दयाशंकर मिश्र

स्नेहलेप!
12-Oct-2020 2:36 PM
स्नेहलेप!

छोटी-छोटी बात पर हम रिश्ते खत्म करने लगें, तो कोई रिश्ता बाकी ही न रहेगा। सहना, असल में प्रेम का ही पर्यायवाची है। सहना, मनमुटाव से कहीं अधिक प्रेम के निकट है। महाभारत इसकी सरल व्याख्या है!


डॉ. राही मासूम रजा ने महाभारत के संवाद लिखते समय बेहद खूबरसूरत, एक से बढक़र एक शब्दों का उपयोग किया। इन्हीं में से एक कौरव-पांडवों के बीच निर्णायक युद्ध के समय का है। कर्ण के सामने सहदेव हैं। जाहिर है, मुकाबला बराबरी का नहीं है। अपने वचन से बंधे कर्ण, सहदेव को घायल करके आगे बढ़ जाते हैं। जाते हुए वह सहदेव से इतना ही कहते हैं, शिविर में जाकर स्नेहलेप लगाओ, युद्ध अपनी बराबरी वालों से किया जाता है। कितना सुंदर शब्द है, स्नेहलेप! सहदेव को स्नेहलेप की उस समय जितनी जरूरत रही होगी, उससे कहीं अधिक जरूरत इस समय हमारे समाज को है। हम सब एक-दूसरे के लिए बहुत अधिक कठोर होते जा रहे हैं।

हम भूल रहे हैं कि प्रेम ही सर्वोत्तम मार्ग है। हमें एक-दूसरे को सहन, बर्दाश्त करना सीखना होगा। सहनशीलता कमजोरी नहीं, जीवनशैली है। प्रेम को संभालने की कला ही हमें स्नेहन की ओर ले जाएगी। कटु स्मृति, वचन और अपमान स्नेहलेप की प्रतीक्षा में हैं।

एक-दूसरे को बर्दाश्त करने, सहन करने का अर्थ यह नहीं कि हम किसी के अत्याचार को सहन करने की बात कर रहे हैं। परस्पर सहने, बर्दाश्त करने के मायने हुए कि हम गुणों के बीच जितना एक-दूजे की कमजोरी का ख्याल कर जाएं, उस समय जबकि गुस्सा सातवें आसमान पर होता है। मेरे अपने जीवन में मुझसे उम्र में कहीं बड़े एक व्यक्ति हुए जिनसे गहरा प्रेम तो था, लेकिन अनेक विषयों पर भारी असहमति थी।

असहमति के बीच भी हमने एक-दूसरे को बर्दाश्त करना नहीं छोड़ा। अंतत: असहमति गल गई। केवल प्रेम बाकी रहा। छोटी-छोटी बात पर हम रिश्ते खत्म करने लगें, तो कोई रिश्ता बाकी ही न रहेगा। सहना, असल में प्रेम का ही पर्यायवाची है। सहना, मनमुटाव से कहीं अधिक प्रेम के निकट है। महाभारत इसकी सरल व्याख्या है!

इसलिए, हमें समझना होगा कि जिंदगी उतनी बड़ी नहीं, जितनी हम माने बैठे हैं। एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते, मान-अपमान करते, सहते हम कई बार भूल जाते हैं कि जीवन बहुत लंबी यात्रा नहीं। यह तो प्री-पेड सिम कार्ड की तरह है। इधर, टॉकटाइम खत्म उधर संवाद समाप्त। जीवन कोमल, क्षमायुक्त होना चाहिए। एक-दूसरे को बर्दाश्त करने की क्षमता हम जितनी जल्दी विकसित कर लें, उतना ही सुंदर, सुगंधित हमारा जीवन होगा।

एक छोटा किस्सा आपसे कहता हूं। मुंबई से ‘जीवन संवाद’ के पाठक आयुष्मान त्रिपाठी अपने भाई को किसी अप्रिय घटना के लिए क्षमा करने को राजी न थे। मन में गांठ पुरानी हो चली थी। वह उनका जिक्र आते ही असहज हो जाते थे। कई बरस बीते, सब चाहते कि भाइयों में संवाद कायम हो। सब कोशिश में लगे थे। इस बीच, एक कोशिश मैंने भी की। आयुष्मान से कहा कि अगर तुम्हारे भैया कल किसी वजह से न रहें, तब भी यही नाराजगी कायम रहेगी।

वह विचलित, नाराज होकर बोले- अरे! आप ऐसा कैसे कह सकते हैं। वह मेरे बड़े भाई हैं। मैंने कहा, बस यही तो आप भूल गए! यह भाई का प्यार जो भीतर है, उसे थोड़ा बाहर लाइए। प्रेम को इतना संकुचित मत कीजिए कि वह जीवित के लिए समाप्त हो जाए। केवल किसी के न रहने पर प्रकट हो।

हम अक्सर देखते हैं कि किसी सगे-संबंधी, मित्र को हम बीमारी की हालत में देखने नहीं पहुंच पाते, लेकिन अगर किसी कारण से वह न रहें, तो तुरंत सब काम छोडक़र उनकी ओर दौड़ते हैं। मेरा सुझाव है कि हमें इस दिशा में बदलाव की जरूरत है। हमें जीवित को कहीं अधिक महत्व देने की जरूरत है। हम अभी भी अपने रिवाजों का अधिक ख्याल रखते हैं, बजाय व्यक्तियों के। मैं रिवाज की जगह जीवत से प्यार, स्नेह और उसकी पीड़ा पर स्नेहलेप करने को महत्व देने का निवेदन कर रहा हूं! (hindi.news18)

-दयाशंकर मिश्र

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