सुनील कुमार

यादों का झरोखा-14 : अंग्रेजी राज में सुधीर दादा के जेल जाने की कहानी, किसी और की जुबानी...
12-Aug-2020 2:19 PM
यादों का झरोखा-14 : अंग्रेजी राज में सुधीर दादा के जेल जाने की कहानी, किसी और की जुबानी...

कल इसी जगह कॉमरेड सुधीर मुखर्जी की यादों को लिखने के बाद रात तक लोगों के संदेश आते रहे। उनमें से एक, सीपीएम के संजय पराते ने दादा के बारे में किसी और का लिखा हुआ एक लेख भेजा जो कि अंग्रेजों के खिलाफ बगावत में दादा की हिस्सेदारी बताता है। यह कोई फर्जी दावा नहीं है, बल्कि अंग्रेज पुलिस, अदालत, और जेल के रिकॉर्ड की चीजें हैं। यूं तो आज इस जगह मुझे किसी के बारे में लिखना चाहिए था, लेकिन सुधीर दादा के बारे में जिन तथ्यों को मैंने अपनी याद की शक्ल में नहीं लिखा, वे भी यहां देना बेहतर इसलिए होगा कि लोगों को मेरी लिखी बातों से परे उनके बारे में, और आजादी की लड़ाई में छत्तीसगढ़ के एक महत्वपूर्ण इतिहास के बारे में जानकारी मिलेगी। यह अनायास ही हो रहा है कि तीन दिन बाद स्वतंत्रता दिवस रहेगा, और आजादी की लड़ाई का यह पन्ना यहां देने का मौका मिल रहा है। यादों का आज का यह झरोखा मेरा देखा हुआ नहीं है, बल्कि फेसबुक पर कोसल कथा पेज पर  शुभम थवाईत ने लिखे हैं, और उन्होंने इसके साथ यह भी लिखा है- लेख के तथ्य ‘छत्तीसगढ़ गौरव गाथा’ हरि ठाकुर की किताब से लिए गए हैं। तो कुल मिलाकर आज मेरे इस कॉलम में हरि ठाकुर की यादें, शुभम की कलम से।

रायपुर षडय़ंत्र केस और परसराम सोनी। 

कहानी रायपुर के उन क्रांतिकारियों की जिनके साथ उनके अपने ने गद्दारी न की होती तो आज शहर का इतिहास कुछ और ही होता।  

कहानी शुरू करते हैं सन् 1940 के अंत से जब परसराम सोनी चार सालों के निरंतर प्रयोग से कारतूस, बम और रिवाल्वर बनाने की विधा में निपुण हो गए थे।

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परसराम सोनी घर पर ही रिवाल्वर, गोलियां व गन कटान से नाइट्रिक ग्लिसरीन बनाते। उन्होंने कई प्रकार के बम बनाना खुद ही ईजाद कर लिया था, जैसे टाइम बम, क्लोरोफॉर्म बम, आग लगाने व धुआं पैदा करने वाले बम। उन्होंने पोजीशन बम भी बनाया था, जो कितने भी समय तक एक स्थिति में रखा जाए नहीं फूटता, पर थोड़ी भी स्थिति बदली कि विस्फोट। इससे फायदा यह था कि प्रयोगकर्ता को मौके पर रहने की आवश्यकता नहीं होती थी। 

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परसराम सोनी लिखते हैं- दिक्कत या कमी सिर्फ पैसों की ही थी और यही अड़चन आगे चलकर दल के लिए घातक सिद्ध हुई। हमें आर्थिक मदद के लिए दूसरों के पास जाना पड़ता, उद्देश्य बताना पड़ता और वक्त पडऩे पर थोड़ा चमत्कार भी दिखाना पड़ता। तब कहीं मदद तो मिलती पर कौतूहलवश वह उसकी जानकारी दूसरों को भी दे देता था। इस तरह बहुतों को मालूम हो गया कि सरकार विरोधी खतरनाक गतिविधयां चल रही हंै। 

सारी गतिविधियों को चलाने वाले संगठन में निखिल भूषण सूर, सुधीर मुखर्जी, लाल समरसिंह बहादुर देव, प्रेम वासनिक, रणवीरसिंह शास्त्री, कुंजबिहारी चौबे, दशरथलाल चौबे शामिल थे। संगठन की शक्ति बढ़ाने और परिचय बढ़ाने में यह सावधानी बरती गई कि अन्य साथियों का नाम, पता हर एक को मालूम न हो सके, ताकि गिरफ्तारी हो जाए तो दूसरों का नाम-पता पुलिस तक न पहुंचे। 

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सरकार को भी इस संगठन का आभास हो चुका था। उन्होंने सन् 1941 के आरंभ में सेंट्रल इंटेलिजेंस का एक अधिकारी भेजा, पर वह असफल रहा और एक अंदाज़ी रिपोर्ट देकर चला गया। फिर 1942 के अंत में सेंट्रल ने एक मशहूर खुफिया अधिकारी नरेंद्र सिन्हा को भेजा, छ: महीने तक उसने तमाम कोशिशें कीं, उसे भी कुछ न मिला। पर बचपन का दोस्त गद्दार निकला सरकार के सामने वह बिक गया, परसराम एक धोखे का शिकार हुए वो भी उनके दोस्त शिवनन्दन से। 

शिवनन्दन, परसराम के बचपन का दोस्त जिस पर उन्हें थोड़ा भी संदेह नहीं था। शिवनन्दन कुछ चांदी के टुकड़ों या पेटपालू नौकरी के लिए विश्वासघात कर बैठा। परसराम से एक ही और अंतिम गलती हुई कि उन्होंने शिवनन्दन को 14 जुलाई (1942) की रात जाहिर कर दिया था कि मैं छ: फायर का एक रिवाल्वर कल गिरिलाल से लेने वाला हूं। और यह बात शिवनन्दन ने पुलिस तक पहुंचा दी। 

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दिन था 15 जुलाई, परसराम सुबह के भोजन की तैयारी में थे तभी शिव आ गया। भोजन छोड़ परसराम शिव के साथ सायकल से गिरिलाल के घर निकल पड़े। गिरिलाल, प्रभुलाल पतिराम बीड़ी वाले के बाड़े में किराए से रहते थे, परसराम ने उनसे एक रिवाल्वर और तीन कारतूस लिए और वापस हुए। लौटते वक्त एडवर्ड रोड और लखेर ओली तिगड्डे पर साइकल रोककर शिवनन्दन एडवर्ड रोड से ही चलने को कहने लगा, मानो जि़द करने लगा। 

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सदर वाली सडक़ पर ताराचंद कांतिलाल सराफ के दुकान में नरेन्द्र सिन्हा और उसके सहायक समीदा, सिटी इंस्पेक्टर व अंग्रेज़ डीएसपी छुपकर परसराम का इंतजार कर रहे थे। शिव ने मोड़ पर घंटी बजाई, वैसे ही दोनों ओर से पुलिस परसराम पर टूट पड़ी। तलाशी हुई और पुलिस को उनसे रिवाल्वर मिला, गोलियां उन्होंने चालाकी से पास की नाली में फेंक दी थी। 

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अपनी गिरफ्तारी से परसराम चौंक गए, इतनी सावधानी के बाद भी पकड़ में आ जाना उन्हें स्वीकार नहीं हो रहा था। शिवनन्दन पर उन्हें संदेह हुआ, इस बात की पुष्टि के लिए हवालात में उन्होंने शिवनन्दन के कानों में यह बता दिया कि गोली कहां फेंकी है। फिर हुआ ये कि थोड़ी ही देर में सदर बाज़ार की नालियों से तीन गोलियां बरामद कर ली गईं और परसराम की संदेह की पुष्टि हो गई।

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शिवनन्दन की सूचना पर परसराम सोनी के घर की तलाशी हुई, बैटरी बनाने के पाउडर को बारूद समझ पुलिस उसे ले गई और उनके हाथ कुछ न लगा क्योंकि संगठन के नियमानुसार पिछली ही रात सारा सामान होरीलालजी के यहां रखवा दिया गया था। जिसे परसराम की गिरफ्तारी के बाद होरीलाल ने भी कहीं और ठिकाने लगा दिया। पुलिस की तलाशी असफल रही उन्हें केवल कुछ पत्र बरामद हुए जिससे कुछ साथियों के पते पुलिस को मालूम हुए। शिवनन्दन पुलिस का गवाह बन गया, गिरिलाल को भी पुलिस ने पकड़ लिया साथ में डॉ. सूर, मंगल मिस्त्र, कुंजबिहारी चौबे, दशरथलाल चौबे, सुधीर मुखर्जी, देवीकान्त झा, होरीलाल, सुरेन्द्र दास, क्रान्तिकुमार भारतीय, कृष्णराव थिटे, सीताराम मिस्त्री, भूपेंद्रनाथ मुखर्जी, व प्रेम वासनिक भी गिरफ्तार किए गए और दूसरे दिन एडीएम की अदालत में पेश किये गए। 

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नौ माह तक मुकदमा चला, आईपीसी की धारा 120ब, 302, 395, 19 अ,ब,स,ड,फ, आर्म्स एक्ट तथा एक्सप्लोसिव सबस्टेन्स की धारा, 5 डिफेंस ऑफ इंडिया रूल्स की धारा 34 एनपी, 35 तथा 38 के अंतर्गत मुकदमा चलाया गया। यह मुकदमा एडीएम केरावाला की अदालत में चला, अभियुक्तों की ओर से एम.भादुड़ी, पी. भादुड़ी, चाँदोरकर, पेंढारकर, अहमद अली, बेनीप्रसाद तिवारी और चुन्नीलाल अग्रवाल ने पैरवी की। वहीं सरकार को कोई वकील ही नहीं मिला, तब बाहर से वकील लाकर सरकार ने मुकदमा लड़ा। मुकदमे में छ: विशेषज्ञों के बयान लिये गए, कुल 171 गवाह और 130 डॉक्यूमेंट पुलिस ने पेश किए। 

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27.04.1943 को अदालती नाटक खत्म हुआ, अंग्रेजों के सबूत कितने ही कमजोर क्यों न हों सज़ा ज़रूर कड़ी दी जाती थी। बेनिफिट ऑफ डाउट अभियुक्त को नहीं पुलिस को मिलता था, ब्रिटिश न्याय के अनुसार गिरिलाल को 8 वर्ष, परसराम को 6 वर्ष, भूपेंद्र मुखर्जी को 3 वर्ष, क्रान्तिकुमार और सुधीर मुखर्जी को 2-2 वर्ष, दशरथलाल चौबे, देवीकान्त झा, सुरेन्द्रनाथ दास प्रत्येक को 1-1 वर्ष, मंगल मिस्त्री को 9 माह तथा कृष्णाराव थिटे को छ: माह की सज़ा सुनाई गई। सूर भाइयों और कुंजबिहारी चौबे पर आरोप सिद्ध नहीं हो सके, पर डॉ. सूर को डीआईआर के तहत जेल में ही रखा गया।

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नागपुर हाईकोर्ट में अपील करने पर जस्टिस नियोगी ने भूपेन्द्र मुखर्जी, सुधीर मुखर्जी, थिटे और देवीकान्त को आरोप मुक्त कर दिया। वहीं परसराम ने अपील करने से इंकार कर दिया। 

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मई 1946, जयदेव कपूर का रायपुर आगमन हुआ। ये वही थे जिन्होंने भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के लिए असेंबली में बम फेंकने हेतु बमों का प्रबंध किया। गांधी चौक की आम सभा में उन्होंने परसराम को रिहा करने की मांग रखी। मुख्यमंत्री पं. रवि शंकर शुक्ल से नागपुर जाकर क्रान्तिकुमार और सुधीर मुखर्जी ने गिरिलाल और परसराम के रिहाई के लिए अपील की और 26 जून 1946 को दोनों जेल से मुक्त हुए। 

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इस तरह रायपुर में बढ़ रही एक क्रांति का अंत शिवनन्दन की गद्दारी से हुआ, नहीं तो इस शहर का इतिहास कुछ और ही लिखा जाता। 

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-सुनील कुमार

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