की दृष्टि से वह कमरा अच्छा लगा।टीमटाम कुछ था नहीं अपने पास। दिन में तो सब वहाँ सुहावना था। रात को वहाँ भयंकर मच्छर थे। उनसे बचाव का अपने पास कोई साधन नहीं था। दो दिन में वह घर बदला। उसका किराया था- तब 30 रुपये महीना। मकान मालिक से शिकायत की तो उस भले आदमी ने कहा, एक और कमरा है मेरे पास खाली पर यह उससे छोटा है। किराया 20 रुपये महीने।सीधे दस रुपये महीने की बचत मुझे हो रही थी। रहे होंगे उस कमरे में कोई छह महीने या शायद ज्यादा। अस्थायी रूप से आर्थिक स्थिति कुछ सुधरी तो एक बेहतर जगह छत पर एक कमरा और किचन ले लिया। इस बीच माँ को भी ले आया। इस बार किराया था 60 या पैंसठ रुपये। मकान मालिक- खासकर मालकिन काफी भली औरत थी। मुझे बहुत सीधा-अच्छा लडक़ा मानती थी, जो मैं था भी (मियांमि_ू) मगर सारा गड़बड़झाला मकान मालिक की लडक़ी ने किया। वह तब रही होगी- कोई चौदह-पंद्रह साल की। मैं इक्कीस का। उसकी बड़ी बहन एक और किराएदार से प्रेम करती थी। वह छोटामोटा व्यापारी था। उसकी माँ को भी इस प्रेम का पता था। वह खुद भी चाहती थी, यह मामला बढ़े और शादी तक पहुँचे। दोनों परिवार पंजाबी थे।
इधर उसकी छोटी बहन को भी बड़ी से प्रेम करने की प्रेरणा प्राप्त हुई होगी। उसे मैं इसका सुपात्र नजर आया। वह मेरी अनुपस्थिति में मेरी माँ का हालचाल लेने के बहाने आई और किताबों के बीच प्रेमपत्र रख गई। शाम को आया तो देखा।
अब अपना सीधापन एक न एक दिन गायब होना ही था। प्रेम घर चलकर आए तो हम भी कैसे रुक सकते थे! इतने भी सीधे, इतने भी बेवकूफ नहीं थे। अपनी और उसकी प्रेम करने में योग्यता-अयोग्यता, खतरे और संभावना पर विचार कौन करता तब!
उसी फ्लोर पर एक और शादीशुदा, दो बच्चोंवाले परिवार का मुखिया हमारे इस बढ़ते प्रेम का दुश्मन बना हुआ था। वह अपने कमरे के दरवाजे और खिडक़ी को हल्का सा उघड़ा रखता था। प्रेमिका ने इन दिनों छत पर कपड़े सुखाने की जिम्मेदारी ले रखी थी। वह आती और हम उसके नजदीक जाकर कुछ कहने की कोशिश करते तो वह हरामी खाँसखुँस कर रेड अलर्ट जारी कर देता। अरे भई तू शादीशुदा, तेरी बीवी सुंदर, तेरे दो बच्चे हैं। उम्र तेरी कोई बत्तीस-पैंतीस साल। मकान मालिक की तीन में से कोई लडक़ी, उस नाटे खूसट से प्रेम करे, इसकी कोई संभावना नहीं। तू भी किराएदार, हम भी किराएदार। तो तू काहे को दालभात में मूसलचंद बना हुआ है! ईष्र्या हो रही हो तो बीवी से ज्यादा प्रेम कर, बच्चों पर ध्यान दे और अपनी दुकान पर जा, खा-पी, मौज कर। पर नहीं साहब। जासूसी में लगे हुए हैं। उसे इस काम पर मकान मालिक ने लगानहीं रखा था, फिर भी स्वयंसेवक बने हुए हैं, चौकीदार बने हुए हैं।
उस चौकीदार ने हालत यह कर दी कि हम उसके हाथ भी क्या दो चार उँगली को जरा सा छूने से आगे न बढ़ सके।बस खतोकिताबत तक मामला सिमटकर रह गया। वह उस लडक़ी की माँ को भी भड़ाकाता था मगर हमारा उन पर इंप्रेशन इतना अच्छा था कि इसका उन पर कोई असर नहीं हो रहा था,यह बाद में पता चला। वह मान ही नहीं सकती थी कि मैं यानी यह नौजवान ऐसी ‘नीच’ हरकत भी कर सकता है!भली औरतों के ऐसे भोलेपन की अभ्यर्थना ही की जा सकती है।
मामला प्रेमपत्रों का हो और लंबा चले तो एक न एक दिन भांडा फूट ही जाता है पर इस सत्य का ज्ञान तब नहीं था। ज्ञान होता भी तो ज्ञानी बने रहना संभव नहीं था। एक दिन बालिका नहा रही थी। बाथरूम का ऊपर का हिस्सा हमेशा से खुला रहता था। इतनी ही हिम्मत थी कि प्रेमपत्र फेंकने का साहस किया। बालिका की उस पर नजर नहीं पड़ी। पत्र बाथरूम में पड़ा रहा और बालिका नहाकर बाहर आ गई।बस जी हमारे भलेपन की शामत आ गई। मकान मालकिन ने होहल्ला मचाना रणनीतिक दृष्टि से उचित नहीं समझा। वह मेरे पास आईं और धमकाया कि जान बचाना हो तो आज ही मकान ढूँढ कर सामान ले जा। इसके बाप को पता लगा तो तुझे काट डालेगा। और मैं तुझे सीधा समझती थी, यह तो दोहराया ही और बताया भी कि तेरी शिकायत तो मिली थी पर मैंने विश्वास नहीं किया। हम प्रेम में कटने-मरने तो आए नहीं थे दिल्ली। फौरन रणजीत नगर में नया मकान ढूँढा, सामान समेटा। वहाँ फायदा यह था कि पास ही शादीखामपुर में नेत्रसिंह रावत रहते थे, मेरे अभिन्न। उनके यहाँ जाना-मिलना आसान हो गया।
कान पकड़े कि अब से मकानमालकिन की लडक़ी या पड़ोसन से प्रेम नहीं करेंगे और इस एक प्रतिज्ञा पर हम अटल रहे। रंजीत नगर में एक कमरा -किचन था। शायद किराया 80 रुपये था।पास में एक और परिवार रहता था। उसका मुखिया एक दर्जी था। उसकी दो लड़कियाँ थीं। बड़ी कर्कशा थी, छोटी बेहद सीधी सादी, डरपोक। छोटी स्कूल जाती थी, बड़ी नहीं मगर छोटी बहन पर बहुत हुकुम चलाती थी। छोटी बेचारी जवाब नहीं दे पाती थी। सहती रहती थी। छोटी पर दया आती थी और प्रेम भी उमड़ता था। आँखों-आँखों में वह शायद समझ भी गई होगी मगर हमने इस बार कोई रिस्क नहीं ली। दूध के जले थे, तो हमने छाछ को फूँक-फूँक कर पीना भी मुनासिब नहीं समझा। छाछ को छुआ तक नहीं। प्रेम के क्षेत्र में कायर बने रहे क्योंकि पहले प्रेम के प्रेमपत्र के अलावा कुछ पल्ले नहीं पड़ा था।कुल ठोस उपलब्धि यही थी।
फिर शायद कम किराए के मकान के चक्कर में उसी इलाके में दूसरा कमरा लिया, उसमें किचन नहीं था। कुछ महीने ही रहे होंगे कि टाइम्स ऑफ इंडिया समूह में प्रशिक्षु पत्रकार की नौकरी के लिए बंबई प्रस्थान किया। दिलचस्प बात यह थी कि आखिरी दिन हमारे सामने रहनेवाली किसी अधेड़ औरत को पता चला कि हम सबकुछ छोड़छाड़ दिल्ली से जा रहे हैं। माँ भी मेरे साथ थी तो घर में कुछ सामान भी था। अचानक उसका हमारे प्रति प्रेम और सहानुभूति उमड़ पड़ी। वह मदद के लिए आ गई और जो भी हमारे पास छोडक़र जाने लायक सामान था, वह गरीब औरत माँगकर ले गई। एक तरह से उसने हमारी समस्या कम की।
ये था किस्सा आजतक। इंतजार करें कल तक।...
-विष्णु नागर
यह देश आजकल सुशांत सिंह राजपूतमय है।आज की तारीख में सुशांंत की आत्महत्या इतना पापुलर सब्जेक्ट है कि उसने मोदीजी की ‘पापुलरिटी’ को पीछे ढकेल दिया है। पहले टीवी चैनल और अखबार मोदीजी से शुरू होकर मोदीजी के एजेंडे पर खत्म होते थे। फिलहाल देश के हालात 180 डिग्री बदले हुए लग रहे हैं। अब सुबह होती है, शाम होती है, रात होती है, सुशांत-सुशांत-सुशांत सुनते- सुनते जिंदगी तमाम होती है। यही कारण है कि मेरा विषय भी इस बार बदला हुआ है। सबको समय के साथ चलना पड़ता है, चाहे समय साथ चले, न चले। क्षमा करें मोदीजी इस बार चाहकर भी पूरी तरह आपकी सेवा में उपस्थित नहीं हो पा रहा हूँ। इसका मुझे अपार दुख है मगर इसके लिए मैं नहीं आपकी सीबीआई, ईडी, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो, आपके सुब्रमण्यम स्वामी, आपकी परमभक्ता कंगना रनौत, आपके टीवी चैनल, अखबार सब जिम्मेदार हैं। सबने मिल कर इस सोये हुए लेखक को जगा दिया है कि हे मूरख मोदी-मोदी क्या करता है, सारी दुनिया आज सुशांत- सुशांत कर रही है और तू इस हकीकत से मुँँह फेरे बैठा है। तू भी सुशांत-सुशांत कर।
वाकई वे सही हैं। सुशांत की आत्महत्या को ढाई महीने से ज्यादा हो गए हैं मगर चौबीस घंटे चलनेवाला यह सीरियल इतना अधिक पापुलर है कि लगता है कि कोरोना खत्म हो सकता है मगर ये खत्म नहीं होगा। रहस्य, रोमांच, रोमांस, फाइट, कामेडी सब के सब मसाले इसमें इतनी अच्छी तरह समाहित हैं कि इसे स्पांसर की कोई कमी नहींं। ऐसी हालत में अगर यह 2024 तक भी चलता रहे तो आश्चर्य नहीं और ऐसा हुआ तो खतरा यह है कि जनता कहीं यह न कहने लगे कि मोदीजी जाओ, सुशांतजी आओ। आपके हितचिंतक होने के नाते मैं यह बात आज ही बताए दे रहा हूँ, कल मत कहना कि नहींं बताया था। आपको असली चुनौती अब राहुल गाँधी नहीं, सुशांत सिंह दे रहा है। जो आज मेरी बात पर हँस रहे हैं कि कोई देश मर चुके आदमी को भी कभी प्रधानमंत्री बना सकता है, तो वे 2024 तक इस सीरियल की पापुलरिटी बनाए रखकर खुद नतीजा देख लें।उन्हें असलियत का पता चल जाएगा।मौत के बाद ऐसी जबरदस्त पापुलरिटी पानेवाला कोई भी शख्स उस दुनिया मेंं चैन से नहीं बैठ सकता और इस दुनिया में आए बगैर रह नहीं सकता!
सुशांत सीरियल की, मोदी सीरियल से ज्यादा पापुलरिटी होने की ठोस वजह है। मोदीजी अपने सीरियल में अकेले ही सबकुछ कर लेज्ञते हैं। एक्टर, एक्ट्रेस, कैरेक्टर एक्टर, विलन, निर्देशक, कैमरामैन, स्पाटबाय, स्क्रिप्ट राइटर, ड्रेस डिजाइनर, बैकग्राउंड म्यूजिशियन, लाइटमैन यानी सब वही होते हैं।वह किसी के लिए कुछ छोड़ते नहीं क्योंकि कोरोना-काल में भी उन्हें दिन में अ_ारह घंटे काम करने का रिकॉर्ड मेनटेन करना है। उधर मरणोपरांत सुशांत सिंह ने ऐसी कोई कसम नहीं खाई है! अपने सीरियल का हीरो वह जरूर है मगर बाकी सारे रोल उसने दूसरों को दिए हैं। रिया चक्रवर्ती डबल रोल में है। वह हिरोइन भी है और प्राण का महिला अवतार भी। सुशांत ने अपने पिता, बहन, वकील, आदित्य ठाकरे, महेश भट्ट, शाहरुख खान, करण जौहर, बिहार पुलिस, महाराष्ट्र पुलिस, सीबीआई, ईडी, ड्रग कंट्रोल ब्यूरो के अधिकारियों, एंकरों, क्राइम रिपोर्टरों आदि सबको एक्टिव रोल दे रखा है। इनमें से कुछ के लिए तो अभिनय का यह पहला मौका है और रोल धाँसू मिला है। मंजे हुए अभिनेताओं ने भी इसे पुण्य का काम समझ कर फीस लेने से मना कर दिया है। अभी भी वेकेंसीज बची हैंं। सीरियल आगे बढ़ता जाएगा, एक्टर बढ़ते जाएँगे। इस सीरियल में कोई पर्दे पर आकर फिर गुम नहीं हो जाता, इसलिए इसके फेल होने का कोई चांस नहीं है। वह सीरियलों में फिल्म ‘शोले’ है। इसके अलावा दोनों सीरियलों में एक बड़ा फर्क और भी है। मोदीजी का सीरियल आता है तो अभक्त कोटि के हम अधम मनुष्य टीवी बंद कर देते हैं मगर भक्तगण अगरबत्ती जलाकर, आलथी-पालथी मारकर प्रणाम की मुद्रा में मोदी वचनामृतों का पान करते हैं। सुशांत सीरियल को भक्त हो या अभक्त, सब लोग खा पीकर, रिलैक्स होकर आराम से बैठकर देखते हैं। सासें, बहुओं से कहती हैं : ‘बहू, छोड़ काम, बाद में कर लेना। तू तो आ मेरे पास आ और बैठ के ये देख’। बहुओं के सामने ऐसे अद्भुत क्षण जीवन में यदाकदा ही आते हैं। वे भी सास के आग्रह पर उनके पैर छुकर बगल में बैठ जाती हैं। किसी को कोई टेंशन नहीं होता। इसलिए भी यह फेल नहीं हो सकता।
वैसे भी आज की तारीख में देश की सबसे बड़ी कोई चिंता है तो सुशांत की आत्महत्या है। कोरोना नहीं, बेरोजगारी और अर्थव्यवस्था नहीं, चीन नहीं, पाकिस्तान नहीं। राममंदिर तक बताइए ठंडे बस्ते में है। उधर खतरा मोदीजी के द्वार पर दस्तक दे रहा है कि मोदीजी संभलो, सुशांत से बचो। अभी भी वक्त है। वैसे खतरा अमिताभ बच्चन, सलमान खान आदि की पापुलरिटी को भी कम नहीं है। वे भी संभल जाएँ तो उनके फिल्मी भविष्य के लिए अच्छा है!
साठ साल का सफर पूरा कर 'कादम्बिनी' आखिर लाकडाउन की बलि चढ़ा दी गई- बाल पत्रिका 'नंदन' के साथ। 'कादम्बिनी' से हालांकि मेरा संबंध बारह साल पहले ही छूट गया था और अब वह पत्रिका मुझे भेजा जाना भी बंद हो चुका था मगर उसके अतीत से पहले पाठक के रूप में और बाद में उसके संपादक के समकक्ष जिम्मेदारी संभाल चुकने के कारण उससे एक लगाव था, इसलिए यह खबर मेरे लिए भी दुखद है।टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की राह पर देर से ही सही, हिंदुस्तान टाइम्स समूह भी आ गया। कादम्बिनी प्रबंधन की उपेक्षा का शिकार तो मेरे कार्यकाल से पहले ही होने लगी थी।मेरे समय महीने में एक या दो बार कादम्बिनी का जो विज्ञापन हिन्दुस्तान टाइम्स और हिंदुस्तान में छपता था, उसे भी बाद में बंद कर दिया गया था। उसका आकार तथा कुछ और परिवर्तन मेरे न चाहते हुए भी किए गए थे कि इससे नये विज्ञापन आएँगे। न विज्ञापन लाए गए, न प्रसार संख्या बढ़ाने के कोई प्रयास हुए। खैर। वैसे लिखना तो चाहता था कादम्बिनी से अपने संबंधों के बारे में पहले ही मगर टलता रहा और कल वह दिन भी आ गया कि उसकी अंत्येष्टि के बाद श्रद्धांजलि देनी पड़ रही है।
मेरे आरंभिक दिनों में बच्चों के दो ही मासिक ऐसे थे, जो आकर्षित करते थे-पराग और नंदन। चंदामामा भी काफी मशहूर था,उसका बड़ा पाठकवर्ग था मगर वह मेरी पसंद कभी नहीं बन सका। इसी प्रकार सांस्कृतिक मासिकों में कादम्बिनी और नवनीत थे। मैं कोई 1965 के आसपास कादम्बिनी का पाठक बना हूँगा। जब मैंने कादम्बिनी पढ़ना शुरू किया था, तब इसके संपादक रामानंद दोषी हुआ करते थे और तब मुझे यह पत्रिका नवनीत के साथ ही अच्छी लगती थी। कहना कठिन था कि कौनसी बेहतर थी।कब राजेन्द्र अवस्थी कादम्बिनी के संपादक बने और उनके रहते आरंभ में यह पत्रिका कैसी थी, यह मेरी स्मृति में दर्ज नहीं है। 1997 में हिन्दुस्तान अखबार से जुड़ने के बाद भी इसमें कोई दिलचस्पी पैदा नहीं हुई क्योंकि इसकी छवि प्रबुद्ध लोगों में खराब बन चुकी थी। यदाकदा इसे पलटकर भी यही छवि पुष्ट होती थी। अवस्थी जी शायद बिक्री के फार्मूले के तौर पर उसे जादूटोना, तंत्रमंत्र,ज्योतिष आदि की पत्रिका बना दिया था, खासकर अपने आखिरी कुछ वर्षों में। इस कारण चिढ़ सी पैदा हो गई थी।क्या पता था कि मैं भी कभी इससे जुड़ूँगा!
मैं तो दैनिक हिन्दुस्तान में विशेष संवाददाता था, जो मैं नवभारत टाइम्स में भी था। तत्कालीन संपादक लाए थे, कुछ कहकर, कुछ सोचकर। उन्हें करने नहीं दिया गया या जो भी रहा हो, इस संस्थान में आना तब कुल मिलाकर घाटे का सौदा ही लग रहा था। तब नवभारत टाइम्स की जो साख थी, वह हिन्दुस्तान की नहीं थी।खैर आए तो काम तो करना ही था। तब हिन्दुस्तान टाइम्स समूह और टाइम्स ऑफ इंडिया समूह दोनों की छवि यह थी कि यहाँ की नौकरी, सरकारी नौकरी जितनी ही पक्की है और यह बात तब के लिए सही भी थी। दोनों संस्थानों में यूनियनों का दबदबा था। हिन्दुस्तान टाइम्स समूह में तो कुछ ज्यादा ही था।इस कारण यहाँ आने पर भी नौकरी छूटने का डर नहीं था।
जो मुझे लाए थे,वह संपादक बदले। दूसरे आए,वह भी बदले। फिर मृणाल पांडेय हिन्दुस्तान की प्रमुख संपादक बन कर आईं। आने के करीब दो साल बाद 2002 के अंत में कभी वह प्रबंधन को यह विश्वास दिला पाईं कि कादम्बिनी और नंदन का भी कायाकल्प करना जरूरी है। पता नहीं क्या सोचकर मृणालजी ने कादम्बिनी का एसोसिएट एडिटर बनने का प्रस्ताव मेरे सामने रखा। मेरे लिए यह आश्चर्यजनक था,हालांकि इससे पहले वह मुझसे पूछ चुकी थीं हिंदुस्तान अखबार के रविवारीय संस्करण का एसोसिएट एडीटर बनने के लिए मगर प्रबंधन ने तब आपत्ति की थी कि हम विशेष संवाददाता को सीधे यह पद नहीं दे सकते लेकिन जब कादम्बिनी की बात आई तो प्रबंधन ने यह मंजूर कर लिया।मैं कादम्बिनी में लाया गया फरवरी, 2003 में और क्षमा शर्मा नंदन में। नियुक्ति पत्र हमें जनवरी, 2003 से मिला था मगर सुना यह कि अवस्थीजी ने प्रबंधन से कहा कि हमने इतने वर्ष इस संस्थान की सेवा की है तो कम से कम हमें साल के पहले महीने में तो रिटायर मत कीजिए। यह बात मान लेनी भी चाहिए थी और मान ली गई। इस कारण सब मानने लगे थे कि अवस्थी जी बड़े पावरफुल हैं और उन्होंने मृणालजी के इरादों पर चूना फेर दिया है। इस कारण यह जानते हुए भी कि फरवरी से मैं ही कादम्बिनी का सर्वेसर्वा होनेवाला हूँ, एक धनंजय सिंह को छोड़कर स्टाफ के किसी सदस्य की हिम्मत नहीं हुई मुझसे मिलने की। धनंजय सिंह वहाँ असंतुष्ट थे और मेरा आना उनके लिए सुखद था। वह समय-समय पर वहाँ के समाचार देते रहते थे।
बहरहाल एक फरवरी को मैंने और क्षमाजी ने अपने-अपने पद संभाले। उस कक्ष में उस कुर्सी पर बैठे,जिस पर पूर्व संपादक बैठा करते थे। एसोसिएट एडीटर होते हुए भी मृणालजी यह स्पष्ट कर चुकी थीं कि सबकुछ मुझे ही देखना है,उनका कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। इसलिए इस जिम्मेदारी की खुशी भी थी और यह भय भी था कि क्या इसे मैं संभाल पाऊँगा मगर आशंका पर खुशी और रोमांच हावी था। आशंका इसलिए भी हावी नहीं थी कि अब मैं पक्की नौकरी की बजाए तीन साल के कांट्रेक्ट पर था और यह सोचकर गया था कि जो होगा, देखा जाएगा। हद से हद घर बैठा दिया जाएगा। देखेंगे। इतना खतरा उठाना चाहिए।
मृणालजी के सहयोग और समर्थन से पत्रिका का कायाकल्प करने की कोशिश की। भूत-प्रेतों, ज्योतिष, बाबाओं का निष्कासन पहले ही अंक से किया, जो मार्च, 2003 को सामने आया।कवर पर ईंट ढोती मजदूर औरत थी क्योंकि 8 मार्च को महिला दिवस था। अभी अंक आँखों के सामने नहीं है मगर इस अंक में विश्वनाथ त्रिपाठी का निराला की कविता में आँखों के वर्णन पर था। बाद में भी उनका भरपूर सहयोग मिलता रहा। अपने छात्रों के बारे में उन्होंने एक सीरीज लिखी, जो बाद में पुस्तकाकार रूप में सामने आई। यह अपनी तरह की दुर्लभ पुस्तक है। प्रिय कहानीकार और मित्र मधुसुदन आनंद तब तक कहानी लिखने से विरक्त से हो चुके थे, उन पर भावनात्मक दबाव डालकर उनसे कहानी लिखवाई। गुणाकर मुले जैसे अत्यंत विश्वसनीय विज्ञान लेखक से लिखवाया।
आधुनिक और महत्वपूर्ण लेखकों से इसे जोड़ने का सिलसिला बहुत आगे तक बढ़ा। भीष्म साहनी, कृष्णा सोबती आदि सब बड़े लेखक जुड़ते चले गए।
जो किया, नहीं किया, इस पर ज्यादा लिखना ठीक नहीं।बगैर अंधविश्वासों का खेल खेलते हुए (मासिक भविष्यफल का एक स्तंभ छोड़कर) इसे विज्ञान और वैज्ञानिक सोच की लोकप्रिय-पठनीय पत्रिका बनाए रखने का प्रयत्न किया। तब के.के.बिरला जीवित थे, उन्होंने स्वयं मुझे बुला कर शाबाशी दी। मृणालजी तो खुश थी ही, पाठक भी। स्टाफ ने भी जिसकी जितनी योग्यता थी, सहयोग किया। सबसे दोस्ताना संबंध बना। हरेक का जन्मदिन सब मिल कर प्रेस क्लब में मनाते। बीयर पीनेवाले बीयर पीते।
मेरा सौभाग्य रहा कि मेरे निजी सहायक बलराम दुबे रहे, जो योग्य और विश्वसनीय रहे। बाकी सभी संपादकीय सहयोगियों का सहयोग भी मिला। मेरे कार्यकाल में हरेप्रकाश उपाध्याय, पंकज पराशर,शशिभूषण द्विवेदी, ऋतु मिश्रा जैसे योग्य लोग आए।
2008 में जब कादम्बिनी छोड़कर नई दुनिया के दिल्ली संस्करण में आना मेरे लिए जीवन का बहुत दुविधाजनक निर्णय था। जिन मृणालजी ने यह बड़ी जिम्मेदारी सौंपी थी, उन्हें छोड़कर जाना सबसे कठिन था मगर मित्र आलोक मेहता से पुराने और घरेलू संबंध थे। वही मुझे इस संस्थान में लाए थे। फिर दैनिक में फिर से काम करने का अपना आकर्षण भी था। मृणालजी ने स्वाभाविक ही बुरा माना। दुखद संयोग की मृणालजी भी उसके बाद वहाँ ज्यादा समय तक नहीं रहीं मगर उन्हें नई-नई जिम्मेदारियां मिलती गईं और अभी भी वह हेरल्ड समूह में हैं। उन्होंने जो लोकतांत्रिक स्वतंत्रता मुझे दी थीं, उसके लिए मैं हमेशा आभारी रहूँगा।
आखिरी दिन सब मुझे नीचे तक छोड़ने आए, सिवाय एक को छोड़कर, जिन्हें मैंने पुराने स्टाफ में योग्य मानकर सबसे अधिक आगे बढ़ाया था। वह उस समय भावी संपादक से अपनी निष्ठा जताने के लिए उनके पास आकर बैठ गए थे और उनकी पीठ मेरी तरफ थी।
-विष्णु नागर
अक्सर मैं विज्ञापनों पर नजर नहीं डालता, पत्नी ने ‘ज्योतिष’ के नाम पर छपे विज्ञापनों की ओर ध्यान दिलाया, जिनका दरअसल ‘ज्योतिष’ से भी कोई संबंध नहीं है। ये तथाकथित तांत्रिकों के विज्ञापन हैं, जिनकी संख्या यहाँ कम नहीं, 37 है। ये दिलचस्प विज्ञापन हैं। ऐसे ही घर आए एक पर्चे के बारे में पहले लिखा जा चुका है।अगर कोई वैज्ञानिक- तार्किक सोच का व्यक्ति है, तो उसका इन विज्ञापनों को पढक़र मनोरंजन होगा।
सबसे पहले इस बात ने मुझे आकर्षित किया कि उन्होंने वशीकरण, मुठकरनी, लव मैरिज, गृह क्लेश, मनचाही शादी, प्यार में धोखा, दुश्मन से छुटकारा, गड़ा धन निकालने, सौतन की समस्या आदि-आदि ऐसी तमाम समस्याओं का हल ‘तत्काल’ करने का वायदा किया है। किसी ने तो केवल तीन घंटे का समय माँँगा है, किसी ने दो ही घंटे का और किसी ने तो एक घंटे का और एक ने तो महज एक मिनट का समय मांगा है। ‘तत्काल सेवा’ के ये कुछ अनुपम उदाहरण हैंं। कंप्यूटर से भी किसी विषय पर सामग्री सर्च करना हो तो इससे अधिक समय लग जाता है। इनमें से कुछ तो कंप्यूटर से भी तेज हैंं! कुछ का अनुभव कहता है कि एक घंटा, दो घंटे, तीन घंटे का समय देना चाहिए ताकि अपने बैंक अकाउंट में पैसा आ जाए या नकद मिल जाए, तभी समाधान बताएं। इससे यह असर भी पड़ता है कि तांत्रिक महाराज सोच- समझकर, तंत्र क्रिया करके, समस्या को गंभीरता से लेते हुए समाधान देते हैं। वे उन चालू तांत्रिकों में से नहीं हैंं, जो एक मिनट या पाँच मिनट में समाधान पकड़ा देते हैं। एक मिनट या पाँच मिनट वालों का भी बाजार है और घंटे,दो घंटे या तीन घंटे वालों का भी मार्केट है।
एक और दिलचस्प बात यह है कि कुछ तो 102त्न या 101त्न समाधान का दावा करते हैं लेकिन कोई- कोई तो 1000त्न का । एक महागुरु गंगाराम का दावा तो एक लाख प्रतिशत गारंटीड समाधान का है। मेरा गणित अच्छा नहीं है और मैंने कभी सुना भी नहीं पहले की समस्या का हजार फीसदी या एक लाख प्रतिशत समाधान क्या होता है। 100त्न तो समझ में आ जाता है, 101त्न कहने का भी रिवाज है यानी उम्मीद से कुछ ज्यादा ही अच्छा समाधान लेकिन यह दस हजार या एक लाख प्रतिशत ‘गारंटीड समाधान’ क्या होता है, समझने में नाकामयाब हूूँ क्योंकि समाधान की यह ‘गारंटीड तकनीक’ और इसका गणित बिल्कुल नया है।
बहुत से तांत्रिक समस्या के ‘फ्री समाधान’ का दावा करते हैं, कुछ काम के बाद फीस लेते हैं। कुछ अपनी फीस पहले बता देते हैं। कोई 501 रुपये लेता है, कोई 1050 रुपये, कोई 650 रुपये, कोई 551 रुपये।
501 से 1050 रुपये तक की फीस का भी और फ्री में मिलने वाले समाधान का भी अपना आकर्षण है। सामान्य ढंग से सोचने की बात है कि कोई व्यक्ति एक हजार या पाँच हजार या अधिक रुपये देकर विज्ञापन छपवा रहा है , तो मुफ्त समाधान क्या देता होगा! यह ‘ग्राहक’ को फँसाने का एक तरीका है।तय फीस में उसी किस्म की सुरक्षा है, जो दुकान में ‘एक दाम’ के बोर्ड लगे होने से मिलती है। ‘गारंटीड समाधान’ का वायदा तो हर तथाकथित तांत्रिक देता है। कोई-कोई ‘ओपन चैलेंज’ भी देते हैं, जैसे एक ‘विश्व प्रसिद्ध’ सीताराम जी ने दिया है। दुकानदार दुकान पर लिख कर रखता है -‘फैशन के इस युग में माल की गारंटी नहीं’ लेकिन यह तो साहब ‘खुला चैलेंज’ देते हैं। ‘विश्व प्रसिद्ध’ की बीमारी भी हम लोगों को लगी हुई है। यह पता नहीं कौन सा ‘विश्व’ है और वहां कौन सी और किस बात की इनकी ‘प्रसिद्धि’ है।
एक शर्मा जी 15 बार ‘गोल्ड मेडलिस्ट’ हैंं और एक पंडित विशाल ‘सेवन टाइम गोल्ड मेडलिस्ट’ हैं। य ह सात और पंद्रह बार वाले ‘गोल्ड मेडलिस्ट’ किस बात के ‘गोल्ड मेडलिस्ट’हैंं, खुद ही जानेंं। क्या पता ‘तंत्र विद्या’ का भी अपना कोई ‘तंत्र’ हो, जो मेडल बाँटता हो या विशुद्ध से भी विशुद्ध से भी ‘परिशुद्ध’ मेडल देता हो।वैसे यह धंधा किस तरह झूठ और धोखेबाजी पर आधारित है, इसका पता इसी अखबार में छपे दो विज्ञापन देते हैं।
एक पंडित दुर्गा प्रसाद का विज्ञापन कहता है- ‘शब्दों के जाल में न फँसेंं।’ एक तांत्रिक ‘उस्ताद मोइन जी सम्राट’ के विज्ञापन की शुरुआत ऐसे होती है-’ ‘तांत्रिक बाबाओं के रूप में बैठे हैं शैतान, फिर कैसे होंगे काम।’ अब ये चेतावनी देनेवाले खुद क्या होंगे, क्या नहीं,कौन जाने लेकिन ये विज्ञापन यह तो बता ही देते हैं कि शब्द जाल बिछाकर शैतानी हरकत करने वाले बहुत हैं बल्कि यह पूरा धंधा ही इस पर निर्भर है। वैसे खुद अखबार वाले विज्ञापन के अंत में अंग्रेजी में सूचना देते हैं कि ये वर्गीकृत विज्ञापन तथ्यों में जाए बगैर प्रकाशित किए जाते हैं और इनके दावों के लिए अखबार जिम्मेदार नहीं है। (23 दिसंबर, 2014 को लिखित)
(हाल ही में अनुज्ञा बुक्स से प्रकाशित ‘एक नास्तिक का धार्मिक रोजनामचा’ से।)
-विष्णु नागर
बिहार और पश्चिम बंगाल में अक्टूबर में चुनाव होने के आसार हैं।ऐसे समय में 'मैला आँचल और' परती : परिकथा' जैसी बड़ी रचनाओं के लेखक फणीश्वरनाथ रेणु के जन्मशताब्दी वर्ष में यह याद करना समीचीन होगा। आज से 48 वर्ष पहले इस अविस्मरणीय लेखक ने भी एक बार विधानसभा चुनाव लड़ने का साहस या कहें कि दुस्साहस किया था। उन्होंने फारबिसगंज विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा था और वही हुआ, जो एक निर्दलीय उम्मीदवार के साथ अक्सर होना होता है।
1952 तक वह सोशलिस्ट पार्टी के माध्यम से राजनीति में सक्रिय थे। मजदूर और किसान मोर्चे पर भी वह डटे रहे थे मगर उन्हें जल्दी ही यह समझ में आ गया कि राजनीति में लेखक की स्थिति दूसरे दर्जे की होती है। हर पार्टी का अपना एक 'तबेला' होता है। इसके चारों तरफ दीवारें खींच कर वह अपने 'कमअक्ल' कामरेडों को इधर-उधर आकर्षित होने से बचाती है। उनके अपने ऐसे कड़े अनुभव रहे।एक बार एम एन राय की विचारधारा से जुड़े एक कलाकार के साथ उन्हें देख लिया गया तो अगले दिन पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने उन्हें बुलाया और एमएन राय के विरुद्ध भाषण पिला दिया। अपने एक अच्छे मित्र और कम्युनिस्ट छात्र नेता से वह मिला करते थे। एक बार रामवृक्ष बेनीपुरीजी ने उन्हें देख लिया तो समझाया कि क्यों उन्हें कम्युनिस्टों से बातें नहीं करनी चाहिए। यह भी उन्होंने देखा कि नेता आत्म प्रचार से ऊपर नहीं उठ पाते। यह भी समझ में आया कि दलगत राजनीति में बुद्धिजीवी से भी अपेक्षा रहती है कि वह अपनी बुद्धि गिरवी रख कर पार्टी का काम करे। वहाँ किसी व्यक्ति, किसी गुट का होना भी आवश्यक है। ये सब पाबंदियाँ, तुच्छताएँ उन्हें रास नहीं आ रही थीं। वह 1952 के प्रथम आम चुनाव से पहले ही दलगत राजनीति को विदा कहने का मन बना चुके थे।
इन सब कारणों से उस पार्टी से भी भरोसा उठ गया था, जिसके लिए बरसों उन्होंने लगन से काम किया था मगर उनका विश्वास समाजवादी आदर्शों और जयप्रकाश नारायण में अंत तक बना रहा। वह सक्रिय राजनीति से दूर थे मगर निस्पृह नही थे। वह अपने अनेक उपन्यासों को इसका प्रमाण मानते थे। वह राजनीति के प्रति आभारी थे कि उसने उन्हें गाँव-गाँव जाने का मौका दिया, लोगों को, उनकी संस्कृति और भाषा को जानने का अवसर दिया। बतौर एक लेखक उन्हें बनाया।
पटना में जब एक संवाददाता सम्मेलन में रेणु जी ने निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में चुनाव लड़ने के अपने निर्णय की घोषणा की और अगले दिन जब यह खबर बिहार के दैनिक समाचार पत्रों में छपी, तब वहां के बुद्धिजीवियों में हलचल सी मची।उन्हें जाननेेवालेे इस फैैसले से चकित थे कि रेणु के सिर पर यह क्या भूत सवार हो गया है। जब राजनीति में थे, तब तो चुनाव लड़ा नहीं, अब क्यों लड़ रहे हैं? जिस पार्टी- पोलिटिक्स से घबरा कर इन्होंने उससे दूरी बनाई थी, उसमें फिर से क्यों पड़ रहे हैं? और चुनाव लड़ना ही था तो किसी पार्टी से टिकट माँगते। इतने बड़े लेखक को कोई भी पार्टी टिकट दे देती। उन्हें करीब से जानने वाले लोग नामांकन पत्र भरने के बाद से इसे वापिस लेने की आखिरी तारीख तक इंतजार करते रहे कि शायद उनका मन बदल जाए,अपना नामांकन वे वापस ले लें। इस बीच कुछ दलों उन्हें अपना समर्थन देने की पेशकश भी की। रेणु ने ऐसे सभी प्रस्ताव ठुकरा दिए।इस बीच वह पटना से अपने चुनाव क्षेत्र फारबिसगंज में पर्चा दाखिल करने और अपनी उम्मीदवारी का प्रचार करने चले गए।
रेणु ने चुनाव लड़ने के चार बड़े कारण बताए थे। एक तो उनके क्षेत्र में पहली बार राजनीति हिंदू-मुसलमानों को बांटने मेंं सफल हुई थी। इस संघर्ष में बहुत से लोग जख्मी हुए थे। कुछ गिरफ्तारियां हुई थीं, मुकदमे चले थे। गांव के सैकड़ों लोग महीनों कचहरी में परेशान किए गए थे ।एक और घटना ने उन्हें विचलित किया था। उनके गांव में भूख से दो गरीबों की मौत हो गई थी। क्षेत्र के विधायक ने इसे भूख से हुई मौत बताया मगर सरकार ने हमेशा की तरह इससे इनकार किया।इसके बाद उस विधायक ने दूसरी बार इस बारे में अपना मुंह नहीं खोला।दूसरा कारण एम ए तक जिस नौजवान ने सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया था, उसे कहीं नौकरी नहीं मिल रही थी। चुने हुए प्रत्याशियों में उसका नाम पहले स्थान पर होते हुए भी उसे नौकरी नहीं दी जाती थी। रेणु के यह सलाह देने पर कि उसे क्षेत्र के विधायक और सांसद से इस बारे में मिलने चाहिए। उसका जवाब था कि इनकी वजह से ही यह सब हो रहा है। गुस्से में आकर उसने रेणु को भी नहीं बख्शा। उसने कहा कि आप जैसे लोग राजनीति से निर्विकार हो गए, उसी कारण यह सब हो रहा है। उनके क्षेत्र में 14 निरपराध आदिवासी संथाल मार मार दिए गए थे। इसके बाद उन्हें लगा कि अब भी वह कुछ नहीं करते तो वे अपनी ही निगाह में गिर जाएँगे।
नामांकन भरने के बाद रेणु ने फैसला किया कि वह अपने इलाके के कई प्रमुख स्थानों के लोगों को बुलाकर उनसे अपनी उम्मीदवारी के बारे में उनकी राय जानने की कोशिश करेंगे। अगर वे उन्हें अपने प्रतिनिधि के योग्य न समझेंं तो वह अपना नामांकन वापस ले लेंगे। इस सिलसिले में चार गोष्ठियों के बाद उन्हें विश्वास हुआ कि उन्हें चुनाव लड़ना चाहिए।जो लोग बोलने आए थे,उनमें कुछ उनके उपन्यासों के वास्तविक पात्र थे, जो उस समय जीवित थे। लाठी, पैसे और जाति की ताकत के बल पर चुनाव जीते जाते थे और रेणु का यह प्रयास था कि इनके बगैर चुनाव लड़कर दुनिया को दिखाया जाए। समाज और तंत्र में प्रवेश करती हुई इन विकृतियों से लड़कर देखा जाए। वह अपनी चुनाव सभाओं में दिनकर, अज्ञेय, शमशेर बहादुर सिंह, सुमित्रा नंदन पंत और रघुवीर सहाय की कविताएं उदृत करते थे। उनका कहना था कि अपने क्षेत्र के साधारण जन के सुख -दुख में सक्रिय रूप से हाथ बँटाने के लिए, अपने लोगों की समस्याओं को मुक्त कंठ से प्रस्तुत करने के लिए वह चुनाव लड़ रहे हैं। समाधान तो सरकार ही कर सकती है लेकिन वह इन समस्याओं को सरकार के सामने रखेंगे और कभी चैन से नहीं बैठेंगे। अकेला और निर्दलीय होने के कारण उनकी आवाज कोई बंद नहीं कर पाएगा।
वैसे तो चुनाव लड़ते समय ही यह स्पष्ट हो गया था कि वह जीतेंगे नहीं लेकिन उस समय लिए गए साक्षात्कारों में जाहिर है कि उन्होंने यह नहींं कहा।जिस समाजवादी पार्टी का प्रतिनिधि उनके घर आकर अपनी पार्टी के समर्थन उन्हें देने की पर्ची लिखकर छोड़ गया था, वही उनके खिलाफ खड़ा हुआ था।
चुनाव की डुगडुगी बजते ही आदमी किस तरह बदल जाता है, इसका अनुभव उन्हें चुनाव के दौरान हुआ। वह कहते हैं, आप चिनियाबादाम (मूँगफली) वाले से बात कीजिए, आप उससे चिनियाबादाम ले लीजिए लेकिन वो वोट आपको देगा या नहीं देगा, इसके बारे में वह एकदम चुप रहेगा। उनके बारे में यह भी कहा जाने लगा था कि इनकी तो कोई पार्टी नहीं है और अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता। उनके विरोधियों ने नारा लगाया कि बड़े हैं, पद्मश्री टाइटल वाले लेखक हैं लेकिन विधानसभा में जाकर क्या करेंगे? रेणु कहते थे कि भाई एक गरीब आदमी- जिसका नाम वोटर लिस्ट में लिखा हुआ है-वह चुनाव लड़ सकता है या नहीं, यह देखने के लिए मैं खड़ा हुआ हूं। लोगों ने कहा,वैसे खयाल तो बहुत अच्छा है आपका। देखते हैंँ।उनमें कुछ दूर की कौड़ी जाने वाले भी थे। उन्होंने कहा कि यह किताब लिखने के लिए आया है तो इसे वोट देकर क्या होगा?
और जिस दिन वोट पड़े ,उस दिन देखा कि मधुबनी में जो प्रयोग छोटे पैमाने पर हुआ था, वह वहां व्यापक रूप से हो रहा है। गांव-गांव लोग वोट देने जा रहे हैं और खाली वापस आ रहे हैं क्योंकि लाठी लेकर वहाँ गुंडे खड़े हैंं।रेणु को कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार से भी कम वोट मिले।
तब उन्हें लगा था कि नहीं ये लड़के ठीक कहते हैं कि चेंज बैलट के जरिए नहीं होगा। बैलट की डेमोक्रेसी भ्रमजाल है। तब जो निराशा बढ़ी,उसकी तुलना वह प्रेम में असफल हुए उस व्यक्ति से करते हैं,जो कविता करने लगता है।' राजनीति में असफल होकर मैं उपन्यास लिखने लगा लेकिन चुनाव हारने के बाद मैं क्या करूंगा? चुनाव हारने वाला व्यक्ति घर में बीवी तक की निगाह में गिर जाता है। थोड़ा कर्ज उन पर चढ़ गया था।लोगों ने कहा कि चुनाव में अनुभव पर लिखो तो उन्होंने कहा कि मेरा चुनाव चिन्ह नाव था,इसलिए कागज की नाव शीर्षक से एक रिपोर्ताज लिखूंगा लेकिन लगा कि अब कलम छूने का अधिकार उन्हें नहीं है। अगर कुछ थामना है तो दो ही चीजें थाम सकते हैं या तो बंदूक या कलेजा। अब कलेजा थाम कर बैठो।अब कहीं से कुछ नहीं होने वाला,हालांकि बिहार आंदोलन में फिर उन्हें रोशनी दिखी और वह इसके अटूट हिस्से बन गए।
-विष्णु नागर
‘शुक्रवार’ समाचार साप्ताहिक के संपादक बनने का प्रस्ताव तब आया, जब कादम्बिनी तथा नई दुनिया के बाद मैं घर बैठा था और उम्मीद नहीं थी कि अब कुछ नया करने का अवसर मिलनेवाला है। तभी 2011 के शुरू में-जब मैं चैन्नई कुछ दिनों के लिए गया था मुझे इसके संपादक बनने का प्रस्ताव आया और कहा गया कि मैं जल्दी आऊँ। कारण शायद मौजूदा संपादक को हटाना था, इसलिए यह आपरेशन उन्होंने गुपचुप ढँग से चलाया। मुझे सौदेबाजी करना नहीं आता मगर ठीकठाक प्रस्ताव था, हालांकि इससे पहले जो मिल रहा था, उससे कम था मगर इस बीच मैं घर भी तो बैठा था और एक नई चुनौती भी सामने थी। इसके अलावा शरद दत्त जैसे शुभचिंतक भी बीच में थे, तो मैं तैयार हो गया। तैयार तो हो गया मगर जैसी धुकधुकी ‘कादम्बिनी’ का कार्यभार संभालने के समय थी कि पता नहीं कुछ कर पाऊँगा या नहीं,वैसी ही इस समय भी थी। दैनिक अखबारों में उपसंपादक से लेकर विशेष संवाददाता तक का काम जरूर किया था मगर एक समाचार साप्ताहिक के संपादन की अपनी चुनौतियाँ होती हैं, जिसका किसी भी तरह का कोई पूर्व अनुभव नहीं था।
इधर समाचार साप्ताहिकों का आकर्षण भी कम होता जा रहा था और इंडिया टुडे गु्रप के हिंदी समाचार साप्ताहिक भी एक बड़ी चुनौती था। उनके पास विशाल और जमाजमाया नेटवर्क था। इनके पास भी अपना एक नेटवर्क तो था मगर इंडिया टुडे के मुकाबले कुछ भी नहीं। फर्क यह था कि इंडिया टुडे समूह पत्र पत्रिकाओं के धंधे में ही है और ये एक बिल्डर का साप्ताहिक था। आर्थिक उदारीकरण के बाद के वर्षों में बिल्डरों ने खूब अनापशनाप कमाया था और वे अपना राजनीतिक रसूख बढ़ाने के लिए पत्र- पत्रिकाएँँ निकाल रहे थे। बहरहाल एक बात कहूँ कि यहाँ इस दौरान ऐसा कोई दबाव नहीं आया, सिवाय इसके कि उसकी अपनी कंपनियों के बारे में कुछ सकारात्मक न छपे तो नकारात्मक भी न छपे।वैसे एक दो बार नकारात्मक छप भी गया था।
पिछले संपादक के समय ‘शुक्रवार’ के मालिकान हर तरह के संसाधनों पर काफी खर्च कर चुके थे मगर नतीजा कुछ खास नहीं नहींं निकला था। तो मुझसे वायदे तो बहुत कुछ किए गए थे मगर जमीन पर प्रचार -प्रसार के लिए कुछ खास किया नहीं गया। विज्ञापन और प्रसार में जो निचले पदों पर लोग थे, उनका वेतन बहुत कम था, इसलिए उनमें उत्साह भी अधिक नहीं था। इस बीच आफिस से काम के नाम पर बाहर जाकर कुछ चतुर सुजान कोई और काम भी करते थे। कुछेक प्रभावशाली मैनेजर के मुँह लगे भी थे। उन्हें डाँटने वगैरह का, उनके साथ बैठकें करने का कोई खास लाभ नहीं था। वेतन कम था तो बड़े अधिकारियों से मिलने का उनका साहस भी कम था। खैर फिर भी एक नेटवर्क था और उसी सीमा में रह कर काम करना था।कुछ कहने- सुनने का थोड़ा नतीजा निकलता था- कभी-कभी। कभी निदेशक-प्रबंधक गोलीबाजी भी किया करते थे।
तय यह किया और मेरी जिम्मेदारी भी यही थी कि जो भी कर सकता हूँ, पत्रिका के संपादन में जो भी बेहतरी कर सकता हूँ, उसी पर केंद्रित करूँ मगर जब कई जगहों से यह सूचना आती थी कि गुरुवार या शुक्रवार को बाजार में आने के तीन या चार दिन में ही प्रतियाँ समाप्त हो जाती हैं, पूरे सप्ताह अंक बाजार में नहीं मिलता तो मन दुखता था। कापी बढ़ाने की बात का असर नहीं होता था।
पहली बैठक में मैंने संवाददाताओं-संपादन विभाग के सहकर्मियों से कहा कि कुछ पुराने अंक देख कर लगता है कि यहाँ हर आदमी संपादकीय लिख रहा है। मित्रो, संपादकीय लिखने के लिए मालिकों ने मुझे नियुक्त किया है। आपको संपादकीय नहीं लिखना है बल्कि रिपोर्ट और विश्लेषण लिखना है। जहाँ भेजा जाए या जहाँ जाने का आपका प्रस्ताव मुझे उचित लगे, वहाँ आपको रिपोर्टिग करना है। पुरानी आदत से जूझने में थोड़ा वक्त उन्हें लगा, जो स्वाभाविक था। रिपोर्टर दफ्तर से बाहर जाने लगे। मैं चूँकि। घर से कई अखबार देखकर आता था, इसलिए बैठक में जो भी विषय, तय होता था, उससे संबंधित सहायक सामग्री कहाँ किस अखबार के किस पृष्ठ पर उपलब्ध है, यह एक पर्ची पर लिखकर उनमें हफ्ते भर बँटवाता रहता था, ताकि किसी तथ्य से वे वंचित न रहें। सारे पक्ष सामने आएँ।
संपादन में भी कठोरता बरतनी होती थी। काफी काट-छाँट करनी होती थी, कुछ छूट गई बातें जोडऩा भी होता था। कुछ पुनर्लेखन भी करना होता था। कोई कापी मेरी नजर से गुजरे बगैर नहीं जा सकती थी। अपने संपादकीय में भी मैं बार बार परिवर्तन-संशोधन करता था। बाहर से काफी सामग्री भी मँगवाता था। कुछ तो पूर्व परिचित थे और कुछ लोग समय के साथ लगातार जुड़ते गए और ऐसी-ऐसी रिपोर्टें तथा आलेख भेजने लगे, जिन्हें कहीं और पाना कठिन था। कविता-कहानी हो या रिपोर्टों की मेरे पास कमी नहीं रही कभी बल्कि अधिकता ही रही। साथियों में भी उत्साह था। अच्छा काम करनेवालों की अच्छी वेतन वृद्धि भी मिलती थी। ‘शुक्रवार’ के नाम से उनकी एक पहचान बन रही थी।हिंदी के अधिक से अधिक लेखकों को जोडऩे का प्रयास रहा।उनका सहयोग भी लगातार मिलता रहा।
साप्ताहिक समाचार पत्रिका का संपादन सचमुच एक बड़ी चुनौती है। सप्ताह के आरंभ मेंं जो दृश्य होता है, वह साप्ताहिक के आखिरी कुछ पृष्ठों के प्रेस में जाने तक काफी कुछ बदल चुका होता है।जो सोचा नहीं था, वह सामने आ जाता है और उसी सप्ताह उसका जाना भी जरूरी होता है। कई बार पहले से तैयार कवर स्टोरी बदलनी पड़ती है-एकदम आखिरी मौके पर। प्रेस में जाने तक धुकधुकी रहती थी कि स्टोरी में कुछ जरूरी छूट न जाए। अंत- अंंत तक खबरों पर नजर रखना होता था। मैंने किसी दैनिक का संपादन तो नहीं किया मगर हर घंटे बदलती-बनती खबरों के बीच समाचार साप्ताहिक की चुनौतियाँँ शायद बड़ी होती हैं।
फिर कवर स्टोरी तथा दूसरी स्टोरी सबसे अलग भी हो, सामग्री हर तरह के पाठकों के लिए हो, इस तरफ भी ध्यान रखना होता था। मैं वहाँ था तो साहित्य अच्छा छपे, इसकी भी सबको अपेक्षा रहती थी। फिर मैंने वार्षिक अंक निकालने की भी योजना बनाई थी। मालिकों को उस पर भी काफी खर्च करना होता था। उसका पाठकों में सम्मान बना रहे और आर्थिक घाटे से भी संस्था को बचाया जाए, ताकि निरंतरता बनी रहे, यह चुनौती भी थी।
बहुत काम था और बहुत समर्पण माँगता था मगर यह सब करने में आनंद भी आता था।ऊब और थकावट नहीं होती थी। सहयोगी पहले से थे, उनमें से अधिकांश बहुत अच्छे थे। रईस अहमद लाली मेरे मुख्य सहयोगी थे। वे पूरे समर्पण से काम करते थे। व्यक्ति और इनसान के रूप में भी वह बेहतरीन हैं। उनसे कहा कोई काम रह जाए, यह हो नहीं सकता था। अशोक कुमार इंडिया टुडे से अवकाश के बाद हमारे साथ आ गए थे। उनसे उनकी जिम्मेदारियों के अलावा लिखवाता भी था। उन्हें समय लगता था मगर लिखते अच्छा थे। लिखवाता वैसे सभी सहयोगियों से था। लालीजी से तो अंतिम क्षण में भी लिखवाया है। नरेन्द्र वर्मा और मधुकर मिश्र भी काफी मेहनत करके कुछ नया लाते थे।आरंभिक कठिनाइयों के बाद पूजा मल्होत्रा बहुत साहसिक रिपोर्टर साबित हुई। कहीं जाने में उन्हें डर नहीं। चिंता मुझे होती थी कि दिल्ली के माहौल में उनके साथ कुछ हो न जाए मगर कोई कोशिश करता भी था तो उस आदमी की शामत आ जाती थी। सगीर किरमानी लिखते तो उम्दा थे ही, शराफत में भी लाजवाब हैं। मेरे सचिव वसीम अहमद भी मेहनती थे। वीरेन्द्र शर्मा को खेल जगत में महारत हासिल थी।
कला विभाग के प्रमुख प्रफुल्ल पलसुलेदेसाई को मैंने अपना काम अपनी तरह करने की पूरी छूट दी थी और उन्होंने कभी निराश नहीं किया। हाँ कवर पर क्या कैसे जाएगा, इसमें मेरा हस्तक्षेप आवश्यक था और मैं करता भी था। हाँ एक और निर्देश था कि पृष्ठों की सजावट हो मगर सामग्री की हत्या की कीमत पर नहीं। इस तरह कोई नहीं था, जिसका सहयोग नहीं मिला, चाहे पहले से नियुक्त लोग या स्वतंत्र मिश्र जैसे मेरे बाद जुड़े लोग। वह रिपोर्टिंग भी करते थे, लिखते भी थे। जो सहयोग साथियों का यहाँ मिला, वह पहले कहीं नहीं।
बीच में प्रबंधन के साथ समस्याएँ आती भी थीं और सुलझती भी थीं वरना इस्तीफा देने के लिए तो मैं हमेशा तैयार रहता ही था। अंत तक आते-आते बिल्डर की आमदनी के स्रोत सूखने लगे थे। उनकी कुछ अन्य कंपनियों की गड़बडिय़ाँ सामने आने लगी थीं। अब साप्ताहिक को पाक्षिक बनाने की बात होने लगी थी। बहुतों को रास्ता दिखाने का दबाव आने लगा था, बाहर से लिखनेवालों से न लिखवाने या भुगतान न करने पर जोर दिया जाने लगा था। फिर एक मैनेजर का घमंड भी बहुत बढ़ चुका था। अप्रैल, 2014 के एक मंगलवार की एक शाम काम खत्म करने के बाद निदेशक केसर सिंह से कहा कि अब यहाँँ मेरा रहना कठिन है। इस्तीफा दिया और चला आया। स्टाफ के किसी सदस्य को भी नहीं बताया। जब वे एक दिन के अवकाश के बाद लौटे और शाम तक उसी संस्थान में कार्यरत एक सज्जन आए और स्टाफ को बताया कि आज से वे संपादक हैं। उसी दिन शाम को सारा संपादकीय स्टाफ घर आया और उनके साथ चाय पीने का आनंद उठाया। आज भी छह साल बाद भी कई पुराने साथी भी संपर्क में रहते हैं और मैं भी उनसे संपर्क रखता हूँ।किसी और का अच्छा लिखा छापने का भी रचनात्मक सुख कम नहीं है, शायद अपने लिखे को छापने-छपवाने से ज्यादा।
सही समय पर सही निर्णय हो गया।जिस साप्ताहिक को कुछ बना पाया था, उसी की लाश मैंने अपने कंधों पर नहीं ढोई। अगले कुछ महीनों में उस संस्था के टीवी चैनल समेत सभी काम ठप्प हो गए। वैसे भी मोदी सरकार आ चुकी थी। ज्यादा स्वतंत्रता के साथ काम करना संभव नहीं रह जाने वाला था।
बहरहाल वे सवा तीन वर्ष कुल मिला कर अच्छे बीते। इस बीच जो तीन वार्षिकांक निकले, उनका भी अच्छा स्वागत हुआ। कुछ तो अब भी उन अंकों को याद करते हैं, तो अच्छा लगता है।
-विष्णु नागर
आज लालकृष्ण आडवाणी भी मस्त हैं और मोदीजी की तो आज की मस्ती लाजवाब है।आडवाणी जी गए नहीं या बुलाए नहीं गए अयोध्या मगर वे आज के दिन का पूरा श्रेय मोदी जी को कैसे लूट लेने देते,जो हर श्रेय लूट लेने की कला में पारंगत हैं और हर दोष जवाहरलाल नेहरू पर थोप देने की कला में अद्वितीय! तो माननीय आडवाणी जी ने श्रेय का बड़ा हिस्सा अपने पास रखने के लिए आज के दिन को ऐतिहासिक और भावपूर्ण दिन बताया है और इस दिन को लाने में अपनी भूमिका को रेखांकित किया है। वह जानते हैं कि मोदी का क्या भरोसा, अपने एक-डेढ़ घंटे के भाषण में आडवाणी का नाम तक न ले! तो बेचारे ने सोचा अपना विज्ञापन स्वयं ही करना पड़ेगा वरना ये ऐतिहासिक दिन,ऐतिहासिक दिन करेगा मगर मेरा नाम तक ये ‘इतिहास’ से गायब कर देगा। आखिर चेला भी तो मेरा ही है! गर्व से कहोगे आडवाणीजी, मोदी मेरा चेला है। कह दो बस एक बार।
माननीय आडवाणीजी, मोदीभक्तों के अलावा सबको मालूम है कि आपके नेतृत्व में और आपकी उकसावे वाली रामरथ यात्रा ने ही बाबरी मस्जिद को ढहाने का कुकृत्य किया था।यह आप ही थे महाशय, जिसने मस्जिद को ढहाने की वैधता स्थापित करने के लिए उसे ढाँचा बताया था, मुसलमानों के तुष्टिकरण, छद्म धर्मनिरपेक्षता, हिंदुओं के आत्माभिमान को आहत करने का दोष मढ़ा था। आप ही ने मुसलमानों के लिए मोहम्मदी हिन्दू शब्द प्रचलित करने का प्रयास किया था, जो सफल नहीं रहा।
और आप क्यों याद दिलाएँगे कि आपकी इस यात्रा ने कैसा भयंकर सांप्रदायिक विद्वेष फैलाया था और यह भी आपको कैसे याद रहेगा कि मस्जिद ढहाने के बाद कई महीनों तक सांप्रदायिक हिंसा फैली थी, उसमें कम से कम दो हजार लोगों की जानें चली गई थीं। वे जानें भी उतनी ही कीमती थीं, जितनी आपकी और मोदीजी की जान है। और आज तक वह जहर है और बढ़ता जा रहा है।कार्बनडाई आक्साइड इतनी फैल चुकी है कि साँस लेना मुश्किल है। यह आपकी का उपहार है बुजुर्गवार!
यह प्रधानमंत्री भी देश को दी गई आपकी ही भेंट है, जो आपके नमस्कार का जवाब तक नहीं देता।वह उतना भी सम्मान आपकी बुजुर्गीयत का नहीं करता, जितना कांग्रेस किया करती थी।
तो आडवाणीजी आप खुश हैं और आप बुजुर्ग हैं मगर मैं मानता हूँ कि अगर आप भी आज प्रधानमंत्री होते तो शायद वर्तमान वाले से बेहतर नहीं होते। बस ये है कि आप इतिहास के कूड़ेदान में अपनों द्वारा ही आपके जीवित रहते ही फेंक दिए गए हैं और आपके शिष्य को अभी इसमें समय लगेगा। धन्यवाद और आभार कि आप खुश हैं और आपकी खुशी ने आपकी भूमिका की याद और ताजा कर दी है।
-विष्णु नागर
प्रधानमंत्री बीच- बीच में कुछ अच्छे काम भी करते रहते हैं, जिन पर उनके आलोचकों की दृष्टि नहीं जाती।कोरोना की वजह से ही सही प्रधानमंत्री इस बीच विदेश तो गए ही नहीं, देश में भी एक जगह गये पश्चिम बंगाल के बाढग़्रस्त क्षेत्रों का दौरा करने। असम और बिहार की बाढ़ देखने भी नहीं गए। सोचा होगा सारी बाढ़ें एक जैसी होती हैं। इनमें कोई सेंसेशन नहीं है। छड्डो जी, वेख कर भी की होणा ए। अब कोरोना के आगमन के बाद पहली बार वह विशिष्ट जनता के बीच जाएँगे -अयोध्या में रामलला का मंदिर बनवाने- खतरा उठाते हुए।भगवान राम के लिए वह स्वास्थ्य तो क्या जीवन भी बलिदान कर सकते हैं।
इस बीच प्रधानमंत्री ने कहीं न जाकर देश का सैकड़ों करोड़ रुपया बचाया है, इसकी प्रशंसा की जानी चाहिए थी मगर उनके मंत्रियों तक ने ऐसा नहीं किया तो विरोधियों से ही क्या अपेक्षा रखना! राहुल गाँधी से तो बिल्कुल ही नहीं। शायद मैं पहला व्यक्ति हूँँ, जो इसकी प्रशंसा करने की हिम्मत कर रहा है। शाबाश पट्ठे विष्णु नागर। इसके बावजूद मुझे मालूम है कि इसके लिए मेरी तारीफ स्वयं मोदीजी तो क्या, उनका कोई चंगूमंगू भी नहीं करेगा मगर कोई बात नहीं। अब आदत सी हो गई है इस सबकी। कोरोना की तरह, यह भी एक मजबूरी है। चलिए फिर भी अपन ने अपना धर्म निभा दिया। ऊपरवाले मेरी तरफ से आँख मत मीच लेना, याद रखना मेरे इस योगदान को।
अब मोदीजी का दूसरा अच्छा काम। इधर राममंदिर बन रहा है, उधर पाँच राफेल लड़ाकू विमान भी धूमधाम से भारत पधार गए हैं।मुझे खुशी होती अगर प्रधानमंत्री स्वयं उनका स्वागत करने जाते। नहीं गए, यह मेरे खयाल से गलत हुआ। पर वे प्रधानमंत्री हैं, गलती भी वही करेंगे, उनकी तरफ से मैं तो नहीं कर सकता! एलाऊ भी नहीं है। यह उनका अधिकार क्षेत्र है। राफेल में परमाणु हथियार ले जाने की क्षमता भी है। यानी मोदीजी, भगवान के भरोसे भी हैं और राफेल के भरोसे भी। इसे यूँ भी कह सकते हैं कि उन्हें भगवान से अधिक भरोसा राफेल पर है। प्रशंसक बताते हैं कि इससे बढिय़ा लड़ाकू विमान पाकिस्तान तो क्या चीन के पास भी नहीं है। इसका नाम सुनते ही चीन के होश उड़ गए हैं तो पाकिस्तान का हाल क्या हुआ होगा, आप समझ ही सकते हैं। मोदीजी और गोदी चैनलों के एंकर-एंकरानियाँ, इस पर तो होना चय्ये बल्ले-बल्ले। घर-घर दिए जलने चय्ये थे मगर लोग भी गलती कर रहे हैं। यथा राजा, तथा प्रजा।
वैसे अब ये सब क्या याद करना गलत है कि मनमोहन सरकार 126 राफेल विमानों का सौदा कर रही थी और मोदीजी 36 से ही संतुष्ट कैसे हो गए, यह सीक्रेट है। वैसे कहते हैं, संतोषी सदा सुखी।इस बहाने एक कंगाल उद्योगपति की भी मदद हो गई, अच्छी बात है। वैसे भी मोदीजी को बैंकों को कंगाल करनेवाले मगर खुद संपन्न होकर विदेश भाग जानेवाले उद्योगपतियों को ज्यादा पसंद करते हैं।
ऐसों पर भी वह कृपा करते हैं, जो देशभक्त रहे, लूट कर भागे नहीं। कायर नहीं थे। और ऐसों पर तो उन्हें विशेष कृपा करना चाहिए, जो भागे नहीं मगर देशी-विदेशी बैंकों का पैसा जीम कर यहीं बैठे हैं। वैसे मोदीजी की दयालुता विश्व प्रसिद्ध है। सुना है कि अब यह ब्रह्मांड प्रसिद्ध भी होने जा रही है।इससे भारत का गौरव बहुत बढ़ेगा।इस पर सभी भारतीयों को गर्व होना चाहिए और इसकी अभिव्यक्ति भी गीत, संगीत, नृत्य, कविता, फिल्मों आदि माध्यमों से होना चाहिए।मेरा काम सुझाव देना था, दे दिया। बाकी आपकी इच्छा।मैं अवसर के अनुकूल कविता नहीं लिख पाता हूँ। इस मामले में मैं दिव्यांग हूँ वरना मैं भी पीछे रहनेवालों में नहीं हूँ।
राममंदिर पर तो उत्साह का इजहार मैं पिछले ही हफ्ते कर चुका था। अब फिर से करना चाहता था मगर इस बीच मन पर उदासी की छाया पड़ चुकी है। पता चला कि आडवाणी जी के भगीरथ प्रयत्नों से जो बाबरी मस्जिद गिराई गई थी और दंगे हुए थे (या कराए गए थे), उसके 18 साल बाद जिस मंदिर का शिलान्यास मोदीजी करने जा रहे हैं, वह भव्य तो होगा मगर इतना भव्य भी नहीं होगा कि विश्व का सबसे भव्य और दिव्य मंदिर कहलाने की योग्यता पा सके। और तो और भारत का भी सबसे भव्य-दिव्य कहला सके, इस काबिल भी नहीं हो सकेगा। यह विश्व का पाँचवा और भारत का दूसरा बड़ा मंदिर होगा। सुना है कि यह सुनकर मोदीजी के प्रति भक्तों का विश्वास डोलने लगा है।वे कह रहे हैं, अच्छा हुआ, हमें नहीं बुलाया गया वरना मोदीजी को तो अपनी बदनामी की परवाह नहीं मगर हमें तो अपनी इज्ज़त की परवाह है! खत्म होने दो कोरोना संकट, विरोधस्वरूप अब हम स्वयंसेवक अंगकोरवाट मंदिर जाएँगे, अयोध्या नहीं। उनकी इस बात से तो मैं भी इत्तफाक रखता हूँ और मैंने भी अटैची तैयार रखी है।मैं भी वहीं जाऊँगा।
डिसकस तो मोदीजी की अन्य उपलब्धियों को भी करना चाहता था मगर बहते आँसुओं के बीच मुझसे लिखा नहीं जा रहा। वैसे जाते -जाते इतना कह दूँ कि मोदीजी ने कोरोना को ‘‘जन आंदोलन’’ बना कर अच्छा किया। इस कारण ही शायद रोज पचास हजार लोग इसकी चपेट में रहे हैं। ‘जनांदोलन’ बनाए बिना यह संभव नहीं था। यह भी कमाल है कि उन्होंने अपने बंगले में बैठे- बैठै इसे ‘जनांदोलन’ बना दिया!
विष्णु नगर
वैसे तो भगवान श्री राम की किरपा से सभी कुछ बहुत ठीक है।बस यहाँ मंदिरों की कमी अब बहुत खलने लगी है। भव्य मंदिर तो पूरे देश में एक भी नहीं और भगवान श्री राम का तो अखंड भारत में भी नहीं।अयोध्या तक में भव्य तो छोड़ो,टपरिया वाला मंदिर भी नहीं है।ऐसे में अतीव प्रसन्नता की बात है कि अब माननीय प्रधानमंत्री 32 सेकंड के अत्यंत शुभ अभिजीत मुहूर्त में उसकी आधारशिला रखने जा रहे हैंं ,जो अगले आम चुनाव से ठीक पहले तैयार हो जाएगा और मोदी जी द्वारा एक नायाब तोहफे के रूप में राष्ट्र को समर्पित कर दिया जाएगा।ताली।भगवान श्रीराम की जय।मोदी जिंदाबाद।
यह सही है कि इस देश में सरकारी स्कूल भी बहुत हैं,कालेज तो खैर बहुत हैं ही।शिक्षा का आलम यह है कि वहाँ से हर छात्र मोदीजी की तरह योग्य होकर बाहर आ रहा है। अस्पताल तो प्रधानमंत्री ने एक से एक, बढ़िया से बढ़िया गाँव -गाँव में खुलवा दिए हैं। जनता अब बीमार पड़ना सीख चुकी है,ताकि विश्वस्तरीय चिकित्सा सेवा को सफल बनाने में अपना विनम्र योगदान देकर भारत की कीर्ति चहुंओर फैला सके।खेतों में बारह महीने फसलें लहराने लगी हैं। किसान काट- काट कर परेशान भी हैं और खुशहाल भी।फसलों का न्यूनतम क्या अधिकतम मूल्य उन्हें मिल रहा है।कारखानों के मजदूर कमा- कमा कर मोटे और शक्तिशाली हो रहे हैं। इतना अधिक उत्पादन हो रहा है कि चीन-अमेरिका और यूरोप के देश भी हीनभावना से ग्रस्त हो गए हैं।सब तरफ इंडिया का यानी मोदी जी का डंका बज रहा है बल्कि बजानेवाले इतने अधिक हैं कि डंकों का अभाव हो गया है।भारत ने आश्वासन दिया है कि अंबानी-अडाणी प्राइवेट लिमिटेड जल्दी ही डंकों के अभाव की आपूर्ति कर देगी।एक भी प्राणी को डंके के अभाव में मरने नहीं दिया जाएगा।पशु-पक्षी भी माँग करेंगे तो उन्हें भी प्राथमिकता के आधार पर आपूर्ति की जाएगी।एक ही शर्त है कि पेमेंट आनलाइन हो।
इस बीच चीन ने ' मेड इन चाइना ' डंकों की आपूर्ति करने का प्रयास किया था मगर पूरी दुनिया ने इन्हें रिजेक्ट कर दिया।सबने कहा कि जो बात ' न्यू इंडिया ' के मोदी ब्रांड डंके मेंं है, वह शी ब्रांड चीनी डंके में कहाँ! चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग सिर पकड़ कर बैठे गा रहे हैं कि क्या से क्या हो गया बेवफा.. और उन्हें कोई दिलासा दे नहींं रहा।मोदीजी ने ही मानवीयता के नाते उन्हें फोन पर कहा, अब मत करना कभी हमारी जमीन पर कब्जा करने की बदत्तमीजी!करोगे तो घुस के मारूँगा समझे लल्लू! ।फौरन पाँच सेकंड में हमारी जमीन खाली कर दो।नो चूँँ -चाँ।आराम से बैठोगे तो तुम्हारे डंकों पर 'मेड इन इंडिया' की मोहर लगवाकर दुनिया भर में सप्लाई करवा दूँगा।मंजूर हो तो बात करो।उसका नाम मगर मोदी डंका रखना पड़ेगा,वरना तुम जानते हो मुझे।
उधर शी जिनपिंग का इतना बुरा हाल है,इधर भारत सॉरी ' न्यू इंडिया ' में सब तरफ समृद्धि का आलम है।भूख- बीमारी की तो अब याद भी नहीं आती।कोरोना तो लंगोट छोड़कर भाग चुका हैै। मोदीजी ने पिछले छह साल में इतना अधिक कर दिया है कि लोग कह रहे हैं,मोदी जी अब और प्रगति नहीं।अब तो आप एक ठो राममंदिर अयोध्या में बनवा दो और आप बनवाओगे तो भव्य से कम तो बनवा ही नहीं सकतेे! अब देखो चीन की मदद से आपने नर्मदा किनारे, गुजरात में सरदार पटेल की कितनी शानदार और भव्य मूर्ति बनवाई है।इतनी भव्य कि इस कोरोना काल में भी विदेशी पर्यटक भारत सरकार से विशेष अनुमति लेकर स्पेशल फ्लाइट से उसे देखने के लिए टूटे पड़ रहे हैं।एकदूसरे के सिर पर पाँव रख कर पटेल साहब की मूर्ति देखने का आनंद ले रहे हैं।कह रहे हैं कि कोरोना-फोरोना से क्या डरना, अगर जीवन सार्थक करना है तो सरदार पटेल की प्रतिमा देखना जरूरी है। इसके बाद जान भी चली जाए तो वांदा नहीं।रोज दो- चार विदेशी इस भगदड़ में मृत्यु को प्राप्त होकर स्वर्ग का सुख भोगने के लिए धरा से प्रयाण कर रहे हैं मगर किसी को कोई शिकायत नहीं। इस कारण सभी भारतीयों को तो छोड़ो,गुजरातियों तक का वहाँ नंबर नहीं आ रहा है मगर नो प्राब्लम।डालर अतिथि देवो भव।
इधर आप भव्य संसद भवन भी बनवा रहे हो।आपके होते हुए कंगाली भी भव्यता के आड़े नहीं आ सकती।आपकी प्रतिज्ञा है कि इधर संसदीय व्यवस्था को मटियामेट करूँगा,उधर संसद भवन को भव्य बनवाऊँगा। क्या दूरदृष्टि है, क्या पक्का इरादा है! ब्रहमा, विष्णु, महेश सब आपकी अभ्यर्थना कर रहे हैं। पृथ्वी नामक ग्रह पर भारत नामक देश का नाम आपने इतना उज्जवल कर दिया है कि उसकी रोशनी से देवताओं की आँखों चुँधिया रही हैं।उनके अँधे होने का संकट पैदा हो गया है।कृपा करो हे मोदी देव की प्रार्थना वे कर रहे हैं।
तो ऐसे मोदी- राज में एक नहीं,दस करोड़ मंदिर भारत में बनेंगे। एक से एक भव्य और दिव्य। मंदिर ही भारत को जगत गुरु बनाने की असली कुंजी होगी। भारत पहले जगतगुरु था ही इसलिए कि भारत की हर गली,हर कूचे में एक मंदिर हुआ करता था। वह तो विदेशी आक्रांताओं ने सारे ध्वस्त कर दिए और देश में मंदिरों का ऐसा भयंकर अकाल पड़ गया कि लोगों को खेती और उद्योग धंधों में परिश्रम करने को विवश होना पड़ा।अब अयोध्या से नये विश्व गुरू काल का उद्भव हो रहा है। भविष्य में सब वर्णाश्रम धर्म के अनुसार मंदिर की सेवा करेंगे और इस तथा उस जीवन को अर्थवत्ता प्रदान करेंगे।
फिर से तालियाँ।
-विष्णु नागर
जब रोम जल रहा था और नीरो बंसी बजा रहा था
तो मैंने ही कहा था- ‘वाह-वाह, क्या बात है सम्राट’
जब रोम जल रहा था
और गरीब रोमनों को जलाकर
उन्हें मशालों में तब्दील किया जा रहा था
तो इसके आर्तनाद और चीख के बीच
खाने -पीने का सबसे ज्यादा आनंद
मैंने ही उठाया था
जिसे दो हजार साल बाद भी भूलना मुश्किल है
मैं आज भी सुन रहा हूँ नीरो की बाँसुरी
वही गिलास और वही प्लेट मेरे हाथ में है
वैसा ही है रोशनी का प्रबंध
सम्राट ने अभी पूछा मुझसे : ‘कैसी चल रही है पार्टी
कैसा है प्रबंध, कुछ और पीजिए, कुछ और खाइये’
नीरो मरने के लिए पैदा नहीं होते
न उसकी पार्टी में शामिल होने वाले लोग
अभी कहाँ जला है पूरा रोम
अभी तो मेरा घर भी खाक होना बाकी है
बुझती मशालों की जगह
नई मशालें लाई जा रही हैं
अभी तो पार्टी और भी रंगीन होने वाली है!
-विष्णु नागर
एक मित्र ने याद दिलाया कि संसद परिसर में एक बुजुर्ग महिला ने देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का कालर पकड़ कर उनसे पूछा था:' भारत आजाद हो गया, तुम देश के प्रधानमंत्री बन गए, मुझ बुढ़िया को क्या मिला?' नेहरू जी का जवाब था:' आपको ये मिला कि आप प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ कर खड़ी हैं।'
ऐसी बातें याद मत दिलाया करो मित्रो, रोना आ जाता है। इस युग में बता रहे हो कि आजाद भारत ने इसके नागरिकों को प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ने तक की आजादी दी है। अब बता रहे हो,जब आज के राजनीतिक शिखर -पुरुष को अपना पुरुषार्थ नेहरू जी के बारे में अल्लमगल्लम झूठ फैलाने में नजर आ रहा है, जब पाठ्यक्रम से भी धर्मनिरपेक्षता गायब की जा रही है। पता नहीं है क्या कि अब यह देशद्रोह की श्रेणी में आता है ! जेल जाना चाहते हो क्या? इस युग में तो अगर कोई सपने में भी प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ ले तो उसके सपने की स्कैनिंग हो जाएगी और बीच चौराहे पर उसका काम तमाम कर दिया जाएगा और सब उसके वीडियो फुटेज को ' एनज्वाय ' करेंगे।प्रत्यक्षदर्शी उस आदमी की यह हालत होते देख कर हँसेगे, ताली-थाली बजाएँँगे। खुशी से पागल हो जाएँँगे,मिठाई बाँटेंगे ,पटाखे फोड़ेंगे। एक दूसरे के मुँह और सिर पर गुलाल मलेंगे।दिये जलाएँँगे। मोदी जी के जयकारे लगाएँगे, 'जय मोदी हरे' आरती गाएँँगे। और यह सब टीवी चैनलों पर गौरवपूर्वक प्राइम टाइम में दिखाया जाएगा। सिर्फ़ यह नहीं दिखाया जाएगा कि उसकी बीवी दहाड़े मार कर रो रही है, कि उसके बच्चों को समझ में नहीं आ रहा है कि यह आखिर हुआ क्या है,पापा को जमीन पर क्यों लेटाया गया है!इनकी तबीयत खराब है तो इन्हें अस्पताल क्यों नहीं ले जाते? और मृतक की माँँ गश खाकर गिर पड़ी है।
लोग किसी भी तरह के सपना देखने से डरने लगेंगे- चाहे वह 'कौन बनेगा करोड़पति' में सात करोड़ रुपये जीतने का सपना हो!आज अच्छा सपना आया तो कल गिरेबान पकड़नेवाला सपना भी आ सकता है,जैसे उसे आया था! और कोई जरूरी है कि सपना उतना ही भयंकर आए,उससे भयंकर नहीं आएगा!लोग सपने से इतने डरेंगे कि कोई भी सपना आए, लोग रात को उठ बैठेंगे,पसीने -पसीने हो जाएँगे।ईश्वर या अल्लाह से दुआ माँगेंगे कि आइंदा कोई भी सपना न आए। लोग डाक्टर के पास जाएँगे कि डाकसाब ऐसी दवा दो कि नींद आए मगर अच्छे या बुरे सपने न आएँ! सुन कर डाक्टर खुल कर हँसेगा।कहेगा, यही तो मेरी भी समस्या है,मेरी भी बीमारी है,तुमको इसका क्या इलाज बताऊँ!ईश्वर में आस्था रखो,सोने से पहले रात को उसका स्मरण कर लिया करो,मैं भी यही करता हूँ।इसीसे ऊपरवाला बेड़ा पार करेगा तो करेगा वरना मझधार हिम्मत रखो।
मत दिलाया करो इस तरह कि याद बंधु,अब तो आडवाणी भी उनके कंधे पर हाथ रख कर खड़े नहीं हो सकते।वे भी सुरक्षा के लिए खतरा मान लिए जाएँगे और पता नहीं, उनका बाकी जीवन कहाँ और कैसे बीते!
मत रुलाया करो बंधु,मत रुलाया करो।रोने को बहुत कुछ है और अब भी पता नहीं क्यों कोई गाँधी, कोई नेहरू, कोई अंबेडकर, कोई भगत सिंह,कोई लालबहादुर शास्त्री , कोई सीमांत गाँधी,कोई मौलाना आजाद की बातें याद दिला देता है।देखो आजकल 'न्यू इंडिया' बनाया जा रहा है,यह उन सब बातों को भूलने का समय है। बंधु, अतीत में ले जाना बंद करो।ले ही जाना हो तो सभी मुगलों,सभी मुसलमानों के मुँँह पर कालिख पोतने के लिए ले जाओ।ले जाना हो तो इतने पीछे ले जाओ कि सोमनाथ मंदिर तोड़ने का दर्द हरा हो जाए और 2002 का दर्द भूल जाएँ।याद दिलाना हो तो ऐसे तमाम किस्से याद दिलाओ कि हम किस प्रकार उस समय जगद्गुरु थे,जब हमें पता भी नहीं था कि जगत् होता क्या है,हाँ गुरु का पता था!
इस तरह तुम याद दिलाते रहे तो फिर तुम पूरे स्वतंत्रता संघर्ष की याद भी दिलाने लगोगे! मत करो ऐसे उल्टे काम।आज तो वे तुम्हें और हमें शायद माफ कर दें, कल ऐसी याद को वे कानूनन गुनाह घोषित कर देंगे।'झूठ' फैलाने और 'सांप्रदायिक सौहार्द' खत्म करने के आरोप में तुम्हें -हमें अंदर कर देंगे और कोई यानी कोई भी बाहर नहीं ला पाएगा।लोकतंत्र अब हमारे यहाँ बहुत ही अधिक ' विकसित' हो चुका है, बहुत ही ज्यादा।इतना ज्यादा कि दुनिया दाँतों तले ऊँगली दबा रही है और मोदीजी चेतावनी दे रही है कि अरे -अरे, तुम यह क्या कर रहे हो,इतना ' लोकतंत्र ' भी ठीक नहीं है और जरा उस अमित शाह से भी कहो कि गृहमंत्री होकर भी वह क्यों लोकतंत्र का इतना 'विकास' और ' विस्तार ' कर रहा है,क्यों वह आपके और अपने पैरों पर कुल्हाड़ी चला रहा है? रोको उसे और खुद भी रुक जाओ। कदम पीछे की ओर ले जाओ।लोगों को सिखाओ कि पीछे की ओर देखे बिना कदमताल कैसे किया जाता है और इसे देशप्रेम कैसे समझा जाता है!
ये गिरेबान पकड़ने वाली बातें साझा मत किया करो बंधु, और गिरेबान पकड़ने की याद दिलाते हो तो यह बता दिया करो कि ये हकीकत नहीं, किस्से-कहानियाँँ हैं,लोककथाएँ हैं, गप हैं,ये वे सपने हैं,जो तब लोग देख लिया करते थे।ये सच नहीं था।तब भी यही निजाम था,अब भी यही है।आगे भी यही रहेगा।सच अगर कुछ है तो यही है।
-विष्णु नागर
जिस दिन यह टिप्पणी लिख रहा हूँ उस दिन पता नहीं क्यों सुबह से ही हेमंत कुमार का गाया और बचपन में और विशेषकर स्वतंत्रता दिवस तथा गणतंत्र दिवस पर कई बार सुना यह गाना मन में बारबार गूँजता रहा- ‘इन्साफ की डगर पे बच्चो दिखाओ चल के’। कोई प्रत्यक्ष कारण नहीं है इसका, फिर भी न जाने क्यों मेरे साथ उस दिं ऐसा हुआ। ऐसा भी नहीं है कि इसे पहली बार रेडियो या टीवी पर सुना हो, इसलिए यह मन में गूँज रहा हो। कभी-कभी मेरे साथ ऐसा होता है। कभी मौका मिला तो ऐसी चीजें यू ट्यूब पर सुन लेता हूँ हालांकि उसे कई-कई बार सुनकर भी मन नहीं भरता लेकिन आज इस गाने के मन में गूँजने का कारण क्या यह है कि मैं किसी संयोग से अपने बचपन में लौट आया हूँ? लगता तो नहीं मगर पता नहीं। 1961 में जब दिलीप कुमार-वैजयंती माला की फिल्म ‘गंगा जमुना’ आई थी-जिसका यह गाना है- तब मैं 11 साल का था और मेरे कस्बे में फिल्म का प्रचार करने के लिए स्थानीय अमीन सयानी साहब नई आई फिल्म की खूबियों का बखान करते हुए गली-गली में तांगे में घूमा करते थे। वे थे, तो लगभग अनपढ़ मगर फिल्म के प्रचार का अंदाज उनका इतना जोरदार होता था कि ऐसा हो नहीं सकता था कि उनके प्रचार के बाद कोई सड़ी से सड़ी फिल्म देखने से भी अपने को बचा पाए।
तब पता नहीं था कि यह गाना सुकूनभरी और भरोसा दिलानेवाली आवाज में किसने गाया है और इसे लिखा किसने है, उस उम्र में यह जानने की उत्सुकता भी नहीं होती थी लेकिन शायद हेमंत कुमार की आवाज से भी ज्यादा या यूं कहें कि उनकी आवाज के साथ शकील बदायूंनी के ये बोल बहुत अपील करते थे, इसलिए भी कि यह गाना खासकर बच्चों को संबोधित था। तब स्कूलों में पंडित नेहरू को चाचा नेहरू कहलवाया जाता था और नारा लगवाया जाता था- चाचा नेहरू जिंदाबाद। मुझे तब सचमुच लगता था कि नेहरूजी मेरे चाचा हैं, भले ही मैंने उन्हें दूर से भी कभी देखा नहीं था और शाजापुर जैसे छोटे से पिछड़े कस्बे में उनके आने की कोई उम्मीद भी नहीं थी। जब नेहरूजी नहीं रहे तो पड़ोसी के रेडियो पर उनकी शव यात्रा का वर्णन सुनकर मैं खूब रोया था-शायद किसी नेता के लिए पहली और आखिरी बार। तब लगता था कि जैसे यह गाना नेहरूजी की ओर से हमें दिया गया संदेश है, इसलिए बहुत द्रवित करता था।
अभी-अभी फिर से इसे सुना तो यह गाना फिर से बहुत अच्छा लगा, जबकि पंडित प्रदीप के लिखे और लता मंगेशकर द्वारा गाये जिस गाने को सुनकर नेहरू खूब रोये थे- ‘ओ मेरे वतन के लोगो जरा आँख मे भर लो पानी’ वह गाना न तब मुझे अपील करता था, न अब, जबकि उसी दौरान हुए चीनी हमले के समय मैंने अपने तीन-चार दोस्तों के साथ जूते पालिश करके सेना के जवानों के लिए चंदा जमा करके राष्ट्रीय सुरक्षा कोष में जमा किया था। पिछले न जाने कितने वर्षों से देशभक्ति के बहुत से गीत फालतू लगने लगे हैं। ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरा-मोती’ टाइप गीत तो क्षमा कीजिए न तब बर्दाश्त होते थे, न अब। मनोज कुमार ने भावुकताभरी फिल्मी देशभक्ति से नाम बहुत कमाया मगर उनकी सिनेमाई देशभक्ति कभी अच्छी नहीं लगी। उसके बाद भी नकली देशभक्ति का व्यावसायिक उछाल बहुत आता रहा, जिसने चिढ़ को और बढ़ाया ही।
बहरहाल ‘जब इन्साफ की डगर पे’ गीत प्रचलित था, उस दौर में जो बच्चे थे या किशोर थे, उनमें से कई आज इस देश के भाग्यविधाता बने हुए हैं। उस दौर के मोदीजी तो आज देश के प्रधानमंत्री हैं। इन सबने मिलकर देश को जहाँ पहुँचा दिया है, उस जगह पर आकर आज के बच्चों को यह गीत शायद हास्यास्पद ही लगेगा और वे कहेंगे कि क्या पापा (मम्मी) आप बोर कर रहे हो। इस गाने में शकील बदायूं ने नेहरू युग के स्वप्नों, आकांक्षाओं को पिरोया है। इस गीत से पता चलता है कि तब नेता होना गंदी बात नहीं मानी थी, इसीलिए शायद बच्चों से कहा गया है- ‘नेता तुम्हीं हो कल के’। आज तो फिल्मी गानों में भी नेता बनने की बात व्यंग्य में ही कही जा सकती है। आज नेता गली-गली में हैं, उन्होंने डटकर-बेखटके कमाया है, खूब ठाठ हैं उनके, वे चुनाव भी बार-बार जीत जाते हैं मगर जनता के मन में उनके प्रति धेलेभर की भी इज्जत नहीं है। उस दौर के जिन बच्चों से शकील बदायूंनी और हेमंत कुमार ने ‘इन्साफ की डगर पे’ चलने की उम्मीद की थी, उनके लिए जुल्म की डगर पर चलना ही असली इन्साफ है, सच्चाइयों के बल पे आगे बढऩे की जिनसे उम्मीद आशा थी, वे झूठ और बेईमानी का हाथ मजबूती से पकड़ चुके है। जिन्हें संसार को बदलना था, उन्हें संसार ने बदल दिया है पूँजी की सेवा करने के लिए।जिन्हें तनमन की भेंट देकर भारत की लाज बचाना था, वे अपनी इज्जत लुटाने में लगे हैं। अपनों के लिए तो ठीक है मगर परायों के लिए, सबके लिए, न्याय की बात करना उनके लिए असंभव है। इन्सानियत के सर पर इज्जत का ताज नहीं कचरा रखा जा रहा है। बहुत कुछ इस बीच खो गया है, इसलिए इस बीच यह गीत भी खो गया है और इन्साफ की डगर भी।