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टीकाकरण का एक दिलचस्प इतिहास, छत्तीसगढ़ में कैसे लोगों का डर भगाया
21-Nov-2020 4:46 PM
टीकाकरण का एक दिलचस्प इतिहास, छत्तीसगढ़ में कैसे लोगों का डर भगाया

   राजा नरेशचन्द्र की 112 वीं जन्मतिथि   

-डॉ. परिवेश मिश्रा
एक समय था जब हैजा भारत की सबसे बड़ी जानलेवा महामारी था। इसकी एक एक खेप (या आज की भाषा में ‘वेव’) लाखों लोगों की जान ले जाती थी। वैक्सीन आने तक यही सिलसिला आम था।

एक ‘वेव’ 1941 से 45 के बीच भी आयी थी। दूसरा विश्वयुद्ध उन दिनों जारी था। बंगाल के साथ साथ देश के अन्य इलाके भीषण अकाल और भुखमरी की चपेट में थे। देश की कृषि पैदावार फौजियों के लिये थी और बाकी इंगलैंड भेज दी गयी थी। डॉक्टर और स्वास्थ्य कर्मी फौज में ले लिए गए थे। दवाईयां फौजी इस्तेमाल में खप जा रही थीं।
 
देश में स्थिति भयावह थी। बंगाल में अनेक गांवों में गलियाँ लाशों से पटने की खबरें आम हो गयी थीं। सारंगढ़ राज्य भी इस महामारी की चपेट में था। 
शरदचंद्र बेहार मध्यप्रदेश के मुख्य सचिव रहे हैं। उनका जन्म छत्तीसगढ़ के सारंगढ़ में हुआ और बचपन भी यहीं बीता। 1944 में वे 5 वर्ष के थे। वे दुखी मन से याद करते हैं इस दौरान उन्होंने अपने घर से एक दिन में तीन शव निकलते देखे थे। 

किन्तु कुछ मामलों में स्थिति अपेक्षाकृत बेहतर थी। अनाज की उपलब्धता में कमी नहीं होने दी गयी थी। सारंगढ़ स्टेट के अपने डॉक्टर और स्वास्थ्य कर्मी थे जिनकी मौज़ूदगी भी महत्वपूर्ण साबित हो रही थी। बाकी सारे विभागों के कर्मचारियों को भी हैजा नियंत्रण के काम में लगाया गया था।
 
किन्तु सबसे बड़ा ‘गेम-चेन्जर’ साबित हुआ था हैजे का वैक्सीन। विश्व युद्ध के कारण पैदा हुई स्थितियों के बावज़ूद  अपने संबंधों का इस्तेमाल कर राजा जवाहिर सिंह सारंगढ़ राज्य के लिये वैक्सीन प्राप्त करने में सफल हुए थे। खडग़पुर में जहाँ इन दिनों प्रसिद्ध आय.आय.टी. है वहां उन दिनों अमरीकी एयरफोर्स का बेस हुआ करता था। अमरीकी सैनिकों के लिए खडग़पुर पहुंची सप्लाई में से पेनिसिलिन के इन्जेक्शन और हैजा वैक्सीन भारत के इस हिस्से में पहली बार विमानों के जरिये सारंगढ़ हवाई पट्टी तक पहुंचे थे। (पेनिसिलिन की कहानी फिर कभी)।
 
हैजा का वैक्सीन पहली बार प्राप्त करना ज़ाहिर है बहुत मुश्किल काम था। किन्तु इससे कहीं अधिक मुश्किल काम इसके आगे था, लोगों को यह वैक्सीन लगाने का। 

सारंगढ़ के शहरी और ग्रामीण, दोनों, इंजेक्शन नाम की किसी चीज से परिचित नहीं थे। लोगों को वैक्सीन लगाने का जिम्मा दिया गया मैदान में अगुवाई कर रहे स्टेट के युवराज नरेशचन्द्र सिंहजी को। उनके नेतृत्व में स्टेट के डॉक्टर और बाकी लोग नगर की गलियों में पैदल और गांवों में साइकिलों में जाया करते थे। टीम के लोग बोरों में भर कर ब्लीचिंग पाउडर और थैलियों में भर कर सल्फाग्युनाडीन पाउडर की एक-एक ग्राम की पुडिय़ा साथ ले कर चला करते थे।

थोड़ी थोड़ी दूरी पर लोगों को इकट्ठा किया जाता। उन्हें वैक्सीन के लाभ के बारे में समझाईश दी जाती। और फिर किसी सफल स्टेज-शो के क्लाइमेक्स के रूप में युवराज नरेशचन्द्र सिंह जी पूरी नाटकीयता के साथ अपनी बांह ऊपर करते, कौतूहल अपने चरम पर पहुंचता और डॉक्टर उन्हें इंजेक्शन की सुई चुभोता। यह सब किया जाता देखने वालों को आश्वस्त करने के लिये कि इन्जेक्शन एक सुरक्षित तरीका है। युवराज को लगाए जाने वाले इन्जेक्शन में वैक्सीन नहीं होता था यह बात उनके अलावा सिर्फ डॉक्टर जानता था। लेकिन इसके बाद लोग सामने आ जाते और वैक्सीन ले लेते। इससे मृत्यु दर पर तेजी से अंकुश लगाने में बहुत सफलता मिली। लेकिन ऐसे हर दिन के अंत तक तीस से चालीस बार इन्जेक्शन की सुई चुभवाने के कुछ दिनों के बाद जब नरेशचन्द्र जी की बांह सूज गयी तो इस बात को गोपनीय रखा गया ताकि लोग इसे वैक्सीन का दुष्प्रभाव न समझ बैठें।  

1946 में पिता की मृत्यु के बाद नरेशचन्द्र सिंह जी सारंगढ़ के राजा बने। 1 जनवरी 1948 को राज्य का भारतीय गणराज्य में विलीनीकरण करने के बाद वे औपचारिक रूप से कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए। 1949 से वे मध्यप्रदेश में कैबिनेट मंत्री रहे तथा 1969 में राजनीति से सन्यास की घोषणा करने से पूर्व राज्य के पहले और अब तक के एकमात्र आदिवासी मुख्यमंत्री बने।
 
राजा नरेशचन्द्र सिंह का जन्म रायपुर के राजकुमार कॉलेज में 21 नवम्बर 1908 के दिन हुआ था। आज उनकी 112वीं जन्मतिथि है।

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