विचार / लेख

हैप्पी बर्थ डे अशोक!
16-Jan-2021 1:42 PM
हैप्पी बर्थ डे अशोक!

-कनक तिवारी

अशोक के पास तो लेखकों, विचारकों, आयोजनकर्ताओं, निन्दकों, तटस्थों और आत्मीयों की एक बड़ी टीम भी है। वह भीड़ में तब्दील भी हो सकती है। भूगोल और इतिहास के संधि बिन्दु पर खड़े अशोक के लिए  मेरा शहर दुर्ग कह सकता है कि हिन्दी साहित्य में एक दमदार उपस्थिति के लिए मेरे शहर का योगदान शीर्ष पर रेखांकित होगा। अशोक को जन्मदिन की ढेर सारी बधाई और उनके लगातार आगे भी इतनी ही गति से सक्रिय रहने की उम्मीदें मुझमें हैं।

आज 16 जनवरी 2021 को 80 साल के हो गए अशोक वाजपेयी हिन्दी साहित्य जगत में एक कद्दावर व्यक्ति संस्था की तरह स्थापित हैं। हमउम्र अशोक के साथ मैंने भी अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि ली है। लेकिन हमारे लिए इन उपाधियों का स्थानांतरण और रूपांतरण इस तरह हो गया कि अशोक मुख्यत: भाषायी अवरोधों की दीवार लांघकर अंग्रेजी के प्रबुद्ध पाठक और अध्येता होने के बावजूद हिन्दी के शीर्ष नामों में अपने स्वकर्म और उद्यम से स्थापित हो गए।

दिलचस्प यह भी है कि अशोक की ख्याति-देह केवल मांसल नहीं है। उसमें हड्डियां हैं लेकिन वे अनावश्यक रूप से कई लोगों को गड़ती हैं। अंग्रेजी के महान गद्यकार और शीर्ष विधिवेत्ता फ्रांसिस बेकन ने कुछ महत्वपूर्ण व्यावहारिक समझाइशों की सलाह देते अद्भुत निबंध लिखे हैं। उनमें एक यह भी है कि आप कुछ ऐसा करें कि आप समाज में अप्रासंगिक या लोकप्रिय वगैरह होने की कोशिशों से बचें क्योंकि उनसे कुछ हासिल नहीं होता है। ऐेसा कुछ करें जिससे लोगों को आपकी उपस्थिति का भान हो। यही बात ख्यातनाम जार्ज बर्नड शॉ ने भी कही कि आपके अस्तित्व की चिंता अगर दूसरे अपनी असमर्थता और असहमति का ऐलान करते हुए करें तो समझिए कि आप कुछ सार्थक कर रहे हैं। ‘बारे तुम गमजदा या शाद रहो, काम कुछ ऐसा करो यां कि बहुत याद रहो।‘

आईएएस में पास होने के बाद अशोक की दो-तीन बार पोस्टिंग छत्तीसगढ़ में हुई। अशोक को मेरा अस्तित्व याद रहता था। उन्होंने मुझे बुलाया जब मैं अंग्रेजी विभाग में महाविद्यालय में पढ़ाने के काम में लग गया था। अशोक चाहते थे मैं कुछ लिखना शुरू करूं लेकिन वह मेरी फितरत में नहीं था। मुझमें एक गहरी कुंठा भी थी और मैं साहबी किस्म के व्यक्तियों से एक मुदर्रिसत होने से मिलने से कतराता था। जो अंतरंगता कायम हो सकती थी वह अस्तित्व में तो रही लेकिन बहुत सूखती भी चली गई। धीरे-धीरे मैं प्राध्यापिकी छोडक़र वकालत के जरिए राजनीति में भी कुछ छोटा-मोटा हासिल करने की भवितव्यता में लगा रहा। मुझे जानकर हर वक्त अच्छा लगता कि अशोक का जन्म जिस दुर्ग में हुआ है वह वर्षों से मेरा कार्यक्षेत्र है।

अपने पिता के गुरु तथा जिनका मैं सहकर्मी रहा उन शीर्ष साहित्यकार पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी के शताब्दी समारोह को लेकर मैंने अविभाजित मध्यप्रदेश में भिलाई में एक बहुत बड़ा कार्यकम आयोजित किया और मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह से अचानक मांग की कि राज्य में एक सृजनपीठ और एक शोधपीठ बख्शी जी की स्मृति में स्थापित करने की घोषणा करें। अनपेक्षित अनुमान के अनुसार दिग्विजय सिंह ने मंच पर उपस्थित अशोक वाजपेयी को पास बुलाया और अशोक के चक्षु-समर्थन के बाद ही मुख्यमंत्री ने अनुकूल ऐलान किया। मैंने बीसियों कार्यक्रमों में उसके बाद अलग-अलग शहरों में अशोक को लगातार आामंत्रित किया। अन्य महत्वपूर्ण लेखकों के साथ। अशोक के छत्तीसगढ़ की धरती में आते रहने से साहित्य की एक एकात्मक सत्ता उद्योग राजनीति और जीवन के अन्य क्रियाकलापों के इलाके में रचनात्मकता को स्पंदित करती रहती। वे क्षण यादों में ठहर गए हैं। भोपाल में साहित्य सत्ता के शीर्ष बने अशोक के कारण जब चुनिन्दा कार्यक्रमों में मंत्रियों को पहली बार दर्शक या श्रोता दीर्घा में बैठना होता तो एक नया नवाचार विकसित होता जैसा लगता। शब्द कृपण, व्यवहारिक, कृत्रिम नमनीयता और एडजस्टमेंट जैसे उपदानों से अलग हटकर अशोक की वाक्पटुता, स्पष्टता और मुंहफटता के यमक और श्लेष अलंकारों में पेंगे भरती रहती है।

अशोक मेरे पीछे पड़े रहे लेकिन जीवन की आपाधापी और तात्कालिक लाभ मिलते कई सियासी और बौद्धिक उपक्रमों में लिप्त होने के बावजूद साहित्य मेरी जिजीविषा का साधन नहीं बन पाया। तब भी मैंने अपने अन्य मित्र और सहपाठी प्रभात त्रिपाठी के कारण कुछ न कुछ छिटपुट लिखना कायम रखा। प्रभात का लिखा मुझे बहुत सुहाता है और उससे बेतकल्लुफ होकर बात करना जीवन के बहुत बहुमूल्य अनुभवों में से है।

बहरहाल यहां-वहां खुदरा कुछ लिखा हुआ इक_ा किया और सोचा कि अब इसे छपा ही लिया जाए। मैं अशोक से छह महीना पहले उम्र की दौड़ में 80 पार कर चुका हूं। कोरोना ने अभी तक मुझे नहीं पकड़ा तो सोचा कि अब आगे सीधी सडक़ है या घुमावदार मोड़ कुछ दिखाई क्यों नहीं देता। कविता मैं सुनता तो हूं और नहीं लिख पाने की अपनी असमर्थता के कारण अपना सिर धुनता हूं। लिहाजा गद्य ने साथ दिया। छोटी-मोटी आलोचनाएं लिखीं। कभी संस्मरण, कभी अंतर्कथांए और यूं ही कुछ। अशोक की कविताओं से ज्यादा मुझे उनके गद्य को पढऩे में इसीलिए बहुत सुकून मिलता है। भाषायी छटा, मुहावरेदार व्यवहार्यता और शब्दों पर अपनी अर्थमयता की मजबूत पकड़ वगैरह के चलते अशोक सटीक शब्दों को उनका संदर्भ बुनकर प्रहारक बना देते हैं। उनके और मेरे प्रिय निर्मल वर्मा की भी कहानियों को पढने के बावजूद उनका वैचारिक गद्य मुझे बहुत उत्तेजित करता है। लिहाजा मैंने भानुमति का पिटारा लेकर एक किताब छपा ही ली और उसे इस तरह प्रकाशित किया कि आज 16 जनवरी 2021 को अशोक के जन्मदिन पर उनके हाथों में हो उनकी बर्थडे गिफ्ट की तरह। इससे ज्यादा मेरे पास और कुछ नहीं है देने के लिए।

अशोक के पास तो लेखकों, विचारकों, आयोजनकर्ताओं, निन्दकों, तटस्थों और आत्मीयों की एक बड़ी टीम भी है। वह भीड़ में तब्दील भी हो सकती है। भूगोल और इतिहास के संधि बिन्दु पर खड़े अशोक के लिए  मेरा शहर दुर्ग कह सकता है कि हिन्दी साहित्य में एक दमदार उपस्थिति के लिए मेरे शहर का योगदान शीर्ष पर रेखांकित होगा। अशोक को जन्मदिन की ढेर सारी बधाई और उनके लगातार आगे भी इतनी ही गति से सक्रिय रहने की उम्मीदें मुझमें हैं। अशोक को यह श्रेय है कि उन्होंने साहित्यिक गतिविधियों को हाशिए से उठाकर केन्द्रीय घटनाओं का संज्ञान बना दिया है। वामपंथ, दक्षिणपंथ और मध्यपथ के पचड़ों में लिप्त रहकर रचनाधर्मिता ने अशोक में अपना आश्वस्त आशियाना ढूंढा तो है।

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