-सुदीप ठाकुर
उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों का अभियान तेज हो गया है। इसका पता इससे भी चलता है कि मुख्यमंत्री, मंत्री और सांसद वगैरह दलितों या अनुसूचित जाति के लोगों के घरों में जाकर जमीन पर बैठकर उनके साथ भोजन कर रहे हैं।
हालांकि यह सब बेहद प्रतीकात्मक और ढोंग के अलावा कुछ नहीं है, यह सबको पता है। हैरत इस पर होनी चाहिए कि जो देश आजादी की पचहत्तरवीं वर्षगांठ मना रहा है, उसके आबादी के लिहाज से सबसे बड़े सूबे के मुख्यमंत्री को ऐन चुनाव के समय सामाजिक संरचना के उत्पीडि़त लोगों के घर पर जाकर भोजन करते हुए अपनी तस्वीर क्यों प्रचारित करनी पड़ रही है! आखिर एक योगी को यह दिखावा क्यों करना पड़ रहा है, उसे तो ऐसे दिखावे से दूर रहना चाहिए?
यह सब हमारी सामाजिक संरचना की अंतर्निहित बुराइयों को ही उजागर कर रहे हैं। कुछ महीने पहले पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव के दौरान केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की ऐसी ही तस्वीरें सामने आ रही थीं। राजनीतिक रूप से पश्चिम बंगाल में प्रभावशाली मतुआ समाज को लुभाने के लिए वह इस समुदाय के घरों में जाकर भोजन कर रहे थे। हालांकि चुनाव के नतीजे बताते हैं कि उनकी यह सामाजिक-सांस्कृतिक यात्रा कारगर साबित नहीं हुई।
भारतीय समाज की संरचना में इतनी गहराई से जातियों की ऊंच-नीच समाई हुई है कि एक दिन किसी वंचित तबके के घर में भोजन करने से कोई चमत्कार नहीं हो जाने वाला है। फिर यह बात भी सामने आ चुकी है कि अतीत में उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जाति से संबंध रखने वाले लोगों के घरों में भोजन के ऐसे ही कार्यक्रम से पहले अधिकारियों ने उन्हें साबुन वगैरह दिए थे, ताकि वे नहा-धोकर साफ-सुथरे नजर आएं। यह भी सामने आया कि ऐसे अभियान में भोजन बाहर से लाया गया था।
मुझे मेरे गृह नगर राजनांदगांव के मेरे मोहल्ले में होने वाले एक कार्यक्रम की याद आ रही है। वहां एक श्री रामायण प्रचारक समिति है। 78 वर्ष पूर्व इसकी स्थापना हुई थी और तबसे वहां रोजाना दिन में कम से कम एक बार रामायण का पाठ होता है। श्री रामायण प्रचारक समिति तुलसी जयंती के मौके पर कई दिनों तक कई तरह के कार्यक्रम आयोजित करती है, जिनमें प्रबुद्ध लोगों के व्याख्यान भी शामिल होते हैं। मेरे अग्रज और रामायण प्रचारक समिति के सचिव विनोद कुमार शुक्ला ने बताया कि समिति अब भी तुलसी जयंती मनाती है और वहां अब भी कई तरह के कार्यक्रम होते हैं।
कई दशक पूर्व श्री रामायण प्रचारक समिति ने तुलसी जयंती के मौके पर होने वाले अपने व्याख्यान का विषय रखा था, ‘रामायण की महिला पात्र’! विभिन्न वक्ताओं को सीता, उर्मिला, कौशल्या, कैकेयी और शबरी इत्यादि महिला पात्रों के बारे में बोलना था। वक्ताओं में राजनांदगांव के पूर्व विधायक जॉर्ज पीटर लियो फ्रांसिस यानी हम सबके जेपीएल फ्रांसिस या फ्रांसिस साहब भी थे।
थोड़ा फ्रांसिस साहब के बारे में पहले जान लीजिए। जेपीएल फ्रांसिस 1940-50 के दशक में राजनांदगांव स्थित बंगाल नागपुर कॉटन मिल्स में श्रमिक थे और समाजवादी रुझान के श्रमिक नेता। श्रमिक नेता रहते ही 1957 में उन्होंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी से राजनांदगांव विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीता था।
फ्रांसिस साहब ने श्री रामायण प्रचारक समिति के व्याख्यान के लिए रामायण की जिस महिला पात्र को चुना वह थीं, शबरी। वही शबरी जो बेर चखकर श्रीराम को खिलाती हैं। फ्रांसिस साहब ने अयोध्या के युवराज राम और एक वंचित महिला शबरी के रिश्ते की बहुत खूबसूरती से सांस्कृतिक ही नहीं, समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी व्याख्या कर डाली।
प्रसंगवश यह भी जान लीजिए कि श्री रामायण प्रचारक समिति सिर्फ हिंदुओं तक सीमित नहीं है, जैसा कि फ्रांसिस साहब के व्याख्यान से अंदाजा लगाया जा सकता है। विनोद कुमार शुक्ला जी बताते हैं कि समिति विभिन्न धर्मों के विद्वानों को व्याख्यान के लिए आमंत्रित करती है, इसमें कोई बंधन नहीं है, ताकि सामाजिक सौहार्द मजबूत हो।
वस्तुत: जरूरत सामाजिक और जातिगत पदानुक्रम को तोडऩे की है। सिर्फ चुनावी मौसम में अनुसूचित जाति या जनजाति से जुड़े परिवारों के घरों में भोजन करने से यह पदानुक्रम नहीं टूटेगा।
मुझे कुछ दशक पूर्व की राजनांदगांव जिले के आदिवासी अंचलों मानपुर, मोहला और आंधी की यात्राओं की भी याद आ रही है। समाजवादी नेता, पूर्व विधायक मेरे चाचा (दिवंगत) विद्याभूषण ठाकुर को अक्सर वहां जाना पड़ता था। कई मौकों पर मैं और उनके बड़े पुत्र और मेरे मित्र जैसे भाई (दिवंगत) अक्षय भी साथ होते थे। कई ऐसे मौके भी होते थे, जब चाचा का सारथी बनकर मैं उन्हें मोटरसाइकिल से मानपुर-मोहला या छुरिया में होने वाली बैठकों के लिए ले जाया करता था। यह बैठकेंकई बार बड़ी और कई बार बहुत छोटी होती थीं। बिना किसी औपचारिकता के सुंदर सिंह मंडावी, नोहर, लाल मोहम्मद जैसे चाचा के सहयोगियों और कार्यकर्ताओं के घरों में भोजन होता था। जमीन पर बोरा बिछा दिया जाता था और अक्सर भात और मुर्गा परोसा जाता था या कभी-कभी लौकी जैसी हरी सब्जी। कहीं कोई दिखावा नहीं होता था। यह भोजन साहचर्य का हिस्सा था।
सचमुच राजनीति कितनी बदलती जा रही है। एक मुख्यमंत्री को अपने ही सूबे के एक नागरिक के घर भोजन करने के बाद तस्वीर प्रचारित करनी पड़ती है!
-सुदीप ठाकुर
कंगना बहन यह सिर्फ आपकी मुश्किल नहीं है। गांधी को लोग देर से समझते हैं। दरअसल हड्डी के ढांचे जैसी काया में नजर आने वाला यह शख्स जितना बाहर से सहज और सरल दिखता है, भीतर से उतना ही कठोर है। उन्हें समझने में अंग्रेजोंं को भी वक्त लगा था।
जिन्ना वगैरह के तो बस की बात ही नहीं थी गांधी को समझना। खुद सावरकर भी कहां ठीक से समझ पाए थे गांधी को।
जिन्ना और सावरकर ने गांधी को ठीक से नहीं समझा तो उसकी वजहें साफ थीं। उसके पीछे उनकी अपनी वैचारिक सोच और दीर्घकालीन राजनीति थी।
आप सोचिए यदि गांधी सहज सरल और आम इन्सान होते तो 15 अगस्त, 1947 को दिल्ली को छोडक़र वह उस दिन देश की राजधानी से डेढ़ हजार किलोमीटर दूर कलकत्ता में नहीं होते, जहां हिंदू-मुस्लिम दंगे भडक़े हुए थे।
सच तो यह है कि पूरे देश ने गांधी को कहां ठीक से समझा है। फिर भी, यह साफ रहे कि गांधी ईश्वर नहीं थे, हाड़ मांस के व्यक्ति थे। उन्होंने खुद को महात्मा या राष्ट्रपिता नहीं कहा था। हां, वह एक राजनीतिक व्यक्ति थे और उनकी राजनीति अंतिम व्यक्ति की राजनीति थी। उनकी राजनीति की परिभाषा अलग थी। इसमें जाति या धर्म या वर्ग या क्षेत्र का भेद नहीं था। बेशक, उनमें कई खामियां थीं। तो बताइए किस व्यक्ति में खामियां नहीं होतीं।
लेकिन इस देश को लेकर उनकी दृष्टि एकदम स्पष्ट थी। इसे समझने में भी कई लोगों ने भूल की। मुझे पता नहीं कि आप जेपी या जयप्रकाश नारायण को कितना जानती हैं, मगर गांधी को समझने में उनसे भी चूक हुई थी। यह मैं नहीं कह रहा हं, खुद जेपी ने इसके बारे में लिखा है।
आपकी जानकारी के लिए 1942 में जब गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन का नेतृत्व किया था, जेपी उसके नायक थे। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जेपी नेहरू की सरकार में शामिल नहीं हुए। जबकि नेहरू से उनके बहुत अच्छे रिश्ते थे। वह सरकार में शामिल क्यों नहीं हुए? क्योंकि उन्हें लगता था कि 15 अगस्त, 1947 को जो आजादी मिली वह अधूरी थी। लेकिन उसे उन्होंने ‘झूठी आजादी’ या ‘भीख में मिली आजादी’ नहीं कहा था। वह ऐसा कह भी नहीं सकते थे, क्योंकि खुद उन्होंने आजादी की लड़ाई लड़ी थी और जेल भी गए थे। और हां, जेल से रिहाई के लिए उन्होंने माफी भी नहीं मांगी थी।
मगर गांंधी को लेकर उनके मन में कुछ सवाल थे। इसकी वजह यह थी कि वह गांधी को उनके जीते जी ठीक से नहीं समझ सके थे। जेपी को इसका एहसास गांधी की मौत के नौ साल बाद हुआ था।
जेपी ने 1957 में जब दलगत और सत्ता की राजनीति से अलग होने का फैसला किया तब उन्हें यह एहसास हुआ था। उसी दौरान उन्होंने अपने समाजवादी साथियों के नाम एक खुला पत्र जारी करते हुए लिखा था, ‘क्या राजनीति का कोई विकल्प है?....हां विकल्प है। गांधी ने हमें यह विकल्प दिया था। लेकिन मैं स्वीकार करता हूं कि तब मुझे यह स्पष्ट रूप से समझ में नहीं आया था। गांधी जी ने हमें स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान सशस्त्र संघर्ष के विकल्प के रूप में अहिंसा का रास्ता दिखाया था।’
जैसा कि मैंने शुरुआत में लिखा कि जिन्ना और सावरकर की अपनी दीर्घकालीन राजनीति थी। गांधी के लिए राजनीति का कुछ और अर्थ था। जैसा कि जेपी ने इसे बाद में समझा और लिखा, ‘भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन एक शानदार जनांदोलन था। यह ‘राजनीति’ (राज्य की राजनीति) नहीं थी, बल्कि लोकनीति (लोगों की राजनीति) थी।’
जाहिर है, गांधी के लिए स्वतंत्रता का दायरा व्यापक था और वह उसे लोकनीति का हिस्सा मानते थे। जो लोग आजादी को झूठा कहते हैं, वह सिर्फ गांधी को ठीक से नहीं समझते, बल्कि इस देश के लोगों को भी, जिनसे ये देश बना है।
-सुदीप ठाकुर
अक्टूबर, 1960 में रायपुर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था, जिसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू सहित कांग्रेस के सारे वरिष्ठ नेता मौजूद थे। सम्मेलन के दौरान ही एक आमसभा का भी आयोजन किया गया था। रायपुर प्रवास के दौरान पंडित नेहरू राजकुमार कॉलेज में ठहरे हुए थे और उन दिनों रघुराज सिंह राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल थे। रघुराज सिंह ने पंडित नेहरू को आमसभा के बाद रात्रिभोज के लिए आमंत्रित किया था। इस रात्रिभोज में मध्यप्रदेश के तत्कालीन पुलिस प्रमुख के एफ रुस्तमजी को भी शामिल होना था। चूंकि उसी दिन प्रधानमंत्री नेहरू भिलाई इस्पात संयंत्र देखने भी गए थे, लिहाजा रुस्तमजी को भी वहां जाना पड़ा था। वह देर से रात्रिभोज में शामिल हो सके।
भोजन की टेबिल पर रघुराज सिंह ने रुस्तमजी की ओर इशारा करते हुए पंडित नेहरू से पूछा, ‘सर आपको शायद इनकी याद होगी, यह काफी समय आपके साथ रहे हैं।’
नेहरू ने कहा, ‘मैं रुस्तमजी को अच्छी तरह से जानता हूं।’ नेहरू ने जिस अंदाज में यह बात कही थी, उससे रुस्तमजी को कुछ समझ नहीं आया। दरअसल यह कहते हुए पंडित नेहरू के चेहरे पर रहस्यमय मुस्कान साया थी। वह कुछ क्षण रुके और फिर कहा, ‘और रुस्तमजी भी मुझे अच्छी तरह से जानते हैं।’ फिर उन्होंने कहा, रुस्तमजी तुम मेरे साथ कितने साल तक रहे? रुस्तमजी उस वक्त सूप पी रहे थे, और कुछ हिचकते हुए उन्होंने कहा, छह साल सर।
के एफ रुस्तमजी 1952 से 1958 के दौरान छह सालों तक प्रधानमंत्री नेहरू के मुख्य सुरक्षा अधिकारी के तौर पर तैनात रहे। वह हमेशा उनके साये की तरह उनके साथ होते थे। रुस्तमजी लंबे समय तक पुलिस और बीएसएफ से जुड़े रहे। वह नियमित डायरी लिखते थे, जिनमें ऐसी तमाम घटनाओं का जिक्र है। उनकी यह डायरी किताब की शक्ल में छप चुकी है, जिसका नाम है, ‘आई वाज नेहरूज शैडो।’
नेहरू और रुस्तमजी एक दूसरे के कितने करीब थे, रायपुर की उस घटना से समझा जा सकता है। नेहरू व्यक्तिगत जीवन में भी लोकतांत्रिक मूल्यों और स्वतंत्रता तथा स्वायत्तता को महत्व देते थे। यह इससे पता चलता है कि उनके सुरक्षा अधिकारी रहे रुस्तमजी वह सब लिख सके, जो अन्यथा लोग छिपाना चाहते हैं। नेहरू के बारे में इन दिनों सोशल मीडिया में तरह तरह के दुष्प्रचार चलाए जा रहे हैं। उनकी छवि को बिगाडऩे की कोशिश की जा रही है। लेकिन नेहरू का जीवन पारदर्शी था। यह सबको पता है कि सिगरेट नेहरू की कमजोरी थी। एक वाकये का जिक्र रुस्तमजी ने कुछ यूं किया है- ‘उन्होंने मुझसे कहा, क्या तुम्हे पता है कि मैंने स्मोकिंग के संबंध में एक क्रांतिकारी फैसला कर लिया है। मैं इसे एक-दो दिन में छोड़ दूंगा और मैं ऐसा कर सकता हूं। लेकिन फिर मैंने मनोवैज्ञानिक और दूसरे कारणों से ऐसा नहीं किया। लेकिन मैंने तय किया है कि मैं इसे कम करूंगा।’ ऐसे दौर में जब सेंस ऑफ ह्यूमर खत्म होता जा रहा है, रुस्तमजी बताते हैं कि देश के पहले प्रधानमंत्री के स्वस्थ रहने की एक बड़ी वजह उनका सेंस ऑफ ह्यूमर भी था। लेडी माउंटबेटन से लेकर पद्मजा नायडू तक उनकी महिला मित्र थीं, जिनसे अपनी मित्रता उन्होंने कभी छिपाई भी नहीं।
रुस्तमजी ने नेहरू के साथ देश के कोने-कोने से लेकर विदेशों में की गई यात्राओं का जिक्र किया है।
रुस्तमजी ने पंडित नेहरू के एक कराची प्रवास का जिक्र किया है, ‘जेएन की प्रेस कॉन्फ्रेंस काफी सफल रही। उन्होंने कहा, हमें दोस्त बने रहना चाहिए। और दोस्त बने रहने के लिए हमारा व्यवहार दोस्ताना होना चाहिए। उनकी यह बात काफी सराही गई। इसके बाद हमने कायदे आजम जिन्ना (मोहम्मद अली जिन्ना) और कायदे मिल्लत (लियाकत अली खान) की मजार के पास खड़े होकर फोटो खिंचवाई। इसकी काफी आलोचना हुई। हिंदू महासभा के पत्र ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की। उसने लिखा, ‘भारत और भारतीयों से घृणा करने वाले व्यक्ति के प्रति सम्मान। पाकिस्तान बनाने वाले मुस्लिम के प्रति प्रेम।’ वास्तविकता यह है कि नेहरू के मन में कोई सम्मान नहीं था। उन्होंने कहा, ‘यहां उस शख्स की मजार है, जोकि मेरे गुरु गांधी के बिल्कुल विपरीत विचार का था। यहां उस शख्स की मजार है, जिसका पेशा ही घृणा करना था- उसने मेरे देश और मेरे लोगों के खिलाफ युद्ध थोपा। मैं उन्हें और घृणा फैलाने का रास्ता नहीं दे सकता। इससे उन्हें अपने मकसद को पूरा करने में मदद मिलेगी। वे हमसे घृणा करते हैं और घृणा के कारण ही वह पतन की ओर हैं। क्या हमें भी वैसी गलती करनी चाहिए?’
जाहिर है, नेहरू का मूल्यांकन सिगरेट पीने की उनकी कमजोरी से नहीं होगा। उनके मूल्यांकन की और भी बड़ी वजहें है।
-सुदीप ठाकुर
यह होली के मौके पर लिखा कोई व्यंग्य नहीं है। फिर भी शीर्षक देखकर बुरा मत मानिएगा। प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने 2021 के सबसे प्रभावशाली सौ लोगों की सूची जारी की है। आप इन्हें सौ सबसे ताकतवर भारतीय या सौ सबसे रसूखदार भारतीय भी कह सकते हैं। इंडियन एक्सप्रेस पिछले कुछ वर्षों से ऐसी सूची जारी करता रहा है। इसके चयन की प्रक्रिया तो पता नहीं, मगर इंडियन एक्सप्रेस की अपनी एक साख है, बावजूद इसके कि इस सूची को अपोलो स्टील पाइप्स ने प्रायोजित किया है।
तो क्या खास है इस बार? जरा ठहरिये। सूची में पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे नंबर पर क्रमश: प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह, संघ प्रमुख मोहन भागवत और भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा के नाम हैं, इससे किसी को हैरत नहीं होगी। पांचवे स्थान पर देश के सबसे बड़े उद्योगपति का नाम होने पर भी हैरत नहीं होनी चाहिए। किसी विपक्षी नेता को अग्रिम पंक्ति में स्थान मिला है तो वे हैं महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह कांग्रेस नेताओं में सबसे आगे हैं, मगर वह हैं पद्रहवें स्थान पर। उनके बाद छब्बीसवें स्थान पर दूसरे कांग्रेस नेता छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी क्रमश: चौतीसवें, उनचालीसवें और इकतालीसवें स्थान पर हैं। सचिन पायलट सौवें स्थान पर हैं। कांग्रेस के कुछ और नेता भी हैं,लेकिन यह महत्वपूर्ण नहीं है। और इस सूची में प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक संजय मिश्रा और एनआई के निदेशक योगेश चंद मोदी के नाम पर भी हैरत नहीं होनी चाहिए।
यह बताने की जरूरत नहीं है कि इसमें भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री और अनेक केंद्रीय मंत्री शामिल हैं। एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी हैं।
अमूमन इस सूची में खेल से जुड़ी हस्तियां भी होती हैं। मगर इस बार यह सौभाग्य सिर्फ भारतीय क्रिकेट टीम के कप्तान विराट कोहली को मिला है और वह भी तिरासिवें स्थान पर! ध्यान रहे उनसे ऊपर उनसठवें स्थान पर बीसीसीआई के सचिव जय शाह हैं।
हैरत है, इस सूची में एक भी फिल्मी हस्ती नहीं है, कंगना रनौत भी। क्या अब इसकी जरूरत ही नहीं रही। आपको हैरत न हो पर विचार जरूर करना चाहिए कि इस सूची में एक भी पत्रकार नहीं है। इस सूची में पहले रवीश कुमार भी नुमाया हो चुके हैं। क्या पत्रकार प्रभावशाली नहीं रहे। यह अलग बात है कि कई मीडिया संस्थानों के मालिक मुकेश अंबानी तो हैं ही।
-सुदीप ठाकुर
मार्च के दूसरे हफ्ते में कोविड-19 महामारी के शुरुआती मामले आते ही प्रधानमंत्री मोदी ने अचानक ‘जनता कफ्र्यू’ का ऐलान किया था और उसके दो दिन-तीन बाद पूरे देश में लॉकडाउन लागू कर दिया गया था। इससे देशभर की सडक़ों पर जो दृश्य नजर आया था, उसे विभाजन के बाद की दूसरी बड़ी त्रासदी के रूप में दर्ज किया गया। बड़े शहरों और महानगरों से लाखों प्रवासी मजदूर जो भी साधन मिला उससे या पैदल ही अपने गांव-घर की ओर चल पड़े थे। विभाजन की त्रासदी और कोरोना से उपजे रिवर्स पलायन की पीड़ा को कोई एक कड़ी जोड़ती है, तो वह महात्मा गांधी हैं, जिनकी आज 151 जयंती है।
विभाजन के बाद जब पूर्वी तथा पश्चिमी पाकिस्तान से बेबस असहाय लोग भारी हिंसा के बीच शरणार्थी की तरह सडक़ों पर थे, तब बापू ही थे, जो उनकी पीड़ा में उनके साथ थे। वह दिल्ली के सत्ता केंद्र में नहीं बैठे थे, बल्कि सांप्रदायिक हिंसा को रोकने के लिए सडक़ों पर थे। तिहत्तर साल बाद वह भले ही हमारे बीच उपस्थित नहीं हैं, लेकिन कोरोना से उपजी मानवीय त्रासदी में गांधी हमें राह दिखाते हैं, बशर्ते की हम उन पर चल पाते।
दरअसल ऐसी हर त्रासदी से निपटने के सूत्र हमारे संविधान में हैं, जिसमें गांधी की प्रत्यक्षत: कोई भूमिका भले न हो, हमारे संविधान निर्माताओं ने उनके बताए रास्तों को पूरा ध्यान रखा। संविधान सभा, जिसको संविधान बनाने की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, उसकी बहसों में बार-बार आया गांधी का जिक्र इसकी तस्दीक करता है।
17 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा की बैठक में बॉम्बे स्टेट से चुनकर आए एम आर मसानी या मीनू मसानी (वह मूलत: गुजरात के थे) ने संविधान निर्माण के लिए रखे गए प्रस्ताव पर कहा, ....मैं महात्मा गांधी का जिक्र करना चाहूंगा। ए वीक विथ गांधी में लुइस फिशर ने गांधी को यह कहते हुए उद्धृत किया, ‘सत्ता का केंद्र अब नई दिल्ली, या कलकत्ता और बाम्बे जैसे बड़े शहरों में है। मैं इसे भारत के सात लाख गांवों में बांटना चाहूंगा। इससे इन सात लाख इकाइयों में स्वैच्छिक सहयोग होगा, वैसा सहयोग नहीं, जैसा कि नाजी तरीकों ने उभारा है। इस स्वैच्छिक सहयोग से वास्तविक स्वतंत्रता उत्पन्न होगी। नई व्यवस्था बनेगी, जो सोवियत रूस की नई व्यवस्था से बेहतर होगी।’
संविधान सभा में गांव को प्रशासनिक इकाई बनाने पर जोर देते हुए मद्रास से चुनकर आए वी आई मुन्नीस्वामी पिल्लई ने भी आठ नवंबर, 1948 को गांधी को याद किया था। यह 30 जनवरी, 1948 को नाथुराम गोड़से द्वारा गांधी की हत्या किए जाने के दस महीने बाद की बात है। पिल्लई ने बहस में हिस्सा लेते हुए कहा, ‘इस संविधान को पढ़ते हुए किसी को भी दो अनूठी चीजें मिलेंगी, जो दुनिया के किसी भी संविधान में नहीं हैं: पहली है, अस्पृश्यता का निवारण। तथाकथित हरिजन समुदाय का सदस्य होने के नाते मैं इसका स्वागत करता हूं। अस्पृश्यता ने देश के प्रमुख अंगों को नष्ट कर दिया है, और हिंदू समुदाय के सारे गौरव और विशेषाधिकार के बावजूद बाहरी दुनिया हमारे देश को संदेह की नजर से देखती है।’
अनुसूचित जाति से ताल्लुक रखने वाले पिल्लई ने आगे कहा, ‘भारत में ऐसे लोग हैं, अस्पृश्यता को खत्म करने के लिए पर्याप्त प्रचार हो चुका है और ऐसे प्रचार की ओर जरूरत नहीं है। लेकिन मैं ईमानदारी के साथ स्वीकार करता हूं कि यदि आप गांवों में जाएं तो वहां बड़े पैमाने पर छुआछूत है और इसे खत्म करने के लिए संविधान में किए गए प्रावधान का स्वागत होना चाहिए। दूसरी चीज है, जबरिया मजदूरी (बेगार) का उन्मूलन। संविधान में ऐसे प्रावधानों से मैं आश्वस्त हूं कि इससे वह समुदाय ऊपर उठेगा जो कि समाज के हाशिये पर है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देश के प्रमुख अंगों को खत्म करने वाले इस फफुंद की शिनाख्त की थी। उन्होंने (बापू) ने इन बुराइयों को खत्म करने के लिए महत्वपूर्ण सुझाव दिए थे और मैं खुश हूं कि ड्राफ्टिंग कमेटी ने छुआछूत तथा जबरिया मजदूरी को खत्म करने के लिए प्रावधान किए हैं।’
गांधी और अंबेडकर राजनीतिक रूप से दो छोर पर थे। मगर दोनों ही छुआछूत को खत्म करना चाहते थे। अंबेडकर तो खैर संविधान के वास्तुकार ही थे, लेकिन संविधान सभा की बहसों में गांवों को मजबूत करने और छुआछूत को खत्म करने के लिए गांधी का जिक्र बार-बार आता है। बंगाल से चुनकर आए मोनो मोहन दास ने 29 नवंबर, 1948 को बहस में हिस्सा लेते हुए कहा, ‘अस्पृश्यता से संबंधित उपखंड का प्रावधान मौलिक अधिकारों के लिहाज से अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह उपखंड कुछ अल्पसंख्यक समुदायों को विशेषाधिकार या सुरक्षा प्रदान नहीं करता, बल्कि 16 फीसदी भारतीय आबादी को उत्पीडऩ और हताशा से बचाने का प्रयास करता है। छुआछूत के रिवाज ने न केवल लाखों लोगों को गहरी हताशा और अपमान सहने को मजबूर किया, बल्कि इसने हमारे देश की चेतना को ही नुकसान पहुंचाया है।’
वी आई मुन्नीस्वामी पिल्लई की तरह मोनो मोहन दास भी एक दलित थे। उन्होंने आगे कहा, ‘इस नए युग के मुहाने पर कम से कम हम जैसे अस्पृश्य राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के शब्द सुन सकते हैं, जो कि इन उत्पीडि़त समुदाय के प्रति पूरी संवेदना और प्रेम से उनके संतप्त दिल से निकले थे। गांधी जी ने कहा था, मैं दोबारा जन्म नहीं लेना चाहता। लेकिन यदि मेरा पुनर्जन्म होता है, तो मैं चाहूंगा कि मेरा जन्म एक हरिजन, एक अस्पृश्य के रूप में हो ताकि मैं उनके निरंतर संघर्ष, उन पर हुए अत्याचार को समझ सकूं जिसने इन वर्गों पर कहर ढाया है।’
संविधान सभा में कुल 389 सदस्य थे, जिनमें पंडित जवाहर लाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल, राजेंद्र प्रसाद, बी आर अंबेडकर, राजगोपालाचारी, सरोजनी नायडु, मौलाना अबुल कलाम आजाद जैसे दिग्गज थे। ऐसी विशिष्ट सभा में मीनू मसानी जैसे अल्पसंख्यक (पारसी) और मुन्नीस्वामी तथा मोनो मोहन दास जैसे दलितों और अपेक्षाकृत युवा नेताओं को अपनी पूरी बात कहने की आजादी है। यही उदारता संविधान सभा को विशिष्ट बनाती थी। हाल ही में संपन्न संसद के मानसून सत्र को देखें, जिसमें बिना बहस जिस ढंग से सारे बिल पारित किए गए, तो कहने की जरूरत नहीं कि हम कहां आ गए।
यह सवाल आजादी के बाद की तमाम सरकारों से किया जा सकता है कि उन्होंने गांधी को कितना माना और उनकी बातों पर कितना अमल किया। मौजूदा परिदृश्य में हालात और भी भयानक हैं। यह वह दौर है, जब गांवों को मजबूत करने के बजाए देश में पांच सौ नई स्मार्ट सिटी बनाए जाने की वकालत की जा रही है। अनुसूचित जाति या दलितों की आज भी क्या स्थिति है, यह हाथरस की घटना से समझा जा सकता है, जहां एक दलित लडक़ी के साथ बर्बरता की गई और जब उसे बचाया नहीं जा सका, तो रात के अंधेरे में संदिग्ध हालात में उसकी अंत्येष्टि कर दी गई!
गांधी को स्वच्छता अभियान के ‘लोगो’ तक सीमित कर दिया गया है, जरूरत इस लोगो में अंकित उनके चश्मे से दूर तक देखने की है।
-सुदीप ठाकुर
कल शाम मानपुर से मित्र के एस कुंजाम ने संदेश भेजा कि देव प्रसाद आर्य नहीं रहे! कद्दावर आदिवासी नेता देव प्रसाद आर्य से हुई मुलाकातें सहसा याद आ गईं। यों तो उन्हें 1980-90 के दशकों के दौरान एकाधिक बार देखने का मौका मिला था। मगर उनसे लंबी बात करने का पहला मौका मिला था 2013 के छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव के दौरान। छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव जिले के महाराष्ट्र तथा बस्तर से सटे घने जंगलों वाले मानपुर-मोहला क्षेत्र के उनके गांव हथरा में हुई मुलाकात आदिवासियों के संघर्ष के साथ ही इस अंचल की स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका को जानने-समझने का अवसर बन गई। बिना दूध की चाय के कई दौर के साथ हुई इस बातचीत में उन्होंने बताया था कि कैसे बेमेतरा में स्कूल की मास्टरी करते हुए वह कम उम्र में ही स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए थे और फिरंगी सरकार के अधिकारियों को धता बताकर प्रभात फेरियां निकालते थे। आखिरकार उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया था।
आजादी मिलने के कई वर्षों बाद उन्होंने मास्टरी छोड़ दी और राजनीति से जुड़ गए और उनकी प्रेरणा बने एक अन्य महान आदिवासी नेता लाल श्याम शाह।
लाल श्याम शाह मोहला पानाबरस के जमींदार थे और उन्होंने आदिवासियों के हक में लंबी लड़ाई लड़ी थी। उनके कई आंदोलनों में देव प्रसाद आर्य कंधे से कंधा मिलाकर उनके साथ थे। लाल श्याम शाह कभी किसी राजनीतिक दल का हिस्सा नहीं बने और उन्होंने दो बार निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चौकी विधानसभा से चुनाव जीता था। उन्होंने आदिवासियों के हक के लिए समय से पूर्व विधानसभा से इस्तीफा भी दिया। उनके बाद 1962 तथा 1967 में चौकी सीट से देव प्रसाद आर्य ने चुनाव जीता। देव प्रसाद आर्य प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी में रहे। उनकी दलगत प्रतिबद्धता लाल श्याम शाह के आंदोलनों से उन्हें अलग नहीं कर सकी। मेरी किताब लाल श्याम शाह, एक आदिवासी की कहानी के सिलसिले में उनसे काफी बातें हुई थीं।
करीब सवा दो वर्ष पूर्व एक मई, 2018 को लाल श्याम शाह के 100वें जन्मदिन के मौके पर जब पानाबरस नागरिक समिति ने मेरी किताब को केंद्रित कर आदिवासी अधिकारों का सवाल विषय पर एक सम्मेलन आयोजित किया था, तो 90 वर्ष से अधिक उम्र होने के बावजूद देव प्रसाद आर्य जी न केवल उसमें आए थे, बल्कि अपनी दमदार आवाज से सभा को संबोधित भी किया था।
लाल श्याम शाह की तरह ही देव प्रसाद आर्य खांटी आदिवासी नेता थे, जिन्हें सत्ता के तमाम प्रलोभन कभी प्रभावित नहीं कर सके। सही मायने में उन्हें जीते जी वैसा सम्मान नहीं मिला, जिसके वे हकदार थे। उनके निधन से छत्तीसगढ़ ने एक और कद्दावर नेता खो दिया...
दो दिन पहले राजनांदगांव से दोस्त संजय अग्रवाल ने शरद कोठारी जी पर केंद्रित किताब के छपने की सूचना के साथ उसमें संकलित मेरे संस्मरण की तस्वीर खींचकर भेजी। शरद कोठारी छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश के लोगों के लिए जाना पहचाना नाम है। 1950 के दशक में अविभाजित मध्य प्रदेश की राजधानी नागपुर में कॉलेज की पढ़ाई के दौरान वह गजानन माधव मुक्तिबोध के संपर्क में आए थे। संभवत: पढ़ाई के दौरान ही वह मुक्तिबोध के साथ नया खून अखबार से भी जुड़ गए थे। 1958 में जब राजनांदगांव रियासत की पूर्व महारानी सूर्यमुखी देवी ने शहर में कॉलेज शुरू करने का इरादा जताया तो नांदगांव शिक्षण समिति का गठन किया गया, जिसमें बुद्धिजीवी, साहित्यकार, वकील इत्यादि शामिल थे। बताते हैं कि उसी दौरान पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, बल्देव प्रसाद मिश्र के साथ ही मुक्तिबोध को इस कॉलेज से जोडऩे का फैसला किया गया। मुक्तिबोध को राजनांदगांव लाने में शरद कोठारीजी की बड़ी भूमिका थी। खुद कोठारीजी ने 1956 में सबेरा के नाम से एक पाक्षिक शुरू किया, जिसे बाद में सबेरा संकेत के नाम से दैनिक कर दिया गया। 1987-88 में कॉलेज की पढ़ाई करने के बाद मैंने भी सबेरा संकेत में करीब तीन महीने तक काम किया था। इसी 14 अगस्त को वे 85 वर्ष के हो जाते। गणेशशंकर शर्माजी ने कई वर्षों के परिश्रम और समर्पण के साथ उन पर यह संस्मरण ग्रंथ तैयार किया है। यह कहने में संकोच नहीं है कि मेरे पिता रविभूषण ठाकुर के सहपाठी और मेरे बड़े बाबूजी (ताऊ जी) के प्रिय शिष्यों में शुमार रहे शरद कोठारी जी की कालांतर की पत्रकारिता से कुछ असहमतियां रही हैं। मगर सबेरा संकेत एक समय राजनांदगांव की धडक़न हुआ करता था...। करीब चार वर्ष पहले मैंने यह संस्मरण लिखा था, तबसे बहुत कुछ बदल गया है.... आदरणीय शरद कोठारीजी को नमन....
-सुदीप ठाकुर
अभी बर्लिन की दीवार का गिरना बाकी थी। मिखाइल गोर्बाचेव के पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त का उत्तर अध्याय शुरू नहीं हुआ था। सोवियत संघ का टूटना बाकी था। आर्थर डंकल के मसौदे पर संघर्ष जारी था। दुनिया भर में विश्व व्यापार मंच (डब्ल्यूटीओ) अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ), विश्व बैंक (वल्र्ड बैंक) जैसी शब्दावलियों को बोलचाल का हिस्सा बनना बाकी था। नर्मदा बांध के खिलाफ मेधा पाटकर का अनथक संघर्ष जारी था। अंतत: इस लड़ाई को बांध की ऊंचाई तक सिमट जाना बाकी था। बी पी मंडल की सिफारिशों पर अमल बाकी था, और सोमनाथ से अयोध्या तक आडवाणी की रथयात्रा का निकलना बाकी था। अभी पी वी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की जोड़ी का देश को आर्थिक उदारीकरण के उस हाई वे पर ले जाना बाकी था, जहां से लौटने का कोई रास्ता दूर-दूर तक नजर नहीं आता था!
1980 के दशक के आखिरी वर्षों में ऐसे ही घटनाक्रमों की पृष्ठभूमि में 1987-88 में मैंने कॉलेज की पढ़ाई पूरी की थी। भविष्य को लेकर तस्वीर बहुत साफ नहीं थी। रायपुर में एकाध नौकरी भी कर ली थी, मन लगा नहीं सो छोड़ आया था।
तारीख याद नहीं, शायद सितंबर का महीना था, जब मैं राजनांदगांव के रामाधीन मार्ग स्थित सबेरा संकेत के दफ्तर पहुंच गया था। सुबह का समय था। शरद कोठारीजी सामने ही बैठे अखबार पलट रहे थे। मैंने कहा, आपके अखबार में काम करना चाहता हूं। थोड़े से औपचारिक सवालों के बाद उन्होंने कहा, कब से शुरू करोगे। मेरा जवाब था, जब आप कहें। बस उसी वक्त सबेरा संकेत की नौकरी शुरू हो गई। मैंने शायद तीन महीने भी सबेरा संकेत में काम नहीं किया था। लेकिन किसी अखबार के दफ्तर में काम करने का यह मेरा पहला अनुभव था।
शरद कोठारीजी पर कुछ लिखने के लिए मैं खुद को योग्य इसलिए नहीं पाता क्योंकि सिर्फ उम्र, ही नहीं, अनुभव के लंबे फासले के साथ ही वह मेरे दिवंगत पिता रविभूषण ठाकुर के स्कूल (स्टेट हाई स्कूल) के सहपाठी भी थे।
शरद कोठारीजी और सबेरा संकेत दरअसल एक ही सिक्के के दो पहलू कहे जा सकते हैं। हालांकि उनके व्यक्तित्व का यह सिर्फ एक आयाम था। सच यह है कि मैं राजनांदगांव की उस पीढ़ी से ताल्लुक रखता हूं जो उस दौर में बड़ी हुई, जब कोई कुछ भी हासिल कर लेता था, तो उसकी प्रामाणिकता तब तक संदिग्ध होती थी, जब तक कि वह सबेरा संकेत में नुमाया न हो जाए! सबेरा संकेत के दूसरे और आखिरी पन्ने में न जाने कितने लोगों को ‘नगर का गौरव’ होने का सौभाग्य मिला। राजनीतिक आंदोलन हो, साहित्यिक-सांस्कृतिक गतिविधियां हो या किसी की पीएचडी पूरी हो, यदि उसकी खबर सबेरा संकेत में न छपे तो मानो उस पर कोई यकीन ही न करे। किसी कस्बानुमा शहर से निकलने वाले अखबार की ऐसी विश्वसनीयता बहुतों को हतप्रभ कर सकती है।
पिछले दिनों विधानसभा चुनावों के दौरान केरल की राजधानी तिरुवनंतपुरम से चुनाव लड़ रहे क्रिकेटर श्रीसंत ने एक साक्षात्कार के दौरान मुझसे कहा था कि अब वे अखबार पढऩे की शुरुआत स्पोर्ट्स पेज के बजाय फ्रंट पेज से करते हैं। मुझे लगता है कि सबेरा संकेत के आखिरी और दो नंबर पेज (मुझे पता नहीं कि अब इसका प्रोफाइल किस तरह का है) से शुरुआत करने वाले लोग अधिक होंगे, क्योंकि उसमें नगर से संबंधित खबरें छपती हैं। यह एक शहर से एक अखबार के जुड़ाव का सबसे बड़ा प्रमाण है। मैं खुद इसके अंतिम पृष्ठ का एक सजग पाठक रहा हूं। सबेरा संकेत के पाठकों को शरद कोठारीजी का आखिरी पेज पर छपने वाला कॉलम नगर दर्पण भी याद होगा। नगरवासी के नाम से लिखा जाने वाला यह कॉलम सिर्फ उनकी रोचक भाषा-शैली ही नहीं, बल्कि शहर की नब्ज पर उनका हाथ होने का भी प्रमाण था।
जैसा कि मैंने शुरू में कहा कि मैं उस दौर में पत्रकारिता में आया जब नई आर्थिक नीतियां लागू नहीं हुई थीं। 1991 के बाद उदारीकरण की प्रक्रिया लागू होने के बाद पत्रकारिता का भी पूरा परिदृश्य बदल गया। सबेरा संकेत की सबसे बड़ी सफलता यही है कि उस दौर में जब बड़े शहरों और राजधानियों से निकलने वाले अखबारों ने अपना कलेवर बदल लिया, जिला और तहसील स्तर तक के परिशिष्ट अलग से निकालने लगे तब भी वह कायम है।
दुनिया भर में अखबारों के भविष्य को लेकर बहसें हो रही हैं। पश्चिम के अमीर देशों में अखबारों का मर्सिया तक पढ़ा जा रहा है। अमेरिका का प्रतिष्ठित अखबार ‘न्यूयॉर्क टाईम्स’ का हाल यह है कि आज वह दुनिया भर में अपना कंटेंट बेचने को मजबूर हो गया है। उसकी सिंडिकेट सेवा हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को अपना माल बेचने को मजबूर हो गई है। हालांकि भारत में परिदृश्य अभी इतना भयावह नहीं है। यहां आज भी अखबार फल-फूल रहे हैं, बेशक यह सवाल उठ सकता है कि उसमें से कितने ‘पीत’ और ‘प्रीत’ पत्रकारिता कर रहे हैं।
पत्रकारिता के सामने असल चुनौती अब गति की है। खबरिया टीवी चैनलों की चुनौतियों को तो अखबारों ने झेल लिया, लेकिन वेब पत्रकारिता और खासतौर से मोबाइल फोन पर खबरों के सिमट आने की वजह से मुश्किलें आने वाले समय में बढ़ेंगी। पूंजी भी अपने साथ चुनौतियां लेकर आ रही है। वह अखबारों को अपनी प्रतिबद्धताओं से दूर कर रही है?
तब रास्ता क्या होगा? तब सबेरा संकेत जैसे क्षेत्रीय अखबारों के लिए संभावनाएं बढ़ेंगी।
कुछ वर्ष पूर्व मुझे दिल्ली में हुए वान आइफ्रा (वल्र्ड एसोसिएशन ऑफ न्यूज पेपर्स ऐंड न्यूज पब्लिसर्श) के एक सम्मेलन और कार्यशाला में हिस्सा लेना का मौका मिला था। यह सम्मेलन युवा पाठकों पर केंद्रित था। वहां ब्राजील से निकलने वाले एक अखबार जीरो होरा (यानी जीरो ऑवर) की एक संपादक एंजेला रावाजोलो ने एक रोचक किस्सा बताया था। उसने बताया कि एक विश्व कप फुटबॉल के दौरान अर्जेंटीना और ब्राजील के बीच मुकाबला था। जीरो होरा ने फ्रंट पेज पर अर्जेंटीना की टीम की जर्सी का फोटो लगाया और कैप्शन लिखा, अर्जेंटीना के लिए चियर्स मत करना! और यह मैच ब्राजील जीत गया।
पाठकों से ऐसा जुड़ाव ही तो अखबार की ताकत है। सबेरा संकेत तो यह काम कर ही रहा है।
सुदीप ठाकुर
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव आज यानी 11 जून को 72 वर्ष के हो रहे हैं। उनके जन्मदिन पर उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल ने 72 हजार से अधिक गरीब लोगों को खाना खिलाने का एलान किया है। इसकी जानकारी पार्टी के नेता और उनके पुत्र तेजस्वी ने ट्वीटर के जरिये दी है। लालू खुद इस समय चारा घोटाले के मामले में झारखंड की एक जेल में सजा काट रहे हैं। ऐसे समय जब बिहार में कुछ महीने बाद विधानसभा चुनाव हैं, उनके जन्मदिन का यह आयोजन बताता है कि उनकी पार्टी को अब भी उनकी राजनीतिक विरासत पर भरोसा है।
आखिर क्या है उनकी राजनीतिक विरासत? फिर एक ऐसा नेता, जिसे भ्रष्टाचार के मामले में दोषी ठहराया जा चुका हो, जो जेल में हो और लंबी अदालती लड़ाइयों तथा बीमारियों के कारण जिसके सक्रिय राजनीति में लौटने के कोई आसार भी नजर न आ रहे हों, उसके नाम पर लोग क्यों भरोसा करेंगे? ऐसे दौर में जहां नरेंद्र मोदी और अमित शाह देश की राजनीति की धुरी बन गए हैं, और जिनकी रणनीतियों के आगे सारे सियासी समीकरण ध्वस्त हो जाते हों, लालू की राजनीति क्या मायने रखती है?
पांच दशक के सक्रिय राजनीतिक जीवन के जरिये लालू ने साबित किया है कि आप उन्हें नजरंदाज नहीं कर सकते। 1974 के जेपी आंदोलन से निकले लालू यों तो 1977 में जनता लहर में सवार होकर पहली बार लोकसभा पहुंचे थे, लेकिन 1989-90 के दौर में वह एक अवधारणा की तरह उभरे। फरवरी 1988 में बिहार के महान समाजवादी नेता कर्पूरी ठाकुर के निधन के बाद वह विधानसभा में प्रतिपक्ष के नेता चुने गए थे और यहीं से उनकी सामाजिक न्याय की राजनीति की शुरुआत हुई। मार्च, 1990 में महज 42 साल की उम्र में लालू बिहार के मुख्यमंत्री बने थे और यह गोपालगंज से निकले एक चरवाहे के बेटे के लिए वाकई बड़ी उपलब्धि थी, जिसने भीषण गरीबी देखी थी। मुख्यमंत्री बनने के कई दिनों बाद तक भी वह वेटर्नरी कॉलेज के उसी सर्वेंट चर्टर में रहते थे, जहां उन्हें कभी उनके चपरासी भाई के पास पढऩे के लिए भेजा गया था!
मुख्यमंत्री बनने के शुरुआती दिनों में वह अचानक हेलीकॉप्टर से किसी गांव में उतर जाते थे और लोगों से सीधे संवाद करने लगते थे। उनकी आत्मकथा गोपालगंज से रायसीना में, मेरी राजनीतिक यात्रा (सह लेखक, नलिन वर्मा) के इस संवाद पर गौर कीजिए:
'क्या लालू ने तुमको रोटी दी?'
'नहीं।'
'क्या उसने तुमको मकान दिया?'
'नहीं।'
'क्या उसने तुमको कपड़ा दिया?'
'नहीं।'
'तो फिर उसने तुम्हारे कल्याण के लिए क्या किया?'
'जीवन में स्वर्ग सब कुछ नहीं होता। उन्होंने हमें स्वर दिया।'
मुख्यमंत्री बनने के बाद लालू ने पहले दो काम किए, गरीबों से सीधा संवाद और मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद जातियों का गठजोड़। लालू ने इसके चलते अमूमन अमीर लोगों के लिए आरक्षित रहने वाले पटना क्लब को निचली जातियों के लोगों के शादी और अन्य पारिवारिक कार्यक्रमों के लिए खुलवा दिया। ऊंची जातियों के वर्चस्व को तोडऩे की दिशा में यह प्रतीकात्मक कदम था। इसके बाद अगले चरण में उन्होंने सांप्रदायिक सौहार्द कायम करने को अपनी राजनीति का हिस्सा बनाया। यही वह दौर था, जब मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू किए जाने के बाद, जिसके एक वास्तुकार खुद लालू भी थे, भारतीय जनता पार्टी ने मंदिर आंदोलन को उभारना शुरू किया था। 23 अक्तूबर, 1990 को बिहार में प्रवेश कर रही लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा को लालू के निर्देश पर रोका गया और उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। यह मंडल बनाम कमंडल की राजनीति का चरम था।
लालू ने अपने सियासी फायदे के लिए एमवाई (मुस्लिम-यादव गठबंधन) बनाया, जिसका लाभांश भी उन्हें मिला। लालू के आलोचक भी यह स्वीकार करते हैं कि जेपी आंदोलन से निकले वह अकेले नेता हैं, जिन्होंने सांप्रदायिकता से कभी समझौता नहीं किया। यही वजह है कि भाजपा से उनकी पटरी कभी नहीं बैठी। जबकि नीतीश कुमार हों या रामविलास पासवान भाजपा के साथ कभी असहज नहीं रहे।
यह सवाल अब काल्पनिक है कि यदि लालू प्रसाद यादव चारा घोटाले में दोषी नहीं ठहराए जाते, तो बिहार और देश की राजनीति कैसी होती? वह भी ऐसे समय, जब संसद के भीतर और बाहर विपक्ष बिखरा हुआ है। हकीकत यही है कि चारा घोटाले के अनेक मामलों में उन्हें दोषी ठहराया जा चुका है और यह लड़ाई अभी काफी लंबी है। इतनी लंबी की उनकी सक्रिय राजनीति में वापसी असंभव लगती है।
अक्तूबर, 2013 में चारा घोटाले के मामले में दोषी ठहराए जाने के कारण लोकसभा से उनकी सदस्यता खत्म कर दी गई थी और उन पर चुनाव लडऩे पर रोक भी लगा दी गई। उनके साथ दोषी ठहराए गए जनता दल (यू) के जगदीश शर्मा की भी लोकसभा से सदस्यता खत्म हो गई थी। वास्तव में लालू उन गिने-चुने नेताओं में से हैं, जिन्हें भ्रष्टाचार के मामले सजा हुई है और जिनकी लोकसभा या विधानसभा से सदस्यता रद्द हुई है, तथा जिनके चुनाव लडऩे पर रोक लगाई गई।
इस मामले में समकालीन भारतीय राजनीति में लालू प्रसाद यादव की किसी अन्य राजनेता से तुलना हो सकती है, तो वह तमिलनाडु की दिवंगत पूर्व मुख्यमंत्री जे जयललिता थीं, जिन्हें भी भ्रष्टाचार के मामले में दोषी ठहराया गया, जिनकी वजह से उन्हें भी पद छोडऩा पड़ा था। हालांकि एक बड़ा फर्क यह है कि जयललिता राजनीतिक रूप से उस तरह से आज भी अस्वीकार्य नहीं हैं, जिस तरह से लालू प्रसाद यादव। बेशक, जयललिता अपनी अनुपस्थिति में आज भी तमिलनाडु में लोकप्रिय हैं, मगर लालू भी अपने उत्कर्ष में ऐसे ही लोकप्रिय थे।
लालू और जया दोनों का सियासी सफर एकदम जुदा रहा है और फिर हिंदी भाषी प्रदेश और तमिलनाडु की राजनीति में भी फर्क है।सबसे बड़ा फर्क तो यही है कि जयललिता से भारतीय जनता पार्टी को कभी परहेज नहीं रहा। तब भी जब नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से भ्रष्टाचार को लेकर 'जीरो टालरेंस' के दावे किए जाते हैं। जयललिता का अन्नाद्रमुक एनडीए का हिस्सा है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री पलनीस्वामी के दफ्तर में एमजी रामचंद्रन के साथ ही अम्मा यानी जयललिता की फोटो लगी हुई है। वास्तविकता यही है कि दिवंगत अम्मा आज भी अन्नाद्रमुक की सुप्रीम लीडर हैं।
लालू और जयललिता भ्रष्टाचार के अलग-अलग सियासी चेहरे हैं।
इसके बावजूद भ्रष्टाचार को कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता। झारखंड की जेल में सजा काट रहे लालू प्रसाद यादव को अपने राजनीतिक गुरु कर्पूरी ठाकुर से जुड़ा यह किस्सा याद आता होगा। पहली बार उपमुख्यमंत्री बनने के बाद कर्पूरी ठाकुर ने अपने बेटे रामनाथ को एक पत्र लिखा। पत्र का मजमून कुछ इस तरह से था: 'तुम इससे प्रभावित नहीं होना। कोई लोभ लालच देगा, तो उस लोभ में नहीं आना। मेरी बदनामी होगी।'
सुदीप ठाकुर का ब्लॉग : विस्थापितों के संकट का सामना किया था नेहरू ने
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मार्च की रात जब देशव्यापी लॉकडाउन लागू करने की घोषणा की थी, तो संभवतः इसका अंदाजा नहीं था कि लाखों लोग अपने घरों के लिए निकल पड़ेंगे। ये कौन लोग थे? इसका उत्तर तलाशे बिना सरकार, मीडिया, सोशल मीडिया, नीति नियंता, औद्योगिक जगत, बुद्धिजीवी और साहित्यकार यहां तक कि आम जन ने उनके लिए एक शब्द चुना और वह है 'माइग्रेंट लेबर' या प्रवासी मजदूर। सरकार के एक कदम से यह प्रवासी मजदूर अपने घर लौटने लगा। उसने सरकार से कोई खास अपेक्षा भी नहीं की, शायद उसे बहुत उम्मीद भी नहीं थी। मगर इन दो महीनों के दौरान हमने एक ऐसी परिघटना को देखा जिसे 'रिवर्स माइग्रेशन' कहा जा रहा है, यानी विपरीत दिशा में पलायन। यह विपरीत दिशा उनके घर की ओर जाती है। घर लौटना 'विपरीत' कैसे हो सकता है! यह समय कैसी-कैसी नई शब्दावलियां गढ़ रहा है, यह अलग विचार का विषय है। लेकिन घर लौटते लाखों मजदूरों ने घड़ी की सुई को 73 वर्ष पीछे विपरीत दिशा में धकेल दिया है, जब आजादी मिलने के साथ ही देश को विभाजन की त्रासदी से गुजरना पड़ा था। उस समय देश की पहली सरकार को विभाजन की वजह से हो रहे विस्थापन के कारण आज से कहीं अधिक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा था। इन दिनों जब अक्सर पंडित जवाहर लाल नेहरू को 'विलेन' और 'विदूषक' की तरह पेश किए जाने की कोशिश होती रहती है, यह देखना एक सबक की तरह हो सकता है कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री और उनकी सरकार ने इस चुनौती का किस संवेदनशीलता के साथ सामना किया था।
आगे बढ़ने से स्पष्ट कर दूं कि विभाजन की वजह से हुए विस्थापन और आज हो रहे प्रवासी मजदूरों के पलायन की प्रकृति और कारण में मौलिक अंतर है, लेकिन ये दोनों मानवीय त्रासदियां हैं, इससे कौन इंकार कर सकता है।
विभाजन के बाद जो नया देश पाकिस्तान के नाम से बना था, वह दो हिस्सों में बंटा हुआ था, पश्चिमी पाकिस्तान ( यानी आज का पाकिस्तान) और पूर्वी पाकिस्तान (यानी आज का बांग्लादेश)। 15 अगस्त, 1947 के तुरंत बाद भय, आशंका, और असुरक्षा के बीच बड़ी संख्या में शरणार्थियों का भारत आने का सिलसिला शुरू हो गया था। इन शरणार्थियों को विस्थापित भी कहा जा रहा था। 1950 के आते आते पश्चिमी पाकिस्तान से आने वाले विस्थापितों की संख्या सीमित हो गई थी, लेकिन पूर्वी पाकिस्तान से लगातार विस्थापितों का आना जारी था। आजादी के बाद 1951 में कराई गई पहली जनगणना में उस समय देश के तीसरे महानगर कलकत्ता की कुल आबादी में 27 फीसदी आबादी पूर्वी पाकिस्तान से आए बांग्ला शरणार्थियों की थी! (http://www.catchcal.com/kaleidoscope/people/east.asp) इनमें से अधिकांश पूर्वी पाकिस्तान से आए बांग्ला शरणार्थी थे।
इस बीच, पंडित नेहरू ने एक जनवरी, 1950 को नागपुर में एक पत्रकार वार्ता में कहा, 'पश्चिम बंगाल को किसी भी प्रांत और देश के किसी भी हिस्से की तुलना में विभाजन और उसके बाद की घटनाओं का असर अधिक झेलना पड़ा है। पंजाब को भी कष्ट उठाने पड़े हैं जहां नरसंहार हुए, वहीं आर्थिक रूप से पश्चिम बंगाल को अधिक मुश्किलों का सामना करना पड़ा।' ( द लाइफ ऑफ पार्टीशनः ए स्टडी ऑन द रिकंस्ट्रक्शन ऑफ लाइव्स इन वेस्ट बंगाल)। इसी बीच इसी मुद्दे पर संसद में बहस के दौरान सुचेता कृपलानी ने कहा, 'देश के विभाजन का फैसला पश्चिम बंगाल ने नहीं लिया था, बल्कि यह फैसला हिंदुस्तान का था, इसलिए यह शरणार्थी समस्या पूरे देश की है और सभी राज्यों को पुनर्वास में हिस्सेदारी बंटानी चाहिए।'
कोरोना के संकट काल में अभी संसद और राज्यों की विधानसभाएं स्थगित हैं। प्रधानमंत्री ने महामारी फैलने और लॉकडाउन के दौरान विपक्षी नेताओं के साथ संभवतः एक बार ही वीडियो कांफ्रेंस के जरिये चर्चा की है। वह राज्यों के मुख्यमंत्रियों से पांच बार ऐसी चर्चा कर चुके हैं। मगर विभाजन के बाद की सबसे बड़ी त्रासदी पर अब तक संसद में कोई बात नहीं हुई है, क्योंकि बजट सत्र को नियत तिथि से 13 दिन पहले 22 मार्च को स्थगित कर दिया गया।
अब जरा पीछे लौटिये। पूर्वी पाकिस्तान के विस्थापितों को पहले तो असम, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा जैसे राज्यों में बसाया गया। उनकी संख्या जब बढ़ने लगी तो सरकार को उनके लिए नई जगहें तलाशनी पड़ी। संसद में तो इस पर लगातार संवाद होता रहा, उससे बाहर राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठकों में भी इस पर गहन विमर्श हुआ। खुद नेहरू इस मुद्दे को गंभीरता से ले रहे थे। छह मई, 1955 को राष्ट्रीय विकास परिषद की चौथी बैठक हुई जिसमें चर्चा तो दूसरी पंच वर्षीय योजना पर होनी थी, मगर नेहरू ने भोजनवाकाश के बाद उस दिन के सबसे आखिरी बिंदु विस्थापितों के मुद्दे पर सबसे पहले चर्चा शुरू करवा दी।
उन वर्षों में हुई राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठकों के ब्यौरे बताते हैं कि प्रधानमंत्री नेहरू, उनकी पूरी केबिनेट और राज्यों के मुख्यमंत्रियों के बीच किस लोकतांत्रिक मर्यादा में रहते हुए किस तरह खुल कर चर्चा होती थी। नेहरू मंत्रिमंडल में बकायदा मेहरचंद खन्ना शरणार्थी और पुनर्वास मामलों के मंत्री थे। आज हम प्रवासी मजदूरों का संकट जिस रूप में सामने आया है, उसमें उनके लिए अलग मंत्रालय के बारे में क्यों विचार नहीं हो सकता?
आखिरकार जब विस्थापितों को 80 हजार वर्ग मील में फैले दंडकारण्य में बसाने पर सहमति बनी तो उससे पहले काफी विचार विमर्श हुआ। यहां तक पहुंचने से पहले नेहरू ने विस्थापितों को बसाने के लिए जगह की उपलब्धता जानने के लिए तकरीबन हर मुख्यमंत्री से सुझाव मांगे। मुख्यमंत्रियों ने भी सुझाव देने और अपनी मुश्किलें बताने में कमी नहीं की। इन बैठकों में आए सुझावों से पता चलता है कि उस समय देश के सामने आधारभूत संरचना के निर्माण की कैसी चुनौती थी। पुराने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल से जब नेहरू ने बस्तर के बारे में पूछा तो उनका जवाब था, 'हां, ऐसा संभव है, बशर्ते की जंगलों की कटाई हो और संपर्क के लिए 120 मील तक सड़कों का निर्माण कराया जाए।'
बाद में दंडकारण्य प्रोजेक्ट परियोजना बनी, जिसके तहत विस्थापितों को बसाने की पहल की गई, मगर उसकी अपनी दिक्क्तें थीं। जो लोग पूर्वी पाकिस्तान से आ रहे थे उनके लिए दंडकारण्य की पारिस्थितिकी अनुकूल नहीं थी। विस्थापितों को बसाने को लेकर स्थानीय आदिवासियों की ओर से विरोध का भी सामना करना पड़ा था।
नेहरू चाहते तो इतनी मशक्कत नहीं करते। उनका पीएमओ एक रिपोर्ट तैयार कर उसे मुख्यमंत्रियों को सौंप सकता था, क्योंकि उस समय तो सारे मुख्यमंत्री कांग्रेस के ही थे! आज उनकी पुण्यतिथि है, लिहाजा उनकी याद आना स्वाभाविक है, मगर जब-जब देश बड़ी त्रासदी का सामना करता है, तो नेहरू याद आ ही जाते हैं।