विष्णु नागर
अगले साल दिसंबर में सोवियत संघ के पतन और बिखराव के तीन दशक पूरे हो जाएँगे।ऐसा क्यों और कैसे हुआ, इस पर विद्वानों ने बहुत लिखा है और आगे भी लिखेंगे। विद्वत्ता मेरा क्षेत्र नहीं है, इसलिए यहाँ उस विस्तार में जाना मेरा उद्देश्य नहीं। मैं कहना चाहता हूँ कि जो भी हुआ-अच्छा या बुरा-वह तो हो चुका है मगर हम साहित्य के अनौपचारिक विद्यार्थी उसके आज तक बहुत ऋणी हैं। चूँकि सोवियत संघ खत्म हो चुका, उसके खत्म होने का दुनिया में बहुत जश्न भी मनाया जा चुका है, इसलिए उसके एकाध ऋण को भी भूल जाना अनैतिक होगा।उसने इस अर्थ में काफी बड़ा काम किया था कि हमारी अपनी हिंदी और अन्य अनेक भारतीय तथा विदेशी भाषाओं में अपने देश का महान (और विचाराधारात्मक भी)साहित्य विपुलता से उपलब्ध करवाया था।इतना बड़ा काम न पहले किसी और देश ने कभी किया था,न अब कोई कर रहा है।
सोवियत संघ ने हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में यह साहित्य बेहद सस्ते दामों पर और बहुत अच्छे कागज पर उपलब्ध करवाया था। विशेषता यह भी रही कि उसने ये अनुवाद रूसी से सीधे हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में करवाए। बीच में अंग्रेजी को यथासंभव नहीं आने दिया। यही माक्र्स-लेनिन आदि की किताबों के मामले में किया। बाल साहित्य के बारे में भी यही किया। विज्ञान आदि विषयों की पुस्तकों के साथ किया। जो पुस्तकें अंग्रेजी में भी आज तक नहीं आई हैं,उन्हें उसने हिंदी में उपलब्ध करवाया।उदाहरण के लिए मेरा बड़ा बेटा अमेजन पर रसूल हमजातोव का ‘मेरा दागिस्तान’ का अंग्रेजी संस्करण ढूँढ रहा था तो उसे नहीं मिला लेकिन हिंदी की यह लोकप्रिय किताब रही है।
हमारी पीढ़ी और उससे पहले तथा बाद की पीढिय़ाँ इस साहित्य से बहुत लाभान्वित हुई हैं। सोवियत संघ ने ये किताबें कुछ खास शहरों में ही उपलब्ध नहीं करवाई थीं, बल्कि छोटे से छोटे कस्बों में अपनी वैन से हासिल करवाईं। अपने महान साहित्य का प्रसार भी एक राजनीतिक कर्म है, इसे सोवियत नेताओं ने समझा था। यह अलग बात है कि सोवियत संघ का टिका रहना इन किताबों के प्रचार-प्रसार पर निर्भर नहीं था मगर एक राज्य न टिका मगर उसने जो साहित्य हमें उपलब्ध करवाया, वह जरूर टिकाऊ था और आज भी है। उसकी सांस्कृतिक कूटनीति के अन्य सकारात्मक पक्ष भी थे लेकिन वे यहाँ हमारे विषय नहीं। उसने प्रेमचंद आदि बडे लेखकों को रूसी में उपलब्ध करवाया,यह भी एक पक्ष है। हम लोगों की दो- चार कविताओं को भी रूसी के एक संकलन में शामिल किया गया था, आदि।
उस जमाने में तब की महंगाई के हिसाब से हिंदी की किताबें आमतौर पर महंगी थीं, हालांकि उतनी महंगी नहीं थीं, जितनी आज हो चुकी हैंं।उस जमाने में हम जैसों ने ढेर सारी सोवियत किताबें खरीदीं,जो प्रगति प्रकाशन या रादुगा से छप कर आती थीं। अपने बच्चों के लिए भी ये सस्ती और सुंदर किताबें खरीदीं।एक किताब तो मुझे भी बहुत प्रिय थी-‘पापा जब बच्चे थे’।
तोल्सतोय के महाउपन्यास ‘युद्ध और शांति’ से लेकर उनके आरंभिक उपन्यास ‘कज्जाक’ तक और ‘पुनरुत्थान’ तक उपलब्ध हुआ। ‘अन्ना केरनिन्ना’ जैसा उपन्यास न जाने क्यों इनमें नहीं था। इसके अलावा तुर्गनेव, गोगोल, पुश्किन, दास्तोयेव्स्की, गोर्की, चेखव आदि न जाने कितने महान लेखक अक्सर अच्छे अनुवादों में हासिल हुए। ‘पुनरुत्थान’ का अनुवाद तो भीष्म साहनी ने किया था। और भी अच्छे अनुवादक थे।मुनीश सक्सेना, राजीव सक्सेना, नरोत्तम नागर,मदन लाल मधु आदि।कविताओं के अनुवाद लगभग नहीं हुए या अच्छे नहीं हुए। मसलन ‘मेरा दागिस्तान’ में लेखक की कविताओं के मदनलाल मधु के अनुवाद बेढब हैं।
पत्रकार के नाते हम जैसे पत्रकारों का एक भला सोवियत संघ ने किया कि उसकी लगभग रोज विज्ञप्तियाँ हिंदी में आती थीं।कागज बढिय़ा होता था तो उसकी पीठ पर लिखना सुखकर था। सोवियत कागजों का यह उपयोग अधिक किया। बाकी कुछ लेखकों को पुरस्कार भी मिले,रूस की यात्रा का सुख भी मिला वगैरह मगर हमें जो मिला, वह भी कम न था।
चीन ने रूस के मुकाबले दस प्रतिशत भी इस मामले में नहीं किया।तथाकथित कम्युनिस्ट देश उत्तरी कोरिया अपने ‘महान’ किम उल सुंग के विचारों के प्रचार में लगा रहा,जिनकी आज किसी को परवाह नहीं। अमेरिका ने अपनी महानता और आधुनिक होने के गुण बहुत गाए। उसका साहित्य से इतना ही वास्ता रहा कि उसने आर्थर केसलर की किताब ‘द्दशस्र ह्लद्धड्डह्ल द्घड्डद्बद्यद्गस्र’ का हिंदी संस्करण शायद ‘पत्थर के देवता’ नाम से उपलब्ध करवाया था,जो शाजापुर के दिनों में किसी से लेकर पढ़ा था।बाद में कहीं नहीं दिखा।
विष्णु नागर
हमारे देश में बेचने-खरीदने वाले का धंधा कोरोना काल में भी जोरों पर है। इसमें इतना उछाल आया हुआ है कि कामधंधे भले चौपट हो गए मगर सेंसेक्स ऊपर और ऊपर और ऊपर ही चढ़ता जा रहा है। मैंने सेंसेक्स को दोस्त समझकर कहा कि ए, ताऊ, इस हालत में तो इतना ऊपर मत जा, गिरेगा तो तेरे कलपुर्जे भी नहीं मिलेंगे। उसने कहा, ‘अबे हट, बे कलमघिस्सू। तू क्या जाने हमारा खेल! तूने तो कभी एक पैसा भी शेयर बाजार में नहीं लगाया है।कायर कहीं के, बुझदिल, मुझे शिक्षा देता है! तेरी ये मजाल! तू है क्या चीज।आदमी का चोला पाकर तू मुझसे भिडऩे आया है। तू समझता है, तू मुझसे ताकतवर है? बेट्टा मेरे सामने पूरा बाजार, सारे मंत्री-प्रधानमंत्री शीश नवाते हैं जबकि तेरे ऊपर गली का खजेला कुत्ता भी भोंकने को भी तैयार नहीं होगा। जा पहले गंदे नाले के पानी में अपनी शकल धोकर आ, फिर आकर बात करना। हट जा, मेरी नजरों के सामने से वरना तेरा कत्ल कर दूँगा।
क्यों रे गधे, जब देश बेचनेवाले, देश बेच रहे हैं। बेच-बेच कर एमएलए, मंत्री और सरकारें खरीद रहे हैं, तब तू मुझसे कह रहा है, ज्यादा उछल मत। क्यों नहींं उछलूँ? तुझसे पूछ कर उछलूँगा क्या? और नीचे धड़ाम से गिरा भी तो तेरे पिता श्री का क्या जाता है बे। तू अपने काम से काम रख।
सही कहा, ताऊ तुमने। मैं क्षमा माँगता हूँ। क्षमा बडऩ को चाहिए, छोटन को उत्पात। इतना कह कर मैंने मामला शांत करना चाहा।यह सुन कर उसने कहा, अबे ये कौनसी छोटन-बडऩ भाषा बोल रहा है, हिंदी बोल, हिंदी। अंग्रेजी आती हो तो अंग्रेजी बोल।
खैर मैंने किसी तरह राम-राम करते मामला सुलझाया। संकट टलने के पंद्रह मिनट बाद दिमाग थोड़ा शांत हुआ तो सोचा, वाकई ताऊ सही कह रह था। जब बेचनेवाले बैंक बेच रहे हैं, बीमा कंपनियाँँ बेच रहे हैं, तेल कंपनियाँ, विमान सेवा, हवाई अड्डे, ओनजीसी, भारतीय रेल बेच रहे हैं। एयर इंडिया न बिके तो लोहेलंगर के भाव बेचने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे मैं भी सेंसेक्स बेचारा न उछले तो क्या सुस्त पड़ा रहे?
अरे जब एक सुपर स्टार तेल से लेकर ऐप तक सबकुछ बेच चुका और अभी भी उसका बेचने का हौसला बुलंदी पर है तो सेंसेक्स क्यों मृतप्राय: रहे? अभी वह कोरोना पॉजिटिव हो गया तो इसे भी उसने एक प्राइवेट अस्पताल का विज्ञापन करके भुना लिया। नाम और कमा लिया, नामा इसी से मिलेगा। किसी ने कभी सोचा था कि बेचने वाला स्टार अगर कोरोना पाजिटिव भी हो जाए तो घबराता नहीं, इसे भी बेच देता है! यह पक्का है कि अस्पताल से बाहर आकर, वह कोरोना से लडऩे का अपना ‘साहस’ भी ऊँची कीमत में बेचेगा।इस बीच कोरोना का टीका बन गया तो उसे भी बेचेगा। कोरोना का ब्रांड एंबेसडर वही बनेगा। प्रधानमंत्री की ‘उज्ज्वल छवि’ उसने पहले भी बेची है अब और भी जोरशोर से बेचेगा।
कहानी इन दो पर ही खत्म नहीं होती। क्रिकेट खिलाड़ी तो सरेआम बिकते हैं। फिर उनकी कैप, उनकी शर्ट, उनकी पैंट के घुटने भी बिकती है। बल्ला भी बिकता है।खेल का मैदान भी बिकता है। फिर तरह -तरह के सामान बेचना रह जाता है, तो उसे भी ये खिलाड़ी बेचने लगते हैं। ‘भारतरत्न’ पा जाएँ तो भी ईश्वर की कृपा के वशीभूत होकर ये बेचते रहते हैं।
अभी कुछ युवा कांग्रेसी नेताओं ने भाजपा को अपनी धर्मनिरपेक्षता आस्था बेच दी और सांप्रदायिकता खरीद ली। साथ में राज्यसभा की सीट भी हासिल कर ली। इतना ही नहीं, अपनों को अपने राज्य में मंत्री पद दिलवाकर, अब खुद भी केंद्र में मंत्री बनेंगे। फिर न जाने क्या-क्या खरीदेंगे-बेचेंगे। गैरभाजपाई नेता और एमएलए तो भाजपा मंडी में थोक के भाव खरीदती है। सुनते हैं कि हर विधायकी की कीमत तीस-पैंतीस करोड़ तक है। पचास करोड़ भी हो सकती है और एक राजस्थानी नेता तैयार बैठे हैं। जीवनभर में भी जितनी काली कमाई नहीं होती, वह एक झटके में हो जाती है।ईमान ही तो बेचना होता है, मतदाताओं को धोखा ही तो देना होता है। ईमान कोई कीमती चीज तो है नहीं, दस रुपये के नोट बराबर इसकी वैल्यू है। और धोखा देना तो खैर आज की राजनीतिक शैली है।
खरीदनेवाले में यह आत्मविश्वास होता है कि सबकुछ खरीदा जा सकता है। यह दुनिया एक बाजार के सिवाय कुछ नहीं है। यहाँ न्याय भी खरीदा जा सकता है, गवाह, वकील, जज भी। धर्म, ईमान, इंसानियत सब खरीदे जा सकते हैंं। उन्हें ताज्जुब होता है कि इस दुनिया में ऐसा भी कुछ होता है, जो बिकशनशील नहीं होता, जो खरीदा नहीं जा सकता! उधर जो जितनी जल्दी बिक जाता है, जितनी जल्दी ऊँची सीढिय़ाँ चढ़ जाता है, वह उतना ही ज्यादा गरीबों का हमदर्द होने की घोषणाएँ भी करता रहता है। खुद गरीबी से, पिछड़ी जाति से आने की मुनादी इतनी बुलंद आवाज में करता है कि दूसरे किसी की आवाज सुनाई नहीं देती।वह सत्ता को खरबपतियों को बेच कर आराम से 18-18 घंटे सोता है। वह सोने को ही जागना घोषित कर देता है। हाँ जब कोई अडाणी-अंबानी मोबाइल पर उसे याद करता है तो आधी रात को भी जी सर, कहते-कहते बिस्तर से उठकर खड़ा हो जाता है। जी, जी बस हो गया आपका काम।सुबह हम बेच देंगे, शाम को आप खरीद लेना। नमस्ते-नमस्ते, गुडनाइट, गुडनाइट।