दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत में एक ताल वाद्य है मृदगम, जिसे मृदंग भी कहा जाता है। यह वाद्य लकड़ी के षट्कोणाकार बेलन जैसा बना होता है। बेलन के दोनों सिरों पर चमड़े की गोल और आड़ी पट्टिïयां और रस्सियां होती हैं। चमड़े की आड़ी रस्सियों में लकड़ी के टुकड़े फंसाकर सिरों पर मढ़े हुए चमड़े में वांछित तनाव पैदा किया जाता है।
मृृदंग के प्रत्येक मुख पर लेई का लेप लगाकर निश्चित सुर नीचे मिलाया जाता है। दाहिने सिरे पर सियाही का लेप किया जाता है। मृदंग को गले में लटकाकर या गोद में रखकर उसके दोनों सिरों पर हथेली और अंगुलियों का प्रहार कर बजाया जाता है। कर्नाटक संगीत में यद्यपि इसे संगत के ताल वाद्य के रूप में बजाया जाता है। इसी से मिलता-जुलता वाद्य पखावज उत्तरी भारत में बजाया जाता है।
हीलियम थ्री, चांद की सतह पर मिलता है इससे काफी ऊर्जा प्राप्त की जा सकती है। इसे भविष्य के ईंधन के रूप में देखा जा रहा है। वर्ष 1972 के अमरीकी अपोलो 17 मिशन के जरिए चांद पर चलने वाले एकमात्र भूगर्भशास्त्री डॉक्टर हैरिशन श्मिड का कहना है कि चांद से हीलियम थ्री लाकर ऊर्जा निकाली जा सकती है। ब्रिटेन के कल्हम साइंस सेंटर के डॉक्टर डेविड वार्ड के अनुसार हीलियम थ्री से न्यूक्लियर फ्यूजन के जरिए बड़ी ऊर्जा निकाली जा सकती है। इसके लिए बड़ी मशीनरी जरूरत होती है। इसमें एक समय में एक ग्राम के सांैंवे हिस्से के बराबर ईंधन डाला जा सकता है। इस ईंधन का एक किलो उतनी ऊर्जा देता है, जितना पेट्रोलियम का 10 हजार टन देता है। इससे प्रदूषण भी कम होगा ।
यानी हीलिमय थ्री को ऊर्जा के बेहतर विकल्प के रूप में देखा जा रहा है। हीलियम थ्री केवल चांद पर ही मिलता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि चांद पर इतना हीलियम थ्री है कि उससे सैकड़ों वर्षों तक पृथ्वी की ऊर्जा पूरी की जा सकती है। इसके लिए सबसे पहले रॉकेट के माध्यम से चांद पर जाकर हीलियम थ्री धरती पर लाना होगा। हीलियम ्रथ्री को सोने से भी महंगा बताया जा रहा है। इसलिए इसे धरती पर लाना आर्थिक रूप से सही साबित होगा।
जानकार लोगों का कहना है कि भविष्य में इस बात को लेकर देशों में लड़ाई हो सकती है कि चांद का फलां हिस्सा उनका है, फलां नहीं । आज तेल को लेकर विभिन्न देशों में लड़ाई होती रहती है। भविष्य में यही स्थिति हीलिम थ्री को लेकर होने वाली है।
अमरीकी के बाद भारत और चीन ने चांद पर अपने यान भेजने की घोषणा की है। भारत 2012 में चंद्रयान भेजना चाहता है और 2020 के आस-पास चांद पर पहले भारतीय को। हीलियम थ्री के कारण ही आज हर देश चांद पर जाने के लिए उतावला हो रहा है। यह काफी खर्चीली प्रक्रिया होगी, क्योंकि चांद पर एक मिनट रहने का खर्च लगभग पांच करोड़ रुपए है।
राजस्थानी भाषाएं
राजस्थानी भाषाएं भारतीय-आर्य भाषाओं तथा बोलियों का समूह, जो भारत के राजस्थान राज्य में बोली जाती हैं। इसके चार प्रमुख वर्ग हैं: पूर्वोतर मेवाती, दक्षिणी मालवी, पश्चिमी मारवाड़ी, और पूर्वी-मध्य जयपुरी। इसमें से मारवाड़ी भौगोलिक दृष्टिï से सबसे व्यापक है। र
ाजस्थान पूर्व के हिंदी क्षेत्रों तथा दक्षिण-पश्चिम में गुजराती क्षेत्रों के बीच स्थित संक्रमण क्षेत्र है। राजस्थानी भाषाओं को भारत के संविधान में सरकार भाषा के रुप में मान्यता प्राप्त नहीं है। इसके स्थान पर हिंदी का उपयोग सरकारी भाषा के रूप में होता है।
प्रिंस ऑफ वेल्स संग्रहालय , मुंबई में स्थित है। यह वर्ष 1905 में आरंभ किया गया था। यह भारतीय - सीरियाई (मुस्लिम) शैली में निर्मित एक गुंबद वाले भवन में स्थापित किया गया है।
इस संग्रहालय में तिब्बती कला, चीनी मृत्तिका कला और मुगल तथा राजपूत चित्रकला के दर्शन होते हैं। संग्रहालय की जहांगीर कला दीर्घा को 1952 में पूरा किया गया। यह दीर्घा मुंबई की सर्वाधिक उत्कृष्टï कला दीर्घाओं में से एक है। यहां के आभूषण और कांच के संग्रह देखने लायक हैं। संग्रलायह का प्राकृतिक इतिहास खंड बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के
हाइड्रो इलैक्ट्रिक
पानी की सहायता से उत्पन्न विद्युत, जल विद्युत यानी हाइड्रो इलैक्ट्रिक कहलाती है। तेज पानी के बहाव के कारण जेनरेटर में लगे आर्मेचर घूमने लगते हैं और बिजली उत्पादन शुरू हो जाता है। इस प्रकार जल की स्थिरीज और गतिज ऊर्जा द्वारा जल टरबाइन के माध्यम से जो बिजली उत्पन्न होती है, उसे जल विद्युत कहते हैं।
क्षुद्र ग्रह सौर मंडल बन जाने के बाद बचे हुए पदार्थ हंै। एक दूसरी कल्पना के अनुसार ये मंगल और गुरु के बीच में किसी समय रहे प्राचीन ग्रह के अवशेष हैं जो किसी कारण से टुकड़े-टुकड़े में बंट गया। इस कल्पना का एक कारण यह भी है कि मंगल और गुरू के बीच का अंतराल सामान्य से ज्यादा है। दूसरा कारण यह है कि सूर्य के ग्रह अपनी दूरी के अनुसार द्रव्यमान में बढ़ते हुए और गुरु के बाद घटते क्रम में है। इस तरह से मंगल और गुरु के मध्य मे गुरु से छोटा, लेकिन मंगल से बड़ा एक ग्रह होना चाहिए, लेकिन इस प्राचीन ग्रह की कल्पना सिर्फ एक कल्पना ही लगती है क्योंकि यदि सभी क्षुद्र ग्रहों को एक साथ मिला भी लिया जाए तब भी इनसे बना संयुक्त ग्रह 1500 किमी से कम व्यास का होगा जो कि हमारे चन्द्रमा के आधे से भी कम है।
क्षुद्रग्रहों के बारे में हमारी जानकारी उल्कापात मे बचे हुए अवशेषों से है। जो क्षुद्रग्रह पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से पृथ्वी के वातावरण मे आकर पृथ्वी से टकरा जाते है उन्हे उल्का कहा जाता है। अधिकतर उल्काएं वातावरण में ही जल जाती हं,ै लेकिन कुछ उल्काएं पृथ्वी से टकरा भी जाती हैं। इन उल्काओं का 92 प्रतिशत भाग सिलीकेट का और 5 प्रतिशत भाग लोहे और निकेल का बना हुआ होता है। उल्का अवशेषों को पहचानना मुश्किल होता है क्योंकि ये सामान्य पत्थरों जैसे ही होते हैं।
क्षुद्र ग्रह सौर मंडल के जन्म के समय से ही मौजूद हंै। इसलिए विज्ञानी इनके अध्ययन के लिए उत्सुक रहते हैं। अंतरिक्षयान जो इनके पट्टे के बीच से गए हैं, उन्होंने पाया है कि ये पट्टा सघन नहीं है, इन क्षुद्र ग्रहों के बीच में काफी सारी खाली जगह है। अक्टूबर 1991 में गैलीलियो यान क्षुद्रग्रह क्रमांक 951 गैसपरा के पास से गुजरा था। अगस्त 1993 में गैलीलियो ने क्षुद्रग्रह क्रमांक 243 इडा की नजदीक से तस्वीरें ली थीं।
अब तक हजारो क्षुद्रग्रह देखे जा चुके हैं और उनका नामकरण और वर्गीकरण हो चुका है। इनमें प्रमुख है टाउटेटीस, कैस्टेलिया, जीओग्राफोस और वेस्ता। 2पालास, 4 वेस्ता और 10 हाय्जीया ये 400 किमीऔर 525 किमी के व्यास के बीच हंै। बाकि सभी क्षुद्रग्रह 340 किमी व्यास से कम के हैं। धूमकेतू, चन्द्रमा और क्षुद्रग्रहों के वर्गीकरण में विवाद है। कुछ ग्रहों के चन्द्रमाओं को क्षुद्रग्रह कहना बेहतर होगा जैसे मंगल के चन्द्रमा फोबोस और डीमोस , गुरू के बाहरी आठ चन्द्रमा ,शनि का बाहरी चन्द्रमा फोएबे वगैरह।
पांच प्राण
प्राचीन काल में जीवन- वायु के पांच प्रकारों का उल्लेख मिलता है- प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान। ये पंच प्राण कहलाते हैं। इसके अलावा प्राणों के पांच प्रकार के और भेदों का उल्लेख मिलता है- नाग, कूर्म, कृकिल , देवदत्त और धनंजय।
व्यापक अर्थ में प्राण का अर्थ ज्ञानेन्द्रिय या चेतना से लिया जाता है।. मृत्यु के समय प्राण सात मार्ग से निकलता है- आंख, कान, मुंह, नादि, गुदा, ब्रह्मïंध्र और मूत्रेन्द्रिय। वेद , उपनिषद, रामायण महाभारत और गीता - ये भारतीय संस्कृति के पांच प्राण माने गए हैं।
राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता सूची (National Air Quality List) की गुणवत्ता समझने का सरल, समग्र और आसान तरीका है। यह सूची स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले आठ प्रमुख प्रदूषण कारकों को मापन करती है। इनमें मुख्य रूप से (पीएम 10 और पीएम 2.5) नाइट्रोजन डायऑक्साइड, सल्फर डायऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, अमोनिया शामिल हैं। इसमें स्वास्थ्य से जुड़े जोखिमों के बारे में जानकारी का प्रसार अलग-अलग रंगों में आसान पहचान वाले प्रारूप के माध्यम से किया जाता है। प्रत्येक रंग सूची के एक स्तर को दर्शाया जाता है। इसमें छह स्तर अच्छा, संतोषजनक, मामूली प्रदूषित, कम, बहुत कम और गंभीर शामिल किए जाते हैं।
19 मार्च 2015 को केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने अप्रैल 2015 में राष्ट्रीय वायु गुणवत्ता सूची जारी करने की घोषणा की है। इस सूची के जारी होने के बाद दस लाख से अधिक आबादी वाले 66 शहरों में प्रदूषण निगरानी स्टेशन स्थापित किए जाएंगे। वर्तमान में इस प्रकार के 46 स्टेशन हैं, जिनमें 16 शहरों में लगातार निगरानी करने की क्षमता है। लोगों को प्रकृति की हकीकत और शहरों की हवा की गुणवत्ता के बारे में जागरूक करने की दिशा में इस सूची का जारी होना एक महत्वपूर्ण पहल होगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा दिल्ली में प्रदूषण के स्तर को सीमा से अधिक बताया गया है।