सुनील कुमार
जब कभी किसी को इंसान का जिक्र करना हो, तो उसकी जगह पुरुष या मर्द का जिक्र करना काफी मान लिया जाता है। और तो और बहुत सी पढ़ी-लिखीं और सामाजिक कार्यकर्ता महिलाओं को भी बतलाने पर भी यह बात समझ नहीं आती कि उनकी जुबान में औरतों के साथ नाइंसाफी हो रही है।
ब्लॉग-न्यूज18 : सुनील कुमार
इन दिनों मीडिया के अच्छे-खासे जानकार लोग भी टीवी पर जिस तरह की जुबान बोलते हैं, और जैसी भाषा में लिखते हैं, उसमें अगर उनका नाम और चेहरा साथ न भी रहे, तब भी यह जाना जा सकता है कि लिखने वालों में मर्द अधिक हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं कि लड़कियों और महिलाओं की जुबान में कोई बहुत बड़ा फर्क हो। जब कभी किसी को इंसान का जिक्र करना हो, तो उसकी जगह पुरूष या मर्द का जिक्र करना काफी मान लिया जाता है। और तो और बहुत सी पढ़ी-लिखीं और सामाजिक कार्यकर्ता महिलाओं को भी बतलाने पर भी यह बात समझ नहीं आती कि उनकी जुबान में औरतों के साथ बेइंसाफी हो रही है।
दरअसल सदियां या हजारों बरस से महिलाओं को किसी भाषा में कोई जगह ही नहीं दी गई है। यह सिलसिला दुनिया के अधिकतर देशों के आजाद होने, वहां कानून या संविधान लागू हो जाने, महिलाओं को बराबरी का दर्जा देने और इक्कीसवीं सदी आ जाने के बाद भी जारी है। जब इंसान कहना हो, तो आदमी कहना काफी मान लिया जाता है। किसी का ध्यान दिलाएं, तो भी उनका यह मानना रहता है कि आदमी का मतलब तो आदमी और औरत दोनों ही होता है। एक किस्म से यह सोचना गलत इसलिए नहीं है कि हिन्दुस्तान जैसे देवियों वाले देशों में देवी पूजा के सैकड़ों या हजारों बरस बाद जो संविधान बना, और जो कानून बना, कानून की धाराएं बनीं, उनमें कहीं भी औरत के लिए अलग से संबोधन नहीं है। कानून भारतीय नागरिक के लिए अंग्रेजी का ‘ही’ शब्द इस्तेमाल करता है, और उसे पुल्लिंग की तरह ही लिखता है। भारत का नागरिक कहीं जाता है, खाता है, रहता है, न कि भारत की नागरिक कहीं जाती है, खाती है, या रहती है।
आदमी का जिक्र इस तरह से किया गया है कि मानो धरती पर पहले आदमी ही आया। शरीर विज्ञान यह कहता है कि औरत से मर्द ने जन्म लिया, न कि मर्द से औरत ने (जैसा कि अभी हाल के बरसों में चिकित्सा वैज्ञानिकों ने जरूर कर दिखाया है)। नतीजा यह हुआ कि मानव में स्त्री और पुरुष दोनों आ सकते थे, लेकिन पुरुष के भीतर स्त्री को मानो गिन ही लिया है।
भाषा की लैंगिक बेईमानी देखें, तो जंगल में कोई शेर नरभक्षी हो सकता है, आदमखोर हो सकता है, मैनईटर हो सकता है, और मानो वह हिंदी जुबान में नारीभक्षी नहीं हो सकता, उर्दू में औरतखोर नहीं हो सकता, और अंग्रेजी में वुमैनईटर नहीं हो सकता। हालांकि जानवरों का जेंडर-इंसाफ इंसानों के मुकाबले बहुत बेहतर है, और वे आदमी और औरत को बिना भेदभाव निशाना बनाते हैं। खुद जानवरों की, पशु-पक्षियों की बिरादरी को देखें तो वहां आमतौर पर मादा को रिझाने के लिए नर मेहनत करते हैं, उनके लिए तोहफे लेकर आते हैं, कुल मिलाकर वे इंसानों से बेहतर होते हैं।
भाषा को अनायास ही नहीं गढ़ लिया गया। जिस भाषा के व्याकरण की एक-एक बारीकी को लेकर ज्ञानी लोगों ने बड़ी मेहनत की, और फिर जिसे समाज पर इस तरह लादा गया कि कम पढ़े-लिखे लोग हमेशा ही भाषा की शुद्धता में कमजोर बने रहें, जिस भाषा को सामाजिक गैरबराबरी के लिए एक औजार की तरह ढाला गया, उस भाषा को हमेशा से ही औरत के खिलाफ भी बनाया गया। दूसरी भाषाओं के कहावत और मुहावरे तो मैं अधिक नहीं जानता, लेकिन भारत की हिंदी, और हिंदी की क्षेत्रीय भाषाओं-बोलियों की कहावतें देखें, मुहावरे देखें, तो वे औरतों के लिए एक बड़ी हिकारत से गढक़र बनाई गई हैं। औरतों की जिक्र वाली अधिकतर कहावतें उन्हें बुरी, अपशकुनी, बदचलन बताने वाली होती हैं। शायद ही कोई सकारात्मक बात औरतों के बारे में लिखी गई है, और यह भी तब है जब औपचारिक हिंदी शुरू होने के पहले से, उसके सैकड़ों बरस पहले से इस देश में देवी-पूजा होती आई है।
भाषा का सामाजिक अन्याय देखें तो उसके सुबूत पाना बड़ा आसान है। अंग्रेजी में मैन से शुरू होने वाले शब्द अगर ढूंढ़े जाएं, तो बड़ी संख्या में सामने आ जाएंगे। वुमन से शुरू होने वाले शब्द ढूंढ़ें तो गिने-चुने ही निकलेंगे। हिन्दुस्तान ही नहीं, दुनिया के बाकी देशों में भी जहां अंग्रेजी में बोर्ड लगाए जाते हैं, वहां सडक़ बनाती हुई महिला मजदूरों के आसपास भी मैन एट वर्क के बोर्ड देखने मिल जाएंगे, महिला मजदूर का तो कोई अस्तित्व ही नहीं होता। अंग्रेजी भाषा में महिलाओं के साथ बेइंसाफी को लेकर अधिक हैरानी नहीं होती। हिन्दुस्तान में आजादी के बाद से पहले चुनाव से ही महिलाओं को वोट देने का हक मिला, जो अंग्रेजी बोलने वाले कई बड़े-बड़े देशों में नहीं था। जहां सरकार चुनने के लिए महिलाओं को वोट देने का हक न हो, वहां की भाषा उनके साथ इंसाफ करे यह बात अटपटी होती।
जो अमेरिका अपने लोकतंत्र को ढाई सौ बरस से अधिक पुराना बताता है, उस लोकतंत्र में 1920 तक महिलाओं को वोट डालने का हक नहीं था। जो ब्रिटेन अपने आपको लोकतंत्र की जननी कहता है, उस लोकतंत्र में भी सैकड़ों बरस के संसदीय इतिहास के बाद जाकर 1918 और 1928 में दो कानून बनाकर महिलाओं को वोट का हक दिया गया था। अंग्रेजी भाषा तो इन दोनों ही देशों में इसके सैकड़ों बरस पहले से बन चुकी थी, इसलिए उसमें तो किसी इंसाफ की गुंजाइश थी नहीं।हम हिन्दुस्तान के कई महान लोगों को देख लें, जिनका अधिकतर लिखा और कहा किताबों में दर्ज भी है। वे सिर्फ आदमी, पुरूष, आता, जाता, खाता, की जुबान लिखते थे या हैं। आने वाली सदियों को लेकर उनकी महान सोच थी, वे सामाजिक न्याय की बात भी करते थे, लेकिन उनकी भाषा में नागरिक के रूप में, इंसान के रूप में औरत कहीं भी नहीं दिखती। ऐसे दूरदर्शी, ऐसे विचारक भी कुछ दशक बाद के नारीवादी-आंदोलन की कल्पना नहीं कर पाए थे, उसके मुद्दों की कल्पना नहीं कर पाए थे। सच तो यह है कि गांधी और अंबेडकर के रहते हुए ही इंग्लैंड और अमेरिका में महिला अधिकारों को लेकर बड़े-बड़े आंदोलनों का इतिहास बन चुका था, लेकिन ऐसे महान लोग भी भाषा की बेइंसाफी को या तो समझ नहीं पाए थे, या उसे समझकर भी जारी रखना उन्हें ठीक लगा था। पल भर के लिए याद करें कि गांधी के विशाल प्रभाव के दौर में जब भारत की संविधान सभा इस देश के लोकतंत्र की शब्दावली भी गढ़ रही थी, तब भी राष्ट्रपति, राज्यसभा के उपसभापति जैसे शब्द बनाते हुए उन्होंने इन ओहदों को क्या कभी किसी महिला के साथ सोचा था?
आज भी गांवों से लेकर शहरी फुटपाथ तक, और महानगरों में बहुत पढ़ी-लिखी महिलाओं तक, अगर गंदी गालियां देना तय करती हैं, तो उनकी सौ फीसदी गालियां ठीक महिलाओं पर वार करने वाली रहती हैं, जिस तरह कोई मर्द गालियां देता है। मर्द भी मां, बहन, और बेटी के नाम की गालियां देता है, और औरत भी गाली देने पर उतरती है, तो वह भी ये ही तमाम गालियां इस्तेमाल करती हैं। भाषा के सबसे हिंसक पहलू, गंदी गालियों के पीछे की लैंगिक राजनीति को ज्यादातर महिलाएं समझ नहीं पातीं।
हिन्दी के बड़े-बड़े दिग्गज लेखक, अखबारनवीस, या दूसरे माध्यमों के मीडियाकर्मी अपनी भाषा में औरत के अस्तित्व को समझ ही नहीं पाते। फिल्मी दुनिया में जहां कई अभिनेत्रियां लगातार महिलाओं के हक के लिए सार्वजनिक रूप से लड़ती हैं, उन्होंने कभी इस बात का विरोध नहीं किया कि फिल्मी दुनिया में मिलने वाले पुरस्कार और सम्मान किस तरह एक्ट्रेस शब्द को खो चुके हैं, और अब वे एक्टर तबके के भीतर ही गिनी जा रही हैं। अभी कुछ बरस पहले तक तो फिल्मी पुरस्कारों में अभिनेता और अभिनेत्री, एक्टर-एक्ट्रेस जैसे तबके होते थे, जो कि अब खोकर महज एक्टर-मेल, और एक्टर-फीमेल हो गए हैं। एक्ट्रेस शब्द कहां गया, किसी को पता नहीं।
भाषा की इस इंसाफी की कहानी अंतहीन है, महिलाओं के साथ यह बेइंसाफी उसी किस्म की है जिस किस्म की बेइंसाफी भाषा में गरीबों के लिए, पति खो चुकी महिलाओं के लिए, बीमारों और गरीबों के लिए, जानवरों के लिए, बूढ़ों के लिए रहती है। भाषा की इस राजनीति का विरोध करने की जरूरत है। जिस किसी को लिखने और बोलने में जहां इंसान के लिए मर्द का इस्तेमाल दिखे, वहां जागरूक लोगों को उसके बारे में तुरंत ही लिखना चाहिए, फिर चाहे बहस के मुद्दा कुछ भी हों, बोलने के मुद्दा कुछ भी हों। आज सोशल मीडिया की मेहरबानी से लोगों को दूसरों के लिखे एक-एक शब्द पर रोकने-टोकने की सहूलियत हासिल है, और उसका इस्तेमाल करना चाहिए। (hindi.news18)
ब्लॉग-न्यूज18 : सुनील कुमार
सोशल मीडिया को लेकर अमरीका से हिन्दुस्तान तक एक नई बहस छिड़ गई है क्योंकि अमरीकी कंपनी फेसबुक के बारे में अमरीका के ही एक कारोबारी अखबार द वॉल स्ट्रीट जर्नल ने यह रिपोर्ट छापी है कि भारत में फेसबुक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की पार्टी भाजपा के नेताओं द्वारा पोस्ट की गई भडक़ाऊ सामग्री को हटाने से हिचकती है क्योंकि उसे यह खतरा लगता है कि इससे केन्द्र की भाजपा-अगुवाई वाली भारत सरकार से संबंधों में तनाव खड़ा होगा। हालांकि फेसबुक ने इस रिपोर्ट के बाद यह सफाई दी है कि वह अपनी नीतियां लागू करते हुए नेताओं और पार्टियों का ख्याल नहीं करती है, और सभी पर एक तरह के नियम लागू करती है।
हो सकता है कि फेसबुक की बात सही भी हो। और यह बात भी अपनी जगह सही है कि फेसबुक कई किस्म के दूसरे गलत काम कर रही है जिसकी वजह से दुनिया के कई देशों में उस पर तरह-तरह का जुर्माना भी लगा है। वह अपने इस्तेमाल करने वाले लोगों की निजी जानकारी का कारोबारी इस्तेमाल करती है, और इसके लिए योरप में उस पर मोटा जुर्माना लगाया जा चुका है, वह अमरीका में भी तरह-तरह की सुनवाई के नोटिस पाते रहती है। कई देशों में वह संसद की कमेटियों के प्रति जवाबदेह है, कई देशों में अदालतों के कटघरे में है। कुल मिलाकर यह कि फेसबुक एक इतना बड़ा और विविधता वाला कारोबार है कि दुनिया के अलग-अलग देशों के अलग-अलग कानून से उसका कहीं न कहीं टकराव होता ही है। फेसबुक जैसा कोई कारोबार दुनिया के इतिहास में पहले नहीं था, इसलिए दुनिया में ऐसे कारोबार को नियंत्रित करने के लिए कोई कानून बने भी नहीं थे। अब जब यह धंधा बढ़ते-बढ़ते दुनिया के सबसे अधिक संख्या में लोगों की भागीदारी वाला प्लेटफॉर्म बन गया है तो अब सबको इसके बारे में अधिक नियम बनाने की जरूरत पड़ रही है।
अब अगर अमरीकी अखबार की रिपोर्ट देखें, तो यह बात जाहिर है कि फेसबुक नफरत से भरा हुआ है, हिंसा की धमकियों से भरा हुआ है, लेकिन कमोबेश ऐसा ही हाल ट्विटर का भी है। ट्विटर खबरों में कम आता है क्योंकि उसका एक बड़ा इस्तेमाल मीडिया के लोग भी करते हैं, लेकिन फेसबुक अधिक सामाजिक और कम पेशेवर लगता है जहां पर लोग नफरत को बड़े लंबे खुलासे से लिख सकते हैं, और लिखते हैं।
यह बात साफ है कि फेसबुक नफरत से भरा हुआ है। अब यहां पर दो सवाल उठते हैं कि यह नफरत कौन लोग फैला रहे हैं, पहली नजर में यह दिखता है कि हिन्दुस्तान में राष्ट्रवादी, हिन्दूवादी लोगों के बीच के अधिक आक्रामक लोग इसमें अधिक लगे हैं। कम से कम हिन्दी और अंग्रेजी इन दो भाषाओं की पोस्ट में इन्हीं की बहुतायत दिखती है, और बाकी भाषाओं की पोस्ट के बारे में कुछ कहना मुनासिब नहीं होगा, क्योंकि जिस भाषा को जानते नहीं उस पर क्या कहें।
लेकिन यह बात भी बहुत साफ है कि ट्विटर पर लोग दसियों हजार की संख्या में रात-दिन एक खास सोच के हिमायती होकर उससे असहमत तमाम सोच पर अधिकतम संभव हिंसा की बातें लिखते हैं, धमकियां लिखते हैं, और न ट्विटर उन पर तुरंत कोई कार्रवाई करता, और न ही भारत सरकार ऐसी हिंसा को खत्म करने के लिए कोई कार्रवाई करते दिखती।
सरकार से, भाजपा से, आक्रामक-हिन्दुत्व से असहमत लोगों पर पूरे वक्त सिर्फ हमला करने को तैनात दिखते लोग टूट पड़ते हैं। बहुत से पत्रकार, लेखक, फिल्म कलाकार ऐसे हैं जिन्हें बलात्कार की हजार-हजार धमकियां मिलती हैं, उनके साथ-साथ उनके परिवार की और महिलाओं को भी बलात्कार की धमकी दी जाती है, बच्चियों तक से रेप की बातें पोस्ट की जाती हैं। हिन्दुस्तान की सरकार अपने सारे कड़े आईटी कानून के साथ भी ऐसे लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं करती यह सवाल तो किसी मासूम और नासमझ बच्चे के मन में भी खड़ा हो सकता है।
फेसबुक अपने कम्प्यूटर एल्गोरिद्म के सहारे किसी विचारधारा की पोस्ट, या किसी विचारधारा के लोगों को बढ़ावा दे, किसी भी विचारधारा या उसके लोगों को पीछे दबाता चले, इसमें भी कोई हैरानी नहीं है, और ऐसे आरोप अमरीका के राष्ट्रपति चुनाव के वक्त से लेकर अभी तक चलते ही रहे हैं। लेकिन यह तो फिर एक ढंकी-छुपी हरकत होगी। फेसबुक और ट्विटर पर तो नफरत और हिंसा को इतने खुले तरीके से जगह मिलती है, इतने खुले शब्दों में उन्हें लिखा जाता है कि दुनिया का कोई भी मामूली कम्प्यूटर ऐसे गिने-चुने शब्दों को सर्च करके भी ऐसी पोस्ट निकाल सकता है। फिर जब फेसबुक कोई बिना मुनाफे वाला सामाजिक संगठन न होकर, दुनिया का एक सबसे बड़ा कारोबार बन गया है, तो उसकी यह सामाजिक और कानूनी जवाबदेही भी हो गई है कि वह अपने प्लेटफॉर्म पर नफरत और हिंसा की शिनाख्त करे, उन्हें हटाए, उन्हें पोस्ट करने वाले लोगों को ब्लैकलिस्ट करे, ब्लॉक करे। यही बात ट्विटर पर भी लागू होती है, और यही बात दूसरे सोशल मीडिया या मैसेंजर सर्विसों पर भी लागू होती है जिनमें लोग एक-दूसरे को नफरत और हिंसा बढ़ाते हैं।
हिन्दुस्तान में तो बहुत से ऐसे बड़े जिम्मेदार लेखक और पत्रकार हैं जो लगातार जिम्मेदारी की बातें लिखते हैं, लेकिन जिन्हें फेसबुक पर ब्लॉक किया जाता है। उनकी लिखी पूरी तरह से अहिंसक और विवादहीन बातों पर उन्हें नोटिस मिलता है कि उनका अकाऊंट निलंबित किया जा रहा है। शायद इन सोशल मीडिया पर अगर बड़ी संख्या में लोग किसी अकाऊंट को आपत्तिजनक और विवादास्पद बताते हुए शिकायत करते हैं, तो शायद महज संख्या के आधार पर उन्हें ब्लॉक कर दिया जाता है। जिन लोगों को हम लगातार पढ़ते हैं, और जिनका हिन्दुस्तान की एकता और यहां के अमन के लिए लिखना जरूरी है, उनको भी ब्लॉक कर दिया जाता है, और अपने ही शब्दों में संभावित हत्यारे-बलात्कारी इन पर बने रहते हैं, तो फिर इनकी यह बात गले उतरना मुश्किल होता है कि इनकी नीतियां सबके लिए बराबर हैं। वैसे भी कारोबार और सरकार, महज उच्चारण में मिलते-जुलते शब्द नहीं है, इनका एक-दूसरे से गहरा घरोबा हमेशा से रहते आया है।
यह बात याद रखने की जरूरत है कि अमरीका की दर्जनों बड़ी कंपनियों ने सार्वजनिक घोषणा करके फेसबुक से अपने विज्ञापन हटाने की घोषणा की है क्योंकि वहां हिंसा और नफरत कम नहीं हो रही है। आज फेसबुक जैसी कंपनी अपने कम्प्यूटरों पर ऐसा इंतजाम आसानी से कर सकती है कि इन कंपनियों की तारीफ लोगों को न दिखे, और इन कंपनियों के खिलाफ लिखा जा रहा लोगों को बार-बार दिखे। ऐसे खतरे के बावजूद अगर अमरीका की बड़ी-बड़ी कंपनियों ने यह सामाजिक सरोकार दिखाया है कि उन्होंने ऐसी घोषणा करके इश्तहार देने बंद कर दिए हैं, तो उनसे हिन्दुस्तानी कारोबारियों को भी कुछ सीखना चाहिए जिनके इश्तहार नफरत फैलाने वालों को लगातार मिलते हैं, बस उनका टीआरपी अच्छा होना चाहिए, उनके पेज हिट्स अच्छे होने चाहिए, या जिन अखबारों का सर्कुलेशन अच्छा हो। अच्छा होना अब अक्षरों से नहीं गिनाता, संख्याओं से गिनाता है। लेकिन अमरीकी विज्ञापनदाताओं ने एक जिम्मेदारी दिखाई है, और बाकी दुनिया के कारोबारियों पर भी सामाजिक दबाव बनना चाहिए कि वे नफरत को बढ़ावा न दें।
हम महज हिन्दुस्तान की बात नहीं कर रहे, और न ही सिर्फ फेसबुक की बात कर रहे, सोशल मीडिया से लेकर परंपरागत मीडिया तक, और नए डिजिटल मीडिया तक का हाल यह है कि उन्हें बढ़ावा देने वाले विज्ञापनदाताओं के सरोकार शून्य हैं। अब इसके बाद अगर दुनिया में सोच पर काबू और असर रखने वाले अकेले सबसे बड़े माध्यम, फेसबुक, पर नफरत और हिंसा इस तरह बेकाबू रहेंगे, तो दुनिया में बेइंसाफी भी बेकाबू बढ़ते चलेगी। (hindi.news18.com)
छत्तीसगढ़ की राजनीति में लिखने को सबसे अधिक अगर किसी राजनेता के बारे में हो सकता है, तो वे बृजमोहन अग्रवाल हैं। लंबी राजनीति, और उससे भी बहुत लंबी महत्वाकांक्षा। कॉलेज के दिनों से ही भाजपा के छात्र संगठन विद्यार्थी परिषद की राजनीति, छात्रसंघ चुनाव लडऩा, और भाजपा संगठन में काम करना। वहां से लेकर विधानसभा चुनाव लडऩे और लगातार जीतने का बृजमोहन का एक गजब का रिकॉर्ड है। छत्तीसगढ़ में 1989 से लगातार विधानसभा चुनाव जीतने वाले बृजमोहन अकेले विधायक हैं। सात बार के और भी विधायक हैं, कांग्रेस के रामपुकार तो आठ बार के विधायक हैं, सत्यनारायण शर्मा, रविन्द्र चौबे सात बार के विधायक हैं, लेकिन इनके खाते में बीच-बीच में हार भी लिखी हुई है। बृजमोहन अग्रवाल का छत्तीसगढ़ की किसी भी पार्टी का यह रिकॉर्ड है, और आगे भी यह टूटे इसकी संभावना कम ही दिखती है।
बृजमोहन की कई खूबियों में से एक यह है कि उन्होंने कभी पार्टी नहीं बदली, यह एक अलग बात है कि राज्य बनने के बाद जब पहला भाजपा विधायक दल बनना था, तो बीजेपी दफ्तर में भारी हंगामा हुआ। बृजमोहन अग्रवाल और उनके समर्थक पार्टी ऑफिस में थे, बृजमोहन भीतर विधायक दल में थे, और समर्थक बाहर एक रिकॉर्ड हंगामा कर रहे थे। सच कहा जाए तो उतना बड़ा हंगामा छत्तीसगढ़ में किसी पार्टी के ऑफिस में नहीं हुआ कि विधायक दल नेता बनाने के लिए किसी नेता के समर्थक दफ्तर में भारी तोडफ़ोड़ करें, कारों में तोडफ़ोड़ करें, कार जला दें। नतीजा यह हुआ था कि सन् 2000 में बृजमोहन अग्रवाल अपने करीबी दोस्त और पार्टी नेता प्रेमप्रकाश पांडेय के साथ पार्टी से निलंबित कर दिए गए थे, और करीब साल भर निलंबित रहे।
दरअसल छत्तीसगढ़ के पहले भी अविभाजित मध्यप्रदेश की भाजपा की राजनीति में बृजमोहन छत्तीसगढ़ के एक दूसरे अग्रवाल नेता लखीराम अग्रवाल के विरोधी कैम्प में थे। लखीराम अग्रवाल अविभाजित मध्यप्रदेश के भाजपा अध्यक्ष रह चुके हैं, और जनसंघ के समय से वे छत्तीसगढ़ में पार्टी का एक खूंटा थे, जिनके इर्द-गिर्द पार्टी चलती थी, जिनके मार्फत चंदा इकट्ठा होता था, और वे खुद भी खानदानी व्यापारी थे, और व्यापारियों को जनसंघ-भाजपा के साथ बनाए रखने में इस इलाके में लखीराम अग्रवाल का बड़ा योगदान था। ऐसा भी माना जाता है कि अर्जुन सिंह ने अविभाजित मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री रहते हुए तेंदूपत्ता का राष्ट्रीयकरण किया, तो छत्तीसगढ़ में उसकी एक चोट लखीराम अग्रवाल पर भी पड़ी जो कि तेंदूपत्ता के एक बड़े व्यापारी थे।
बृजमोहन और लखीराम, दोनों ही व्यापारी परिवारों के, दोनों ही अग्रवाल समाज के, लेकिन दोनों के बीच एक पीढ़ी का फर्क था। और बृजमोहन-प्रेमप्रकाश अविभाजित मध्यप्रदेश में सुंदरलाल पटवा खेमे के माने जाते थे, और लखीराम अपने आपमें एक खेमा थे। जूनियर रहते हुए भी बृजमोहन की खींचतान लखीराम से चलती ही रहती थी, जिनका बेटा अमर अग्रवाल उस समय राजनीति में बृजमोहन से बहुत पीछे-पीछे, संगठन में पिता की फाईलें लेकर चलता था।
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बृजमोहन ने 1989 के विधानसभा चुनाव में रायपुर के कांग्रेस विधायक स्वरूपचंद जैन को हराया जो कि पहले महापौर भी रह चुके थे, उनकी साख भी ठीक थी, और पार्टी की हालत भी बहुत खराब नहीं थी। फिर बृजमोहन के खिलाफ यह बात भी जा रही थी कि जनसंघ के समय के छत्तीसगढ़ के एक बड़े वजनदार नेता, बालूभाई पटेल रायपुर से भाजपा टिकट चाहते थे, और टिकट न मिलने पर उन्होंने पार्टी के खिलाफ निर्दलीय चुनाव लड़ लिया था। वे उस वक्त सत्तीबाजार वार्ड के पार्षद रह चुके थे, और रायपुर में बहुत बड़े गुजराती समाज के वोटों का भी उनको बड़ा भरोसा था। लेकिन उनके करीब 36 हजार वोटों के अंदाज के खिलाफ उन्हें दो हजार से भी कम वोट मिले, और उनके सामने कल का छोकरा रहे बृजमोहन अग्रवाल विधायक बन गए, पटवा सरकार में राज्यमंत्री बन गए, और कुछ ही समय के भीतर स्वतंत्र प्रभार राज्यमंत्री बना दिए गए।
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भोपाल में रहते हुए बृजमोहन अग्रवाल छत्तीसगढ़ के सारे ही लोगों के लिए मेजबान रहते थे। तमाम कर्मचारी संगठन के नेता अपने काम के लिए भोपाल ही पहुंचते थे क्योंकि छत्तीसगढ़ की राजधानी भी वही था। यहां से जाने वाले कई कम्युनिस्ट कर्मचारी और मजदूर नेता बिना किसी झिझक के बृजमोहन अग्रवाल के घर रूक जाते थे, वे उनके लौटने का रिजर्वेशन भी करा देते थे, और सरकार में उनके काम के लिए खूब मेहनत भी करते थे। बृजमोहन अग्रवाल भारी यारबाज थे, कॉलेज के समय के अनगिनत साथियों के अलावा छत्तीसगढ़ के लोगों के लिए वे भोपाल में सबसे बड़े मेजबान रहे। और यह सिलसिला आज भी जारी है जब भोपाल से लोग छत्तीसगढ़ आते हैं, और बृजमोहन अग्रवाल के मेहमान रहते हैं।
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कोई अगर यह सोचे कि बृजमोहन अग्रवाल का सात बार विधायक बनना रमेश बैस के सात बार सांसद बनने जैसा ही मामला है, तो यह सोचना गलत होगा। रमेश बैस हालातों और कांग्रेस के बनाए हुए सांसद रहे, और बृजमोहन अग्रवाल हर परिस्थिति में लंबी लीड से जीतने वाले विधायक रहे, जिनको कांग्रेस ने यह मान ही लिया है कि इनको हराना मुमकिन नहीं है। और इस नौबत के पीछे बृजमोहन का योगदान छोटा नहीं है। 365 दिन कम से कम 12 घंटे रोज की राजनीति, जो कि बहुत मायनों में सीधे-सीधे जनसेवा के दर्जे की भी है, उसने बृजमोहन को अजीत बना दिया, जिनसे कोई जीत नहीं पाया। वे सत्ता में रहे, या विपक्ष में, लोगों के काम करवाने, लोगों की मदद करने में उनका कोई सानी नहीं रहा, न सिर्फ भाजपा में, बल्कि किसी भी पार्टी में पूरे प्रदेश के लोगें के लिए इतना करने वाला कोई भी दूसरा नेता इस राज्य में नहीं हुआ।
बृजमोहन अग्रवाल के मंत्री रहते हुए उनके दरवाजे सुबह से साधुओं का डेरा डल जाता था, और वे जब भी बाहर आते थे, दर्जनों साधुओं को सौ-सौ रूपए देकर बिदा करते थे। सुबह की इससे बेहतर बोहनी किसी साधू की और नहीं हो सकती थी। लेकिन यह बात एक खुला रहस्य है कि बृजमोहन अग्रवाल ने मंत्री रहते हुए अनगिनत लोगों की हर किस्म की मदद की। उन्होंने बीमार के इलाज के लिए घर और अस्पताल नगदी के लिफाफे भेजे, बच्चों के एडमिशन के लिए नगद मदद की, शादी-ब्याह से लेकर मकान बनवाने तक लोगों को नगद पैसा दिया, तीर्थयात्रा या किसी और काम से किसी को कहीं जाना हो, तो उसका इंतजाम बृजमोहन के बंगले के दफ्तर से लगातार होते रहता था। और तो और रायपुर और छत्तीसगढ़ के मीडिया के लोगों की जितनी निजी जरूरतें रहती थीं, उनमें से जो बृजमोहन से कह सके, या बृजमोहन के सहयोगियों से भी कह सके, वह तमाम पूरी हो जाती थी। यह एक ऐसा दरवाजा रहा जहां से कोई कभी खाली हाथ नहीं लौटा, और हाल के बरसों तक यह दरवाजा आधी रात तक तो खुला रहता ही था।
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बृजमोहन ने निजी संबंधों में किसी पार्टी का कोई फर्क नहीं देखा। आज के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के भाजपा में रिश्तेदार बहुत हैं, लेकिन उनका सबसे बड़ा दोस्त बृजमोहन है जिसका 15 बरस का मंत्री वाला बंगला आज विधायक रहते हुए भी जारी है। ऐसी भी चर्चा है कि भूपेश बघेल का कोई काम पिछले 15 बरस रूकता नहीं था, और बृजमोहन अग्रवाल इस बात की गारंटी करते थे कि उनको कोई दिक्कत न हो।
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लेकिन बृजमोहन अग्रवाल के राजनीतिक जीवन का दिलचस्प दौर छत्तीसगढ़ के 15 बरस का भाजपा राज रहा। इस पूरे दौर में उनको लगातार यह लगता था कि मुख्यमंत्री बनने के लायक वे ही सबसे काबिल नेता हैं। और उन्हें इस बात का मलाल रहा कि पार्टी ऑफिस में तोडफ़ोड़ और आगजनी के चलते उन्हें अगर निलंबित न किया गया होता तो वे पार्टी की पहली पसंद रहते। लेकिन पार्टी की दिक्कत यह थी कि जिस विधायक दल बैठक के दौरान तोडफ़ोड़ और आगजनी हुई थी, उस वक्त भाजपा ने दिल्ली से एक ऐसे नेता को पर्यवेक्षक बनाकर भेजा था, जिसे खुद पथराव झेलना पड़ा था। बाहर से प्रदर्शन कर रहे भाजपा कार्यकर्ता जो पत्थर चला रहे थे, उससे कमरों की खिड़कियों के कांच टूट गए थे, और दिल्ली से आए पर्यवेक्षक को भीतर आ रहे पत्थरों से बचने के लिए एक टेबिल के नीचे शरण लेनी पड़ी थी। हालांकि उस वक्त नरेन्द्र मोदी पार्टी में इतने बड़े नेता नहीं थे, लेकिन भाजपा में कई लोग पिछले बरसों में इस बात को दिल्ली में उठाते रहे हैं। नरेन्द्र मोदी के साथ उस वक्त कमरे में मौजूद छत्तीसगढ़-भाजपा के एक नेता इस पूरे वाकिये के गवाह हैं।
बृजमोहन की महत्वाकांक्षा के पीछे यह बात रही कि मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री बनाए गए शिवराज सिंह चौहान भारतीय जनता पार्टी युवा मोर्चा में बृजमोहन के साथ के नेता थे। साथ-साथ काम किया हुआ था। लेकिन भाजपा ने जो भी समझकर डॉ. रमन सिंह को मुख्यमंत्री बनाया, तो वे ऐसे बन गए कि पार्टी की सत्ता जाने पर ही कुर्सी से हिले, जबकि इस दौरान मध्यप्रदेश में भाजपा के तीन मुख्यमंत्री बन चुके थे।
लगे हाथों विधायक दल की बात पूरी कर लेना ठीक होगा। सन् 2000 में भाजपा विधायक दल में लखीराम अग्रवाल ने अपने खेमे के नंदकुमार साय को विधायक दल का नेता बनवा दिया। साय बहुत पुराने, खालिस जनसंघ-आरएसएस के नेता रहे, वे आदिवासी भी थे, जो कि कांग्रेस के मुख्यमंत्री अजीत जोगी भी होने का दावा करते थे। नंदकुमार साय एक बड़े नेता इस मायने में भी थे कि वे अविभाजित मध्यप्रदेश में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष भी बनाए गए थे। फिर छत्तीसगढ़ में उन्हें लेकर मजाक में एक नारा चलता था, नंदकुमार साय, लखीराम की गाय। तमाम बातों को देखते हुए साय को नेता प्रतिपक्ष चुन लिया गया था, और जोगी के पहले साल में बृजमोहन पार्टी से निलंबित रहे।
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यह भी बड़ा दिलचस्प है कि जिस वक्त जोगी रायपुर में कलेक्टर थे, उस वक्त बृजमोहन अग्रवाल छात्र नेता थे, और अजीत जोगी के बारे में यह बात मशहूर थी कि वे तमाम छात्र नेताओं को जीप-टैक्सी का परमिट, और गिट्टी क्रशर का लाइसेंस देकर प्रशासन के कब्जे में रख लेते थे, और उस वक्त के बहुत सारे छात्र नेताओं के लिए यह रोजी-रोटी जुट गई थी। अब बृजमोहन की जीप-टैक्सी या क्रशर किसी को याद नहीं है, लेकिन मुख्यमंत्री अजीत जोगी से बृजमोहन के संबंध बहुत अच्छे थे, लेकिन यह कहते हुए यह कहना भी जरूरी है कि किसी गैरभाजपाई दल में किसी नेता से बृजमोहन के संबंध खराब नहीं थे, भाजपा के भीतर ही उनका कुछ मनमुटाव था, और कुछ मुकाबला था।
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2000 में पार्टी से निलंबित होने के बाद जब 2003 में विधानसभा चुनाव में जोगी की कांग्रेस को टक्कर देने की बात आई, तो निलंबन ताजा-ताजा था। बृजमोहन भाजपा में ले तो लिए गए थे, लेकिन शीशे में आई दरार भरी नहीं थी। इसलिए पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष बनाने के लिए उनका नाम सोचने का सवाल ही नहीं उठता था। पार्टी में दफ्तर वैसे गंभीर तोडफ़ोड़ की घटना को राष्ट्रीय स्तर पर भी बहुत गंभीरता से लिया गया था, और छत्तीसगढ़ के भाजपा के सबसे अच्छे चुनाव रणनीतिकार होते हुए भी बृजमोहन की कोई संभावना उस वक्त नहीं बनी। रमेश बैस के बारे में लिखते हुए इसी जगह लिखा भी था कि जब दिल्ली में उन्हें अटल सरकार में राज्यमंत्री रहते हुए प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बनने का प्रस्ताव दिया गया, तो उन्होंने साफ-साफ मना करके मंत्री रहना तय किया। उस वक्त रमन सिंह उसी दर्जे के केन्द्रीय राज्यमंत्री का पद छोडक़र राज्य में आ गए, और अपार ताकतवर दिख रहे अजीत जोगी के मुकाबले एक कमजोर दिखती भाजपा के अध्यक्ष बने, और पार्टी को सत्ता तक लेकर आए।
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रमन सरकार में बृजमोहन का बड़े मंत्री बनना तो तय था क्योंकि वे डॉ. रमन सिंह के मुकाबले भी वरिष्ठ विधायक थे, और भोपाल से रायपुर आते हुए जब बृजमोहन कुछ बार के विधायक हो चुके थे, और रमन सिंह हारे हुए विधानसभा उम्मीदवार थे, तो ट्रेन में रमन सिंह को ऊपर की बर्थ पर जाना पड़ता था, और बृजमोहन, उनके दोस्त नीचे की बर्थ पर सोते थे। खैर, मंत्रिमंडल तो किसी भी पार्टी का हाईकमान से तय होता है, और बृजमोहन अग्रवाल मंत्री बनाए गए। लेकिन इसके बाद के कई दिलचस्प मोड़ हैं, जिनको लिखने के लिए आज वक्त कम पड़ेगा, इसलिए वे तमाम बातें कल की किस्त में। जैसा कि टीवी पर कहा जाता है, कहीं जाईयेगा मत, हम जल्द लौटकर आ रहे हैं, कल इसी जगह राह देखिए।
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-सुनील कुमार
कल इसी जगह कॉमरेड सुधीर मुखर्जी की यादों को लिखने के बाद रात तक लोगों के संदेश आते रहे। उनमें से एक, सीपीएम के संजय पराते ने दादा के बारे में किसी और का लिखा हुआ एक लेख भेजा जो कि अंग्रेजों के खिलाफ बगावत में दादा की हिस्सेदारी बताता है। यह कोई फर्जी दावा नहीं है, बल्कि अंग्रेज पुलिस, अदालत, और जेल के रिकॉर्ड की चीजें हैं। यूं तो आज इस जगह मुझे किसी के बारे में लिखना चाहिए था, लेकिन सुधीर दादा के बारे में जिन तथ्यों को मैंने अपनी याद की शक्ल में नहीं लिखा, वे भी यहां देना बेहतर इसलिए होगा कि लोगों को मेरी लिखी बातों से परे उनके बारे में, और आजादी की लड़ाई में छत्तीसगढ़ के एक महत्वपूर्ण इतिहास के बारे में जानकारी मिलेगी। यह अनायास ही हो रहा है कि तीन दिन बाद स्वतंत्रता दिवस रहेगा, और आजादी की लड़ाई का यह पन्ना यहां देने का मौका मिल रहा है। यादों का आज का यह झरोखा मेरा देखा हुआ नहीं है, बल्कि फेसबुक पर कोसल कथा पेज पर शुभम थवाईत ने लिखे हैं, और उन्होंने इसके साथ यह भी लिखा है- लेख के तथ्य ‘छत्तीसगढ़ गौरव गाथा’ हरि ठाकुर की किताब से लिए गए हैं। तो कुल मिलाकर आज मेरे इस कॉलम में हरि ठाकुर की यादें, शुभम की कलम से।
रायपुर षडय़ंत्र केस और परसराम सोनी।
कहानी रायपुर के उन क्रांतिकारियों की जिनके साथ उनके अपने ने गद्दारी न की होती तो आज शहर का इतिहास कुछ और ही होता।
कहानी शुरू करते हैं सन् 1940 के अंत से जब परसराम सोनी चार सालों के निरंतर प्रयोग से कारतूस, बम और रिवाल्वर बनाने की विधा में निपुण हो गए थे।
परसराम सोनी घर पर ही रिवाल्वर, गोलियां व गन कटान से नाइट्रिक ग्लिसरीन बनाते। उन्होंने कई प्रकार के बम बनाना खुद ही ईजाद कर लिया था, जैसे टाइम बम, क्लोरोफॉर्म बम, आग लगाने व धुआं पैदा करने वाले बम। उन्होंने पोजीशन बम भी बनाया था, जो कितने भी समय तक एक स्थिति में रखा जाए नहीं फूटता, पर थोड़ी भी स्थिति बदली कि विस्फोट। इससे फायदा यह था कि प्रयोगकर्ता को मौके पर रहने की आवश्यकता नहीं होती थी।
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परसराम सोनी लिखते हैं- दिक्कत या कमी सिर्फ पैसों की ही थी और यही अड़चन आगे चलकर दल के लिए घातक सिद्ध हुई। हमें आर्थिक मदद के लिए दूसरों के पास जाना पड़ता, उद्देश्य बताना पड़ता और वक्त पडऩे पर थोड़ा चमत्कार भी दिखाना पड़ता। तब कहीं मदद तो मिलती पर कौतूहलवश वह उसकी जानकारी दूसरों को भी दे देता था। इस तरह बहुतों को मालूम हो गया कि सरकार विरोधी खतरनाक गतिविधयां चल रही हंै।
सारी गतिविधियों को चलाने वाले संगठन में निखिल भूषण सूर, सुधीर मुखर्जी, लाल समरसिंह बहादुर देव, प्रेम वासनिक, रणवीरसिंह शास्त्री, कुंजबिहारी चौबे, दशरथलाल चौबे शामिल थे। संगठन की शक्ति बढ़ाने और परिचय बढ़ाने में यह सावधानी बरती गई कि अन्य साथियों का नाम, पता हर एक को मालूम न हो सके, ताकि गिरफ्तारी हो जाए तो दूसरों का नाम-पता पुलिस तक न पहुंचे।
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सरकार को भी इस संगठन का आभास हो चुका था। उन्होंने सन् 1941 के आरंभ में सेंट्रल इंटेलिजेंस का एक अधिकारी भेजा, पर वह असफल रहा और एक अंदाज़ी रिपोर्ट देकर चला गया। फिर 1942 के अंत में सेंट्रल ने एक मशहूर खुफिया अधिकारी नरेंद्र सिन्हा को भेजा, छ: महीने तक उसने तमाम कोशिशें कीं, उसे भी कुछ न मिला। पर बचपन का दोस्त गद्दार निकला सरकार के सामने वह बिक गया, परसराम एक धोखे का शिकार हुए वो भी उनके दोस्त शिवनन्दन से।
शिवनन्दन, परसराम के बचपन का दोस्त जिस पर उन्हें थोड़ा भी संदेह नहीं था। शिवनन्दन कुछ चांदी के टुकड़ों या पेटपालू नौकरी के लिए विश्वासघात कर बैठा। परसराम से एक ही और अंतिम गलती हुई कि उन्होंने शिवनन्दन को 14 जुलाई (1942) की रात जाहिर कर दिया था कि मैं छ: फायर का एक रिवाल्वर कल गिरिलाल से लेने वाला हूं। और यह बात शिवनन्दन ने पुलिस तक पहुंचा दी।
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दिन था 15 जुलाई, परसराम सुबह के भोजन की तैयारी में थे तभी शिव आ गया। भोजन छोड़ परसराम शिव के साथ सायकल से गिरिलाल के घर निकल पड़े। गिरिलाल, प्रभुलाल पतिराम बीड़ी वाले के बाड़े में किराए से रहते थे, परसराम ने उनसे एक रिवाल्वर और तीन कारतूस लिए और वापस हुए। लौटते वक्त एडवर्ड रोड और लखेर ओली तिगड्डे पर साइकल रोककर शिवनन्दन एडवर्ड रोड से ही चलने को कहने लगा, मानो जि़द करने लगा।
सदर वाली सडक़ पर ताराचंद कांतिलाल सराफ के दुकान में नरेन्द्र सिन्हा और उसके सहायक समीदा, सिटी इंस्पेक्टर व अंग्रेज़ डीएसपी छुपकर परसराम का इंतजार कर रहे थे। शिव ने मोड़ पर घंटी बजाई, वैसे ही दोनों ओर से पुलिस परसराम पर टूट पड़ी। तलाशी हुई और पुलिस को उनसे रिवाल्वर मिला, गोलियां उन्होंने चालाकी से पास की नाली में फेंक दी थी।
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अपनी गिरफ्तारी से परसराम चौंक गए, इतनी सावधानी के बाद भी पकड़ में आ जाना उन्हें स्वीकार नहीं हो रहा था। शिवनन्दन पर उन्हें संदेह हुआ, इस बात की पुष्टि के लिए हवालात में उन्होंने शिवनन्दन के कानों में यह बता दिया कि गोली कहां फेंकी है। फिर हुआ ये कि थोड़ी ही देर में सदर बाज़ार की नालियों से तीन गोलियां बरामद कर ली गईं और परसराम की संदेह की पुष्टि हो गई।
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शिवनन्दन की सूचना पर परसराम सोनी के घर की तलाशी हुई, बैटरी बनाने के पाउडर को बारूद समझ पुलिस उसे ले गई और उनके हाथ कुछ न लगा क्योंकि संगठन के नियमानुसार पिछली ही रात सारा सामान होरीलालजी के यहां रखवा दिया गया था। जिसे परसराम की गिरफ्तारी के बाद होरीलाल ने भी कहीं और ठिकाने लगा दिया। पुलिस की तलाशी असफल रही उन्हें केवल कुछ पत्र बरामद हुए जिससे कुछ साथियों के पते पुलिस को मालूम हुए। शिवनन्दन पुलिस का गवाह बन गया, गिरिलाल को भी पुलिस ने पकड़ लिया साथ में डॉ. सूर, मंगल मिस्त्र, कुंजबिहारी चौबे, दशरथलाल चौबे, सुधीर मुखर्जी, देवीकान्त झा, होरीलाल, सुरेन्द्र दास, क्रान्तिकुमार भारतीय, कृष्णराव थिटे, सीताराम मिस्त्री, भूपेंद्रनाथ मुखर्जी, व प्रेम वासनिक भी गिरफ्तार किए गए और दूसरे दिन एडीएम की अदालत में पेश किये गए।
नौ माह तक मुकदमा चला, आईपीसी की धारा 120ब, 302, 395, 19 अ,ब,स,ड,फ, आर्म्स एक्ट तथा एक्सप्लोसिव सबस्टेन्स की धारा, 5 डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स की धारा 34 एनपी, 35 तथा 38 के अंतर्गत मुकदमा चलाया गया। यह मुकदमा एडीएम केरावाला की अदालत में चला, अभियुक्तों की ओर से एम.भादुड़ी, पी. भादुड़ी, चाँदोरकर, पेंढारकर, अहमद अली, बेनीप्रसाद तिवारी और चुन्नीलाल अग्रवाल ने पैरवी की। वहीं सरकार को कोई वकील ही नहीं मिला, तब बाहर से वकील लाकर सरकार ने मुकदमा लड़ा। मुकदमे में छ: विशेषज्ञों के बयान लिये गए, कुल 171 गवाह और 130 डॉक्यूमेंट पुलिस ने पेश किए।
27.04.1943 को अदालती नाटक खत्म हुआ, अंग्रेजों के सबूत कितने ही कमजोर क्यों न हों सज़ा ज़रूर कड़ी दी जाती थी। बेनिफिट ऑफ डाउट अभियुक्त को नहीं पुलिस को मिलता था, ब्रिटिश न्याय के अनुसार गिरिलाल को 8 वर्ष, परसराम को 6 वर्ष, भूपेंद्र मुखर्जी को 3 वर्ष, क्रान्तिकुमार और सुधीर मुखर्जी को 2-2 वर्ष, दशरथलाल चौबे, देवीकान्त झा, सुरेन्द्रनाथ दास प्रत्येक को 1-1 वर्ष, मंगल मिस्त्री को 9 माह तथा कृष्णाराव थिटे को छ: माह की सज़ा सुनाई गई। सूर भाइयों और कुंजबिहारी चौबे पर आरोप सिद्ध नहीं हो सके, पर डॉ. सूर को डीआईआर के तहत जेल में ही रखा गया।
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नागपुर हाईकोर्ट में अपील करने पर जस्टिस नियोगी ने भूपेन्द्र मुखर्जी, सुधीर मुखर्जी, थिटे और देवीकान्त को आरोप मुक्त कर दिया। वहीं परसराम ने अपील करने से इंकार कर दिया।
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मई 1946, जयदेव कपूर का रायपुर आगमन हुआ। ये वही थे जिन्होंने भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के लिए असेंबली में बम फेंकने हेतु बमों का प्रबंध किया। गांधी चौक की आम सभा में उन्होंने परसराम को रिहा करने की मांग रखी। मुख्यमंत्री पं. रवि शंकर शुक्ल से नागपुर जाकर क्रान्तिकुमार और सुधीर मुखर्जी ने गिरिलाल और परसराम के रिहाई के लिए अपील की और 26 जून 1946 को दोनों जेल से मुक्त हुए।
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इस तरह रायपुर में बढ़ रही एक क्रांति का अंत शिवनन्दन की गद्दारी से हुआ, नहीं तो इस शहर का इतिहास कुछ और ही लिखा जाता।
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-सुनील कुमार
छत्तीसगढ़ की जिस पीढ़ी ने कॉमरेड सुधीर मुखर्जी को देखा नहीं है, उसके लिए ऐसे किसी नेता की कल्पना कुछ मुश्किल होगी जो घर से निकले रिक्शेवालों में खींचतान हो जाए कि दादा को आज कौन ले जाएगा। और इससे बड़ी बात यह कि रिक्शेवाले उनसे दिन भर भी घूमने का पैसा नहीं लेते थे, लेकिन दादा आखिर में जाकर उन्हें 25 रूपए देते थे जो कि उस समय के हिसाब से छोटी रकम नहीं होती थी।
सीपीआई के नेता रहे सुधीर मुखर्जी का पूरा काम रायपुर शहर में रहकर हुआ, लेकिन वे पूरे छत्तीसगढ़ और पूरे देश के मामलों पर नजर रखते थे, जमकर बोलते थे, और टाईप किए हुए बयान लेकर कई बार अखबारों के दफ्तर में खुद भी चले जाते थे।
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मैंने जब अखबारनवीसी शुरू की, तो वे दिन सुधीर दादा की ऊंचाईयों के दिन थे। वर्ष 1972 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और सीपीआई के बीच एक तालमेल के तहत एक सीट कांग्रेस पार्टी के लिए छोड़ी गई थी, और जाहिर तौर पर पार्टी के सबसे बड़े नेता होने के नाते सुधीर मुखर्जी उम्मीदवार बने थे, और विधायक बने थे। लेकिन सुधीर मुखर्जी का कद विधायक बनकर बढ़ गया हो ऐसा नहीं है, वे रायपुर शहर, और पूरे छत्तीसगढ़-एमपी के वामपंथियों के बीच दादा के नाम से जाने जाते थे, उसमें विधायक के ओहदे से कुछ जुड़ा नहीं।
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सुधीर मुखर्जी आजादी की लड़ाई में रायपुर जेल में बंद रहे, लेकिन उन्होंने कभी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की पेंशन नहीं ली। विधायक का कार्यकाल पूरा होने के बाद जो पेंशन मिलती थी, वह उन्होंने जरूर ली, और अपनी पार्टी, सीपीआई, के नियमों के तहत उसे पार्टी में जमा करके वहां से जो भत्ता मिलता था, उससे वे काम चलाते थे। शुक्ल बंधुओं के साथ सुधीर मुखर्जी का बड़ा अजीब सा रिश्ता रहा। बूढ़ापारा में जहां रविशंकर शुक्ल का घर था, और जहां श्यामाचरण, विद्याचरण पैदा हुए, उस घर से सौ कदम पर ही सुधीर मुखर्जी रहते थे। शादी की नहीं, मजदूरों के बीच रात-दिन काम किया, तो परिवार के और लोगों के साथ ही रहते चले आए। नागपुर के साईंस कॉलेज में पढ़ते हुए सुधीर मुखर्जी श्यामाचरण के सहपाठी थे, और वहां कॉलेज या यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ चुनाव में श्यामाचरण को एक बार आगे चलकर बड़े कम्युनिस्ट नेता बने कॉमरेड ए बी वर्धन ने हराया, तो दूसरे बरस सुधीर मुखर्जी ने।
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आजादी की लड़ाई के दौरान जेल काटने के बाद जब दादा बाहर निकले, तो उन्होंने रिक्शा-तांगा यूनियन बनाई, और सफाई कर्मचारी संघ बनाया। ये दोनों मजबूत संगठन थे, और हक की लड़ाई के लिए दादा की अगुवाई में आंदोलन करते थे, मांगें भी पूरी करवाते थे।
उनको जानने वाले लोग बताते हैं कि जब भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ तो सुधीर मुखर्जी शुरू से ही सीपीएम में जाना चाहते थे, लेकिन उनके सहपाठी कॉमरेड वर्धन सीपीआई में गए, और छत्तीसगढ़ के अधिकतर कम्युनिस्ट सीपीआई के साथ रहे, इसलिए मन मारकर सुधीर मुखर्जी सीपीआई में गए। यह एक अलग बात है कि सीपीआई के भीतर जब इमरजेंसी पर चर्चा होती थी, तो उसमें सुधीर मुखर्जी आपातकाल-विरोधी खेमे में थे। लेकिन वे पार्टी के अनुशासन में बंधे रहते थे, इसलिए उन्होंने घर के बाहर इस बारे में कुछ नहीं कहा।
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सुधीर मुखर्जी से मेरा परिचय अखबार की नौकरी शुरू होने के बाद जल्द ही हो गया था क्योंकि अखबार में उनका आना-जाना रहता था। वे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर आए दिन बयान देते थे, और सडक़ों पर कभी जुलूस, कभी धरना, कभी कर्मचारी या मजदूर आंदोलन चलते ही रहता था। उनका सभी पार्टियों के बीच भारी सम्मान था, और उनके दिल में जनसंघ और आरएसएस के लिए परले दर्जे की नफरत रहती थी, जिसे उजागर करने में वे कभी पीछे नहीं रहते थे।
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उन दिनों प्रेस क्लब में कई बार एक-एक दिन में बहुत सी प्रेस कांफ्रेंस होती थीं, और अखबारों के अलग-अलग रिपोर्टर अलग-अलग प्रेस कांफ्रेंस भी अटेंड कर लेते थे ताकि निकलकर लिखने में एक पर पूरा बोझ न आए। उस दिन सुंदरलाल पटवा की प्रेस कांफ्रेंस थी जिसमें मैं गया था, और उसके ठीक पहले सुधीर मुखर्जी की प्रेस कांफ्रेंस थी जिसमें कोई और रिपोर्टर गए हुए थे। दादा बाहर निकल रहे थे, और मैं अगली प्रेस कांफ्रेंस के लिए भीतर जा रहा था। उन्होंने मुझे देखा कि जमकर गालियां देने लगे- इस रास्कल, रिएक्शनरी की प्रेस कांफ्र्रेंस के लिए तुम्हारे पास समय है, और मेरी प्रेस कांफ्रेंस के लिए समय नहीं है?
लेकिन मीडिया में भी सुधीर दादा की बात का बुरा मानने का कोई रिवाज नहीं था, क्योंकि किसी भी पार्टी में उन दिनों उतना संघर्ष करने वाला, उतना ईमानदार, गरीबों की उतनी फिक्र करने वाला और कोई नेता तो था नहीं। इसलिए वे अगर किसी अखबार वाले को भी गालियां देते थे, तो लोग उसे हॅंसकर सुन लेते थे।
भाई-बहनों में से किसी के साथ रहते हुए, गैरशादीशुदा सुधीर मुखर्जी अपने कपड़ों के बारे में भी बेफिक्र रहते थे। बिना कलफ की धोती, बिना कलफ का कुर्ता, जिस पर पिछले दो-तीन दिनों के खाने के दाग भी अगर रहें, तो भी कोई हैरानी नहीं होती थी।
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वे पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के हिमायती थे, और उसके लिए आंदोलन करने वाले लोगों में से थे। लेकिन जिंदगी के आखिरी दौर में, मौत के साल भर के भीतर ही उन्होंने सीपीआई छोडक़र सीपीएम की सदस्यता ले ली थी। जो लोग इन दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के अंतर्विरोध नहीं जानते उन्हें तो ही हैरानी होगी कि बित्ते भर के वामपंथ ने क्या दलबदल और क्या विभाजन? लेकिन छोटे-छोटे बारीक सिद्धांतों को लेकर इन दोनों पार्टियों में बड़ा मतभेद रहता है। मौत के एक बरस से भी कम पहले सुधीर मुखर्जी सीपीएम चले गए थे। उस वक्त के सीपीएम के राष्ट्रीय महासचिव हरिकिशन सिंह सुरजीत ने उन्हें भोपाल में बुलाया था और कहा था कि अब समाजवादी पार्टी के यमुना प्रसाद शास्त्री सीपीएम में आ गए हैं, वे भी आ जाएं।
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दादा के साथ दिक्कत यह थी कि वे पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के लिए आंदोलन करने वाले लोगों में से थे, और सीपीएम छोटे राज्य बनाने के खिलाफ था जिसके तहत वह छत्तीसगढ़ बनाने के भी खिलाफ था। लेकिन जैसा कि सुधीर मुखर्जी ने सीपीआई में रहने की वजह से इमरजेंसी के खिलाफ कुछ नहीं कहा था, और पार्टी के रूप में कांग्रेस का साथ दिया था, उसी तरह जब वे सीपीएम में गए तो उन्होंने घोषित रूप से पृथक छत्तीसगढ़ आंदोलन से नाता तोड़ लिया, और यह घोषणा की कि अब वे जिस पार्टी में हैं उसकी नीति छोटे राज्यों के खिलाफ है। यह दलबदल करते हुए सुधीर मुखर्जी ने एक लंबा खुला खत भी लिखा था जिसमें उन्होंने उस वक्त सीपीएम को देश के लिए बेहतर कार्यक्रमों वाली और अधिक उपयुक्त पार्टी बताया था।
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सुधीर मुखर्जी की पूरी जिंदगी सीपीआई के लोगों से घिरी थी, और छत्तीसगढ़ में सीपीआई के लोगों ने उनकी इस दगाबाजी को बहुत गंभीरता से लिया। क्योंकि अब आखिरी वक्त में क्या खाक मुसलमां होंगे, वाली बात तो गलत साबित करते हुए दादा आखिरी उम्र में ही अपनी जिंदगी भर की पार्टी को छोडक़र सीपीएम में चले गए थे। नतीजा यह हुआ था कि छत्तीसगढ़ में इन दोनों पार्टियों के बीच बहुत मनमुटाव हो गया था, और राष्ट्रीय स्तर पर भी वामपंथी पार्टियों का कोई मिलाजुला कार्यक्रम होता था, तो उसमें भी छत्तीसगढ़ में सीपीआई अलग रह जाती थी कि सुधीर मुखर्जी वाली सीपीएम में नहीं जाना है।
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कम्युनिस्ट पार्टियों का हाल यह रहता है कि बाहर के वर्ग शत्रु से लडऩे के पहले वे आपस में खूब लड़ लेते हैं। दही और मठा में ल_मल_ा होते रहता है, और दूर बैठे दूध और पनीर हॅंसते रहते हैं। कुछ लोग मजाक में वामपंथियों को यह भी कहते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियों को मिलकर एक हो जाना चाहिए वरना किसी कॉमरेड के गुजरने पर कंधे कम पड़ सकते हैं। सुधीर मुखर्जी के साथ यही हुआ कि उनके गुजरने पर उन्हें सीपीआई की जगह सीपीएम का झंडा नसीब हुआ, और सीपीआई के लिए तो वे दलबदल के दिन ही गुजर चुके थे। उनके अंतिम संस्कार में भी सीपीआई के कुछ साथी आए, और कुछ नहीं आए।
खैर, कुछ लोगों की याद मजबूत है, और उन्होंने बताया कि 1980 के लोकसभा चुनाव में सुधीर दादा जांजगीर लोकसभा सीट से सीपीआई उम्मीदवार होकर चुनाव लड़े थे, और उन्हें बड़ी उम्मीद थी कि मजदूरों वाले इस इलाके में उनकी संभावनाएं अच्छी हैं। लेकिन जिस तरह केयूरभूषण को रायपुर लोकसभा सीट पर निर्दलीय लडऩे पर 606 वोट मिले थे, उसी तरह सुधीर दादा को दो-चार हजार वोट ही जांजगीर लोकसभा में मिल पाए थे।
सीपीएम जाने के बाद सुधीर मुखर्जी ने छत्तीसगढ़ के पार्टी के किसान संगठन का विस्तार किया। उन्होंने पहले ही यह साफ कर दिया था कि वे सीपीआई से अपने पुराने साथियों का दलबदल नहीं करवाएंगे, लेकिन उनके जाने के बाद कई लोग सीपीएम में चले भी गए।
सीपीआई में रहते हुए सुधीर मुखर्जी का कुछ लोगों से टकराव ठीक उसी तरह चलते रहा जैसा कि किसी भी जिंदा संगठन में चल सकता है, और चलना चाहिए। अपनी पार्टी के एक बड़े मजदूर नेता के परिवार की शादी में हजार-दो हजार लोगों की भीड़ को देखकर पार्टी के कार्यकर्ताओं ने यह सवाल उठाया कि एक पूर्णकालिक पार्टी कार्यकर्ता कहां से यह सब इंतजाम कर पाया? सुधीर मुखर्जी अपने ही पुराने मजदूर-संगठनों के नेताओं से ऐसी बातों को लेकर टकराहट झेलते थे। ऐसे में संगठन के भीतर उन पर भी जवाबी हमले होते थे। और कुछ लोगों को याद है कि पार्टी की बैठक में इशारों में यह बात भी होती थी कि सुधीर मुखर्जी लडक़ों को इतना करीब क्यों रखते हैं? इस बारे में उस वक्त एक लतीफा भी चलता था कि कम्युनिस्ट बनने के शौकीन नौजवान लडक़े पार्टी में जाते थे, लेकिन फिर सुधीर मुखर्जी उन्हें बयान तैयार करने के लिए बुला लेते थे, और वहां से निकले हुए लडक़े ठीक सामने के सप्रे स्कूल में चलने वाली आरएसएस की शाखा में चले जाते थे। यह विवाद उनके सम्मान के आगे दब जाता था, और पार्टी के भीतर उनके कुछ विरोधियों की चर्चा, और मीडिया में मजाक का सामान बनकर खत्म भी हो जाता था।
सुधीर मुखर्जी ईमानदार राजनीति, सैद्धांतिक राजनीति, कारोबारियों और कारखानेदारों से लड़ाई की राजनीति, मजदूरों के हक के आंदोलन की राजनीति करते हुए जिए, और वैसे ही खत्म हो गए। वे एक बेमिसाल इंसान थे जिन्होंने पूरी जिंदगी में शायद साख और तसल्ली के सिवाय कुछ नहीं कमाया, ईमानदारी और सिद्धांतवादी होने की साख, और अपनी जिंदगी के पल-पल का समाज के लिए इस्तेमाल करने की तसल्ली। आज दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों में मिलाकर भी वैसा कोई दूसरा व्यक्तित्व बचा नहीं है। दूसरी बात यह भी हो गई है कि अब राजनीति में कटुता इतनी हो गई है कि कांग्रेस या भाजपा के साथ कम्युनिस्टों की किसी तरह की सार्वजनिक बातचीत भी मुमकिन नहीं है। सुधीर मुखर्जी जैसा कोई सर्वमान्य नेता भी अब नहीं रहा, और उनकी यादें ही बची रह गई हैं। आगे किसी और मौके पर उनके बारे में अगली किसी किस्त में कुछ और।
-सुनील कुमार
राजनीति में ईमानदारी कैसे निभ सकती है, इसे देखना हो तो केयूरभूषण की जिंदगी देखना ठीक होगा। गांधीवादी, सर्वोदयी, हरिजनों की सेवा करने वाले, खादी पहनने वाले, और आखिर तक साइकिल पर चलने वाले। केयूरभूषण जाति से छत्तीसगढ़ी ब्राम्हण थे, लेकिन उन्होंने अपना जाति नाम नहीं लिखा। दूसरी तरफ वे हरिजन उद्धार जैसे गांधीवादी आंदोलनों से जुड़े रहे, एक ऐसा शब्द जिससे हरिजन कहे जाने वाले तबकों में आने वाली जातियों को ही घनघोर एतराज रहा, यह एक अलग बात है कि यह शब्द केयूरभूषण का न तो शुरू किया हुआ था, और न ही इनके साथ खत्म हुआ। इसे शुरू करने की सारी तोहमत गांधी के मत्थे आती है, जिन्होंने अपने वक्त में अपनी सोच के मुताबिक हरिजनों को ईश्वर की दुकान में दाखिला दिलाने के लिए ऐसा एक शब्द गढ़ा था, लेकिन आज तक इस तबके का हाल यह है कि हिन्दुस्तान में हर दिन कहीं न कहीं सवर्ण हिंसा का शिकार हो रहा है।
खैर, केयूरभूषण गांधी से सवाल करने वाले लोगों में से नहीं थे, वे गांधी को मानने वाले लोगों में से थे, और गांधी के ही अंदाज में वे हरिजन बस्तियों में साफ-सफाई से लेकर वहां आने-जाने तक, वहां खाने तक, सभी ऐसे काम करते थे जिससे गांधीवादी सोच छुआछूत के खात्मे की उम्मीद करती है। यह उम्मीद बेबुनियाद साबित हुई, लेकिन ऐसा करते हुए केयूरभूषण दूर तक गए।
केयूरभूषण 1980 में रायपुर लोकसभा सीट से कांग्रेस के सांसद बने। इसके बाद जल्द ही दिल्ली मेें उनसे मेरी मुलाकात हुई जहां मैं अंतरराष्ट्रीय फिल्म समारोह की रिपोर्टिंग के लिए गया हुआ था। दिल्ली का एक किस्म से पहला ही ऐसा दौरा था जिसमें न वहां रहने का कोई इंतजाम था, और न ही घूमने-फिरने का। केयूरभूषण से बात करके उनके घर पर रहने का इंतजाम हो गया था जो कि उस वक्त के पैमाने के एक बड़ी बात थी। मुझे 20-22 दिन लगातार रहना था, और सुबह जल्दी रवाना होकर रात आधी रात के काफी बाद लौटना था। उनकी जगह मैं होता, तो ऐसे किसी मेहमान को जगह देने से मना कर देता। लेकिन पहली बार के सांसद का घर जितना बड़ा था, उससे बड़ा उनका दिल था। एक छोटे कमरे में मेरा डेरा बन गया था, और उनके यहां काफी छत्तीसगढ़ी लोग आते-जाते थे, लेकिन वह कमरा सिर्फ मेरे रहने के लिए बने रहा। रात मैं डेढ़-दो बजे लौटता था, और उन्होंने अपने एक घरेलू सहायक को निर्देश दे रखा था कि मैं जब भी आऊं, मेरे लिए गर्म पराठे बनाकर मुझे खाना खिलाए। दिल्ली की शून्य डिग्री के आसपास की ठंड में मुझे प्रेम नाम के इस पहाड़ी नौजवान को उठाना ठीक नहीं लगता था, लेकिन फिर भी हर दिन, या हर रात कहना बेहतर होगा, वह मुझे खाना खिलाते रहा।
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उस वक्त निर्मला देशपांडे भी वहीं रहती थीं। वे स्थाई रूप से केयूरभूषण के साथ ही रहती थीं, और वे इंदिरा गांधी की निजी सहेली मानी जाती थीं। वे ही इंदिरा गांधी तक केयूरभूषण की सीधी पहुंच थीं, और दोनों सर्वोदयी-गांधीवादी थे इसलिए दोनों की अच्छी निभ जाती थी। मुझे निर्मला देशपांडे से बातचीत की कम ही याद है क्योंकि मैं सुबह जल्दी निकल जाता था जिस हड़बड़ी में किसी बात की गुंजाइश नहीं थी, और रात मेरे लौटने तक सब सो चुके होते थे। केयूरभूषण ने रायपुर का सांसद रहते हुए अनगिनत छत्तीसगढ़ी लोगों की मेजबानी की, उनके साधन बहुत सीमित थे, कोई ऊपरी कमाई नहीं थी, बेटा प्रभात दिल्ली में संघर्ष करते रहता था लेकिन उसका भी कोई काम जम नहीं पाया था, लेकिन केयूरभूषण ने किसी को वहां ठहरने के लिए मना किया हो ऐसा सुनाई नहीं पड़ा।
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उनके सांसद रहते हुए बिलासपुर जिले के पांडातराई नाम के कस्बे में हरिजनों को मंदिर में प्रवेश नहीं दिया जाता था। वैचारिक आधार पर यह केयूरभूषण के लिए एक चुनौती थी। वे वहां गए और हरिजनों को लेकर मंदिर प्रवेश की कोशिश की। तनातनी इतनी बढ़ी कि पुलिस गोली चली, और कुछ लोग जख्मी भी हुए। जब केयूरभूषण हरिजनों के साथ मंदिर प्रवेश के लिए जा रहे थे तब हरिजन-विरोधी मंदिरवालों की भीड़ ने हमला कर दिया। केयूरभूषण के सिर पर किसी धारदार हथियार से, शायद फरसे से भारी चोट भी आई, और वहां मौजूद पुलिस उन्हें बचाकर पास के रेस्ट हाऊस ले गई। लेकिन हरिजन-विरोधी लोग रेस्ट हाऊस भी पहुंच गए, और केयूरभूषण तक पहुंचने की कोशिश करने लगे। भीड़ को रोकने के लिए वहां मौजूद एक इंस्पेक्टर ने गोली चलाई जिससे कुछ लोग घायल हुए, या एक की मौत भी हुई।
मुझे इस घटना के बारे में अधिक याद नहीं है, सिवाय इसके कि पता लगते ही मैं मोटरसाइकिल से कैमरे का बैग लिए पांडातराई के लिए रवाना हो गया था, रास्ते में मोटरसाइकिल पंक्चर होने से कई घंटे खराब हुए, पांडातराई पहुंचने तक रात हो गई थी, और उसके बाद की अधिक याद अभी नहीं है।
केयूरभूषण ने छत्तीसगढ़ के इस मंदिर में हरिजन प्रवेश के अलावा राजस्थान के श्रीनाथद्वारा के वैष्णव समाज के मंदिर में भी हरिजन प्रवेश की घोषणा की थी, और उसका भी देश भर के वैष्णव समाज से बड़ा विरोध हुआ था। वे श्रीनाथद्वारा गए, और वहां हरिजनों को लेकर मंदिर जाने वाले थे कि उन्हें घेर लिया गया, खासा तनाव हुआ, उन्हें बचाकर एक घर में ले जाया गया, और बाद में पुलिस ने उन्हें मौके से हटाया। ऐसी तमाम घटनाओं में वे अपनी जिंदगी की परवाह किए बिना सिद्धांतों की लड़ाई में जुट जाते थे।
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इस हमले के बाद मीरा कुमार ने केयूरभूषण को एक चि_ी भेजकर हमदर्दी जाहिर की थी, और लिखा था- आपके साथ जो घटना हुई, और आप पर जिस तरह हमला हुआ वह सब जानकर बहुत पीड़ा पहुंची है। क्या जाति-पांति की नींव पर घृणा की दीवारें इसी मजबूती से खड़ी रहेंगी?
उन्होंने आगे लिखा था- कभी लगता है कालचक्र आगे बढऩे के बजाय पीछे की ओर घूम रहा है, और सर्वनाश के कगार पर उसे न पहुंचने देने के लिए आप जिस शक्ति और साहस से तत्पर हैं, उसमें मेरा हर क्षण संपूर्ण समर्थन स्वीकार करें। ईश्वर से आपके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना के साथ- मीरा कुमार। (मीरा कुमार बाद में लोकसभा अध्यक्ष भी बनीं, और देश के एक सबसे प्रमुख दलित नेता रहे जगजीवन राम की वे बेटी थीं।)
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केयूरभूषण सांसद के रूप में भी बिना कमाई-धमाई जीते रहे, लोगों के काम आते रहे, दौरे के लिए सांसद को एक सरकारी जीप मिलती थी, वे बिना किसी निजी गाड़ी के इसी तरह दौरा करते रहे। वे लगातार गांधीवादी विचारधारा के लेख लिखते थे, खुद लेकर जाकर अखबारों में बैठकर संपादकों को उसका महत्व बताते थे।
वे पृथक छत्तीसगढ़ राज्य की बात करते थे, लेकिन पार्टी के लिए असुविधा खड़ी करने जैसी कोई आक्रामकता उनकी बात में नहीं रहती थी। केयूरभूषण छत्तीसगढ़ी ब्राम्हण थे, लेकिन उनके चुनाव में ब्राम्हण वोटों का उन्हें कोई फायदा नहीं होता था, ब्राम्हण उन्हें ब्राम्हणविरोधी मानते थे, और हरिजन भी उन्हें ब्राम्हण मान लेते थे। अपनी जाति के प्रचलित चरित्र के खिलाफ जाने वाले लोग जिस तरह बहाव के खिलाफ तैरने के लिए मजबूर हो जाते हैं, केयूरभूषण कुछ उसी किस्म के रहे।
जिस दौर में केयूरभूषण छत्तीसगढ़ में राजनीति करते थे, उस वक्त लोगों के लिए शुक्ल बंधुओं के साथ रहना, या फिर उनके खिलाफ मान लिया जाना ही दो विकल्प थे। लेकिन केयूरभूषण कांग्रेस के भीतर की बहुत हिंसक गुटबाजी में भागीदार बने बिना पार्टी के लिए काम करते रहे। लेकिन कांग्रेस से परे भी उनका एक व्यापक संसार था। वे छत्तीसगढ़ी भाषा के लिए, और छत्तीसगढ़ी साहित्य के लिए लगातार लगे रहते थे। वे कहानी और उपन्यास भी लिखते थे, और सार्वजनिक मुद्दों पर दूसरी छोटी पुस्तकें भी। लेकिन सांसद की अपनी पेंशन से पैसे निकालकर वे छपवाते थे, इन किताबों को बिकना तो था नहीं, वे अपनी ही सीमित कमाई इसमें डालते थे। उनकी लिखी दो-तीन किताबें उनके गुजरने तक छपी नहीं थीं, और उनके बेटे प्रभात अभी उन्हें छपवा रहे हैं।
केयूरभूषण मोटेतौर पर रायपुर शहर, लेकिन मौका और जरूरत होने पर दूर-दूर तक गांधी के लिए, खादी के लिए, छत्तीसगढ़ी भाषा-साहित्य के लिए, हरिजनों से जुड़े कार्यक्रमों के लिए जाते ही रहते थे। दो बार का सांसद अपनी जिंदगी बिना किसी निजी गाड़ी के गुजार गया, और छोडक़र भी नहीं गया, ऐसी मिसाल छत्तीसगढ़ में शायद ही कोई दूसरी होगी।
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केयूरभूषण सार्वजनिक जीवन में लगातार सक्रिय रहते हुए निजी और सार्वजनिक कार्यक्रमों में सबसे सहज और सबसे सुलभ चेहरा बने रहे। उन्होंने कभी लोगों के नाजायज सरकारी काम करवाने में कोई दिलचस्पी नहीं ली, इसलिए उनकी कांग्रेस पार्टी के अधिक लोगों की उनमें कोई दिलचस्पी नहीं रही। पार्टी लोकसभा चुनाव का टिकट दे देती थी, तो पार्टी के लोग काम करने लगते थे।
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दो बार सांसद रहने के बाद एक बार वे चुनाव हारे, और फिर अगले एक संसदीय चुनाव में वे कांग्रेस पार्टी छोडक़र निर्दलीय लड़े, और जैसी कि उनको छोडक़र बाकी हर किसी को उम्मीद थी, उनकी जमानत जब्त हो गई। छत्तीसगढ़ में किसी की भी इतनी ताकत नहीं है कि निर्दलीय लोकसभा चुनाव जीत सके। केयूरभूषण को कुल 606 वोट मिले थे, जितने वोट पाकर कोई वार्ड का चुनाव भी न जीत सके। लेकिन उनका कहना था कि वे सिद्धांत की लड़ाई लड़ रहे थे।
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छत्तीसगढ़ में किसी निर्दलीय के लोकसभा चुनाव जीतने का केवल एक मौका ऐसा था जब बस्तर में महेन्द्र कर्मा कांग्रेस छोडक़र, दिल्ली में कांग्रेस छोडक़र एक नई पार्टी बनाने वाले माधवराव सिंधिया के साथ गए थे, और बिना किसी पार्टी निशान के वे आदिवासियों से जुड़े कुछ मुद्दों पर एक आक्रामक अभियान चलाकर सांसद बने थे। लेकिन न तो रायपुर संसदीय सीट ऐसी थी कि यहां ऐसा कोई आक्रामक मुद्दा रहे, और न ही केयूरभूषण वैसे आक्रामक उम्मीदवार थे। उनके बारे में लिखा हुआ पढऩे में लोगों को अधिक स्वाद नहीं आएगा, क्योंकि उनकी जिंदगी में न तो रंगीनियां थीं, न ही कोई बड़े विवाद थे, लेकिन सच तो यह है कि छत्तीसगढ़ के लोगों के मन में केयूरभूषण आखिरी तक सम्मान के हकदार बने रहे, जो कि कम ही लोगों के साथ होता है।
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मेरा उनसे हमेशा सम्मान का अनौपचारिक रिश्ता बने रहा। पिछले अखबार में काम करते हुए जब वहां एक नया अखबार शुरू किया, तो मैंने केयूरभूषण को वहां सिटी रिपोर्टर नियुक्त किया। बुढ़ापे में, शायद 60 बरस से अधिक की उम्र में एक भूतपूर्व सांसद नियमित रूप से कुछ समय तक सिटी रिपोर्टिंग करते रहे। मैं उन्हें मुद्दे बता देता था, और वे गंभीरता से उस पर रिपोर्ट बनाकर लाते थे। अखबार में काम करने वाले बाकी दर्जनों लोगों में से कोई भी ऐसे नहीं थे जो कि साइकिल पर चलते हैं, लेकिन धोती और कमीज में साइकिल पर चलते हुए वे मेहनत से रिपोर्ट बनाते थे। लोग अखबार में समाचारों के साथ सिटी रिपोर्टर-केयूरभूषण पढक़र हैरान भी होते थे, लेकिन उन्हें मेहनत करने में कोई हिचक नहीं थी। उनके साथ मेरी यादें बहुत सी हैं, लेकिन आज वक्त इतना ही है।
-सुनील कुमार
शंकर गुहा नियोगी पर कल अनायास ही लिखना शुरू कर दिया था, और अखबार के बाकी तमाम काम के बोझ के बीच बिना पुरानी जानकारी की मदद लिए जो-जो याद पड़ता है, बस वही लिखना मकसद भी था। रिकॉर्ड लिखने को तो बहुत से लोग किताबें लिख सकते हैं, और लिखते हैं।
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कल शंकर गुहा नियोगी की हत्या की बात लिखी, और अपना यह मलाल लिखा कि उसके कुछ घंटे पहले ही दो-तीन दूसरे दोस्तों के साथ नियोगी भी मेरे पहुंचने की राह देख रहा था, लेकिन अपनी समझ बढ़ाने का वह एक मौका मेरे हाथ से ऐसा चूका कि अब कभी दुबारा आ नहीं सकता।
नियोगी की हत्या इतनी बड़ी घटना थी, कि उसकी सीबीआई जांच एक स्वाभाविक बात थी। राज्य में भाजपा की सरकार थी, और दोनों ही बड़ी पार्टियों, भाजपा और कांग्रेस के नियोगी के खिलाफ होने की बात जगजाहिर थी। ऐसे में 48 बरस के इस शहीद की हत्या की सीबीआई जांच की मांग पीयूसीएल सहित अनगिनत संगठनों ने देश भर से की, और बाकी दुनिया से भी बहुत से संगठनों ने भारत सरकार को इसके बारे में लिखा। पटवा सरकार पर एक दबाव बना, और सीबीआई जांच की घोषणा की गई।
छत्तीसगढ़ में दोनों बड़ी पार्टियों और सीपीआई के लोग पीयूसीएल और राजेन्द्र सायल के बड़े खिलाफ थे क्योंकि यह संगठन सत्ता में चली आ रही यथास्थिति को तोडऩे के लिए कुछ न कुछ करता था, और दोनों पार्टियों के पक्ष-विपक्ष में रहते हुए जो सबसे कमजोर तबका सबसे बेजुबान रहता था, उस तबके के हक के लिए पीयूसीएल लड़ता था। ऐसे में इन दोनों पार्टियों के लोगों को सीबीआई जांच को पीयूसीएल की तरफ मेड़ देना बड़ा आकर्षक लगा। तरह-तरह की जुर्म की कहानियां फैलाई गईं कि छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के भीतर की लड़ाई के चलते राजेन्द्र सायल इस हत्या के पीछे हो सकते हैं। लोगों ने सारा हिसाब चुकता करने का यह एक अच्छा मौका ढूंढा। लेकिन सारे लोग इस हत्या से बेदाग रहे, और सीबीआई ने सिम्पलेक्स उद्योग समूह से जुड़े हुए उसी परिवार के चन्द्रकांत शाह और भाड़े के एक हत्यारे पल्टन मल्लाह को कत्ल का कुसूरवार ठहराया, और सजा दी।
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चूंकि मौत के कुछ घंटे पहले शंकर गुहा नियोगी राजेन्द्र सायल, एन.के. सिंह के साथ तो थे ही, होटल के कमरे से पीबीएक्स से होते हुए प्रेस के मेरे नंबर पर भी फोन आए थे, इसलिए जांच में मुझसे भी पूछा गया कि मेरे पास फोन क्यों आए थे। उसका सच और आसान जवाब यही था कि मैं भी वहां आमंत्रित था। बात आई-गई हो गई, और पीयूसीएल विरोधियों ने आरोप लगाने में अपनी जो हसरत पूरी की थी, वह धरी की धरी रह गई।
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नियोगी के बारे में एक बड़ी घटना लिखना कल छोड़ दिया था, और वह थी दल्लीराजहरा में नियोगी के आंदोलन के चलते हुए अधिक बरस नहीं हुए थे, और उनका आंदोलन बहुत जोरों पर था। ठेकेदारों के खिलाफ नियोगी का मजदूर संगठन अपने हक की लड़ाई लड़ रहा था। ऐसे में 1977 में परेशान ठेकेदारों की मदद करने के लिए पुलिस नियोगी को गिरफ्तार करने देर रात पहुंची। एक जीप में नियोगी को उठाकर पुलिस भाग निकली, लेकिन दूसरी जीप को मजदूरों ने घेर लिया और नियोगी की रिहाई पर अड़ गए। मजदूरों से भिड़ चुकी पुलिस ने गोलियां चलाईं जिनमें 7 मजदूर मारे गए थे। लेकिन फिर भी मजदूरों ने पुलिस को नहीं छोड़ा। अगले दिन बहुत सी पुलिस और पहुंची, और अपने साथियों को छुड़ाकर लाने के संघर्ष में कुछ और मजदूरों को गोलियों से भूना। लेकिन आंदोलन टूटा नहीं, और जेल में बंद अपने नेता की गैरमौजूदगी में भी बड़ी मजबूती के साथ यह आंदोलन चलते रहा।
नियोगी एक तरफ तो अपनी खुद की जिंदगी को एक आदर्श की तरह सामने रखते थे जिनकी पत्नी खुद सिर पर लौह अयस्क टोकरी में ढोती थी। दूसरी तरफ वे दुनिया के महानतम मजदूर सिद्धांतों, मशीनीकरण के खतरों को भरपूर पढ़े हुए नेता थे, और वे मौजूदा खतरे के अलावा आने वाले खतरे को भी समझ सकते थे। फिर नियोगी में यह खूबी दिखी कि वे मजदूर अधिकार से परे मजदूर-कल्याण को समाज सुधार की सीमा तक ले जाने की ताकत रखते थे, और उन्होंने अपने मजदूरों से शराब छुड़वाने के लिए एक बड़ी मुहिम छेड़ी थी जिससे शराब ठेकेदार भी परेशान थे, और शराब बनाने वाली कंपनियों के लोग भी। नतीजा यह था कि कारखानेदारों और ठेकेदारों के असर में भोपाल की सरकारें, और छत्तीसगढ़ की तमाम पार्टियां नियोगी के खिलाफ थीं। लेकिन नियोगी का आभा मंडल इतना बड़ा था कि उनके नक्सली होने, सीआईए एजेंट होने की तोहमतें भी हवा में अधिक टिक नहीं पाती थीं।
नियोगी के संगठन का बनाया हुआ दल्लीराजहरा का शहीद अस्पताल एक आदर्श है कि एक मजदूर संगठन अपने सदस्यों और उनके परिवारों के लिए क्या कर सकता है, उसे क्या करना चाहिए। बच्चों की पढ़ाई के लिए भी नियोगी ने एक अभियान सा छेड़ा, और उनका मजदूर संगठन उस पूरे इलाके में एक जनकल्याणकारी प्रशासन की तरह काम कर रहा था। हिन्दुस्तान में किसी भी दूसरी जगह अगर मजदूर आंदोलन ने इतना व्यापक विस्तार किया भी होगा, तो भी वह कम से कम इस पल मुझे याद नहीं पड़ रहा।
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शंकर गुहा नियोगी ने मजदूर संगठन का नाम छत्तीसगढ़ खदान मजदूर संघ रखा था, और राजनीतिक दल का नाम छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा। इन दोनों के सिलसिले में नियोगी का रायपुर आकर अखबारों से बात करना लगे रहता था। वह एक साधारण जीप में चलता था, और मीडिया के आम समझ के लोगों को राजनीति, अर्थशास्त्र, और मजदूर आंदोलन के जटिल पहलुओं को सरल तरीके से समझाता था।
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कांग्रेस और सीपीआई से जुड़े हुए मजदूर संगठनों की साख नियोगी के सामने फीकी पड़ रही थी, और मजदूरों के बीच उनकी पकड़ भी खत्म होते चल रही थी, इसलिए इन सबका यह कहना था कि यह एक व्यक्तिवादी मजदूर आंदोलन है जो कि नियोगी के साथ ही खत्म हो जाएगा। लेकिन ऐसी तमाम भविष्यवाणियों के खिलाफ नियोगी की हत्या पर भी उनके शव के साथ चलते लाख मजदूरों ने अपना आपा नहीं खोया, और आज तक यह मजदूर संगठन अपने सालाना जलसे में उसी शांति के साथ इकट्ठा होता है। आज भी संगठन छत्तीसगढ़ का सबसे मजबूत मजदूर संगठन है, और यह नियोगी का एक बड़ा योगदान था जो उन्होंने अपने न रहने के दिन भी संगठन के चलने और मजबूत रहने की मजबूती उसे दी थी।
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जिन लोगों ने नियोगी को देखा है वे जानते हैं कि ऐसा कोई मजदूर नेता इस प्रदेश में पहले हुआ नहीं, और अब नियोगी को गए 30 बरस हो रहे हैं, इन 30 बरसों में भी नियोगी के पासंग बैठने वाला भी कोई नेता छत्तीसगढ़ ने नहीं देखा है। नियोगी से जुड़े किस्से और भी बहुत कुछ हैं, लेकिन आज एक साप्ताहिक कॉलम, आजकल, लिखने का भी दिन है, इसलिए आज इससे अधिक और कुछ नहीं। बाकी फिर कभी। छत्तीसगढ़ के इस सबसे बड़े शहीद को सलाम।
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-सुनील कुमार
छत्तीसगढ़ की राजनीति और यहां के नेताओं के बीच शंकर गुहा नियोगी के बारे में कुछ लिखना कुछ अटपटा लग सकता है, लेकिन इन यादों का महज राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है, और शंकर गुहा नियोगी का राजनीति से लेना-देना था। इस मजदूर नेता पर बड़ी-बड़ी फिल्में बन सकती हैं, बड़ी-बड़ी किताबें हो सकता है कि लिखी गई हों, लेकिन मैं महज अपनी यादों तक सीमित रहूंगा।
हिन्दुस्तान में ऐसे कम ही मौके रहते हैं जब मजदूरों का इतना बड़ा नेता उद्योगपतियों द्वारा कत्ल करवा दिया जाए, उद्योगपतियों के भाड़े के हत्यारे गिरफ्तार हो जाएं, लेकिन मजदूर लाख से अधिक होने पर भी एक पत्थर भी न चलाएं। शंकर गुहा नियोगी का मजदूर संगठन, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा, कुछ इसी किस्म का था। नियोगी की हत्या के बाद भी मजदूर संगठन बना हुआ है, और नियोगी के कुनबे के बिना चल रहा है। दल्लीराजहरा की खदानों से भिलाई इस्पात संयंत्र के लिए आयरन ओर जाता है, और इसी इलाके में खदान मजदूरों के भले के लिए उन्हें संगठित करके इस प्रदेश के इतिहास का सबसे संगठित, सबसे मजबूत, और सबसे बड़ा मजदूर संगठन शंकर गुहा नियोगी ने बनाया था जो कि खुद बाहर से यहां आए थे।
वह वक्त बड़ा दिलचस्प था। इमरजेंसी की वजह से कांग्रेस और सीपीआई के लोगों ने भारत में राजनीतिक अस्थिरता और अराजकता की साजिशों का एक हौव्वा खड़ा किया था, और उसके पीछे विदेशी हाथ बताया जाता था। जबकि हिन्दुस्तान में उस वक्त तो विदेशी छोड़ देशी हाथ भी नहीं था, और वह बाद में कांग्रेस के चुनावचिन्ह की शक्ल में आया। लेकिन उस वक्त भी कांग्रेस और सीपीआई के लोग अपनी अलग-अलग वजहों से शंकर गुहा नियोगी को नक्सली भी कहते थे, और अमरीकी एजेंट भी कहते थे। यह कुछ ऐसे थर्मस फ्लास्क की तरह का मामला था जो एक फ्लास्क में ठंडा रखता है, और दूसरे में गर्म। कोई नक्सली भी हो, और वह अमरीकी एजेंट भी हो, ऐसा इमरजेंसी के उस दौर में कांग्रेस और सीपीआई की तोहमतों में ही मुमकिन था।
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लेकिन शंकर गुहा नियोगी के ऊपर ऐसी अलग-अलग कई किस्म की तोहमतें लगाने के पीछे कई किस्म की वजहें थीं। सीपीआई ने चूंकि कांग्रेस का साथ दिया था इसलिए उसे इमरजेंसी के पक्ष में तर्क देने थे, और ऐसा करते हुए वह अपने पसंदीदा दुश्मन अमरीका पर भारत में अस्थिरता पैदा करने का आरोप भी लगा रही थी। दूसरी तरफ कांग्रेस के सामने एक दिक्कत यह थी कि नियोगी की जमीन बन जाने के वक्त अविभाजित मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी, और उद्योगपति उसके साथ थे, जिनको नियोगी से डर लग रहा था। फिर इन दोनों ही पार्टियों के साथ नियोगी को लेकर एक दिक्कत यह थी कि छत्तीसगढ़ के तमाम दूसरे मजदूर संगठन तकरीबन इन्हीं दोनों पार्टियों के थे। और नियोगी के जो तेवर थे उनके चलते इन सबकी दुकानें ठप्प पडऩे का एक खतरा खड़ा हो गया था। इसलिए कांग्रेसी और कम्युनिस्ट दोनों ही नियोगी से नफरत करते थे, क्योंकि वह भाजपा का विरोधी रहने वाला ऐसा मजदूर नेता था जो इन दोनों पार्टियों के परंपरागत मजदूरों के बीच घुसपैठ की ताकत रखता था, घुसपैठ कर चुका था।
लेकिन शंकर गुहा नियोगी का व्यक्तित्व एक अभूतपूर्व और असंभव किस्म के मजदूर नेता का था। वह इस कदर फक्कड़ था कि उसकी पत्नी खदान में मजदूरी करती थी। वह खुद मजदूर की जिंदगी जीता था। उसने तमाम वामपंथ, और तमाम मजदूर आंदोलनों को पढ़ा हुआ था, उसका बौद्धिक स्तर छत्तीसगढ़ के तमाम अखबारनवीसों के बौद्धिक स्तर से अधिक ऊंचा था, उससे राजनीति और मजदूर आंदोलन, मजदूर अधिकार को लेकर बहस करने की समझ बहुत कम लोगों में थी। वह सिर्फ जिंदाबाद-मुर्दाबाद वाला मजदूर नेता नहीं था, वह भारी पढऩे और सोचने-विचारने वाला नेता भी था।
नियोगी से मेरी मुलाकात उनके मजदूर आंदोलनों की मांगों को लेकर होने वाली गरीब सी प्रेस कांफ्रेंस में होती थी। लेकिन उसका व्यक्तित्व बांध लेने वाला था। लापरवाह हुलिया, लगातार सिगरेट, लगातार तर्कसंगत बातें जिनके पीछे बहुत गहरी समझ भी हो, और सरकार-उद्योगपतियों से लडऩे का अंतहीन हौसला। बहुत सी बातों ने मिलकर एक नियोगी को बनाया था जिससे छत्तीसगढ़ के बड़े उद्योगपति दहशत खाते थे। यही वजह रही कि उद्योगपतियों ने अपने बीच के, अपने परिवार के एक आदमी को लगाकर, बाहर से भाड़े का हत्यारा बुलाकर सोए हुए नियोगी की हत्या करवा दी, और सजा पाने वालों में सबसे बड़े उद्योग के परिवार का एक व्यक्ति भी रहा।
राजनीति से नियोगी का थोड़ा सा लेना-देना रहा जब उन्हें लगा कि विधानसभा में अगर उनका कोई विधायक नहीं होगा तो मजदूरों की बात वहां नहीं उठ पाएगी। उस वक्त नियोगी ने अपने एक मजदूर साथी जनकलाल ठाकुर को विधानसभा का चुनाव लड़वाया, और छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के घोषित उम्मीदवार के रूप में वे एक बार विधायक रहे। इस एक-दो विधानसभा चुनाव से परे छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा की चुनावी राजनीति में कोई हिस्सेदारी नहीं रही। लेकिन वह कुछ ऐसे दूसरे संगठनों के साथ जरूर जुड़ा रहा जिन्हें हिन्दुस्तान में शक की नजरों से देखा जाता था, और यह माना जाता था कि वे इस देश में अस्थिरता पैदा करने के लिए ही काम कर रहे हैं।
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पीयूसीएल नाम का मानवाधिकार संगठन छत्तीसगढ़ में नियोगी के संगठन छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के साथ कदम मिलाकर चलने वाला था, दोनों संगठन अलग थे, लेकिन मजदूरों के शोषण, और मानवाधिकार जैसे कुछ मुद्दों पर ये साथ भी रहते थे। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा की तरह ही पीयूसीएल भी सरकार की आंखों की किरकिरी था क्योंकि वह बंधुआ मजदूरों के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट तक से केस जीतकर यहां हजारों बंधुआ मजदूरों को मुक्त करवा रहा था जो कि कांग्रेस और भाजपा के बहुत से नेताओं के बंधुआ मजदूर थे। कुल मिलाकर सत्तारूढ़ रहते हुए कांग्रेस, या सत्ता में एक बार आई हुई भाजपा, इन दोनों को छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा और पीयूसीएल एक से नापसंद थे, और इनके साथ-साथ सीपीआई को भी इन दोनों से बहुत ही परहेज था, इन्हें सीआईए का एजेंट कहने में एक पल की देर नहीं की जाती थी।
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अब नियोगी के कत्ल को भी कई दशक हो गए हैं, और इस दौरान दिल्ली से लेकर भोपाल तक की सरकारें, कांग्रेस और भाजपा दोनों ही चला चुकी हैं, लेकिन इन दोनों संगठनों के खिलाफ किसी के पास कुछ नहीं है, जिसका मतलब है कि इन पर नक्सल-समर्थक होने, या सीआईए का एजेंट होने की तोहमतें फर्जी थीं। झगड़ा अस्तित्व का था, वर्गहित का था। वर्गहित ऐसे कि कांग्रेस और भाजपा दोनों ही उद्योगपतियों के साथ थीं, और सीपीआई का वर्गहित टकराव ऐसे हो रहा था कि उसका मजदूर संगठन नियोगी के मुकाबले हाशिए पर जा रहा था, जा चुका था।
ऐसे नियोगी को कई बार कई आंदोलनों के सिलसिले में जेल में भी रखा गया। ऐसे ही कुछ मौकों पर मुझे जेल जाकर सुपरिटेंडेंट के कमरे में नियोगी से लंबी वैचारिक बातचीत करने का भी मौका मिला। उनके मुकाबले मैंने मानो कुछ भी नहीं पढ़ा हुआ था, और हर मुलाकात मेरी जानकारी, और मेरी समझ को बढ़ाते जाती थी।
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लेकिन नियोगी से एक आखिरी मुलाकात न हो पाने का मुझे लंबा मलाल रहा, आज भी है, और जब-जब नियोगी को याद करना होगा, यह मलाल सिर पर चढ़े रहेगा।
भोपाल से एक अखबारनवीस दोस्त एन.के. सिंह रायपुर आए हुए थे। वे उस समय इंडिया टुडे के लिए भोपाल से पूरा अविभाजित मध्यप्रदेश कवर करते थे। उनके साथ इसी पत्रिका के फोटोग्राफर, अगर नाम मुझे ठीक से याद है तो, प्रशांत पंजियार भी थे। वे पिकैडली होटल में ठहरे थे जहां शाम को खाने के लिए पीयूसीएल के राजेन्द्र सायल, और भिलाई से शंकर गुहा नियोगी भी पहुंचे हुए थे। एन.के. सिंह ने मुझे भी न्यौता दिया था, लेकिन उन दिनों अखबार का रात का काम खत्म ही नहीं हो रहा था, दूसरी तरफ मेरा गला इतना खराब था कि मुझसे बात करते भी बन नहीं रहा था। ऐसे में लंबी बातचीत और बहस की किसी शाम में गले के और अधिक चौपट हो जाने का खतरा था। मुझे शाम से रात तक कुछ बार एन.के.सिंह का फोन आया, और मेरा जाना हो ही नहीं पाया। अगली सुबह शायद 5-6 बजे की बात होगी एन.के. सिंह का फोन आया, और उन्होंने बताया कि नियोगी का कत्ल कर दिया गया है। भिलाई में उनके घर पर किसी ने गोली मार दी है, और वे तुरंत वहां रवाना हो रहे हैं।
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यह खबर सुनते ही हाथ-पैर ठंडे पड़ गए कि बीती शाम ही जिसके साथ लंबी बातचीत होनी थी, जिसमें छत्तीसगढ़ के मजदूरों को अपना एक मसीहा दिखता था, एक ऐसा मजदूर नेता जिसने छत्तीसगढ़ में यह साबित किया था कि कारखानेदारों का दलाल हुए बिना भी मजदूर आंदोलन चलाया जा सकता है, उनसे किसने इस तरह मार दिया। तब तक यह अहसास नहीं था कि कारखानेदार ऐसा कत्ल करवा सकते हैं। लेकिन कुछ देर में यह बात याद आने लगी कि नियोगी कई बार कहा करता था कि उसका कत्ल करवाया जा सकता है। मुझे हर बार यही लगता था कि लाख मजदूरों के इस नेता को छूने का हौसला भला किसका हो सकता है? लेकिन आखिर में हुआ वही, लाख मजदूरों का साथ धरे रह गया, और भाड़े के एक हत्यारे को लेकर उद्योगपतियों ने देश के इस एक सबसे चर्चित मजदूर नेता को मरवा डाला। बंगाल से आकर छत्तीसगढ़ में मजदूरों को एक करने, उनके हक की लड़ाई लडऩे, उनके इलाज के लिए अभूतपूर्व अस्पताल खोलने और इतिहास का एक सबसे मजबूत मजदूर संगठन खड़ा करने वाले इस नौजवान नेता को मरवाकर भी कारखानेदार उसका मजदूर संगठन खत्म नहीं करवा पाए जो कि आज भी चल रहा है। नियोगी के बारे में कुछ और यादें, कई और बातें अगली किस्त में।
-सुनील कुमार
मोतीलाल वोरा के बारे में कल बात शुरू हुई, तो किसी किनारे नहीं पहुंच पाई। दरअसल उनके साथ मेरी व्यक्तिगत यादें भी जुड़ी हुई हैं, और उनके बारे में बहुत कुछ सुना हुआ भी है। फिर उनका इतना लंबा सक्रिय राजनीतिक जीवन है कि उनसे जुड़ी कहानियां खत्म होती ही नहीं।
जब वे अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो उन्हें हटाने के लिए कांग्रेस के भीतर के लोग लगातार लगे रहते थे। वैसे में माधवराव सिंधिया उनके संरक्षक बनकर दिल्ली दरबार में उन्हें बचाए रखते थे। इस बात में कुछ भी गोपनीय नहीं था, और हर हफ्ते यह हल्ला उड़ता था कि वोराजी को हटाया जाने वाला है। नतीजा यह था कि उस वक्त एक लतीफा चल निकला था कि वोराजी जब भी शासकीय विमान में सफर करते थे, तो विमान के उड़ते ही उसका वायरलैस बंद करवा देते थे। उसकी वजह यह थी कि उन्हें लगता था कि उड़ान के बीच अगर उन्हें हटाने की घोषणा हो जाएगी, तो पायलट उन्हें बीच रास्ते उतार न दे।
वोराजी का पांच साल का पूरा कार्यकाल ऐसी चर्चाओं से भरे रहा, और वे इसके बीच भी सहजभाव से काम करते रहे। सिंधिया को छत्तीसगढ़ के अनगिनत कार्यक्रमों में उन्होंने बुलाया, और उस वक्त के रेलमंत्री रहे माधवराव सिंधिया ने छत्तीसगढ़ के लिए भरपूर मंजूरियां दीं। उस वक्त अखबारनवीसी कर रहे लोगों को याद होगा कि इनकी जोड़ी को उस समय मोती-माधव या माधव-मोती एक्सप्रेस कहा जाता था। माधवराव सिंधिया परंपरागत रूप से अर्जुन सिंह के प्रतिद्वंदी थे, और छत्तीसगढ़ के शुक्ल बंधुओं से भी उनका कोई प्रेमसंबंध नहीं था। ऐसे में केन्द्र में ताकतवर सिंधिया को राज्य में मोतीलाल वोरा जैसे निरापद मुख्यमंत्री माकूल बैठते थे, और ताकत में वोराजी की सिंधिया से कोई बराबरी नहीं थी। नतीजा यह था कि ताकत के फासले वाले इन दो लोगों के बीच जोड़ीदारी खूब निभी।
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मुख्यमंत्री रहने के अलावा जब वोराजी को राजनांदगांव संसदीय सीट से उम्मीदवार बनाया गया, तब उन्होंने चुनाव प्रचार में उसी अंदाज में मेहनत की, जिस अंदाज में वे मुख्यमंत्री रहते हुए रोजाना ही देर रात तक काम करने के आदी थे। इस संसदीय चुनाव प्रचार के बीच मैंने उनको इंटरव्यू करने के लिए समय मांगा तो उनका कहना था कि वे सात बजे चुनाव प्रचार के लिए राजनांदगांव से रवाना हो जाते हैं, और देर रात ही लौटते हैं। ऐसे में अगर मैं मिलना चाहता था, तो मुझे सात बजे के पहले वहां पहुंचना था। मैं स्कूटर से रायपुर से रवाना होकर दो घंटे में 7 बजे के पहले ही राजनांदगांव पहुंच गया, वहां वे एक तेंदूपत्ता व्यापारी के पत्ता गोदाम में बने हुए एक गेस्टरूम में सपत्नीक ठहरे थे, और करीब-करीब तैयार हो चुके थे।
वे मेरे तेवर भी जानते थे, और यह भी जानते थे कि उनके प्रति मेरे मन में न कोई निंदाभाव था, और न ही प्रशंसाभाव, फिर भी उन्होंने समय दिया, सवालों के जवाब दिए, और शायद इस बात पर राहत भी महसूस की कि मैंने अखबार के लिए चुनावी विज्ञापनों की कोई बात नहीं की थी। चुनाव आयोग के प्रतिबंधों के बाद चुनावी-विज्ञापन शब्द महज एक झांसा है, हकीकत तो यह है कि अखबार उम्मीदवारों और पार्टियों से सीधे-सीधे पैकेज की बात करते हैं। वह दौर ऐसे पैकेज शुरू होने के पहले का था, लेकिन यह आम बात है कि अखबारों के रिपोर्टर ही उम्मीदवारों से विज्ञापनों की बात कर लेते थे, कर लेते हैं, लेकिन वोराजी से न उस वक्त, और न ही बाद में कभी मुझे ऐसे पैकेज की कोई बात करनी पड़ी, और नजरों की ओट बनी रही।
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वोराजी खुद भी एक वक्त कम से कम एक अखबार के लिए तो काम कर ही चुके थे, और उनके छोटे भाई गोविंदलाल वोरा छत्तीसगढ़ के एक सबसे बुजुर्ग और पुराने अखबारनवीस-अखबारमालिक थे, इसलिए वोराजी को हर वक्त ही छत्तीसगढ़ के मीडिया की ताजा खबर रहती थी, भोपाल में मुख्यमंत्री रहते हुए भी, और केन्द्र में मंत्री या राष्ट्रपति शासन में उत्तरप्रदेश को चलाते हुए। जितनी मेरी याददाश्त साथ दे रही है, उन्होंने कभी अखबारों को भ्रष्ट करने, या उनको धमकाने का काम नहीं किया। वह एक अलग ही दौर था।
मोतीलाल वोरा मुख्यमंत्री रहे, अविभाजित मध्यप्रदेश के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रहे, लेकिन छत्तीसगढ़ में वे अपने कोई सहयोगी नहीं बना पाए। दुर्ग में दो-चार लोग, और रायपुर में पांच लोग उनके नाम के साथ गिने जाते थे। रायपुर में तो उनके करीबी पांच लोगों की शिनाख्त इतनी जाहिर थी कि उन्हें पंच-प्यारे कहा जाता था। इन लोगों के लिए भी वोराजी कुछ जगहों पर मनोनयन से बहुत अधिक कुछ कर पाए हों, ऐसा भी याद नहीं पड़ता। लेकिन उनकी एक खूबी जरूर थी कि वे छत्तीसगढ़ के हजारों लोगों के लिए बिना देर किए सिफारिश की चिट्ठी लिखने को तैयार हो जाते थे।
यूपीए सरकार के दस बरसों में देश में उनका नाम बड़ा वजनदार था। एक दोस्त की बेटी मुम्बई के एचआर कॉलेज में ही दाखिला चाहती थी। उस कॉलेज में दाखिला बड़ा मुश्किल भी था। उनके साथ मैं वोराजी के पास दिल्ली गया, दिक्कत बताई, तो वे सहजभाव से सिफारिश की चिट्ठी लिखने को तैयार हो गए। हम लोगों को कमरे में बिठा रखा, चाय और पान से स्वागत किया, पीछे के कमरे में जाकर अपने टाईपिस्ट के पास खड़े रहकर चिट्ठी लिखवाई उसे मुम्बई कॉलेज में फैक्स करवाया, और फैक्स की रसीद के साथ चिट्ठी की एक कॉपी मुझे दी, और कॉलेज के संस्थापक मुंबई के एक बड़े बिल्डर हीरानंदानी से फोन पर बात करने की कोशिश भी की, लेकिन बात हो नहीं पाई।
चिट्ठी के साथ जब मैं अपने दोस्त और उनकी बेटी के साथ मुंबई गया, तो एचआर कॉलेज के बाहर मेला लगा हुआ था। उस भीड़ के बीच भी हमारे लिए खबर थी, और कुछ मिनटों में हम प्रिंसिपल के सामने थे। इन्दू शाहणी, मुंबई की शेरिफ भी रह चुकी थीं। उनकी पहली उत्सुकता यह थी कि मैं वोराजी को कैसे जानता हूं, उन्होंने सैकड़ों पालकों की बाहर इंतजार कर रही कतार के बाद भी 20-25 मिनट मुझसे बात की, जिसमें से आधा वक्त वे वोराजी और छत्तीसगढ़ के बारे में पूछती रहीं। सबसे बड़ी बात यह रही कि जिस दाखिले के लिए 10-20 लाख रूपए खर्च करने वाले लोग घूम रहे थे, वह वोराजी की एक चिट्ठी से हो गया। लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि बाद में उन्होंने कभी चुनाव के वक्त या किसी और राजनीतिक काम से कोई खर्च बताया हो। वे उसे सज्जनता के साथ भूल गए, और दीवाली पर मेरे दोस्त मेरे साथ सिर्फ मिठाई का एक साधारण डिब्बा लेकर उनके घर दुर्ग गए, तो भी उनका कहना था कि अरे इसकी क्या जरूरत थी।
मोतीलाल वोरा राजनीति में लगातार बढ़ती चली जा रही कुटिलता के बीच सहज व्यक्ति थे। वे बहुत अधिक साजिश करने के लिए कुख्यात नेताओं से अलग दिखते थे, और अभी भी अलग दिखते हैं। उनकी पसंद अलग हो सकती है, लेकिन अपनी पसंद को बढ़ावा देने के लिए, या नापसंद को कुचलने के लिए वे अधिक कुछ करते हों, ऐसा कभी सुनाई नहीं पड़ा।
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छत्तीसगढ़ में अभी कांग्रेस की सरकार बनी, तो दिल्ली से ऐसी चर्चा आई कि वोराजी की पहल पर, और उनकी पसंद पर ताम्रध्वज साहू को मुख्यमंत्री बनाना तय किया गया था, और इस बात की लगभग घोषणा भी हो गई थी, लेकिन इसके बाद भूपेश बघेल और टी.एस. सिंहदेव ने एक होकर, एक साथ लौटकर जब यह कह दिया कि वे ताम्रध्वज के साथ किसी ओहदे पर कोई काम नहीं करेंगे, तो ताम्रध्वज का नाम बदला गया, और भूपेश बघेल का नाम तय हुआ। ये तमाम बातें वैसे तो बंद कमरों की हैं, लेकिन ये छनकर बाहर आ गईं, और इनसे मोतीलाल वोरा और भूपेश बघेल के बीच एक दरार सी पड़ गई।
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अभी जब छत्तीसगढ़ से राज्यसभा के कांग्रेस उम्मीदवार तय होने थे, तब मोतीलाल वोरा से जिन्होंने जाकर कहा कि उन्हें राज्यसभा में रहना जारी रखना चाहिए, तो आपसी बातचीत में उन्होंने यह जरूर कहा था कि भूपेश बघेल उनका नाम होने देंगे? और हुआ वही, हालांकि यह नौबत शायद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री के दरवाजे तक नहीं आई, और कांग्रेस पार्टी ने दिल्ली में ही यह तय कर लिया कि वोराजी का उपयोग अब राज्यसभा से अधिक संगठन के भीतर है, और केटीएस तुलसी जैसे एक सीनियर वकील की पार्टी को इस मौके पर अधिक जरूरत है।
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वोराजी का बहुत बड़ा कोई जनाधार कभी नहीं रहा, वे पार्टी के बनाए हुए रहे, और जनता के बीच अपने सीमित असर वाले नेता रहे। लेकिन उनके बेटों की वजह से कभी उनकी कोई बदनामी हुई हो, ऐसा नहीं हुआ, और राजनीति में यह भी कोई छोटी बात तो है नहीं। छत्तीसगढ़ की एक मामूली नौकरी से लेकर वे कांग्रेस पार्टी में उसके हाल के सबसे सुनहरे दस बरसों में सबसे ताकतवर कोषाध्यक्ष और पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के सबसे करीबी व्यक्ति रहे, आज भी हैं। आज दिन सुनहरे नहीं हैं, कांग्रेस पार्टी, सोनिया परिवार, और इन दोनों से जुड़ी हुई कुछ कंपनियां लगातार जांच और अदालती मुकदमों का सामना कर रही हैं, और उनमें मोतीलाल वोरा ठीक उतने ही शामिल हैं, ठीक उतनी ही दिक्कत में हैं, जितने कि सोनिया और राहुल हैं। किसी एक नाव पर इन दोनों के साथ ऐसे सवार होना भी कोई छोटी बात नहीं है, और रायपुर की एक बस कंपनी के एक मुलाजिम से लेकर यहां तक का लंबा सफर खुद मेरे देखे हुए बहुत सी और यादों से भरा हुआ है, लेकिन उनके बारे में किसी अगली किस्त में।
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-सुनील कुमार
कांग्रेस पार्टी के छत्तीसगढ़ के सबसे बुजुर्ग नेता मोतीलाल वोरा एक बरगद की तरह बूढ़े हैं, और बरगद की तरह ही उनका तजुर्बा फैला हुआ है। भला और कौन ऐसे हो सकते हैं, जो राजस्थान से आकर छत्तीसगढ़ में बसे हों, और यहां के कांग्रेस के इतने बड़े नेता बन जाएं कि उन्हें अविभाजित मध्यप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया जाए, केन्द्रीय मंत्री बनाया जाए, और उत्तरप्रदेश जैसे बड़े राज्य का राष्ट्रपति शासन के दौरान राज्यपाल बनाया जाए। वोराजी एक अद्भुत व्यक्तित्व हैं, और छत्तीसगढ़ी में एक कहावत है जो उनके बारे में कई लोग कहते हैं, ऐड़ा बनकर पेड़ा खाना।
मोतीलाल वोरा ने अपनी कामकाजी जिंदगी की शुरूआत रायपुर की एक बस कंपनी में काम करते हुए की थी। जैसा कि पहले किसी भी परंपरागत कारोबार में होता था, हर कर्मचारी को हर किस्म के काम करने पड़ते थे, न तो उस वक्त अधिक किस्म के ओहदे होते थे, और न ही लोगों को किसी काम को करने में झिझक होती थी। मुसाफिर बस चलाने वाली इस कंपनी में वोराजी कई किस्म के काम करते थे। लेकिन उनकी सरलता की एक घटना खुद उन्हें याद नहीं होगी।
यह बात मेरे बचपन की है, जिस वक्त हमारे पड़ोस में बसों को नियंत्रित करने वाले आरटीओ के एक अफसर रहते थे। उनके घर पर मेरा डेरा ही रहता था, लेकिन 5-7 बरस की उस उम्र की अधिक यादें नहीं है, लेकिन बाद में पड़ोस के चाचाजी की बताई हुई बात जरूर याद है। उनके घर एक सोफा की जरूरत थी, और सरकारी विभागों के प्रचलन के मुताबिक आरटीओ अधिकारी के घर सोफा पहुंचाने का जिम्मा इस बस कंपनी पर आया था। ठेले पर सोफा लदवाकर किसी के साथ स्कूटर पर बैठकर बस कंपनी के कर्मचारी मोतीलाल वोरा पहुंचे और सोफा उतरवाकर घर के भीतर रखवाकर लौटे। यह बात आई-गई हो गई, वक्त के साथ-साथ वोराजी राजनीति में आए, कांग्रेस में आए, विधायक बने, और अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बनाए गए। इस बीच हमारे पड़ोस के चाचाजी बढ़ते-बढ़ते प्रदेश के एक सबसे बड़े संभाग के आरटीओ बने। लेकिन मुख्यमंत्री मोतीलाल वोरा जब उनके शहर के दौरे पर पहुंचते थे, तो वे या तो छुट्टी ले लेते थे, या सामने पडऩे से बचने का कोई और जरिया निकाल लेते थे। ऐसा नहीं कि वोराजी को आरटीओ का कामकाज समझता नहीं था, लेकिन रायपुर के उस वक्त का सोफा इस वक्त झिझक पैदा कर रहा था, और चाचाजी उनके सामने नहीं पड़े, तो नहीं पड़े।
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मोतीलाल वोरा कुछ असंभव किस्म के व्यक्ति हैं। वे बहुत सीधे-सरल भी हैं, लेकिन कांग्रेस पार्टी में सोनिया गांधी के दाएं हाथ की तरह इतने बरसों से बने रहने के लिए सिधाई, और सरलता से परे भी कई हुनर लगते हैं, जिनमें से कुछ तो वोराजी के पास होंगे ही। प्रदेशों के कांग्रेस संगठनों की बात करना ठीक नहीं होगा, लेकिन अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के बारे में यह कहा जाता है कि इसका यह अनोखा सौभाग्य रहा कि इसके कोषाध्यक्ष ईमानदार रहे। मोतीलाल वोरा ने कांग्रेस कोषाध्यक्ष रहते हुए हजारों करोड़ रूपए देखे होंगे, लेकिन उन पर किसी बेईमानी का कोई लांछन कभी नहीं लगा। और तो और अभी दो चुनाव पहले जब उनका बेटा अरूण दुर्ग से चुनाव लड़ रहा था, और इस सदी में चुनाव के जिन खर्चों की परंपरा मजबूत हो चुकी है, उन खर्चों के लिए आखिरी के दो-तीन दिनों में उम्मीदवारों को पार्टी से पैसा मिलता है। मोतीलाल वोरा ने प्रदेश के सभी कांग्रेस उम्मीदवारों को जो पैसा भेजा था, वही पैसा अरूण वोरा को भी मिला था। पता नहीं क्यों उस चुनाव में मोतीलाल वोरा ने हाथ खींच लिया था, और मतदान के दो दिन पहले का पैसा नहीं पहुंचा, और वह भी एक वजह थी जो अरूण वोरा चुनाव हार गए थे।
पिछले 25-30 बरसों में दो-चार बार मेरा वोराजी के दुर्ग घर पर जाकर मिलना हुआ है। लकड़ी का वही पुराना सोफा, और कमरे में प्लास्टिक की 10-20 कुर्सियों की थप्पी लगी हुई थी। कोई शान-शौकत नहीं बढ़ी, कोई खर्च भी नहीं बढ़े। ताकत की जितनी कुर्सियों पर वोराजी रहे, और कांग्रेस पार्टी के हजारों करोड़ को उन्होंने यूपीए के 10 बरसों में देखा, कई आम चुनाव निपटाए, पूरे देश की विधानसभाओं के चुनाव निपटाए, लेकिन उनके परिवार का रहन-सहन ज्यों का त्यों बना रहा। आज के जमाने में यह सादगी छोटी बात नहीं है, और शायद इसी के चलते कांग्रेस पार्टी में सोनिया गांधी के करीब और कोई विकल्प नहीं बन पाया।
15-16 बरस पहले जब मैंने अखबार की नौकरी छोड़ी, और इस अखबार, ‘छत्तीसगढ़’, को शुरू करना तय किया, तो कुछ विज्ञापनों की कोशिश करने के लिए दिल्ली गया। उस वक्त दिल्ली के मेरे एक दोस्त, संदीप दीक्षित, पूर्वी दिल्ली से कांग्रेस के सांसद बने थे, और अपनी मां शीला दीक्षित के मुख्यमंत्री निवास से अलग रहने लगे थे। उनकी जिद पर मैं उनके घर पर ही ठहरा, और दिल्ली आने की वजह बताई, यह भी बताया कि कांग्रेस मुख्यालय में आज वोराजी से मुलाकात तय है। संदीप ने कहा कि वहां तो मजमा लगा होगा क्योंकि पंजाब विधानसभा चुनाव की टिकटें तय होना है, और चुनाव समिति में वोराजी भी हैं। इसके साथ ही संदीप ने आधे मजाक और आधी गंभीरता से कहा- आप भी कहां विज्ञापनों के चक्कर में पड़े हैं, पंजाब में एक-एक टिकट के लिए लोग पांच-पांच करोड़ रूपए देने को तैयार खड़े हैं, आप वोराजी से किसी एक को टिकट ही दिला दीजिए, आपका प्रेस खड़ा हो जाएगा।
जब मैं वोराजी से मिलने एआईसीसी पहुंचा, तो सचमुच ही सारे बरामदों में पंजाब ही पंजाब था। लेकिन बाहर सहायक के पास मेरे नाम की खबर थी, मुझे तुरंत भीतर पहुंचाया गया, और वैसी मारामारी के बीच भी वोराजी ने चाय पिलाई, पान निकालकर अपने हाथ से दिया, और कांग्रेस प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों के नाम विज्ञापनों के लिए चिट्ठियां टाईप करवाईं, उनकी एक-एक कॉपी मुझे भी दी कि मैं जाकर उनसे संपर्क कर लूं।
चिट्ठी आसान होती है, लेकिन उस वक्त के उतने कांग्रेस प्रदेशों में जाना अकेले इंसान के लिए मुमकिन नहीं होता, इसलिए वे सारी चिट्ठियां मेरे पास रखी रह गईं, और भला किस प्रदेश के मुख्यमंत्री को एक चिट्ठी के आधार पर शुरू होने वाले अखबार के लिए विज्ञापन मंजूर करने का समय हो सकता है? बात आई-गई हो गई, लेकिन वोराजी ने पूरा वक्त दिया, और उन्हें जब मैंने संदीप दीक्षित की कही बात बताई तो वे हॅंस भी पड़े। टिकट दिलवाकर पैसे लेने या दिलवाने का काम वे करते होते, तो इतने बरसों में न बात छुपती, न पैसा छुपता।
वोराजी से मेरा अच्छा और बुरा, सभी किस्म का खूब तजुर्बा रहा। अच्छा ही अधिक रहा, और बुरा तो नाममात्र का था।
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जब मोतीलाल वोरा अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री थे, तब मैं पिछले अखबार में रिपोर्टिंग करता था। वोराजी तकरीबन हर शनिवार-इतवार रायपुर-दुर्ग आ जाते थे, और मैं दोनों जगहों पर उनके कई कार्यक्रमों में चले जाता था, और रायपुर की सभी प्रेस कांफ्रेंस में भी। ऐसी ही एक प्रेस कांफ्रेंस में मैंने उनसे पूछा- क्या रायपुर में आपके किसी रिश्तेदार को अफसर परेशान कर रहे हैं?
वे कुछ हक्का-बक्का रह गए, सवाल अटपटा था, और मुख्यमंत्री अपने रिश्तेदारों के बारे में ऐसी अवांछित बात सुनने की उम्मीद भी नहीं कर सकता था। उन्होंने इंकार किया।
लेकिन मेरे पास उससे अधिक अवांछित अगला सवाल था, मैंने उनसे पूछा कि क्या उन्हें उनके अफसरों से ऐसी शिकायत मिली है कि उनके (वोराजी के) रिश्तेदार उन्हें परेशान करते हैं?
इस पर वे कुछ खफा होने लगे लेकिन उनकी सज्जनता ने उनकी आवाज को फिर भी काबू में रखा, और उन्होंने कहा कि उन्हें ऐसी कोई शिकायत नहीं मिली।
मैं उन दिनों रिपोर्ट लिखते हुए पत्रकारवार्ता के सवाल-जवाब भी बारीकी से सवाल-जवाब की शक्ल में लिखता था, और अपने पूछे सवालों के साथ यह भी खुलासा कर देता था कि ये सवाल इस संवाददाता ने पूछे थे, और उनका यह जवाब मिला था।
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सवाल-जवाब की शक्ल में छपी प्रेस कांफ्रेंस की बात आई-गई हो गई। इसके कुछ या कई हफ्ते बाद उस अखबार के प्रधान संपादक मायारामजी सुरजन रायपुर लौटे। मुझे भनक लग गई थी कि वे किसी बात पर मुझसे खफा हैं, और मेरी पेशी हो सकती है। दफ्तर पहुंचते ही उन्होंने मुझे बुलाया, और कहा कि भोपाल में वोराजी ने उन्हें मेरी शिकायत की है। और यह कहकर शिकायत की है कि सुनील कुमार मुझसे (वोराजी से) इस टोन में बात करते हैं कि मानो वे मेरे मालिक हों। बाबूजी (मायारामजी) ने बताया कि वोराजी ने चाय पर बुलाकर अखबार की कतरन उनके सामने रख दी थी कि मैंने प्रेस कांफ्रेंस में ऐसे-ऐसे सवाल किए थे। बाबूजी ने उनसे यह साफ किया कि हमारे अखबार के रिपोर्टरों को यह हिदायत दी जाती है कि वे सवाल तैयार करके ही किसी प्रेस कांफ्रेंस में जाएं, और सवाल जरूर पूछें, महज डिक्टेशन लेकर न लौटें। इसलिए सुनील ने सवाल जरूर किए होंगे, लेकिन इन सवालों में कुछ गलत तो लग नहीं रहा।
अब यहां पर एक संदर्भ को साफ करना जरूरी है, वोराजी के एक रिश्तेदार और नगर निगम के एक कर्मचारी, वल्लभ थानवी बड़े सक्रिय कर्मचारी नेता थे। वहां के बड़े अफसरों से उनकी तनातनी चलती ही रहती थी। कुछ दिन पहले ही उन्होंने सार्वजनिक रूप से कहा था कि म्युनिसिपल के बड़े अफसर उन्हें इसलिए परेशान करते हैं कि वे मुख्यमंत्री के रिश्तेदार हैं। इसके जवाब में निगम-प्रशासक या आयुक्त ने कहा था कि मुख्यमंत्री के रिश्तेदार होने की वजह से वल्लभ थानवी उन्हें परेशान करते हैं। इसी संदर्भ में मैंने प्रेस कांफ्रेंस में वोराजी से सवाल किया था।
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लेकिन मुख्यमंत्री तो मुख्यमंत्री होते हैं, उन्हें अगर कोई बात बुरी लगी तो अखबार के मुखिया से शिकायत का उनका एक जायज हक बनता था। और बहुत लंबे परिचय की वजह से उन्होंने बाबूजी को बुलाकर ऐसी कुछ और कतरनों की भी फाईल सामने धर दी थी।
मुझे बाबूजी के शब्द अच्छी तरह याद हैं कि उन्होंने इन्हें पढक़र वोराजी से कहा था कि उन्हें तो इसमें कोई बात आपत्तिजनक नहीं लग रही है, जहां तक मेरे बोलने के तरीके का सवाल है, तो मुख्यमंत्री का भला कौन मालिक हो सकता है। उन्होंने कहा कि सुनील के बात करने का तरीका कुछ अक्खड़ है, और वे मुझे उनसे (वोराजी से) बात करने भेजेंगे। वे तो चाय पीकर लौट आए थे, लेकिन मुझे रायपुर में यह जानकारी देते हुए बाबूजी ने कहा कि जब वोराजी अगली बार रायपुर आएं तो उनसे जाकर मैं मिल लूं, और पूछ लूं कि वे किसी बात पर नाराज हैं क्या। न मुझे खेद व्यक्त करने का निर्देश मिला, और न ही माफी मांगने की कोई सलाह दी गई, कोई हुक्म दिया गया।
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वोराजी का कोई रायपुर प्रवास हफ्ते भर से अधिक दूर तो होता नहीं था, वे यहां आए, और मैं सर्किट हाऊस में जाकर उनसे मिला। भीतर खबर जाते ही उन्होंने तुरंत बुला लिया, मैंने कहा- बाबूजी कह रहे थे कि आप मेरी किसी बात से नाराज हैं?
वोराजी ने हॅंसते हुए पास आकर पीठ थपथपाई, और कहा- अरे नहीं, कोई नाराजगी नहीं है। और क्या हाल है? कैसा चल रहा है?
मुख्यमंत्री की नाराजगी महज एक वाक्य कहने से इस तरह धुल जाए, ऐसा आमतौर पर होता नहीं है, लेकिन वोराजी की सज्जनता कुछ इसी तरह की थी। उन्हें मैंने मन में गांठ बांधकर रखते नहीं देखा है, और राजनीति के प्रचलित पैमानों पर उनकी सज्जनता अनदेखी नहीं रहती।
मोतीलाल वोरा के बारे में और कई बातें लिखने लायक हैं, शायद कल, या फिर अगली किसी किस्त में।
-सुनील कुमार
सुनील कुमार
छोटी-छोटी झूठी या नामौजूद चीजों से खुशियां हासिल, जैसे रफाल से अब चीन और पाकिस्तान घुटनों पर आ गए हैं, या थाली पीटने से कोरोना भाग जाएगा, और डॉक्टर का हौसला बढ़ जाएगा। जब लोग फरेब से खुश होने लगते हैं, तो कुछ असली कामयाबी जरूरी नहीं रह जाती। हिन्दुस्तान में पिछले कई बरसों में लोगों को ऐसी कामयाबी का अहसास कराया गया है जो जमीन पर चाहे हो न हो, लोगों के मन में गुदगुदी करती है, और उनके अहंकार की अच्छी तरह मालिश कर देती है। उनमें देशप्रेम का एक ऐसा अहसास करा देती है जो हकीकत नहीं होता, और जिसकी कोई जरूरत भी नहीं होती। ऐसे देशप्रेम से उस देश का भी कोई भला नहीं होता जिसके लिए वह प्रेम दिखाया जा रहा है।
ऐसे अहसास किसी देश की सरकार के कराए हुए ही हों, या किसी देश-प्रदेश की सत्तारूढ़ पार्टी के करवाए हुए ही होते हों, ऐसा भी नहीं है। किसी अखबार के मालक-चालक, यानी प्रकाशक-संपादक भी अपने आपके भीतर ऐसी खुशफहमी का शिकार हो सकते हैं। अगर वे लिखने में बहुत अच्छे हैं जिससे कि वाहवाही भी होती है, तो प्रकाशक की अपनी जिम्मेदारी में वे नाकामयाब भी हो सकते हैं। अपनी हसरतों को हकीकत मान लेने की यह चूक हर किस्म के लोगों में हो सकती है, इसके लिए किसी का सत्ता पर रहना जरूरी नहीं होता, और अपने मानने वालों की भीड़ को धोखा देना भी जरूरी नहीं होता। अमूमन भीड़ खुद ही धोखा खाने को तैयार रहती है, और अलग-अलग दौर में वह अलग-अलग किस्म के लोगों के लिए दीवानगी दिखाने को एक पैर पर खड़ी रहती है।
नामौजूद चीजों से फख्र और खुशी हासिल करना महज आज की किसी बात से हो, ऐसा भी जरूरी नहीं है। इतिहास इतना लंबा रहता है, और उसके भी पहले की पुराण कथाएं, बाइबिल की कहानियां, या कुछ दूसरे पुराने धर्मों की कहानियां इतनी पुरानी रहती हैं कि उन्हें सच मानकर लोग अपने स्वाभिमान नाम के अहंकार को पुष्पक पर चढ़ाकर हवाई सफर के लिए भी भेज सकते हैं। विज्ञान की हर खोज पर अपना दावा कर सकते हैं, वे गणेश के धड़ पर हाथी के सिर को प्लास्टिक सर्जरी की तकनीक मौजूद होने के सुबूत की तरह पेश कर सकते हैं, और कीर्तन में ढोल-मंजीरों की ताल के साथ सिर हिलाते हुए लोग उस सुबूत पर नासा का ठप्पा भी लगा देख लेते हैं। जब गर्व करने के लिए महज ऐसे अहसास काफी होते हैं, तो फिर जिंदगी में कुछ हासिल करना जरूरी कहां रह जाता है?
जिस तरह टीवी के सामने बैठकर क्रिकेट में अपने देश की टीम को जीतते देखकर जिन लोगों को अपने खेलप्रेमी होने का अहसास रहता है, और वह बढ़ते-बढ़ते उन्हें खेल में अपनी दिलचस्पी लगने लगता है, और धीरे-धीरे वे अपने को खिलाड़ी भी महसूस करने लगते हैं, तो फिर खेलने की जरूरत कहां रह जाती है? इंसान का मिजाज ही कुछ ऐसा होता है कि वे अपने भीतर पहले से तय कर ली गईं धारणा को मजबूत करने के लिए कतरा-कतरा सुबूत जुटाने लगता है। उसकी पसंद और नापसंद इस पर आ टिकती है कि उसके निष्कर्ष को मजबूत बनाने के लिए कौन सी बातें काम आएंगी, तो फिर सुबूतों की वैज्ञानिक प्रक्रिया से गुजरने की जरूरत कहां रह जाती है?
सडक़ किनारे फुटपाथ पर तेल या ताबीज बेचने वाले लोग एक बड़े माहिर हुनर के साथ लोगों को पहले तो उस सामान की जरूरत का अहसास कराते हैं, और एक बार यह अहसास हो जाता है, तो फिर वे उसके इलाज की तरह एक सामान पेश कर देते हैं। कुछ-कुछ ऐसा ही राष्ट्रवाद के मामले में भी होता है। एक आक्रामक राष्ट्रवाद पहले तो एक नामौजूद दुश्मन का पुतला पेश करता है जो कि मुमकिन कदकाठी से अधिक बड़ा भी दिखता है। इसके साथ ही दुश्मन से खतरे का एक अहसास खड़ा किया जाता है, और इसके बाद फिर दुश्मनी के बीज बो देना, उसकी फसल को खाद दे देना बड़ा आसान हो जाता है।
हिन्दुस्तान इन दिनों लगातार ऐसे अहसास का शिकार है। ऐसा अहसास कि पिछले 70 बरस में कुछ भी अच्छा नहीं हुआ था, और देश को जो कुछ हासिल हुआ है, यह महज पिछले 5-6 बरस की बात है। जब लोग एक नामौजूद नाकामयाबी पर भरोसा करने उतारू हों, तब उन्हें आज की नामौजूद कामयाबी पर भी भरोसा करवाना आसान हो जाता है। 70 बरस की ‘नाकामयाबी’ पर हीनभावना, और अफसोस पैदा कर दिए जाएं, तो फिर उस जमीन पर आज की ‘कामयाबी’ का बरगद तेजी से खड़ा किया जा सकता है। यह सिलसिला नेता की कामयाबी, और जनता की कमजोरी का सुबूत भी होता है कि उसके सामने कब्ज की दवा, जमालघोटा, को भरकर भी एक कटोरा पेश किया जाए, और वह इस बात को हकीकत मान चुकी हो कि यह पेट भरने का अच्छा सामान है, तो लोगों को कब्ज से छुटकारे के लिए काफी एक बीज की जगह एक कटोरा जमालघोटा भी खिलाया जा सकता है।
दुनिया के इतिहास में बहुत से ऐसे लोग रहे हैं जिनका पेशा कुछ और रहा है, जिसमें वे नाकामयाब रहे हैं, लेकिन वे अपने किसी दूसरे हुनर की वजह से अहमियत पाते रहते हैं। मिसाल के लिए किसी शहर में कोई ऐसे डॉक्टर या इंजीनियर हो सकते हैं, या वकील हो सकते हैं जो अपने पेशे में खासे कमजोर हों, लेकिन जिनका समाजसेवा का बहुत ही बड़ा और सच्चा इतिहास रहा हो। आम लोग ऐसे में उन्हें एक अच्छा इंसान और मामूली पेशेवर मानने के बजाय अच्छा पेशेवर भी मानने लगते हैं। सार्वजनिक जिंदगी में बहुत से ऐसे लोग रहते हैं जो कि अपनी ऐसी अप्रासंगिक और महत्वहीन खूबियों की वजह से महान मान लिए जाते हैं।
जब लोगों को खालिस और जरूरी सच से परे की गैरजरूरी और अप्रासंगिक बातों के आर-पार देखने की ताकत हासिल न हो, या उनकी आंखों पर एक ऐसा चश्मा चढ़ा दिया जाए जिससे कि वे उसके रंग के अलावा और किसी रंग में दुनिया को देख ही न सकें, तो फिर उन्हें एक खास रंग में रंगी हुई दुनिया को ही सच मनवा देना आसान हो जाता है।
लोकतंत्र में लोगों को हकीकत और अहसास में फर्क करना आना चाहिए। लोकतंत्र में लोगों को धर्म और राजनीति के दायरों को अलग-अलग देखना आना चाहिए। लोगों को किसी की निजी ईमानदारी से परे उसकी सार्वजनिक जवाबदेही में बेईमानी को भी अलग पहचानना आना चाहिए। लोगों को किसी धर्म के कपड़ों में लिपटे लोगों की हरकतों को उन धर्मों से अलग करके देखना भी आना चाहिए, वरना हिन्दुस्तान में सैकड़ों-हजारों ऐसे मॉं-बाप हैं जो कि अपने बच्चों को ले जाकर खुद ही बापू-बाबाओं को समर्पित करते आए हैं, क्योंकि वे उनके धर्म-आध्यात्म के चोगों से परे उनकी हरकतों का अंदाज नहीं लगा पाते हैं, उनकी आंखें बाबाओं के दिव्यप्रकाश से चौंधिया जाती हैं, और उन्हें हकीकत नहीं दिख पाती।
आज जब दुनिया चांद के बाद दूसरे ग्रहों पर पहुंच चुकी है, समंदर के अंदर तलहटी को तलाश रही है, उस वक्त लोग अगर फरेब से गुरेब नहीं करेंगे, और किसी की पेश की गई हसरतों को हकीकत मान लेंगे, तो ऐसे देश या ऐसे लोग कम से कम कुछ सदी पीछे तो पहुंच ही जाएंगे। जिस देश को आगे बढऩा है, वह किसी तस्वीर पर बनाई गई सुहानी सडक़ पर सफर करके उसका आनंद लेते हुए आगे नहीं बढ़ सकता। लोगों को कड़ी और खुरदरी सडक़ पर मेहनत से सफर करके ही आगे बढऩा होता है। सबको मालूम है पुष्पक की हकीकत लेकिन... (hindi.news18.com)
रमेश बैस सात बार के सांसद रहे, और नौ बार उन्होंने रायपुर संसदीय सीट से लोकसभा चुनाव लड़ा था। उसके पहले वे मंदिर हसौद से भाजपा के विधायक थे, और उसके भी पहले उनकी राजनीति की शुरूआत राजधानी रायपुर के ब्राम्हणपारा से पार्षद बनकर हुई थी। विधायक रहते हुए वे लोकसभा के उम्मीदवार बने थे, और इंदिरा गांधी की हत्या के बाद की लहर में वे पहला संसदीय चुनाव हार गए थे। इसके बाद वे जीते, लेकिन एक चुनाव विद्याचरण शुक्ल से भी हारे। उसके बाद वे लगातार रायपुर के सांसद रहे, भाजपा के भीतर वे लालकृष्ण अडवानी और सुषमा स्वराज के साथ रहे, एनडीए-1 में वे अटल मंत्रिमंडल में वे सुषमा के सूचना प्रसारण मंत्रालय में राज्यमंत्री रहे, बाद में एक और विभाग देखा, लेकिन वे कैबिनेट मंत्री नहीं बने। रमेश बैस के लिए मोदी सरकार का पहला कार्यकाल एक सदमे का रहा जब देश के सबसे वरिष्ठ भाजपा सांसदों में से एक होने के बावजूद उन्हें मंत्री नहीं बनाया गया। और अभी ताजा लोकसभा चुनाव में चूंकि भाजपा ने प्रदेश के हर भाजपा सांसद की टिकट काट दी थी, रमेश बैस की भी टिकट कट गई, लेकिन इससे भी उनकी इज्जत रह गई। लोगों का अंदाज भाजपा के इस अघोषित पैमाने के सामने आने के पहले से यह था कि रमेश बैस को इस बार शायद भाजपा टिकट न दे क्योंकि मोशा (मोदी-शाह) ने उन्हें मंत्रिमंडल के लायक नहीं समझा था, और उनकी उम्र भी 75 बरस के करीब पहुंचने को थी। लेकिन जब मुख्यमंत्री रहे रमन सिंह के सांसद बेटे की टिकट भी कट गई, हर सांसद की टिकट कट गई, तो रमेश बैस की इज्जत रह गई। टिकट तो गई, लेकिन अकेले नहीं कटी, एक पैमाने के तहत कटी।
रमेश बैस का सार्वजनिक जीवन में राजनीतिक मिजाज बड़ा ही बदलता रहा। वे रायपुर म्युनिसिपल के एक पार्षद के रूप में बहुत सक्रिय रहे, और मंदिर हसौद से विधायक के रूप में भी। राजधानी रायपुर से लगी हुई उनकी सीट थी, और रमेश बैस को हर शाम सरकारी काम के घंटों के वक्त रायपुर के कलेक्ट्रेट में देखा जाता था। वहां के कर्मचारी संघ के चलाए हुए चाय-नाश्ते के छोटे से रेस्त्रां और बाहर के पानठेले पर रमेश बैस का डेरा रहता था, लोग अपने कागज लेकर उनके पास वहीं पहुंचते थे, वे अधिकतर कागजों पर लिखकर उन्हें रवाना करते थे, और जरूरत पडऩे पर वे लोगों के साथ एक-एक सरकारी दफ्तर में जाकर उनका काम करवाते थे। रमेश बैस के अलावा एक भी और विधायक कलेक्ट्रेट में इस तरह रोजाना का डेरा डालकर लोगों के काम करवाने वाले नहीं हुए थे।
रमेश बैस से उन्हीं दिनों का मेरा परिचय रहा, और उनकी उम्र मुझसे खासी अधिक होने के बाद भी उसी वक्त से रमेश कहकर बातचीत जो शुरू हुई, तो वह अब तक उसी तरह जारी है, जब वे सांसद बनते रहते थे, तब भी, और जब वे केन्द्रीय मंत्री थे, तब भी। रायपुर से लेकर भोपाल तक, और दिल्ली तक, रमेश बैस के भीतर का छत्तीसगढ़ी कभी इधर-उधर टहलने भी नहीं गया, और हमेशा ही साथ रहा। लेकिन जनता के साथ उनका गहरा संपर्क विधायक होने के बाद से कम होता चले गया, और लंबे संसदीय जीवन में वे संसदीय सीट की अधिक परवाह करते कभी दिखे नहीं। जो रायपुर में उनके घर पहुंच जाए, उसके लिए चि_ी लिख देना, या फोन कर देना तो वे करते रहे, लेकिन इससे परे वे लोगों के लिए बहुत अधिक करने के शायद गैरजरूरी मानने लगे थे।
वैसे एक आदर्श स्थिति भी यही होना चाहिए कि लोग अपने नाली-पानी जैसे कामों के लिए पार्षद के पास जाएं, उससे बड़े कामों के लिए मेयर के पास जाएं, राज्य सरकार से जुड़े कामों के लिए विधायक के पास जाएं जो कि काम न होने पर विधानसभा में सवाल उठा भी सकते हैं। और सांसद का तो कोई अधिक काम पहले रहता नहीं था, जब तक सांसद निधि शुरू नहीं हुई, और उसके बाद फिर लोग सांसद के पास किसी सार्वजनिक काम के लिए आर्थिक मदद के लिए भी जाने लगे। जब छत्तीसगढ़ में एक भाजपा सांसद प्रदीप गांधी सवाल पूछने के लिए रिश्वत मांगते कैमरे में कैद हुए, और उनकी सदस्यता गई, जब एक और भाजपा सांसद फंसते-फंसते इसलिए रह गए कि दिल्ली में स्टिंग ऑपरेटरों की गाड़ी पंक्चर हो गई, और वे अपने सांसद-निवास पर रास्ता देखते-देखते उनकी ट्रेन का समय हो गया, और वे स्टेशन रवाना हो गए, और स्टिंग का शिकार होने से बच गए, तब रमेश बैस ऐसे किसी विवाद से बचकर बहुत लंबा संसदीय जीवन गुजार रहे थे।
छत्तीसगढ़ की राजनीति में रमेश बैस उन दो लोगों में से एक रहे जिनके खिलाफ दोनों शुक्ल बंधु कोई न कोई चुनाव लड़े। रायपुर संसदीय सीट से एक बार विद्याचरण शुक्ल रमेश बैस के खिलाफ लड़े, और एक बार श्यामाचरण शुक्ल। ये दोनों ही भाई महासमुंद संसदीय सीट, और राजिम विधानसभा से पवन दीवान के खिलाफ भी लड़े थे।
रमेश बैस ने रायपुर संसदीय सीट से जब-जब चुनाव लड़ा, अधिकतर मौकों पर उनके खिलाफ कांग्रेस के उम्मीदवार चुनाव शुरू होने के पहले से ही हारे हुए मान लिए जाते थे। और रमेश बैस नामांकन के साथ ही जीते हुए समझ लिए जाते थे। यही वजह थी कि दिल्ली में भाजपा की सरकार बनाने के नाम पर, या कांग्रेस-यूपीए सरकारें हटाने के नाम पर जो लहर चलती थी, जो नारे लगते थे, उनके तहत दिल्ली में फलां जरूरी है, रमेश बैस मजबूरी है, जैसा नारा लगता था।
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राजनीति में रमेश बैस के अधिक ताकतवर होने का एक अभूतपूर्व और ऐतिहासिक मौका आया था। जब छत्तीसगढ़ राज्य बन गया, और पहली जोगी सरकार के कार्यकाल में राज्य के पहले विधानसभा चुनाव की तैयारी चल रही थी, तब भाजपा को इस राज्य में एक मजबूत प्रदेश अध्यक्ष तय करना था। उस वक्त केन्द्र में अटलजी की सरकार में रमेश बैस, और पार्टी के भीतर की वरिष्ठता में उनसे खासे जूनियर डॉ. रमन सिंह दोनों ही राज्यमंत्री थे, दोनों ही बिना किसी काम बंगलों में खाली रहते थे। ऐसी चर्चा रही कि भाजपा संगठन ने दोनों के सामने यह प्रस्ताव रखा कि छत्तीसगढ़ में प्रदेश अध्यक्ष बनकर कौन जाना चाहेंगे? इस पर रमेश बैस ने तकरीबन भडक़ते हुए कहा था कि वे क्यों जाएंगे? उन्हें दिल्ली में मंत्री पद सुहा रहा था, और छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री अजीत जोगी का अपनी पार्टी को दुबारा सत्ता में लाना तय सा लग रहा था। फिर रमेश बैस के अजीत जोगी से व्यक्तिगत संबंध भी थे, और विधायक रहते हुए भी वे भोपाल से इंदौर कलेक्टर रहे जोगी से मिलते रहते थे। जोगी के खिलाफ भाजपा को लीड करने की उनकी कोई सोच नहीं थी, और उन्होंने पार्टी को छत्तीसगढ़ लौटने के लिए साफ मना कर दिया। नतीजा यह हुआ कि भाजपा ने रमन सिंह को प्रदेश संगठन सम्हालने, और चुनाव की तैयारी करने के लिए कहा, और अपने सरल-विनम्र मिजाज के मुताबिक डॉ. रमन सिंह छत्तीसगढ़ आ गए, चुनाव की तैयारी की, और प्रदेश की जनता ने उन्हें जिताया, या जोगी को हराया, यह एक अलग बहस है, लेकिन डॉ. रमन विधानसभा चुनाव में जीत के बाद जो मुख्यमंत्री बने, तो 15 बरस तक बने ही रहे। उन्होंने देश के मुख्यमंत्रियों के बीच, और भाजपा के भीतर लगातार सीएम रहने का एक रिकॉर्ड कायम किया जिसे आगे भी लोगों के लिए तोडऩा कुछ मुश्किल रहेगा। रमेश बैस मुख्यमंत्री बनने की राह पर दिल्ली से रायपुर की बस जो चूके तो चूक ही गए। भाजपा की सरकार बनने के वक्त उन्होंने कोशिश बहुत की कि मुख्यमंत्री पद के लिए उनकी वरिष्ठता पर गौर किया जाए, लेकिन उस वक्त के एक-दो दूसरे दावेदारों के साथ-साथ रमेश बैस का नाम भी दिल्ली में मंजूर नहीं हुआ, और भाजपा संगठन ने डॉ. रमन को एक बेहतर पसंद माना।
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रमेश बैस खालिस छत्तिसगढिय़ा हैं, ओबीसी के हैं, किसान परिवार के हैं, और रायपुर के आसपास बहुत सी विधानसभा सीटों पर उनकी रिश्तेदारी भी है। लेकिन इतनी लंबी राजनीति में उनका सारा फोकस परिवार के एक-दो लोगों को बढ़ाने में रहा, और सात बार का सांसद अपने सात विधायक भी खड़े नहीं कर पाया। छत्तीसगढ़ी राजनीति में भी रमेश बैस महज ओबीसी की राजनीति करते रहे, और ओबीसी के भीतर महज कुर्मी समाज की राजनीति करते रहे, और कुर्मी समाज के भीतर महज अपने एक भाई और एक-दो भतीजों से परे किसी को आगे बढ़ाने का कोई श्रेय रमेश बैस के नाम नहीं लिखा है। यह बड़ी अजीब बात रही कि जो लगातार छत्तीसगढ़ की पहले अघोषित, और बाद में घोषित राजधानी से राजनीति करते रहा, उसके नाम अपने मातहत एक को भी नेता बनाने का योगदान दर्ज नहीं है। जब रमन सरकार में रमेश बैस के कोटे से किसी निगम-मंडल में मनोनयन की बारी आई थी, तो उस वक्त भी रमेश बैस ने अपने भाई श्याम बैस को ही बीज निगम का अध्यक्ष बनवाया था। इसके पहले के कार्यकाल में डॉ. रमन सिंह से रमेश बैस ने श्याम बैस को ही आरडीए का अध्यक्ष बनवाया था। भाजपा की राजनीति में लोगों को बढ़ाने के मामले में रमेश बैस का योगदान परिवार के तीन लोगों से परे किसी ने न सुना, न किसी को याद है।
रमेश बैस सांसद बनने के बाद यह बात शायद अच्छी तरह समझ गए थे कि वे अपने दम पर चुनाव नहीं जीतते हैं, या तो पार्टी जीतती है, या कांग्रेस हारती है। ऐसी बाईडिफाल्ट जीत की अधिक फिक्र करना उन्होंने छोड़ दिया था, और जिस तरह राजधानी रायपुर में कांग्रेस बृजमोहन अग्रवाल के खिलाफ लगातार हारने की काबिलीयत की अनिवार्य शर्त के साथ हर चुनाव में अलग-अलग लोगों को टिकट देते आई है, कुछ उसी अंदाज में रमेश बैस के खिलाफ भी हारने वाले लोग कांग्रेस ने खड़े किए, या फिर देश का माहौल कुछ ऐसा रहा कि कांग्रेस को हारना था, या भाजपा को जीतना था। इन सबका नतीजा यह निकला कि रमेश बैस ने लोगों से संपर्क एकदम सीमित रखा, और दिल्ली में उनके साथ बैठे हुए लोगों का यह तजुर्बा रहा कि छत्तीसगढ़ से किसी का फोन आने पर बहुत बार वे हाथ के इशारे से ही फोन उठाने वाले को कह देते थे कि अभी नहीं।
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लेकिन पन्द्रह बरस की भाजपा सरकार के दौरान रमेश बैस की सीएम बनने की हसरत बनी ही रही, और वे अपने आपको डॉ. रमन सिंह के मुकाबले बेहतर मानते रहे। यह एक अलग बात रही कि एक भी भाजपा विधायक रमेश बैस के साथ नहीं थे जो कि डॉ. रमन सिंह के मुकाबले उनके लिए खड़े रहते। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि छत्तीसगढ़ के पिछले विधानसभा चुनाव में तीन बार के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की लीडरशिप में लडऩे के बाद अगर भाजपा 15 सीटों पर नहीं आ गई होती, तो रमेश बैस को आज मिला महत्व भी शायद न मिला होता। वे सबसे सीनियर गिने-चुने सांसदों में से एक होने के बाद भी मोदी-मंत्रिमंडल से बाहर रखे गए थे, इस बार सांसद भी नहीं बने थे, लेकिन पार्टी ने उन्हें छोटे सही, लेकिन एक राज्य, त्रिपुरा, का राज्यपाल बनाकर पांच बरस का एक महत्व दे दिया, जिसके बिना वे महज भूतपूर्व सांसद रह गए होते।
त्रिपुरा में रहते हुए रमेश बैस छत्तीसगढ़ की राजनीति में अपने परिवार के दो-चार लोगों को संगठन में या म्युनिसिपल में कुछ बनवा देने में लगे रहते हैं, सात बार के सांसद रहे एक नेता के लिए राजनीति के इस आखिरी दौर में यह बहुत ही सोचनीय बात है कि उसके पास सोचने के लिए महज परिवार के दो-चार हैं।
रमेश बैस की राजनीतिक पराकाष्ठा में कांग्रेस के उल्लेखनीय योगदान के बिना उनकी चर्चा अधूरी ही रह जाएगी जिसने हर बार छांट-छांटकर ऐसे उम्मीदवार खड़े किए जो कि हारते ही रहें। बृजमोहन अग्रवाल के बारे में तो यह माना जाता है कि वे कांग्रेस पार्टी के भीतर अपने खिलाफ उम्मीदवार तय करने में खासी मेहनत करते हैं, लेकिन रमेश बैस के साथ तो ऐसी भी कोई ताकत नहीं रही।
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रमेश बैस केन्द्रीय मंत्री और वरिष्ठ सांसद रहते हुए संसद में अपनी पार्टी की दूसरी-तीसरी कतार में ही बैठते थे, वहां लालकृष्ण अडवानी और सुषमा स्वराज के ठीक पीछे रमेश बैस का मौन मुस्कुराता चेहरा देखते हुए छत्तीसगढ़ इसी बात की राह देखते रह गया कि उसके इतने वरिष्ठ सांसद देश और दुनिया के मुद्दों पर कुछ महत्वपूर्ण बात बोलेंगे। लेकिन महत्वपूर्ण बातें उनके सामने की कतार से कही जाती थीं, और रमेश बैस के चेहरे पर उन्हें लेकर कामयाबी भरी एक खुशी जरूर झलकते रहती थी। छत्तीसगढ़ को संसद में रमेश बैस के सात कार्यकाल की यही याद सबसे अधिक रहेगी कि अडवानी-सुषमा के पीछे उनका मुस्कुराता हुआ चेहरा बने रहता था।
लिखने के लिए रमेश बैस की और भी बहुत सी बातें हैं, लेकिन लिखने के लिए आज वक्त बस इतना ही है, उनके बारे में कुछ और बातें अगली किसी किस्त में। यहां लिखी बातें मामूली याददाश्त के आधार पर हैं, और तथ्य या आंकड़े की किसी गलती के लिए भूल-चूक लेना-देना।
-सुनील कुमार
अविभाजित मध्यप्रदेश में छत्तीसगढ़ से बनने वाले पहले मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल को छत्तीसगढ़ में लोग सम्मान और मोहब्बत से श्याम भैया या श्यामा भैया भी कहते थे। उनके एक-दो पुराने पारिवारिक मित्रों के अलावा उनके हमउम्र नेता-दोस्त नहीं के बराबर थे, और अपनी पीढ़ी के वे सबसे बुजुर्ग और सबसे बड़े नेता भी रह गए थे। उनसे जरा छोटे छोटे भाई विद्याचरण शुक्ल, लंबे समय तक तो दोनों एक ही पार्टी में थे, लेकिन फिर श्यामाचरण ने इंदिरा का साथ छोडऩे के एवज में 12 बरस कांग्रेस से वनवास झेला था, और वह उनकी जिंदगी के सबसे बुरे संघर्ष और सबसे लंबे इंतजार का दौर भी था।
श्यामाचरण के बारे में इस दौर में कांग्रेस प्रवेश की अफवाहें इतनी बार उड़ती थीं कि धीरे-धीरे लोगों ने उसे सुनना भी बंद कर दिया था। अपनी हत्या के ठीक पहले जब इंदिरा गांधी रायपुर आई थीं, उस वक्त मैं अखबार में काम करता था, लिखता भी था, और फोटोग्राफी भी करता था। गांधी चौक पर इंदिराजी की सभा हुई थी, और मैंने मंच के एकदम करीब से उनकी सैकड़ों तस्वीरें खींची थीं। इसके अलावा एयरपोर्ट पर उनके आते या जाते, या शायद दोनों ही वक्त मैंने बहुत ही करीब से बहुत सी तस्वीरें खींची थीं, और उनकी खुली जीप के साथ दौड़ते हुए तस्वीरें खींचते हुए मेरे शर्ट की तमाम प्रेस-बटनें खुल गई थीं, और रात के दूरदर्शन के समाचार बुलेटिन में बहुत से लोगों ने मुझे खुले सीने दौड़ते हुए, फोटो लेते हुए पहचाना भी था।
उन तस्वीरों में मुझे एक तस्वीर खासकर याद है जिसमें इंदिराजी का विमान रवाना होते हुए रनवे पर दौड़ रहा था, बाकी तमाम नेता इधर-उधर चलने-फिरने लगे थे, लेकिन श्यामाचरण उसी जगह खड़े हुए विमान की तरफ हाथ हिला रहे थे, मानो कि खिडक़ी से इंदिराजी उन्हें देख रही होंगी। उन्हें भी पता नहीं होगा कि यह इंदिराजी की जिंदगी का आखिरी रायपुर दौरा होगा, और उनकी जिंदगी का आखिरी हफ्ता भी। वे रायपुर से ओडिशा गई थी, और फिर दिल्ली लौटीं जहां पर अंगरक्षकों ने उनकी हत्या कर दी थी।
श्यामाचरण शुक्ल ने कांग्रेस के विभाजन के समय इंदिरा गांधी का साथ छोडऩे की जो गलती की थी, उसने उनकी सारी राजनीतिक जिंदगी बदलकर रख दी थी। फिर भी उनकी कांग्रेस में वापिसी हुई, और वे एक बार फिर मुख्यमंत्री भी बनाए गए। वे कुल मिलाकर तीन बार अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे, लेकिन उनकी पहचान छत्तीसगढ़ ही रही, उनका दिल यहीं बसे रहा।
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विद्याचरण शुक्ल की राजनीति कांग्रेस के भीतर की गुटबाजी और जोड़तोड़ पर केन्द्रित रहती थी, लेकिन श्यामाचरण शुक्ल लगातार विकास के बारे में सोचते थे, और सिंचाई उनका पसंदीदा मामला था। वे मुख्यमंत्री न रहते हुए भी अपने आपको सिर्फ मुख्यमंत्री के ओहदे से जोडक़र देखते थे, और किसी विपक्षी के मुख्यमंत्री रहने पर उनका हमला सिर्फ मुख्यमंत्री पर होता था।
उनके बाद एक वक्त मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे सुंदरलाल पटवा एक बार रायपुर आए, और उनकी प्रेस कांफ्रेंस हुई। लोगों ने उनसे श्यामाचरण शुक्ल के लगाए हुए आरोपों के बारे में पूछा तो उनका कहना था- श्याम भैया के दिमाग में पूरे ही वक्त मुख्यमंत्री बनना सवार रहता है। और इसमें उनकी गलती नहीं है, गलती भोपाल में मुख्यमंत्री निवास के नाम की है। श्यामला हिल्स नाम होने की वजह से श्याम भैया को पूरे वक्त आवाज आती रहती है कि श्याम ला, श्याम ला। और वे उसी बंगले में रहना चाहते थे।
पटवाजी बोलने में बड़ी चटपटी जुबान का इस्तेमाल भी करते थे, और उन्होंने आगे कहा- श्याम भैया सीएम बनने के लिए इतने बेचैन हैं, इतने बेचैन हैं, कि रात भर करवटें बदलते रहते हैं, हमारी पद्मिनी भाभी ठीक से सो भी नहीं पाती हैं।
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पटवाजी ने यह बात कही तो मजाक के रूप में थी, लेकिन श्यामाचरण शुक्ल ने मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के पद से कम या अधिक, किसी चीज पर नजर नहीं रखी थी। वे कम या अधिक वक्त के लिए तीन बार मुख्यमंत्री बने।
श्यामाचरण शुक्ल उन लोगों में से थे जिन्हें बोलने पर कम काबू रहता था। कई बार उनके दिए हुए बयान ही उनके कांग्रेस प्रवेश की राह में रोड़ा बन गए थे। अर्जुन सिंह मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री बन गए थे, और श्यामाचरण कांग्रेस के बाहर थे। राजनीति का तकाजा यही था कि अर्जुन सिंह यह प्रवेश न होने दें, और इसके लिए उन्होंने तमाम किस्म की चतुराई का इस्तेमाल किया था। श्यामाचरण का एक ऐसा इंटरव्यू सामने आया था जिसमें उन्होंने आपातकाल के इंदिरा और संजय के बारे में कुछ अवांछित बातें कही थीं। यह एक अलग बात है कि उनका खुद का यह कहना था कि ये बातें उनकी कही हुई नहीं थीं, और अर्जुन सिंह की एक साजिश के तहत कुछ वरिष्ठ पत्रकारों ने उनसे लिए इंटरव्यू में कई बातें अपने मन से जोड़ी थीं, और उनके कांग्रेस प्रवेश के आखिरी वक्त पर इसे कुछ अखबारों में छपवाकर इंदिराजी के सामने पेश किया गया था। अब इस विवाद से जुड़े हुए सारे के सारे लोग धरती से जा चुके हैं, इसलिए मैं वही बातें लिख पा रहा हूं, जो कि श्यामाचरणजी ने रूबरू मुझसे कही थीं।
श्यामाचरण शुक्ल को जाने अपने किन करीबी लोगों से यह खबर की गई थी कि मैं उन दिनों जिस अखबार में काम करता था, वहां मैं ही अकेला उनका आलोचक था, उनके खिलाफ था। यह बात अखबार के भीतर तो मेरा नुकसान नहीं कर पाई क्योंकि उसे निकालने वाले लोगों का दिल बड़ा था, और वे मेरे खिलाफ और भी ऐसी शिकायतें सुनते आए थे। लेकिन आखिर में मुझे यह भी पता लगा कि उन्हें मेरे खिलाफ भडक़ाया किसने था, लेकिन जो लोग सार्वजनिक जीवन में नहीं रहे, और अब धरती पर भी नहीं रहे, उनके बारे में कुछ कहना जायज नहीं होगा, जरूरत ही नहीं है।
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लेकिन घूम-फिरकर किसी तरह श्यामाचरण शुक्ल मुझसे बात करने को राजी हुए, और अपने छोटे भाई की तरह उनका भी लगातार यह शक मुझ पर बना हुआ था कि मैं कहीं बातचीत रिकॉर्ड तो नहीं कर रहा हूं। उन्हें एक बार फिर मुझे यह भरोसा दिलाना पड़ा कि मैं औपचारिक इंटरव्यू के लिए रिकॉर्डर सामने रखकर ही रिकॉर्ड करता हूं, और रिकॉर्डिंग की इजाजत वाली बातचीत भी मैं रिकॉर्डिंग में सबसे पहले दर्ज कर लेता हूं ताकि किसी विवाद के वक्त सुबूत रहे। लेकिन विद्याचरण के बाद श्यामाचरण, इन दोनों के मन में एक जैसा शक, बिना किसी के बिठाए हुए तो बैठ नहीं सकता था। दोनों भाईयों के मिजाज में बहुत सी बातें बिल्कुल अलग, और कुछ बातें एक-दूसरे से विपरीत भी थीं। लेकिन उनकी कई बातें एक सरीखी भी थीं, जिनमें से एक यह भी था कि वे मीडिया के अधिकतर लोगों के मुंह से भैया सुनने के आदी थे, बहुत से लोग उनके पांव छूते थे, और वे बहुत तीखे सवालों के आदी भी नहीं थे।
श्यामाचरण शुक्ल की एक बड़ी कमजोरी भी थी कि वे अपनी पीढ़ी के लोगों के परिवारों के लोगों को उनके बाप-दादा के नाम से ही याद रख पाते थे, मानो बात की पीढिय़ां अपने आपमें कोई अस्तित्व नहीं थीं। इस मामले में विद्याचरण शुक्ल एकदम अलग थे जो कि जवानों के साथ रहते थे, और वे ही लोग उनके सहयोगी थे।
श्यामाचरण शुक्ल लंबी बातचीत के शौकीन थे, अपनी यादों को बांटने के भी शौकीन थे, और वे लगातार चाय पिलाने, और घर पर तलकर बनाए गए पकौड़े वगैरह खिलाने के भी शौकीन थे। मेरी कमसमझ से उनकी एक बात मुझे गलत तरीके से खटक गई थी, जो कि बाद में साफ हुई। वे आए हुए लोगों के लिए भी अपने हाथ से ही चाय बनाते थे, और पहले अपने कप में केतली से चाय निकालते थे, फिर सामने वाले के कप में। मुझे यह बात अटपटी लगती थी, लेकिन फिर बाद में यह बात समझ आई कि चाय निकालने की यही सही संस्कृति रहती है कि पहले अपने कप में निकाली जाए, और फिर बाद में जब मेहमान के लिए निकाली जाए, तो तब तक वह चाय केतली की चायपत्ती से कुछ और कडक़ हो चुकी रहे। श्यामाचरण शुक्ल सुबह से रात तक सारा वक्त चाय पीते, पकौड़े खाते-खिलाते, और बातें करते गुजार सकते थे।
लेकिन इन दोनों भाईयों ने अलग-अलग वक्त पर, अलग-अलग मुझसे बातचीत में अर्जुन सिंह की सेहत को लेकर कहा था कि हार्ट के बाइपास ऑपरेशन के बाद वे बिस्तर से शायद ही उठ सकें। लेकिन इस ऑपरेशन के बाद अर्जुन सिंह तो महत्वपूर्ण बने रहे, श्यामाचरण शुक्ल किनारे रहे, और अर्जुन सिंह के काफी पहले गुजर गए। विद्याचरण शुक्ल जरूर अर्जुन सिंह के बाद तक रहे, लेकिन अर्जुन सिंह गुजरने के दो बरस पहले तक महत्वपूर्ण केन्द्रीय मंत्री रहे, विद्याचरण शुक्ल तकरीबन महत्वहीन हो गए थे। इस तजुर्बे से मुझे उस वक्त तो लिखने को तो कुछ नहीं मिला, क्योंकि ये बातें अनौपचारिक चर्चा का हिस्सा थीं, लेकिन यह नसीहत जरूर मिली कि दुश्मनी भी हो, तो भी किसी की मौत की कामना नहीं करनी चाहिए।
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छत्तीसगढ़ की राजनीति में ऐसे बहुत से लोग रहे जो कि अजीत जोगी के सताए हुए रहे, और अजीत जोगी के सडक़ हादसे में अपाहिज होने के बाद कई बार यह सोच जाहिर करते थे कि अगले चुनाव तक तो वे शायद ही रहें, और उन्हें गलत साबित करते हुए अजीत जोगी ने पहियों की कुर्सी पर कई चुनाव निपटाए थे। शुक्ल बंधुओं और अर्जुन सिंह के अपने तजुर्बे के आधार पर तमाम जोगी विरोधियों को मेरी यही नसीहत रहती थी कि किसी के बुरे का सोचो, तो उसका भला ही होता है। मैं शुक्ल बंधुओं की यह बात बताता भी था, और जोगी का हौसला देखकर हैरान भी होते चलता था।
लेकिन अजीत जोगी के बारे में लिखने का मौका फिर आएगा, आज तो श्यामाचरण शुक्ल के बारे में भी लिखने को बहुत है। श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री न रहते हुए भी लगातार शहरी विकास के लिए भी फिक्रमंद रहते थे, और उन्हें शहर में सिर उठाती इमारतें पसंद नहीं आती थीं। लेकिन उनकी पसंद और नापसंद बहुत हद तक निजी रहती थीं, और कई बार वे एक व्यापक सार्वजनिक हित से परे देखते थे। अजीत जोगी जब मुख्यमंत्री थे, तो रायपुर शहर में एक कांग्रेस नेता की इमारत तोडऩे म्युनिसिपल पहुंचा था, और बाद में अदालती दखल से वह मामला थमा था। जब मैंने जोगी से इस बारे में बात की, तो उनका कहना था कि श्यामाचरणजी एयरपोर्ट से घर पहुंचने के बीच जब दो इमारतों के बगल से गुजरते थे, तो उन्हें फोन करते थे, और तोडऩे के लिए कहते थे। एक तो कांग्रेस नेता की थी, और दूसरी भाजपा के नेताओं की थी जिसमें ऊंचाई का कुल दो-तीन फीट का गलत निर्माण था, लेकिन उसे तुड़वाने के लिए श्यामाचरण शुक्ल अड़े रहते थे। ये दोनों उन्हें निजी नापसंद मामले थे, जबकि शहर में सैकड़ों ऐसे दूसरे निर्माण उनके मुख्यमंत्री रहते हुए भी थे जिनके बारे में उनका कुछ सोचना-कहना नहीं था। आज काम के बीच इस कॉलम को लिखते हुए इससे अधिक वक्त मुमकिन नहीं हो पा रहा है, इसलिए बाकी कुछ बातें आगे फिर। फिलहाल यह साफ कर देना जरूरी है कि यहां कुछ कतरा-कतरा यादें ही लिखी जा रही हैं, यह कॉलम किसी भी व्यक्ति का समग्र मूल्यांकन नहीं है।
-सुनील कुमार
विद्याचरण शुक्ल के बारे में कल लिखना मधुमक्खी के छत्ते को छेडऩे जैसा हो गया। कल उनका जन्मदिन भी मनाया जा रहा था, और उस दिन उन्हें इमरजेंसी का खलनायक लिखना कुछ लोगों को खल गया जो उन्हें नायक मानते थे, और हैं। सच तो यह है कि कल सुबह जब यह लिखा गया, उस वक्त यह याद भी नहीं था कि विद्याचरण शुक्ल ने अपना जन्मदिन एक अगस्त से खिसकाकर दो अगस्त कर लिया था, क्योंकि उस दिन उनके दिवंगत पिता पंडित रविशंकर शुक्ल का भी जन्मदिन पड़ता था, और समारोह कुछ अधिक हो सकते थे। चूंकि इस अखबार का मिजाज नेताओं की जन्मतिथि और पुण्यतिथि पर लिखने का नहीं है, इसलिए यह दिन याद भी नहीं था। लेकिन जैसा कि हम बार-बार लिखते हैं सार्वजनिक जीवन में जीने वाले लोग शीशे के मछलीघर में रहने वाली मछली की तरह की ही निजता के दावेदार हो सकते हैं।
आज किसी और नेता के बारे में लिखने के पहले विद्याचरण शुक्ल के बारे में कुछ बातें और लिखी जा सकती हैं, और उनके साथ मेरा वास्ता खासा लंबा पड़ा है, उन्हें कई दशक तक छत्तीसगढ़ में करीब से देखा है, इसलिए उनके बारे में लिखना कुछ अधिक दिलचस्प भी है, और आज राखी के दिन की निजी हड़बड़ी के बीच उन पर अधिक रफ्तार से लिखना अधिक आसान भी है।
विद्याचरण शुक्ल को उनकी रंगीनमिजाजी के लिए भी जाना जाता था, हालांकि हिन्दुस्तान में नेताओं की जिंदगी के इस पहलू के बारे में ज्यादा लिखा नहीं जाता, और जनता भी जिंदगी के ऐसे किस्सों को सुनकर भी अनसुना कर देती है, और वोटों पर इसका फर्क नहीं पड़ता।
इंदिरा गांधी के एक जूनियर मंत्री रहते हुए उस वक्त विद्याचरण शुक्ल को अमरीका की किसी एक संस्था से न्यौता मिला था, जिसे लेकर बाद में सरकार के भीतर उन्हें झिडक़ी भी पड़ी थी कि यह संस्था अमरीकी खुफिया एजेंसी सीआईए से रिश्तों के लिए जानी जाती है, और उन्हें इसके न्यौते पर नहीं जाना था। खैर, वे गए थे, और वह वक्त होली के तुरंत बाद का था। यह बात बहुत पुरानी है, मेरी देखी हुई नहीं लेकिन सुनी हुई है। जब वे वहां पहुंचे तो उनके बालों पर से होली का रंग गया नहीं था। जिस किसी अमरीकी पत्रकार ने उन्हें देखकर वहां कोई खबर बनाई, या किसी गॉसिप कॉलम में लिखा, उसने लिखा कि इंदिरा गांधी का एक ऐसा मंत्री आया है जो अपने बालों को बैंगनी रंगता है।
आपातकाल के बहुत बाद विद्याचरण शुक्ल कांग्रेस छोडक़र, एनसीपी में जाकर, वहां से निकलकर भाजपा के उम्मीदवार बनकर लोकसभा चुनाव लडक़र हार चुके थे। लेकिन भाजपा के भीतर अभी दो बरस पहले कर्नाटक की एक सांसद शोभा करंदलाजे ने पार्टी का यह पोस्टर पोस्ट किया था और लिखा था कि वीसी शुक्ला को पत्रकारों के खिलाफ बदनीयत से सत्ता के बेजा इस्तेमाल का दोषी पाया गया था, लेकिन इसका ईनाम उन्हें राजीव सरकार ने मंत्री बनाकर दिया गया था, बाद में नरसिंह राव सरकार में भी। अब भाजपा के 2018 के इस पोस्टर का खलनायक, 2004 में छत्तीसगढ़ की महासमुंद संसदीय सीट के चुनाव में भाजपा का नायक था! उस वक्त भी इमरजेंसी का इतिहास वीसी शुक्ला के साथ था ही।
जब उन्हें विदेश मंत्री बनाया गया, तो भी लोगों ने मजाक बनाया कि उन्हें एक्सटर्नल अफेयर्स दिया गया है। लेकिन असल जिंदगी में उन्होंने अपने आसपास अपने से कम से कम एक पीढ़ी से अधिक फासले वाले लोगों को ही रखा, जिनसे उनका बातचीत का लिहाज बना रहता था। उनकी राजनीति ऐसी थी कि वे अपनी बराबरी के किसी और को साथ नहीं रखते थे, और शायद ऐसी ही राजनीति उनके बड़े भाई श्यामाचरण शुक्ल की भी थी, और इसीलिए ये दोनों भी एक साथ राजनीति नहीं करते थे, एक प्रदेश में रहता था, तो दूसरा राष्ट्रीय राजनीति में। दोनों ही भाईयों के सबसे करीब सहयोगी हमेशा ही उनके पांव छूने वाले रहते थे, और राजनीति में यह बात बड़ी सहूलियत की रहती है कि जो लोग बिना बात पांव पकड़ते रहते हैं, वे किसी बात के होने पर भी हाथ नहीं पकड़ सकते। इन दोनों के आसपास इनका नाम लेकर, नाम के साथ जी लगाकर बोलने वाले लोग अपवाद के रूप में ही रहे होंगे, बाकी तमाम साथी-समर्थक बड़ी कमउम्र के रहते थे। और तो और अखबारनवीसों में भी इन दोनों को वैसे ही लोग अधिक सुहाते थे जो कि उन्हें भैया बोलते हों।
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मैंने अपनी अखबारनवीसी में निजी और पारिवारिक रिश्तों के बिना किसी नेता को कभी भैया नहीं कहा। नतीजा यह था कि विद्याचरण शुक्ल लंबे अरसे तक मेरे साथ सहज नहीं रह पाते थे। उन्हें भैया न कहने वाला अखबारनवीस बागी तेवरों वाला लगता था, और मुझे 30 बरस तक देखने के बाद भी उनके मन से यह शक कभी नहीं गया कि मैं कहीं उनकी बात रिकॉर्ड तो नहीं कर रहा हूं। मैंने उन्हें बार-बार अपने तरीके साफ किए कि मैं किसी भी रिकॉर्डिंग के पहले बताकर, पूछकर, और रिकॉर्डर सामने रखकर बात रिकॉर्ड करता हूं, लेकिन उनकी नजरें मेरी जेब पर, या शायद आखिरी के कुछ बरसों में मेरे मोबाइल पर लगी ही रहती थीं। यह तो गनीमत कि उनकी जिंदगी रहने तक मेरे कान पर ब्लूटूथ टंगना शुरू नहीं हुआ था, वरना उन्हें पक्का भरोसा रहता कि यह उनकी बातचीत रिकॉर्ड करने के लिए ही है।
आखिरी के कुछ बरस उनका शक कुछ घटा था, उनके खिलाफ मेरे कोई बागी तेवर हैं इसकी गलतफहमी कम हुई थी, और उन्हें यह गलतफहमी हो गई थी कि मैं एक समझदार और बात करने लायक पत्रकार हूं। नतीजा यह हुआ कि वे अपनी जिस जीवनी को लिखना चाहते थे, और जिसके लिए उन्होंने एक अघोषित सलाहकार मंडल बनाया था, उस जीवनी के बारे में वे मुझसे भी चर्चा करने लगे। उनके व्यक्तित्व का यह पहलू मेरा देखा हुआ नहीं था, और मेरे लिए यह बात थोड़ी सी अटपटी भी थी कि वे मुझसे रायमशविरा करने लगे थे। मैंने एक शर्त रखी थी जिसे न चाहते हुए भी उन्होंने मान लिया था कि वे जब मुझसे बात करेंगे, तो कोई तीसरे व्यक्ति वहां नहीं रहेंगे।
वे आमतौर पर अपने मुसाहिबों से घिरे रहते थे। कोई भी बड़ा नेता वैसे ही दायरे के भीतर महफूज महसूस करता है, विद्याचरण भी उनमें से ही एक थे। उनके आसपास उनके तकरीबन हर वाक्य पर जी भैया कहने वाले लोग अगर न रहें, तो उनका बातचीत का सिलसिला ठीक नहीं चलता था। जिस तरह शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम में अगर सम पर सिर हिलाने वाले कुछ समझदार श्रोता सामने न रहें, तो गायक का मूड उखड़ जाता है, किसी पेशेवर कव्वाल के साथ उसके शेर दुहराने वाले लोग न रहें, तालियों से संगत देने वाले लोग न रहें, तो कव्वाली आधी भी अच्छी नहीं हो पाती, और तो और छत्तीसगढ़ में किसी भागवत-प्रवचन में भी सामने बैठे कुछ लोग प्रवचनकर्ता की हर बात पर हहो-हहो कहने वाले न रहें, तो प्रवचनकर्ता पटरी से उतर जाते हैं, कुछ ऐसा ही विद्याचरण शुक्ल के साथ भी होता था। अकेले में बात करना, किसी गैरभक्त से बात करना उनके लिए कुछ अटपटा सा था, लेकिन फिर भी वे मुझसे बात करने के लिए यह बर्दाश्त कर लेते थे।
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आखिरी के इन बरसों में आमतौर पर दोपहर के खाने की मेज पर घंटों लंबी ऐसी अकेले बातचीत के आखिर में उनका शक मुझ पर से कुछ घटा रहता था, और मैं उनके तजुर्बे का कायल होकर वहां से निकलता था। हिन्दुस्तान के राजनीतिक इतिहास के इतने लंबे दौर के वे एक प्रमुख खिलाड़ी रहे, तमाम चीजों के गवाह रहे, उनसे बातें करने के बाद मैं बहुत सी नई जानकारियां पाकर निकलता था, और मुझे हैरानी भी होती थी कि इतने ऊपर तक पहुंचा हुआ यह नेता किस तरह स्थानीय राजनीति और छोटे, ओछे मुद्दों पर अपना वक्त जाया करता था। इस पर भी हैरानी होती थी कि उनके आसपास अधिकतर समय रहने वाले अधिकतर लोग ऐसे नहीं थे, जो कि उनसे कोई बौद्धिक बहस कर सकते हों। कुल मिलाकर जिस वक्त आप अपने समविचारकों और अपने प्रशंसकों से घिर जाते हैं, आपका आगे बढऩा रूक जाता है, विद्याचरण शुक्ल के साथ मेरा मानना है कि ऐसा ही कुछ हुआ था। इसलिए जब आखिर में उनका नमक खाते हुए भी उनसे असहमति और बहस के साथ मैं उनकी जीवनी पर चर्चा करता था, तो वे मुझे बर्दाश्त करते हुए सुनने लगे थे।
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मैं उन्हें बार-बार याद दिलाता था कि चिट्ठियां, दस्तावेज, और जानकारियों को इकट्ठा करना, लोगों से उस पर विचार-विमर्श करना काफी नहीं है, और उन्हें असल लिखना शुरू कर देना चाहिए। उन्हें यह बात कुछ बुरी लगती थी कि मानो मैं उनकी बढ़ती हुई उम्र और बाकी कम बचे हुए वक्त के बारे में इशारा कर रहा हूं। मेरी ऐसी कोई नीयत नहीं थी, लेकिन मेरा यह तो पक्का भरोसा है कि इंसान को अपनी खुद की जिंदगी की नियति का पहले से कुछ पता नहीं होता, और इसीलिए काल करे सो आज कर, आज करे सो अब, जैसी अच्छी नसीहत किसी ने लिखी थी। विद्याचरण शुक्ल नक्सलियों की गोली से मारे जाएंगे यह तो मैंने अपने सबसे बुरे सपने में भी नहीं देखा होता, लेकिन लिखना शुरू करना विचार-विमर्श के मुकाबले खासा मुश्किल और मेहनतकश काम होता है, इसलिए लोग आमतौर पर बातें करते रह जाते हैं। इसलिए मैं आखिरी की ऐसी कई मुलाकातों में उन्हें लिखना शुरू करने के लिए कोंचने लगा था। मेरा ख्याल है कि वे अपनी जीवनी लिखने को लेकर जितने गंभीर थे, उससे खासे अधिक गंभीर वे उसके बारे में चर्चा भर करने को लेकर थे। यह एक अलग बात थी कि देश के एक नामी-गिरामी इतिहासकार, रामचन्द्र गुहा से भी वे अपनी जीवनी को लेकर विचार-विमर्श करते थे। इसका मुझे पक्का भरोसा है कि ताजा भारतीय इतिहास पर अच्छा लिखने वाले रामचन्द्र गुहा को भी विद्याचरण शुक्ल से खासी जानकारी मिली होगी।
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मैं उनकी राजनीति की जीत-हार के मौजूद आंकड़ों पर यहां जगह बर्बाद नहीं कर रहा हूं, बल्कि कुछ ऐसी बातों को लिख रहा हूं जो कि लोगों की कम सुनी हुई होंगी। इन बातों में अनुपात से बहुत अधिक मौजूदगी मेरी अपनी भी है, लेकिन मैं अपने देखे-सुने को ही इस कॉलम में अधिक लिखना चाहता हूं। विद्याचरण शुक्ल की जिंदगी किस्म-किस्म के मलाल से भरी हुई थी, उन्हें आपातकाल की सारी तोहमतें अपने सिर पर लेने की बेबसी का मलाल भी था, और वे यह भी कहते थे कि उनके पास इंदिरा गांधी और संजय गांधी का नाम लेने का मौका था, लेकिन उन्होंने सारी जिम्मेदारी खुद लेना खुद ही तय किया था। उन्हें वीपी सिंह को लेकर यह मलाल था कि कांग्रेस ने उन्हें पार्टी से निकाला, लेकिन वीपी सिंह की सरकार में उन्हें वह महत्व नहीं मिला जिसके कि वे हकदार थे। उन्हें नरसिंहराव सरकार के दौरान संसदीय कार्यमंत्री रहते हुए सोनिया गांधी के लिए असुविधा खड़ी करने वाले बोफोर्स विवाद को बढ़ावा देने का मलाल नहीं था, लेकिन बाद में जब सोनिया गांधी ने उन्हें छत्तीसगढ़ का पहला मुख्यमंत्री नहीं बनाया, तो उन्हें उसका बड़ा मलाल था। वे महत्वाकांक्षी थे, कुछ मायनों में अतिमहत्वाकांक्षी भी थे, थोड़ी सी हद तक वे महत्वोन्मादी भी थे, लेकिन इन सबसे ऊपर वे जमीनी-चुनावी राजनीति करने में जितने लड़ाकू थे, उतने लड़ाकू लोग छत्तीसगढ़ की राजनीति में कम ही होंगे। विद्याचरण शुक्ल पर बात अभी बाकी है मेरे दोस्त, एक ब्रेक के बाद।
-सुनील कुमार
बेतरतीब लिखने की अराजक आजादी की एक सहूलियत यह भी होती है कि एक बार में एक से ज्यादा लोगों के बारे में भी लिखा जा सकता है, और एक व्यक्ति के बारे में एक से ज्यादा किस्तों में भी। कुछ व्यक्ति छत्तीसगढ़ की राजनीति में सचमुच ऐसे रहे जिनके बारे में कई-कई किस्तों में ही थोड़ी सी बात हो पाएगी, इसलिए ऐसे लोगों के बारे में एक किस्त तो शुरू में हो जानी चाहिए।
विद्याचरण शुक्ल छत्तीसगढ़ की राजनीति में सबसे अधिक चर्चित, सबसे अधिक विवादास्पद, और जिंदगी के आखिर में बहुत ही अप्रत्याशित शहादत पाने वाले नेता रहे। किसने यह सोचा था कि शानदार व्यक्तित्व और आलीशान शौक रखने वाला यह नेता इस तरह नक्सल गोलियों का शिकार होकर अस्पताल में दम तोड़ेगा। विद्याचरण शुक्ल तो न कभी राज्य की सरकार में रहे, न ही केन्द्र सरकार में उनका कोई काम नक्सल-विरोधी अभियान वाला रहा, और वे नक्सल-हमले में इस तरह फंस गए।
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विद्याचरण शुक्ल ने राजनीति में अहमियत विरासत में पाई थी। वे अविभाजित मध्यप्रदेश के अपने वक्त के सबसे बड़े नेता पंडित रविशंकर शुक्ल के बेटे थे, और उम्र के लिहाज से वे श्यामाचरण शुक्ल के छोटे भाई थे। यह एक अलग बात थी कि दोनों भाईयों की राजनीति नदी के दो पाटों की तरह अलग-अलग फासले पर चलती थी, और दोनों कभी एक साथ राज्य में, या एक साथ केन्द्र में सक्रिय नहीं रहे। बहुत सा दौर तो ऐसा रहा कि इन दोनों में से कोई एक कांग्रेस के बाहर भी रहा। इन दोनों की तुलना करने का वक्त अगली किसी किस्त में आएगा, लेकिन एक लाईन इन दोनों के बारे में किसी बुजुर्ग अखबारनवीस की कही हुई यह लिखना जरूरी है जो उन्होंने किसी पत्रकार के सवाल के जवाब में कही थी। छत्तीसगढ़ के सबसे महत्वपूर्ण पत्रकार रहे मायाराम सुरजन ने बाहर से आए किसी पत्रकार के एक सवाल के जवाब में कहा था- विद्याचरण शुक्ल अधिक तेज नेता हैं, लेकिन श्यामाचरण शुक्ल एक बेहतर इंसान हैं।
यह बात दोनों की तारीफ करने वाली थी, लेकिन फिर भी विद्याचरण शुक्ल को यह बात खटक सकती थी कि उन्हें श्यामाचरण जितना अच्छा इंसान नहीं माना गया। खैर, सार्वजनिक जीवन में लोगों को अपनी अहमियत के अनुपात में ही मूल्यांकन बर्दाश्त करना होता है, और विद्याचरण शुक्ल से अधिक मूल्यांकन तो छत्तीसगढ़ में न किसी नेता का हुआ होगा, और न ही शायद आगे भी हो।
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छत्तीसगढ़ से बाहर विद्याचरण शुक्ल की दोनों-तीनों शिनाख्त अप्रिय कही जा सकती हैं। आपातकाल के दौरान वे सेंसर-मंत्री थे, जब वीपी सिंह ने कांग्रेस छोड़ी, और जनमोर्चा बनाया, तो विद्याचरण शुक्ल कांग्रेस से निकाले गए थे, और वे जनमोर्चा के एक बड़े नेता बने, और तीसरा मौका आया जब छत्तीसगढ़ राज्य के मुख्यमंत्री न बनाए जाने पर उन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़ी, और शरद पवार की एनसीपी का राज्य संगठन बनाया, तीन साल बाद विधानसभा चुनाव में जोगी पार्टी-सरकार को शिकस्त दी। ये तीनों ही बातें जो उन्हें बाहर खबरों में लाती थीं, वे तीनों ही कांग्रेस पार्टी के लिए अप्रिय अध्याय रहीं। विद्याचरण शुक्ल छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री न बन पाने से इतने आहत रहे कि वे पहले एनसीपी के प्रदेश के मुखिया बने, और फिर कांग्रेस के खिलाफ लोकसभा चुनाव लडऩे के लिए भाजपा चले गए, और शायद उनकी जिंदगी का वही सबसे बुरा फैसला रहा जब कांग्रेस के परंपरागत वोटरों ने उन्हें खारिज कर दिया, और भाजपा के परंपरागत वोटरों ने उन्हें अछूत का अछूत माना। यह उनका चुनावी अंत था, यह अलग बात थी कि पार्टी में बाद में उनका दाखिला हो गया, और जब बस्तर में पार्टी के एक काफिले में वे चल रहे थे, तो नक्सल-हमले में घायल होने के बाद जब वे गुजरे, तो अपने पर वे पार्टी के झंडे के भी हकदार हो गए थे।
विद्याचरण शुक्ल अपने राजनीतिक जीवन को लेकर एक मोटी किताब के हकदार हैं, इस छोटे से कॉलम का न तो इतना दुस्साहस है कि उन्हें दो-चार किस्तों में समेटने की कोशिश करे, और न ही वह मुमकिन ही होगा। इसलिए यह साफ कर देना जरूरी है कि यह कुछ-कुछ बातों को लेकर लिखा जा रहा है, और जितना लिखा जा रहा है, उससे कई गुना अधिक छूटा भी जा रहा है।
विद्याचरण शुक्ल अपनी उम्र के खिलाफ हमेशा लड़ते रहे। उन्हें बहुत बन-ठनकर, सजकर, शान से जीना पसंद था। वे बहुत नफीस कपड़ों के आदी थे, और खादी के परंपरागत कपड़ों से परे वे तरह-तरह के पतलून और टी-शर्ट भी पहनते थे। उनके शौकीनमिजाज होने के बारे में बहुत सी और कहानियां भी प्रचलित रहीं, लेकिन उनमें से किसी की वजह से भी छत्तीसगढ़ के लोगों के मन में उनके लिए सम्मान में कमी नहीं रही, कभी कोई अपमान नहीं रहा। छत्तीसगढ़ से बाहर देश के अंग्रेजी मीडिया में, अपनी आदतन बेरहमी के मुताबिक विद्याचरण शुक्ल को लेकर कई तरह की विवादास्पद बातें गॉसिप कॉलमों में लिखी जाती थीं, और उनमें से ही एक बात को लेकर छत्तीसगढ़ के उस वक्त के एक सबसे प्रमुख अखबार को शुक्ल-समर्थकों की ओर से मुकदमेबाजी भी झेलनी पड़ी थी, और उसकी वजह के पीछे मैं व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार भी था। दिल्ली के एक अखबारनवीस की लिखी गई वैसी ही एक मजाकिया बात वहां तो खप गई थी, लेकिन छत्तीसगढ़ में यहां के एक हिन्दी अखबार में उसके छपने से बरसों तक विद्याचरण शुक्ल से अखबार की बातचीत भी बंद रही, और मेरी भी। बाद में दोनों ही पक्षों के शुभचिंतक और दोस्त सुभाष धुप्पड़ ने किसी तरह बातचीत का सिलसिला शुरू करवाया था।
दरअसल विद्याचरण शुक्ल छत्तीसगढ़ के मीडिया से एक खास किस्म के बर्ताव के आदी थे। आपातकाल के पहले से इस शहर के बड़े-बड़े पत्रकार उन्हें भैया कहकर ही बात करते थे, और कुछ बड़े सीनियर पत्रकार भी भरी प्रेस कांफ्रेंस में उनके पैर छूते थे। ऐसे बर्ताव के बाद आपातकाल में तो और भी बहुत से पत्रकार उनका एक अतिरिक्त सम्मान करने लगे थे, क्योंकि छत्तीसगढ़ की खबरें उनकी खुर्दबीनी निगाह में रहती थीं, और राज्य का छोटा सा मीडिया पूरे देश के सेंसर-मंत्री (जिसके ओहदे का नाम सूचना एवं प्रसारण मंत्री था) को सीधे बर्दाश्त करने की हालत में नहीं था।
आपातकाल के बाद शाह आयोग और दूसरी कई किस्म की जांच का सामना करते हुए विद्याचरण शुक्ल वहां तो कमजोर होते रहे, लेकिन वे छत्तीसगढ़ में फिर भी बड़े नेता बने रहे। हमने ऊपर दोनों भाईयों की राजनीति के अलग-अलग चलने का जिक्र भी किया है। लेकिन एक दौर ऐसा था जब ये दोनों के दोनों अलग-अलग किरदारों में एक सा काम कर रहे थे, और वह दौर इमरजेंसी का था। इमरजेंसी में विद्याचरण शुक्ल दिल्ली में संजय गांधी की चौकड़ी में रहे, और देश भर के मीडिया पर तरह-तरह का जुल्म किया। इधर छत्तीसगढ़ में श्यामाचरण शुक्ल मुख्यमंत्री रहे, और पूरे प्रदेश में हजारों बेगुनाह मीसा में बंद कर दिए गए, संजय गांधी को युवा हृदय सम्राट स्थापित करने के लिए बस्तर में आमसभा करवाई गई, और पूरे प्रदेश से सरकारी बसों को उसमें लगाया गया, जिसके भुगतान से बाद में कांग्रेस पार्टी ने मना कर दिया कि उसका लिखित आदेश दिखाया जाए। वह दौर ऐसा था कि हिन्दुस्तान की सरहद में किसी के पास इतना हौसला नहीं था कि संजय गांधी की हसरतों से कोई सवाल करे, और कुछ राज्यों में तो मुख्यमंत्री संजय गांधी की चप्पलें लेकर पैदल चल रहे थे, अपने अंगवस्त्र से मंच पर संजय गांधी की कुर्सी साफ कर रहे थे। बाद में शुक्ल बंधु अपनी सफाई में चाहे जो कहते रहे हों, इतिहास की हकीकत यही है कि इन्हें अपनी कुर्सियों से इतना मोह था कि अपनी तनी हुई देह से रीढ़ की हड्डी भी इन्होंने अलग करके इमरजेंसी के दौरान ताले में धर दी थी। दोनों भाई राजनीति अलग-अलग करते थे, लेकिन मध्यप्रदेश में इमरजेंसी की ज्यादतियों में दोनों पार्टी के एक पुराने निशान, बैल-जोड़ी की तरह एक ही मकसद में लगे हुए थे।
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पूरे देश के लिए विद्याचरण शुक्ल आपातकाल के बाद से एक खलनायक की तरह रहे, और मीडिया के लोग उनकी सेंसरशिप को कभी माफ नहीं कर पाए। उन्हीं का तजुर्बा है कि हिन्दुस्तान में बाद की किसी सरकार ने सेंसरशिप को घोषित रूप से लागू करने के बारे में नहीं सोचा, यह एक अलग बात है कि रीढ़ की हड्डियों का संग्रहालय बनाने में बहुत से बड़े नेताओं को आज भी मजा आता है।
मीडिया के लोगों को इमरजेंसी के वीसी शुक्ला से कितनी नफरत थी उसका एक तजुर्बा मुझे तब हुआ जब देश के सबसे विख्यात कॉर्टूनिस्ट आर.के. लक्ष्मण का छत्तीसगढ़ आना हुआ। वह शायद अर्जुन सिंह के मुख्यमंत्री रहने का दौर था, और उन्होंने लक्ष्मण को राज्य पर एक स्कैचबुक बनाने का न्यौता दिया था। उसी सिलसिले में लक्ष्मण पूरे प्रदेश का दौरा कर रहे थे, और छत्तीसगढ़ आने पर वे रायपुर में सर्किट हाऊस में अपनी पत्नी के साथ ठहरे हुए थे। वे मीडिया के लोगों से बात नहीं करते थे, उनके इंटरव्यू भी शायद ही कहीं छपते थे। लेकिन मैंने लक्ष्मण के बेटे के एक दोस्त का जिक्र किया जो कि मेरे साथ युद्ध-संवाददाता प्रशिक्षण में महीनों तक रहा था। सर्किट हाऊस जाकर जब इस पहचान के हवाले से मैंने उनसे बात करनी चाही, तो वे अपनी आदत के खिलाफ तुरंत ही मिलने आ गए, और फिर अपनी पत्नी को भी बुलवा लिया कि बेटे के दोस्त का दोस्त आया है। मैं उन दिनों फोटोग्राफी भी करता था, और लक्ष्मण के इंटरव्यू के साथ-साथ मैंने सर्किट हाऊस के बाहर लॉन पर उन्हें ले जाकर उनकी ढेर सारी तस्वीरें खींची थीं। बाद में डार्करूम में खुद ही तुरंत उनके प्रिंट तैयार करके लौटकर उनसे हर प्रिंट पर ऑटोग्राफ भी करवाया था। उस इंटरव्यू के दौरान और बाकी बातचीत में लक्ष्मण ने विद्याचरण शुक्ल की इमरजेंसी और सेंसर के खिलाफ इतनी गालियां दी थीं, इतनी गालियां दी थीं, कि उनका यहां पर जिक्र असंसदीय हो जाएगा। अब न लक्ष्मण रहे, न ही वीसी शुक्ला, इसलिए वे गालियां अब कागजों पर दर्ज करना भी ठीक नहीं है।
विद्याचरण शुक्ल तीन बेटियों के पिता रहे, जिनमें से किसी ने भी राजनीति में उनके जीवनकाल में कोई दिलचस्पी नहीं ली। उनकी बड़ी बेटी उनके गुजरने के बाद उनकी राजनीतिक विरासत सम्हालने की हसरत जरूर रखती थी, लेकिन तब तक छत्तीसगढ़ की राजनीति इतनी तेज रफ्तार और नेताओं के लिए ओवरटाईम का सामान बन चुकी थी कि दिल्ली में बसी हुई प्रतिभा पांडेय के लिए छत्तीसगढ़ में कोई भी जगह बची नहीं थी।
विद्याचरण शुक्ल पर अगली कई-कई किस्तों में लिखना हो सकता है, ये सिर्फ उनसे जुड़ी हुई कुछ बातें हैं, बाकी बातें अगली किसी किस्त में।
-सुनील कुमार
राजनीति, सार्वजनिक जीवन, और शासन-प्रशासन में रहते हुए कोई व्यक्ति किस तरह कुएं का मेंढक हो सकता है, यह देखना हो तो रायपुर के महापौर, विधायक, और छत्तीसगढ़ की पहली सरकार के मंत्री रहे हुए तरूण चटर्जी को देखना चाहिए। कुएं का मेंढक लिखने मतलब किसी भी तरह तरूण चटर्जी, या मेंढक का अपमान करना नहीं है, इन दोनों को इस मिसाल पर आपत्ति हो सकती है, लेकिन तरूण चटर्जी के मिजाज का बखान करने के लिए इससे कम शब्दों में इससे बेहतर कोई मिसाल नहीं हो सकती। इसलिए तरूण चटर्जी की आत्मा, और उनके वक्त के कुएं के मेंढकों के आज के वंशज दोनों कृपया बुरा न मानें।
तरूण चटर्जी की सारी की सारी जिंदगी रायपुर म्युनिसिपल की सरहद, और उनकी अपनी विधानसभा सीट तक सीमित थी। भाजपा के 13 विधायकों को लेकर वे दल-बदल करके जोगी सरकार में शामिल हुए थे, और थोक के इस सौदे में उन्हें मंत्री बनना नसीब हुआ था। लेकिन पूरे प्रदेश के मंत्री रहते हुए भी उनके दिमाग के टॉवर की रेंज उनके विधानसभा क्षेत्र की सरहद पर खत्म हो जाती थी। अपने साम्राज्य में वे एक-एक गली-नाली को जानते थे, लेकिन बाहर के किसी को नहीं पहचानते थे। यह उनकी खामी नहीं थी, उनकी खूबी थी कि वे टेबिल लैम्प की रौशनी की तरह अपना सारा ध्यान फोकस रखते थे, अपने वोटरों तक सीमित रखते थे।
तरूण चटर्जी ने विद्याचरण शुक्ल के साथ राजनीति शुरू की थी, और बढ़ते-बढ़ते वे अपने दम पर अपनी लोकप्रियता से महापौर चुने गए। एक महापौर का जितना ध्यान म्युनिसिपल की बुनियादी जिम्मेदारियों पर रहना चाहिए, उतना पूरे का पूरा ध्यान तरूण चटर्जी का रहता था। और वे दिन खासे मुश्किल के भी थे। छत्तीसगढ़ में दशकों तक विद्याचरण शुक्ल की मर्जी कांग्रेस पार्टी के अधिकतर लोगों के लिए हुक्म सरीखी रहती थी। फिर तरूण तो विद्या भैया के खेमे के थे, उनकी मर्जी से परे कुछ सोच नहीं सकते थे। और छत्तीसगढ़ की उस वक्त राजधानी न बने हुए रायपुर में हर कोई अपने काम को लेकर विद्याचरण तक पहुंच रखते थे। नतीजा यह था कि मेयर के लायक कोई काम भी अगर वीसी शुक्ला से होते हुए आता था, तो हैरानी नहीं होती थी। ऐसे में वीसी की मर्जी के साथ-साथ चलते हुए म्युनिसिपल को चलाना, और जनता के छोटे-छोटे काम करना, तरूण चटर्जी के पहले, और उनके बाद वैसा कोई दूसरा मेयर नहीं हुआ।
उन दिनों राजधानी भोपाल रहती थी। मेयर को किसी भी काम के लिए भोपाल में मंत्री और सचिव के पास, और डायरेक्ट्रेट में जाकर डेरा डालना पड़ता था। तरूण चटर्जी तेज थे, वे अपने साथ अपने टाइपिस्ट और टाईपराईटर को लेकर जाते थे, और वहां मंत्रालय-सचिवालय, वल्लभ भवन, के बाहर पेड़ के नीचे टाईपिस्ट का डेरा डलवा देते थे। भीतर दफ्तरों में तरूण चटर्जी से जिस बात का प्रस्ताव बनाकर भेजने के लिए कहा जाता था, वह प्रस्ताव वे घंटे भर में लेकर वापिस सिर पर चढ़ बैठते थे। लोगों के साथ उनकी बातचीत का लहजा अपने साम्राज्य की जरूरतों से तय होता था, और वे किसी भी सीमा तक नरमी बरतते हुए मंत्री या अफसर के हाथ जोड़ लेते थे, और उनका यह मानना रहता था कि किसी निर्वाचित और पद पर बैठे नेता की अकेली इज्जत होने वाला काम रहता है, और कुछ नहीं।
म्युनिसिपल की राजनीति में जितना जोड़तोड़ करना होता है, जितना छोटा-छोटा ख्याल रखना होता है, उसमें तरूण चटर्जी बहुत ही माहिर थे। एक गैरछत्तीसगढ़ी समुदाय के रहते हुए भी वे किसी भी स्थानीय जाति और समुदाय के बाशिंदे के मुकाबले अधिक छत्तीसगढ़ी, और अधिक स्थानीय थे। किसी को डांटकर, किसी को फटकार कर, किसी को पुचकार कर, और जरूरत रहे तो किसी की मुसाहिबी भी करके वे काम निकालते थे।
राजनीति में तरूण चटर्जी ने कांग्रेस छोडक़र भाजपा में जाना तय किया क्योंकि उन्हें अपने इलाके का और अपना भला उस वक्त भाजपा में दिख रहा था। भाजपा से विधायक बनने के बाद उन्होंने रातोंरात 13 विधायकों के साथ भाजपा तोड़ी, मुख्यमंत्री निवास के रास्ते में नाम के लिए शायद एक कोई नई पार्टी बनाई, और कांग्रेस में चले गए। वे बुनियादी रूप से कांग्रेसी सोच के नेता थे, लेकिन उससे भी ऊपर वे गरीबों के नेता थे। उनके म्युनिसिपल इलाके में, और उनके चुनाव क्षेत्र में गरीबों का जितना भला हुआ, उतना शायद प्रदेश के किसी भी दूसरे विधानसभा क्षेत्र में नहीं हुआ होगा। तमाम गंदी बस्तियों और झुग्गी-झोपडिय़ों को बसाना, वहां बुनियादी सुविधाएं जुटाना, जमीन के पट्टे दिलवाना, रिक्शों का मालिकाना हक दिलवाना, एकबत्ती कनेक्शन दिलवाना, राशन कार्ड बनवाना, उनका रोज का काम था। मंत्री बनने के पहले तक कलेक्ट्रेट, म्युनिसिपल, और अनगिनत सरकारी दफ्तरों में वे जुलूस लेकर पहुंचते रहते थे, या प्रतिनिधि मंडलों के साथ जाकर अफसरों से गरीबों का काम करवाते थे।
बहुत पुराने गांधीवादी सांसद केयूर भूषण को छोड़ दें, तो बाद की पीढ़ी में तरूण चटर्जी, और उनके एक दूसरे साथी नेता बलबीर जुनेजा जो बाद में मेयर भी बने, यही दो ऐसे नेता थे जो आए दिन कुष्ठरोगियों की बस्ती में जाते रहते थे, उनके साथ बैठते थे, उनके काम निपटाते थे। तरूण चटर्जी मोटे तौर पर गरीबों की राजनीति करते थे, उनके बुनियादी काम निपटाने के लिए किसी से भी भिड़ जाते थे, और हिकमतअमली से काम निकलवा लेते थे।
उनके परिवार से राजनीति में किसी की दखल नहीं रही, और वे कुनबे के अकेले नेता बनकर रहे, और चले गए। राजनीति के इमरजेंसी के बाद से शुरू वे ऐसे दिन थे जब छत्तीसगढ़ में कांग्रेस और जनसंघ, या भाजपा के बीच कोई निजी कटुता नहीं रहती थी, और पक्ष-विपक्ष की अपनी-अपनी जगह दोनों एक-दूसरे के साथ सहअस्तित्व में जी लेते थे। तरूण चटर्जी की चर्चा जरूरी इसलिए है कि स्थानीय संस्थाओं की राजनीति में अपनी निजी महत्वाकांक्षा से, आत्मसम्मान और दंभ से ऊपर जाकर कैसे जनहित के काम करवाए जा सकते हैं, तरूण चटर्जी इसकी एक बड़ी मिसाल रहे। अपने वोटरों और आम लोगों के बीच एक जुझारू और कामयाब नेता की छवि के पीछे उनकी चतुराई भी थी, मेहनत भी थी, और कामयाबी भी थी। आज के वक्त जब छत्तीसगढ़ राज्य बन चुका है, और मेयर होने का मतलब मुख्यमंत्री का करीबी होना हो जाता है, तब वैसे जुझारूपन और वैसे संघर्ष के दिन लद गए। तरूण चटर्जी की कल्पना करने के लिए उनके वक्त का होना जरूरी है, उस वक्त तो उनके इलाके में हर कोई उन्हें अच्छी तरह जानते ही थे।
तरूण चटर्जी के लिए जिंदगी में एक बड़ी शिकस्त रही अपने ही घर के वार्ड से म्युनिसिपल का चुनाव हारना। वे इसके पहले मेयर रह चुके थे, विधायक रह चुके थे, लेकिन बड़े नेता हो जाने के बाद फिर मेयर बनने के लिए उन्होंने वार्ड का चुनाव लड़ा, और एक साधारण समझे जाने वाले नेता से हार गए। यह एक अलग बात है कि हार का विश्लेषण करने वाले लोगों ने इसकी वजह ढूंढ निकाली और कहा कि भाजपा के एक राष्ट्रीय स्तर के बड़े नेता सिकंदर बख्त रायपुर आए थे, और तरूण चटर्जी उन्हें प्रचार के लिए अपने वार्ड ले गए थे जहां की मुस्लिम आबादी भरपूर थी। उनकी चतुराई धरी रह गई दो मायनों में, एक तो यह कि बड़े नेता को छोटा चुनाव नहीं लडऩा चाहिए, दूसरी यह कि अतिआत्मविश्वास में मुस्लिम आबादी में भाजपा के बड़े नेता को वे ऐसे वक्त ले गए जब बाबरी मस्जिद गिरने के जख्म ताजा थे। बाकी कुछ और लोगों की चर्चा के दौरान तरूण चटर्जी के बारे में कुछ और बातें।
-सुनील कुमार
पवन दीवान की जिंदगी छत्तीसगढ़ के राजिम से जुड़ी रही। वे वहीं पास एक गांव, किरवई, में पैदा हुए, जहां उनके एक कच्चे मकान में उनके साथ खाने का मौका मुझे मिला था। उसके अलावा भी आपातकाल के तुरंत बाद के जनता पार्टी राज के वक्त से उनसे जो परिचय शुरू हुआ, तो वह कभी कमजोर नहीं पड़ा। उनके बारे में लिखते हुए मैं कई बार बहुत बेरहम हुआ, लेकिन उनके दिल का रहम डिगा नहीं। मुझसे वे हमेशा प्रेम का बर्ताव करते रहे, जो कि सांसारिक जीवन से ऊपर उठ जाने का एक सुबूत सा था, लेकिन सुबूत था नहीं।
अपनी निजी जिंदगी में पारिवारिक स्थिति की वजह से पवन दीवान सन्यासी बने रहे, वे सन्यासी की पोशाक में भी जिए, लेकिन उनका मन सन्यास से अछूता रहा। वे राजनीति से कभी सन्यास नहीं ले पाए, और उनका मोह भी खत्म नहीं हुआ। इस तरह वे एक सन्यासी की देह में एक असन्यासी आत्मा के साथ जीते रहे, लड़ते रहे, पाते रहे, खोते रहे, और फिर पाने की चाहत में पार्टियां बदलते रहे।
अब वे नहीं रह गए हैं, लेकिन यह लिखने में मुझे कोई हिचक इसलिए नहीं है कि उनके रहते-रहते भी मैं काफी कुछ कड़वा लिखते रहता था, और वे उसे बर्दाश्त करते हुए मुझसे प्रेमसंबंध बनाए रखते थे।
पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के लिए आंदोलन करने वाले पुराने लोगों में से पवन दीवान भी एक थे। इस आंदोलन से उनके पहले भी लोग जुड़े, और उनके बाद भी, लेकिन पवन दीवान के नाम का जिक्र पृथक छत्तीसगढ़ से हमेशा ही बने रहा। इमरजेंसी के तुरंत बाद जब चुनाव हुए, तो जनसंघ और समाजवादियों ने मिलकर जनता पार्टी बनाई थी, और पवन दीवान राजिम विधानसभा सीट से उसके उम्मीदवार थे। यह सीट श्यामाचरण शुक्ल की घरेलू सीट मानी जाती थी, लेकिन आपातकालीन ज्यादतियां इतनी अधिक हुई थीं कि संजय गांधी के चरणों पर अपनी-अपनी रीढ़ की हड्डियां चढ़ाकर मुख्यमंत्री बने रहने वाले लोगों में से श्यामाचरण भी थे। वे जनता पार्टी की लहर में, और जबरिया-नसबंदी जैसे कुकर्म के तुरंत बाद पवन दीवान से चुनाव हार बैठे। अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे रविशंकर शुक्ल के मुख्यमंत्री रहे बेटे को हराने वाले पवन दीवान को मध्यप्रदेश में मंत्री बनने का मौका मिला। शायद यही चुनाव था जब छत्तीसगढ़ में एक नया नारा इस्तेमाल हुआ था- पवन नहीं यह आंधी है, छत्तीसगढ़ का गांधी है।
पवन दीवान राजनीति में आने के पहले से छत्तीसगढ़ के एक सबसे लोकप्रिय कवि थे, और सन्यासी होने के बावजूद उनकी एक बड़ी रोमांटिक कविता, एक थी लडक़ी मेरे गांव की, चंदा जिसका नाम था..., की खूब डिमांड रहती थी, और वे मंच से कविता पढऩे वाले सबसे लोकप्रिय कवियों में से एक थे। इस कविता की मांग बराबर रहती थी, और वे इसे आखिरी तक बचाकर भी रखते थे, क्योंकि पहले रसमलाई परोस दी, तो बाद में बालूशाही किसे सुहाएगी। पवन दीवान जितने लोकप्रिय कवि थे उतने ही लोकप्रिय भागवत-प्रवचनकर्ता भी थे। उनकी भागवत सुनने के लिए भी लोग जुटते थे, और ये तमाम चीजें उनके चुनाव जीतने में काम आईं।
जनता पार्टी सरकार में जेल मंत्री रहते हुए पवन दीवान ने मुझ पर एक व्यक्तिगत उपकार भी किया था। रायपुर की सेंट्रल जेल में एक कैदी को फांसी की सजा होनी थी। यह 1978 की बात थी, और मुझे अखबार में नौकरी शुरू किए दो ही बरस हुए थे। उम्र 20 बरस थी, लेकिन अखबारनवीसी का जोश बहुत था। जेल सुप्रीटेंडेंट जी.के. अग्रवाल से मेरे दोस्ताना ताल्लुकात थे, हालांकि वे उम्र में मुझसे दोगुने से भी बड़े थे। उनकी मेहरबानी से मैं जेल के इस कैदी, बैजू, से कई दिनों तक रोज उसकी कोठरी में जाकर मिलकर, लंबी बातचीत करके आता था। यह पूरा सिलसिला जेल के नियमों के खिलाफ था, लेकिन यह चला। आखिर में जब उसकी फांसी का दिन आ गया, तो मैंने अग्रवाल साहब से कहा कि कोई ऐसा जरिया हो सकता है कि मैं यह फांसी देख सकूं? उन्होंने कहा कि उनके अधिकार में तो ऐसा नहीं है, लेकिन अगर जेलमंत्री चाहें तो ऐसी इजाजत दे सकते हैं, और उस इजाजत की अधिक छानबीन किए बिना वे अपने स्तर पर मुझे यह छूट दे देंगे।
पवन दीवान से मेरे उस वक्त के एक वरिष्ठ सहकर्मी राजनारायण मिश्र के संबंध अधिक घरोबे के थे, और उनके साथ जाकर मैंने ऐसी चि_ी पवन दीवान को सर्किट हाऊस में दी। अग्रवाल साहब भी मंत्री के रायपुर में होने की वजह से सर्किट हाऊस में ही थे। चि_ी में मैंने फांसी की सजा के बेरहम होने, और उसके खिलाफ एक जनमत तैयार करने के लिए ऐसी रिपोर्टिंग की जरूरत बखान की थी, जो कि पूरी तरह बोगस तर्क था। लेकिन उनको छूने वाली बात इसके बाद थी कि कवि हृदय जेलमंत्री के रहते हुए ऐसी अनुमति की उम्मीद है। इस पर पवन दीवान ने अग्रवाल साहब से पूछा, और उनका सोचा हुआ जवाब था- सर, जेल मैन्युअल इस बारे में मौन है। लेकिन आप तो मंत्री हैं, आप चाहें तो इजाजत दे सकते हैं।
पवन दीवान का लंबा प्रशासनिक इतिहास तो था नहीं, फांसी की सजा को अमानवीय, उसके खिलाफ जागरूकता की जरूरत, और मंत्री को कवि हृदय लिखना काम आया, और उन्होंने उसी आवेदन पर अनुमति लिख दी। नतीजा यह हुआ कि अपने एक और वरिष्ठ सहकर्मी गिरिजाशंकर के साथ मैंने वह फांसी देखी, और उसकी रिपोर्ट लिखी, जो कि हिन्दुस्तान में अपने किस्म की पहली रिपोर्ट थी। बीस बरस की उम्र में, वैसी शोहरत दिलाने वाली रिपोर्ट के मौके के लिए मैं हमेशा ही पवन दीवान का अहसान मानते रहा, और जब कभी उनके दल-बदल पर मुझे खिल्ली उड़ानी पड़ी, मन के भीतर अच्छा नहीं लगा। इसके बावजूद पेशे का ईमान वैसी कड़वी बातें लिखवाते रहा। पवन दीवान जब कई बार कई पार्टियां बदल चुके थे, तब शायद उनके आखिरी दल-बदल के वक्त मैंने इस अखबार के पहले पन्ने पर उनकी ठहाके लगाती हुई तस्वीर के साथ लिखा था- यह आदमी हर कुछ बरस में पार्टी बदल देता है, उसके बाद छूटी हुई पिछली पार्टी किसी वक्त उसे लेने के फैसले पर रोती है, और यह आदमी इसी तरह ठहाके लगाकर हॅंसता है।
ऐसा लिखने के बाद भी पवन दीवान ने कभी बोलचाल बंद नहीं की। कभी इंटरव्यू देना उनके लिए राजनीतिक असुविधा का रहता था, तो भी वे अनचाहे भी मुझसे तो बात कर ही लेते थे। उनके देह पर कपड़ा आधी धोती जितना छोटा रहता था, लेकिन उनका दिल बड़ा था। दिल इस मायने में भी बड़ा था कि उसमें हसरतें हमेशा बड़ी रहीं। उनसे लालबत्ती और ओहदे का मोह नहीं छूटा। परिवार का सांसारिक मोह तो उन्होंने छोड़ दिया था, लेकिन राजनीतिक जीवन का मोह उनके मन में हमेशा ही उछालें मारते रहता था।
जब जनता पार्टी सरकार गई और मध्यप्रदेश में अर्जुन सिंह की सरकार आईं, उस वक्त अर्जुन सिंह कांग्रेस पार्टी के भीतर छत्तीसगढ़ के शुक्ल बंधुओं के मुकाबले छोटे नेता थे। वे सार्वजनिक बातचीत में भी उन्हें श्यामा भैया, विद्या भैया कहकर बुलाते थे, और एक बहुत ही शातिर राजनेता की तरह उनकी जड़ें भी काटते थे। वही वक्त था जब वे 1980 में मुख्यमंत्री बने थे, और शुक्ल बंधुओं, और उनके गुजरे हुए पिता रविशंकर शुक्ल के व्यक्तित्व के समानांतर उन्होंने कुछ विकल्प खड़े करने की कोशिश की, और कामयाब हुए। उसी में उन्होंने शहीद वीरनारायण सिंह को स्थापित किया, पवन दीवान को कांग्रेस में लेकर आए। इस राजनीतिक फैसले में जेल सुप्रिटेंडेंट अग्रवाल साहब अर्जुन सिंह के काम आए। वे पवन दीवान के जेलमंत्री रहते उनके रायपुर से गुजरते हुए जेल में कैदियों के लिए उनका भागवत प्रवचन करवाते थे, और उनके करीब थे। उनके मार्फत पवन दीवान से कई दौर की बात चली, और शायद उसी वक्त अजीत जोगी भी रायपुर के कलेक्टर बनकर आए थे। कुल मिलाकर अफसरों की घेराबंदी के साथ पवन दीवान का कांग्रेस प्रवेश हुआ, और शुक्ल बंधुओं को एक कड़वा घूंट पीकर रह जाना पड़ा। पवन दीवान को अर्जुन सिंह ने मंत्री स्तर का दर्जा देकर किसी निगम का अध्यक्ष बनाया था, और अपने सहयोगियों से कहा भी था कि उनका ख्याल रखें।
पवन दीवान का ऐसा विविधता से भरा हुआ राजनीतिक जीवन रहा, सामाजिक, धार्मिक, और आध्यात्मिक जीवन रहा, सन्यासी और सांसारिक का मिलाजुला जीवन रहा, रोमांटिक कविता से भीगा हुआ साधु जीवन रहा। वे एक अच्छे इंसान रहे, और राजनीति में जितनी मौकापरस्ती और जितना दलबदल मान्य है, वे उस सीमा के भीतर उसका पूरा इस्तेमाल करते हुए गुजरे। उनके बारे में यादें बहुत हैं, बाकी फिर कभी किसी अगली किस्त में।
-सुनील कुमार
इस कॉलम का आज पहला दिन, छत्तीसगढ़ के राज्य बनने के, और रायपुर के राजधानी बनने के पहले दिन से शुरू कर रहा हूं। अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह उस वक्त छत्तीसगढ़ के भी सबसे लोकप्रिय कांग्रेस नेता थे। वैसे तो यहां नेता बड़े-बड़े थे, श्यामाचरण शुक्ल, और विद्याचरण शुक्ल दोनों मौजूद थे, दोनों ताकतवर भी थे। आज इस बात को पढक़र दोनों की आत्मा को कुछ ठेस पहुंचेगी कि दिग्विजय सिंह वर्ष 2000 में छत्तीसगढ़ के बाहर के नेता होते हुए भी इस राज्य में सबसे लोकप्रिय कांग्रेस नेता थे। नेता तो मोतीलाल वोरा भी थे, जो दिग्विजय के काफी पहले मुख्यमंत्री रह चुके थे, और कांग्रेस हाईकमान के बहुत करीबी हो गए थे, लेकिन वे भी लोकप्रियता में दिग्विजय के पासंग नहीं बैठते थे। ऐसे में राज्य बनने के पहले, और बनने का फैसला हो जाने के बाद एक दिन दिग्विजय भोपाल से रायपुर आए। उन्होंने कम्युनिटी हॉल, जहां पर अभी पुलिस मुख्यालय और राजभवन दाएं-बाएं बन गए हैं, वहां पर एक बैठक ली। बैठक में सभी तबकों के लोगों को बुलाया गया, और उनकी राय ली गई कि शहर में कहां क्या बनाया जाए। मौजूद लोग लोगों की भावनाएं एकदम उफान पर थीं, यह राज्य बनने जा रहा है यह बात एकदम से लोगों के गले नहीं उतर रही थी, हालांकि वह संसद के रास्ते, और उसके भी पहले दिग्विजय की विधानसभा के रास्ते हकीकत बन चुकी थी।
दिग्विजय खुद कुछ पिघले हुए थे, और उन्हें मालूम था कि वे कुछ ही दिन इस इलाके के मुख्यमंत्री हैं, हालांकि उन्होंने खुद पहल करके अविभाजित मध्यप्रदेश की विधानसभा में छत्तीसगढ़ को राज्य बनाने का प्रस्ताव पास करवाया था। कम्युनिटी हॉल में मैं भी मौजूद था, और दिग्विजय सिंह को मैंने घर आने का न्यौता दिया कि इसके बाद पता नहीं वे समारोह में ही आएंगे या कब आएंगे। अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में वे एक बार मेरे घर आएं, ऐसा मैं इसलिए भी चाहता था कि सुख-दुख में वे उस अखबार के साथ खड़े रहे थे जिसमें मैं काम करता था, और मैं कुछ नाजुक मौकों का भागीदार भी था।
उन्होंने तुरंत हॉं कहा, मैं मोटरसाइकिल से घर लौटा, और कुछ देर बाद दिग्विजय का काफिला वहां आ गया। उनके साथ अफसरों की गाडिय़ां भी थीं, और कांग्रेस के भी बहुत से नेता साथ आए थे। लेकिन यह दिग्विजय की भलमनसाहत थी कि उन्होंने साथ आए तमाम लोगों को बरामदे में ही रोक दिया, और भीतर अकेले ही आए। बैठक में बैठकर वे तीन लोगों के छोटे से परिवार से बात करते रहे, और जब उन्हें एक नॉनअल्कोहलिक वाईन पेश की गई, तो वे कुछ हड़बड़ाए, और फिर जोरों का ठहाका लगाते हुए मेरे बेटे से बोले- अब तुम मुझे वाईन पिलाना सिखा रहे हो...!
मेरे डिजाइन किए हुए घर को वे खूब देर तक खड़़े देखते रहे, साथ में तस्वीरें खिंचवाईं, और एक व्यस्त दौरे के बीच जिसे काफी कहा जा सकता है, उतना वक्त गुजारकर वे गए।
फोटो : पीटीआई
लेकिन एक मुख्यमंत्री के रूप में उनकी उदारता का मुझे पहले भी तजुर्बा हो चुका था। इसके काफी पहले जब मेरी मॉं गुजरीं, तब देर रात फोन पर लगी, नई-नई आंसरिंग मशीन पर उनका रिकॉर्ड किया हुआ मैसेज मिला कि उन्हें मॉं के गुजरने की खबर से तकलीफ हुई है, और अगले दिन उन्हें रायपुर आना था, और वे घर आएंगे। इसके बाद उस वक्त रायपुर-भिलाई के आईजी सीपीजी उन्नी का फोन आया कि सीएम कल एयरपोर्ट से सीधे मेरे घर पहुंचेंगे।
अगले दिन वे आए, एयरपोर्ट से सीधे घर आए, एक ही दिन पहले अंतिम संस्कार हुआ था, तो पूरा परिवार घर पर ही थे। आते ही उन्होंने परिवार के उन तमाम लोगों के पैर छुए जो कि उनसे बड़े थे, और जितनी देर बैठे, किसी तरह की राजनीतिक चर्चा नहीं की, सिर्फ परिवार से बात की, और फिर निकले।
उनका एक और तजुर्बा अभी कुछ बरस पहले का, जब उनकी पत्नी का कैंसर से निधन हो गया था, और अमृता से उनकी दूसरी शादी हुई थी। अमृता राज्यसभा टीवी पर एक बहुत अच्छी पत्रकार रह चुकी थीं, और उसके कुछ कार्यक्रमों में मैंने हिस्सा लिया था, इसलिए उनसे मेरा टेलीफोन और टीवी का परिचय था। उन दिनों मैं स्लिपडिस्क की वजह से बिस्तर पर था, और मैसेंजर पर ही अमृताजी से बात हुई थी। उनसे दिग्विजय को पता लगा कि मैं ऐसी तकलीफ में हूं तो उन्होंने खबर करवाई कि डोंगरगढ़ से देवी दर्शन करने के बाद लौटकर वे घर आएंगे। वे आए, खासी देर बैठे, वे खुद स्लिपडिस्क से गुजरे हुए थे, इसलिए उनके पास देने के लिए बहुत सारी नसीहतें थीं। यहां से लौटने के बाद वे नर्मदा परिक्रमा के लिए निकलने वाले थे, और उस बारे में भी देर तक बात होती रही।
छत्तीसगढ़ की राजनीति के बारे में अपने तजुर्बे को लिखते हुए आज अचानक यह भी याद पड़ रहा है कि भोपाल के वक्त से अब तक, दिग्विजय सिंह ने सुख-दुख के मौकों पर रिश्ता रखा, साथ निभाया, और उनके खिलाफ पिछले अखबार में जितना तेजाबी मैंने लिखा था, मुख्यमंत्री रहते हुए भी उन्होंने कभी उसका कोई हिसाब चुकता नहीं किया। दूसरी तरफ उनसे अधिक सीनियर छत्तीसगढ़ के बहुत से कांग्रेस नेताओं का तजुर्बा इससे बहुत अलग रहा, जो न सुख में साथ रहे, न दुख में साथ रहे, और न उनसे ऐसी कोई उम्मीद ही रही, कोई कमी भी नहीं खली।
दिग्विजय सिंह बुनियादी रूप से एक अच्छे इंसान, रिश्तों और पहचान का खूब ख्याल रखने वाले नेता हैं, और यही वजह है कि वे आज भी छत्तीसगढ़ में कांग्रेस के अधिकतर नेताओं से अधिक लोकप्रिय हैं, और इस प्रदेश के पूरे संगठन में उनका खूब सम्मान है। जिस वक्त वे अविभाजित मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे, उस वक्त भी वे छत्तीसगढ़ में इतने नेताओं को, प्रमुख सामाजिक व्यक्तियों को, अखबारनवीसों को नाम से जानते और बुलाते थे जितना छत्तीसगढ़ के बाकी तमाम दिग्गज कांग्रेस नेता मिलकर भी नहीं जानते थे। उनके बारे में कई और बातें फिर कभी।
-सुनील कुमार
पिछले कुछ महीनों में हिन्दुस्तान में एक ऐसा जननायक देखा जो न राजनीति से निकलकर आया, और न ही किसी सामाजिक आंदोलन से। उसके एजेंडा में कोई धर्म, मंदिर-मस्जिद, या जाति का आरक्षण भी नहीं था। उसके नारों में महिला अधिकारों की बात भी नहीं थी, पशुओं के हक की लड़ाई भी नहीं थी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी नहीं थी, और न ही लोकतंत्र को साफ-सुथरा बनाने जैसा कोई सपना वह बेच रहा था। फिर भी वह बिना किसी इतिहास के, और बिना जाहिर तौर पर दिखती भविष्य की किसी साजिश के भी जननायक बन गया।
बात थोड़ी सी अटपटी है। उसके साथ न आयुर्वेद और योग के जादुई करिश्मे के दावों की ताकत थी, न अन्ना हजारे सरीखे चौथाई सदी लंबे आंदोलन का इतिहास था। फिर भी आज वह हिन्दुस्तान में करोड़ों लोगों के लिए एक आदर्श बन गया है, और देश-विदेश में बसे और फंसे हुए हिन्दुस्तानी उसकी तरफ टकटकी लगाकर उम्मीद से देख रहे हैं।
अभी दो महीने पहले ही जब मुम्बई में फिल्म अभिनेता सोनू सूद ने घर लौटने की हसरत रखने वाले प्रवासी मजदूरों की वापिसी के इंतजाम का सिलसिला शुरू किया, तो लोगों को लगता था कि दो-चार बस रवाना करने के बाद यह सिलसिला बस हो जाएगा। लेकिन हैरानी की बात यह है कि यह सिलसिला गजब की रफ्तार से जारी है, और अब जब तकरीबन तमाम वे मजदूर घर पहुंचाए जा चुके हैं जो कि घर जाना चाहते थे, तो अब सोनू सूद दुनिया के दूसरे देशों में फंसे हुए हिन्दुस्तानी छात्र-छात्राओं को विमान से वापिस लाने की मशक्कत में जुट गए हैं। और यह मेहनत महज एक चेक काटकर अक्षय कुमार की तरह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के निजी-सार्वजनिक खाते में डालकर बंद हो गई, न ही कुछ और फिल्मी सितारों की तरह कुछ हजार लोगों के घर महीने-दो महीने का राशन भेजने जैसी मदद तक सीमित रही। सोनू सूद का कोई बहुत लंबा सार्वजनिक इतिहास याद नहीं पड़ता सिवाय इसके कि वे फिल्मों में काम करते आए हैं, और उनके नामुमकिन से गंठे हुए बदन को स्टेज और टीवी पर जगह-जगह दिखाने का मुकाबला चलते रहता है। वे इतने बड़े, इतने महंगे, और शायद इतने रईस फिल्म एक्टर नहीं रहे कि आज मुम्बई में सबसे बड़ा सामाजिक-खर्च करना उनकी एक नैतिक जिम्मेदारी होती। फिर खर्च से परे देखें तो कोरोना की दहशत के बीच बस अड्डों पर, रेलवे स्टेशनों पर, और हवाई अड्डे पर वे जिस तरह जाते हुए मजदूरों, मरीजों, और दूसरे लोगों को बिदा करते रहे, वह हिन्दुस्तान के इतिहास में एक अभूतपूर्व हौसले की बात रही। जिसने आज तक कोई चुनाव नहीं लड़ा है, और जिसकी जनता के प्रति ऐसी कोई सार्वजनिक जवाबदेही बनती है, वह कोरोना से बचने का मास्क लगाए हुए सैकड़ों लोगों को हर दिन बिदा करते हुए, उनकी बसों में चढक़र उनसे वापिसी का वायदा लेते हुए जिस तरह दिखा, वह पूरी तरह अनोखी बात थी, और बड़ी अटपटी बात भी थी। बहुत से लोगों को इतनी भलमनसाहत पर एक बड़ा जायज सा शक होता है कि इसके पीछे कौन सी बदनीयत छुपी हुई है, और इस पूंजीनिवेश के एवज में यह आदमी आगे जाकर क्या मांगेगा?
कुछ लोगों का यह मानना है कि बिहार में चुनाव होने वाला है, और मुम्बई से रवानगी में यूपी-बिहार के मजदूर ही सबसे अधिक थे, इसलिए आने वाले चुनाव में सोनू सूद का कोई पार्टी चुनाव प्रचार में इस्तेमाल कर सकती है। पल भर के लिए बहस को यह मान भी लें कि यह चुनाव प्रचार के लिए एक नायक तैयार करने की कोशिश है, और सोनू सूद के पीछे कोई संपन्न राजनीतिक दल दसियों करोड़ खर्च कर रहा है, तो इसमें भी न तो कुछ अलोकतांत्रिक है, और न ही कुछ अभूतपूर्व। हिन्दुस्तान के चुनावी इतिहास में सैकड़ों फिल्मी सितारों को अब तक उम्मीदवार बनाया जा चुका है, और हजारों को प्रचार में इस्तेमाल किया जा चुका है। दक्षिण भारत में कई ऐसे राज्य रहे हैं जहां फिल्मी सितारे मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे, और देश में कई फिल्मी सितारे केन्द्रीय मंत्री बने, अनगिनत मंत्रिमंडलों में, संसद और विधानसभाओं में फिल्मी सितारों को जगह मिली है। ऐसे में अगर सोनू सूद के इस हैरतअंगेज सामाजिक योगदान के पीछे उनकी अपनी या किसी राजनीतिक दल की चुनावी नीयत है, तो वह रहे। ऐसी नीयत के साथ भी देश में ऐसे कितने लोग हैं जिन्होंने मुसीबतजदा लोगों की मदद करने के लिए सेहत पर खतरा उठाकर अनजानों को गले लगाया, दिन-दिन भर खड़े रहकर बसों को रवाना किया, और इन सबसे भी ऊपर ट्विटर पर आई हर अपील का जवाब दिया, हर जरूरत पर मदद का भरोसा दिलाया, और मदद के इस काम में कोई सीमा नहीं मानी।
अब हालत यह है कि ट्विटर पर ऐसा कोई दिन नहीं जाता जब लोग अपने परिवार के गंभीर बीमार के इलाज के लिए उनसे मदद न मांगें, और सोनू सूद हर मुमकिन-नामुमकिन मदद का पूरा भरोसा न दिलाएं। दो दिन पहले की ही बात है कि सोनू सूद ने खुद होकर यह लिखा है- अब है रोजगार की बारी, एक सोनू-सूद-पहल, अब इंडिया बनेगा कामयाब।
इस नई मुनादी के आगे की जानकारी अभी आना बाकी है, लेकिन अगर सोनू सूद के ट्विटर अकाऊंट पर लोगों की जरूरतों को देखें, और उनमें से हर किसी को पूरा करने की उनकी नीयत, कोशिश और उनका वायदा देखें, तो आंखें भर आती हैं, और भरोसा भी नहीं होता है कि कोई इतना भला कैसे हो सकता है, और खासकर, क्यों हो सकता है?
दसियों हजार अपीलों में से सामने-सामने की दो-चार अगर देखें, और उन पर सोनू सूद का वायदा देखें, तो यह अद्भुत लगता है, और इस दुनिया के बाहर का लगता है। अभी किसी छोटी सी गरीब बच्ची ने मुम्बई के मलाड इलाके से हाथ जोडक़र एक वीडियो बनाकर भेजा है और सोनू सूद अंकल से अपील की है कि उसके घर में बहुत ज्यादा टपकने वाले पानी को रोकने में मदद करें, उनकी कोई मदद नहीं करता है।
इस पर सोनू सूद का जवाब 9 मिनट के भीतर ही पोस्ट होता है- आज के बाद आपकी छत से कभी पानी नहीं आएगा।
एक किसी ने पोस्ट किया- आप मूवी लेकर आएं, मैं आपकी मूवी 10 लोगों को दिखाऊंगा और उनसे बोलूंगा कि वो भी यही करें। अपना अकाऊंट नंबर दें, कुछ आर्थिक सहयोग देना चाहता हूं आपके पुण्य यज्ञ में।
मिनटों के भीतर सोनू सूद का जवाब पोस्ट होता है- धन्यवाद भाई। बस उस राशि से किसी गरीब परिवार को राशन और स्कूल की फीस भर देना, समझ लेना आपका सहयोग मुझे मिल गया।
कोई अस्पताल में बिस्तर नहीं पा रहे हैं तो सोनू सूद उसका इंतजाम कर रहे हैं, एक गरीब बच्चा बुरी तरह झुलस गया है, तो सोनू सूद उसके इलाज के लिए वायदा कर रहे हैं कि यह मान लो कि इसका इलाज हो गया है। उस बच्चे का पूरा हाथ प्लास्टिक सर्जरी के लायक दिख रहा है, और धनबाद के एक गांव के बच्चे से सोनू सूद का यह वायदा है। अभी दो ही दिन पहले एक खबर आई कि किस तरह उत्तर भारत में एक गरीब किसान को अपने बच्चों की ऑनलाईन पढ़ाई के लिए स्मार्टफोन खरीदने को अपनी गाय बेचनी पड़ी। यह खबर पाते ही सोनू सूद ने खुद होकर लोगों से बार-बार अपील की कि इस आदमी की जानकारी भेजो, इसे इसकी गाय वापिस दिलाते हैं। जबकि लोगों ने इस अखबारी कतरन को मोदीजी के नाम टैग किया था, जिनकी सरकार और जिनकी पार्टी की तरफ से उस पर कोई जवाब देखने नहीं मिला। अब एक पहाड़ी गांव में गाय वापिस दिलवाने का जिम्मा भी सोनू सूद ने उठाना चाहा, खुद होकर।
अब ऐसे किस्से दसियों हजार हैं, और एक किसी ने भी कहीं यह नहीं लिखा है कि उससे किया गया वायदा पूरा नहीं हुआ। इसलिए यह मानने की ठोस वजह है कि वे लोगों के काम आ रहे हैं। अब सवाल यह उठता है कि क्या देश के सबसे संपन्न प्रदेश महाराष्ट्र की राजधानी, और देश की सबसे संपन्न महानगरी मुम्बई मजदूरों को घर भेजने से लेकर टपकती छत सुधरवाने तक के लिए एक अकेले इंसान के आसरे रहे? सोनू सूद की नीयत को 24 कैरेट खरा सोना मान लें तो भी सवाल यह है कि क्या लोकतंत्र में जो सरकारों की बुनियादी जिम्मेदारी है, उसे सरकार से परे के एक इंसान के निजी दम-खम पर इस तरह छोड़ देना ठीक है? हैरत तो तब होती है जब कुछ प्रदेशों के मंत्री-मुख्यमंत्री सार्वजनिक रूप से ट्विटर पर सोनू सूद का शुक्रिया अदा करते दिखते हैं कि उन्होंने उनके प्रदेश के मजदूरों को बस-ट्रेन या प्लेन से वापिस भिजवाया। यह शुक्रिया अदा करने की बात है, या शर्म से डूब मरने की कि जो सरकार की बुनियादी जिम्मेदारी थी उसे दूसरे के भरोसे छोड़ दिया, और खुद एक धन्यवाद देने की वेटलिफ्टिंग जैसी जिम्मेदारी उठा रहे हैं?
कोई जादूगर धरती की तमाम दिक्कतों को दूर कर दे, कोई ईश्वर पल भर में कोरोना को मार दे, गरीबी खत्म कर दे, तो क्या निर्वाचित-लोकतांत्रिक और तथाकथित जनकल्याणकारी सरकारें उसके भरोसे पर बैठना अपना पूरा काम मान लें? यह याद रखना चाहिए कि सोनू सूद का अपने इंतजाम से मजदूरों को पूरे देश वापिस भेजने का सिलसिला दो सरकारों की नाकामयाबी की वजह से जरूरी हुआ था। महाराष्ट्र की उद्धव ठाकरे सरकार अपने प्रदेश में काम करने आए मजदूरों को जिंदा रहने का इंतजाम नहीं कर पाई, और केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार ने मजदूरों की जरूरत को समझे बिना रेलगाडिय़ों को बंद कर दिया।
लोकतंत्र में कोई समाजसेवी सरकार की जिम्मेदारियों का विकल्प अगर बन रहे हैं, तो यह सरकारों की परले दर्जे की नाकामी हैं। सोनू सूद की तारीफ में कसीदे गढऩे वाली सरकारों पर धिक्कार है कि उनका काम एक अकेला इंसान कर रहा है। और यह काम बंद होते भी नहीं दिख रहा है, यह काम मजदूरों की घरवापिसी से परे विदेशों में पढ़ रहे छात्रों की देशवापिसी तक, और इलाज से लेकर छत तक फैलते जा रहा है। यह कहां तक जाएगा, यह अंदाज लगाने का कोई जरिया नहीं है, इसका अंग्रेजी की एक मशहूर कॉमिक स्ट्रिप के नाम से बखान किया जा सकता है- रिप्लेज बिलीव इट ऑर नॉट।
एक सांस में इस मुद्दे पर इससे अधिक लिखना मुमकिन नहीं है, लेकिन जिन लोगों का इंसानियत पर से भरोसा उठ गया है, उन्हें ट्विटर पर जाकर सोनू सूद का पेज देखना चाहिए जहां देश भर से दसियों हजार लोग उन्हें दुआ भेज रहे हैं, उनकी तस्वीरें और पेंटिंग बनाकर पोस्ट कर रहे हैं, और उन्हें देश का एक ऐसा नायक मान रहे हैं जो कि सरकारों और राजनीति में नहीं है। (hindi.news18.com)
-सुनील कुमार
आज सुबह-सुबह एक अखबारनवीस साथी ने फोन करके कुछ झिझकते हुए एक सलाह दी। उसे कुछ तो जानकारी थी, और कुछ काम देखकर अंदाज था कि इन दिनों मैं काम से लदा हुआ हूं। फिर भी उसका कहना था कि छत्तीसगढ़ की राजनीति को जितने समय से मैंने देखा है, उसके बारे में मुझे कुछ लिखना चाहिए क्योंकि और लोगों के साथ-साथ पत्रकारों की ही एक ऐसी पीढ़ी आ गई है, जिसने उन दिनों के किस्से भी सुने हुए नहीं है, क्योंकि मेरी अखबारनवीसी में शुरूआती दिनों में यह पीढ़ी पैदा भी नहीं हुई थी। यह सलाह सुनते ही पल भर को तो दिल बैठ गया कि क्या रोज इतना काम करने के बाद भी अब आसपास के लोग भी बूढ़ा और बुजुर्ग मानने लगे हैं कि मुझे संस्मरण लिखने की सलाह दे रहे हैं। यह काम तो जिंदगी के आखिरी दौर में किया जाता है, और जहां तक काम का सवाल है, अभी तो मैं जवान हूं।
फिर भी सदमे से उबरने में मिनट भर से अधिक नहीं लगा क्योंकि सलाह बड़ी दिलचस्प थी। न रोज लिखने की बेबसी, न कॉलम का कोई साईज तय, और न ही किसी खास मुद्दे पर सिलसिलेवार लिखना। फिर यह भी लगा कि राजनीति के साथ-साथ जुड़े हुए दूसरे मुद्दों पर भी लिखना हो जाएगा।
उस पर जब एक गैरअखबारनवीस दोस्त से सलाह ली, तो उसका कहना था कि दुश्मन बनाने का सबसे आसान तरीका संस्मरण लिखना होता है, अगर सच लिखा जाए। पर मेरे दिमाग में अपना भुगता हुआ, अपनी भागीदारी वाला संस्मरण ही लिखना नहीं है, ऐसा भी लिखना दिमाग में आ रहा है जो कि कुछ दूरी से देखा हुआ होगा। और फिर कुछ लोगों को अगर बुरा लगता है, तो उससे बचते हुए कब तक ताजा इतिहास को लिखा जा सकता है?
यह सब सोचते हुए इस कॉलम के लिए एक नाम सूझा, यादों का झरोखा, पता नहीं इससे बेहतर भी कोई और नाम हो सकता था या नहीं, लेकिन नाम में क्या रक्खा है, गूगल का क्या मतलब होता है, याहू का क्या मतलब होता है, फेसबुक में फेस से परे बहुत कुछ है, और बुक तो है ही नहीं, इसलिए नाम कुछ भी हो, उस कॉलम में लिखना कुछ अच्छा हो जाए, और अधिक दिनों तक लिखना हो सके, तो हो सकता है कि मुझे लिखना और लोगों को पढऩा सुहाने लगे।
छत्तीसगढ़ की राजनीति की छोटी-छोटी घटनाओं पर बिना किसी सिलसिले के कल से इसी वेबसाईट पर पढ़ें।
-सुनील कुमार