सुनील कुमार

यादों का झरोखा-13 : राज्य का ऐसा कम्युनिस्ट नेता, जैसा न पहले हुआ, न बाद में
11-Aug-2020 8:35 PM
यादों का झरोखा-13 : राज्य का ऐसा कम्युनिस्ट नेता, जैसा न पहले हुआ, न बाद में

छत्तीसगढ़ की जिस पीढ़ी ने कॉमरेड सुधीर मुखर्जी को देखा नहीं है, उसके लिए ऐसे किसी नेता की कल्पना कुछ मुश्किल होगी जो घर से निकले रिक्शेवालों में खींचतान हो जाए कि दादा को आज कौन ले जाएगा। और इससे बड़ी बात यह कि रिक्शेवाले उनसे दिन भर भी घूमने का पैसा नहीं लेते थे, लेकिन दादा आखिर में जाकर उन्हें 25 रूपए देते थे जो कि उस समय के हिसाब से छोटी रकम नहीं होती थी।  

सीपीआई के नेता रहे सुधीर मुखर्जी का पूरा काम रायपुर शहर में रहकर हुआ, लेकिन वे पूरे छत्तीसगढ़ और पूरे देश के मामलों पर नजर रखते थे, जमकर बोलते थे, और टाईप किए हुए बयान लेकर कई बार अखबारों के दफ्तर में खुद भी चले जाते थे। 

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मैंने जब अखबारनवीसी शुरू की, तो वे दिन सुधीर दादा की ऊंचाईयों के दिन थे। वर्ष 1972 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और सीपीआई के बीच एक तालमेल के तहत एक सीट कांग्रेस पार्टी के लिए छोड़ी गई थी, और जाहिर तौर पर पार्टी के सबसे बड़े नेता होने के नाते सुधीर मुखर्जी उम्मीदवार बने थे, और विधायक बने थे। लेकिन सुधीर मुखर्जी का कद विधायक बनकर बढ़ गया हो ऐसा नहीं है, वे रायपुर शहर, और पूरे छत्तीसगढ़-एमपी के वामपंथियों के बीच दादा के नाम से जाने जाते थे, उसमें विधायक के ओहदे से कुछ जुड़ा नहीं। 

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सुधीर मुखर्जी आजादी की लड़ाई में रायपुर जेल में बंद रहे, लेकिन उन्होंने कभी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की पेंशन नहीं ली। विधायक का कार्यकाल पूरा होने के बाद जो पेंशन मिलती थी, वह उन्होंने जरूर ली, और अपनी पार्टी, सीपीआई, के नियमों के तहत उसे पार्टी में जमा करके वहां से जो भत्ता मिलता था, उससे वे काम चलाते थे। शुक्ल बंधुओं के साथ सुधीर मुखर्जी का बड़ा अजीब सा रिश्ता रहा। बूढ़ापारा में जहां रविशंकर शुक्ल का घर था, और जहां श्यामाचरण, विद्याचरण पैदा हुए, उस घर से सौ कदम पर ही सुधीर मुखर्जी रहते थे। शादी की नहीं, मजदूरों के बीच रात-दिन काम किया, तो परिवार के और लोगों के साथ ही रहते चले आए। नागपुर के साईंस कॉलेज में पढ़ते हुए सुधीर मुखर्जी श्यामाचरण के सहपाठी थे, और वहां कॉलेज या यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ चुनाव में श्यामाचरण को एक बार आगे चलकर बड़े कम्युनिस्ट नेता बने कॉमरेड ए बी वर्धन ने हराया, तो दूसरे बरस सुधीर मुखर्जी ने। 

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आजादी की लड़ाई के दौरान जेल काटने के बाद जब दादा बाहर निकले, तो उन्होंने रिक्शा-तांगा यूनियन बनाई, और सफाई कर्मचारी संघ बनाया। ये दोनों मजबूत संगठन थे, और हक की लड़ाई के लिए दादा की अगुवाई में आंदोलन करते थे, मांगें भी पूरी करवाते थे। 

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उनको जानने वाले लोग बताते हैं कि जब भारत में कम्युनिस्ट पार्टी का विभाजन हुआ तो सुधीर मुखर्जी शुरू से ही सीपीएम में जाना चाहते थे, लेकिन उनके सहपाठी कॉमरेड वर्धन सीपीआई में गए, और छत्तीसगढ़ के अधिकतर कम्युनिस्ट सीपीआई के साथ रहे, इसलिए मन मारकर सुधीर मुखर्जी सीपीआई में गए। यह एक अलग बात है कि सीपीआई के भीतर जब इमरजेंसी पर चर्चा होती थी, तो उसमें सुधीर मुखर्जी आपातकाल-विरोधी खेमे में थे। लेकिन वे पार्टी के अनुशासन में बंधे रहते थे, इसलिए उन्होंने घर के बाहर इस बारे में कुछ नहीं कहा। 

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सुधीर मुखर्जी से मेरा परिचय अखबार की नौकरी शुरू होने के बाद जल्द ही हो गया था क्योंकि अखबार में उनका आना-जाना रहता था। वे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर आए दिन बयान देते थे, और सडक़ों पर कभी जुलूस, कभी धरना, कभी कर्मचारी या मजदूर आंदोलन चलते ही रहता था। उनका सभी पार्टियों के बीच भारी सम्मान था, और उनके दिल में जनसंघ और आरएसएस के लिए परले दर्जे की नफरत रहती थी, जिसे उजागर करने में वे कभी पीछे नहीं रहते थे। 

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उन दिनों प्रेस क्लब में कई बार एक-एक दिन में बहुत सी प्रेस कांफ्रेंस होती थीं, और अखबारों के अलग-अलग रिपोर्टर अलग-अलग प्रेस कांफ्रेंस भी अटेंड कर लेते थे ताकि निकलकर लिखने में एक पर पूरा बोझ न आए। उस दिन सुंदरलाल पटवा की प्रेस कांफ्रेंस थी जिसमें मैं गया था, और उसके ठीक पहले सुधीर मुखर्जी की प्रेस कांफ्रेंस थी जिसमें कोई और रिपोर्टर गए हुए थे। दादा बाहर निकल रहे थे, और मैं अगली प्रेस कांफ्रेंस के लिए भीतर जा रहा था। उन्होंने मुझे देखा कि जमकर गालियां देने लगे- इस रास्कल, रिएक्शनरी की प्रेस कांफ्र्रेंस के लिए तुम्हारे पास समय है, और मेरी प्रेस कांफ्रेंस के लिए समय नहीं है? 

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लेकिन मीडिया में भी सुधीर दादा की बात का बुरा मानने का कोई रिवाज नहीं था, क्योंकि किसी भी पार्टी में उन दिनों उतना संघर्ष करने वाला, उतना ईमानदार, गरीबों की उतनी फिक्र करने वाला और कोई नेता तो था नहीं। इसलिए वे अगर किसी अखबार वाले को भी गालियां देते थे, तो लोग उसे हॅंसकर सुन लेते थे। 

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भाई-बहनों में से किसी के साथ रहते हुए, गैरशादीशुदा सुधीर मुखर्जी अपने कपड़ों के बारे में भी बेफिक्र रहते थे। बिना कलफ की धोती, बिना कलफ का कुर्ता, जिस पर पिछले दो-तीन दिनों के खाने के दाग भी अगर रहें, तो भी कोई हैरानी नहीं होती थी। 

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वे पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के हिमायती थे, और उसके लिए आंदोलन करने वाले लोगों में से थे। लेकिन जिंदगी के आखिरी दौर में, मौत के साल भर के भीतर ही उन्होंने सीपीआई छोडक़र सीपीएम की सदस्यता ले ली थी। जो लोग इन दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों के अंतर्विरोध नहीं जानते उन्हें तो ही हैरानी होगी कि बित्ते भर के वामपंथ ने क्या दलबदल और क्या विभाजन? लेकिन छोटे-छोटे बारीक सिद्धांतों को लेकर इन दोनों पार्टियों में बड़ा मतभेद रहता है। मौत के एक बरस से भी कम पहले सुधीर मुखर्जी सीपीएम चले गए थे। उस वक्त के सीपीएम के राष्ट्रीय महासचिव हरिकिशन सिंह सुरजीत ने उन्हें भोपाल में बुलाया था और कहा था कि अब समाजवादी पार्टी के यमुना प्रसाद शास्त्री सीपीएम में आ गए हैं, वे भी आ जाएं। 

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दादा के साथ दिक्कत यह थी कि वे पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के लिए आंदोलन करने वाले लोगों में से थे, और सीपीएम छोटे राज्य बनाने के खिलाफ था जिसके तहत वह छत्तीसगढ़ बनाने के भी खिलाफ था। लेकिन जैसा कि सुधीर मुखर्जी ने सीपीआई में रहने की वजह से इमरजेंसी के खिलाफ कुछ नहीं कहा था, और पार्टी के रूप में कांग्रेस का साथ दिया था, उसी तरह जब वे सीपीएम में गए तो उन्होंने घोषित रूप से पृथक छत्तीसगढ़ आंदोलन से नाता तोड़ लिया, और यह घोषणा की कि अब वे जिस पार्टी में हैं उसकी नीति छोटे राज्यों के खिलाफ है। यह दलबदल करते हुए सुधीर मुखर्जी ने एक लंबा खुला खत भी लिखा था जिसमें उन्होंने उस वक्त सीपीएम को देश के लिए बेहतर कार्यक्रमों वाली और अधिक उपयुक्त पार्टी बताया था। 

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सुधीर मुखर्जी की पूरी जिंदगी सीपीआई के लोगों से घिरी थी, और छत्तीसगढ़ में सीपीआई के लोगों ने उनकी इस दगाबाजी को बहुत गंभीरता से लिया। क्योंकि अब आखिरी वक्त में क्या खाक मुसलमां होंगे, वाली बात तो गलत साबित करते हुए दादा आखिरी उम्र में ही अपनी जिंदगी भर की पार्टी को छोडक़र सीपीएम में चले गए थे। नतीजा यह हुआ था कि छत्तीसगढ़ में इन दोनों पार्टियों के बीच बहुत मनमुटाव हो गया था, और राष्ट्रीय स्तर पर भी वामपंथी पार्टियों का कोई मिलाजुला कार्यक्रम होता था, तो उसमें भी छत्तीसगढ़ में सीपीआई अलग रह जाती थी कि सुधीर मुखर्जी वाली सीपीएम में नहीं जाना है। 

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कम्युनिस्ट पार्टियों का हाल यह रहता है कि बाहर के वर्ग शत्रु से लडऩे के पहले वे आपस में खूब लड़ लेते हैं। दही और मठा में ल_मल_ा होते रहता है, और दूर बैठे दूध और पनीर हॅंसते रहते हैं। कुछ लोग मजाक में वामपंथियों को यह भी कहते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियों को मिलकर एक हो जाना चाहिए वरना किसी कॉमरेड के गुजरने पर कंधे कम पड़ सकते हैं। सुधीर मुखर्जी के साथ यही हुआ कि उनके गुजरने पर उन्हें सीपीआई की जगह सीपीएम का झंडा नसीब हुआ, और सीपीआई के लिए तो वे दलबदल के दिन ही गुजर चुके थे। उनके अंतिम संस्कार में भी सीपीआई के कुछ साथी आए, और कुछ नहीं आए।  

खैर, कुछ लोगों की याद मजबूत है, और उन्होंने बताया कि 1980 के लोकसभा चुनाव में सुधीर दादा जांजगीर लोकसभा सीट से सीपीआई उम्मीदवार होकर चुनाव लड़े थे, और उन्हें बड़ी उम्मीद थी कि मजदूरों वाले इस इलाके में उनकी संभावनाएं अच्छी हैं। लेकिन जिस तरह केयूरभूषण को रायपुर लोकसभा सीट पर निर्दलीय लडऩे पर 606 वोट मिले थे, उसी तरह सुधीर दादा को दो-चार हजार वोट ही जांजगीर लोकसभा में मिल पाए थे। 

सीपीएम जाने के बाद सुधीर मुखर्जी ने छत्तीसगढ़ के पार्टी के किसान संगठन का विस्तार किया। उन्होंने पहले ही यह साफ कर दिया था कि वे सीपीआई से अपने पुराने साथियों का दलबदल नहीं करवाएंगे, लेकिन उनके जाने के बाद कई लोग सीपीएम में चले भी गए। 

सीपीआई में रहते हुए सुधीर मुखर्जी का कुछ लोगों से टकराव ठीक उसी तरह चलते रहा जैसा कि किसी भी जिंदा संगठन में चल सकता है, और चलना चाहिए। अपनी पार्टी के एक बड़े मजदूर नेता के परिवार की शादी में हजार-दो हजार लोगों की भीड़ को देखकर पार्टी के कार्यकर्ताओं ने यह सवाल उठाया कि एक पूर्णकालिक पार्टी कार्यकर्ता कहां से यह सब इंतजाम कर पाया? सुधीर मुखर्जी अपने ही पुराने मजदूर-संगठनों के नेताओं से ऐसी बातों को लेकर टकराहट झेलते थे। ऐसे में संगठन के भीतर उन पर भी जवाबी हमले होते थे। और कुछ लोगों को याद है कि पार्टी की बैठक में इशारों में यह बात भी होती थी कि सुधीर मुखर्जी लडक़ों को इतना करीब क्यों रखते हैं? इस बारे में उस वक्त एक लतीफा भी चलता था कि कम्युनिस्ट बनने के शौकीन नौजवान लडक़े पार्टी में जाते थे, लेकिन फिर सुधीर मुखर्जी उन्हें बयान तैयार करने के लिए बुला लेते थे, और वहां से निकले हुए लडक़े ठीक सामने के सप्रे स्कूल में चलने वाली आरएसएस की शाखा में चले जाते थे। यह विवाद उनके सम्मान के आगे दब जाता था, और पार्टी के भीतर उनके कुछ विरोधियों की चर्चा, और मीडिया में मजाक का सामान बनकर खत्म भी हो जाता था। 

सुधीर मुखर्जी ईमानदार राजनीति, सैद्धांतिक राजनीति, कारोबारियों और कारखानेदारों से लड़ाई की राजनीति, मजदूरों के हक के आंदोलन की राजनीति करते हुए जिए, और वैसे ही खत्म हो गए। वे एक बेमिसाल इंसान थे जिन्होंने पूरी जिंदगी में शायद साख और तसल्ली के सिवाय कुछ नहीं कमाया, ईमानदारी और सिद्धांतवादी होने की साख, और अपनी जिंदगी के पल-पल का समाज के लिए इस्तेमाल करने की तसल्ली। आज दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों में मिलाकर भी वैसा कोई दूसरा व्यक्तित्व बचा नहीं है। दूसरी बात यह भी हो गई है कि अब राजनीति में कटुता इतनी हो गई है कि कांग्रेस या भाजपा के साथ कम्युनिस्टों की किसी तरह की सार्वजनिक बातचीत भी मुमकिन नहीं है। सुधीर मुखर्जी जैसा कोई सर्वमान्य नेता भी अब नहीं रहा, और उनकी यादें ही बची रह गई हैं। आगे किसी और मौके पर उनके बारे में अगली किसी किस्त में कुछ और। 
-सुनील कुमार

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