विचार / लेख

फिर निशाने पर आई स्त्री देह
28-Oct-2020 1:12 PM
फिर निशाने पर आई स्त्री देह

-बादल सरोज
और जरा सी गर्मी पकड़ते ही मध्यप्रदेश का अभियान भी घसीटकर अपनी पसंदीदा पिच पर ले आया गया। आमफहम भाषा में कहें, तो दोनों प्रतिद्वंदी दलों की राजनीति अपनी औकात पर आ गई और निशाना स्त्री बन गई।  

पूर्व मुख्यमंत्री 73 वर्षीय कमलनाथ को कल तक उन्हीं के मंत्रिमंडल की सदस्य रही, अब दलबदल कर फिर से मंत्री बन चुनाव लड़ रही डबरा की महिला उम्मीदवार ‘आइटम’ नजर आने लगी, तो इस पर कुछ घंटों का मौनव्रत रखकर नौ सौ चूहे खाने वाली बिल्ली भाजपा भी हज के लिए निकल पड़ी। स्त्री सम्मान के लिए सज-धजकर उतरी भाजपा और शिवराज सिंह सहित उसके नेताओं के मौन-पाखण्ड वाली नौटंकी के शामियाने भी नहीं खुले थे कि उन्हीं की पार्टी के चिन्ह से उपचुनाव लड़ रहे दलबदल कर मंत्री बने बिसाहू लाल सिंह ने बाकायदा कैमरों और मीडिया के सामने अपने प्रतिद्वंद्वी की पत्नी के खिलाफ निहायत आपत्तिजनक और भद्दी टिप्पणी कर दी।  

इन दोनों ही मामलों में दो उजागर अंतर थे और वो ये कि कमलनाथ के बयान की उनकी पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने निंदा की, मगर बिसाहूलाल सिंह के कहे की भत्र्सना करने के लिए राष्ट्रीय तो छोडिय़े, प्रदेश भाजपा अध्यक्ष या मुख्यमंत्री तक ने जुबान नहीं खोली। दूसरा फर्क यह था कि इन अमर्यादित कथनों पर पर्याप्त थुक्का-फजीहत होने के बाद भी दोनों में से एक ने भी अपने कहे को वापस नहीं लिया।  कमलनाथ ने जहां ‘अगर किसी को बुरा लगा हो तो’ कहकर इतिश्री मान ली, तो बिसाहूलाल अपने कहे को दोहराकर उसे सही साबित करने की कोशिश में आज तक हैं।

नारियों के लिए बेहूदा और अक्सर अश्लील टिप्पणियां करने के मामले में भारत के राजनेताओं-पूंजीवादी-भूस्वामी राजनीति के पुरोधाओं का कलुषित और कलंकित रिकॉर्ड भरापूरा है।  इनका दस्तावेजीकरण किया जाए, तो यह इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के अब तक के सारे खण्डों से ज्यादा बड़े आकार का ग्रन्थ बन सकता है।  

नरेंद्र मोदी के शीर्ष पर आने के बाद इसे और समृद्ध बनाने में खुद उन्होंने भी विकट योगदान दिया है। बुंदेली कहावत ‘जैसे जाके नदी नाखुरे तैसे ताके भरिका-जैसे जाके बाप महताई तैसे ताके लरिका’ की तर्ज पर उनकी पार्टी के कारकूनों और भक्तों ने भी इस मामले में जमकर गंदगी फैलाई है। सारे का सारा राजनीतिक बतकहाव स्त्री को लज्जित करने वाले रूपकों, मुहावरों, बिम्बों और उपमाओं की कीच में सना और लिथड़ा हुआ है। सोनिया गांधी से सफूरा जरगर तक, बृन्दा करात से सुभाषिणी अली तक, मायावती से ममता बनर्जी तक आलोचनाएं और विमर्श उनकी नीति या राजनीति पर नहीं, उनके स्त्रीत्व पर केंद्रित रहे हैं।  

भाजपा ने उसे नई नीचाई दी है। उसने अपने इस अभियान से उन स्त्रियों को भी नहीं बख्शा, जो अब इस दुनिया में नहीं रहीं। वे चाहें इंदिरा गांधी हों या 50 करोड़ की गर्ल फ्रेंड बताई गई सुनन्दा पुष्कर हों या हाल में हाथरस में सामूहिक बलात्कार के बाद मार डाली गई मनीषा वाल्मीकि हो। भाजपाई इस महिला धिक्कार और तिरस्कार के मामले में पूरी तरह दलनिरपेक्ष हैं। उन्होंने इस तरह के दुष्प्रचार में अपनी ही नेता रही (और तनिक व्यवधान के बाद अब फिर उनकी ही नेता) उमा भारती से लेकर अपनी ही बाकी नेत्रियों की निजता को भी नहीं छोड़ा।

भारत की राजनीति में जाति श्रेष्ठता हो या राजनीति, विजय का ध्वजारोहण हमेशा स्त्री देह में गाड़ कर ही किया जाता है। जीते कोई भी, हराई हमेशा औरत ही जाती है।

यह सिर्फ यौनकुंठा का मनोरोग नहीं है। यह पोलियो के साथ जन्मे, गर्भनाल से ही कुपोषित और हमेशा वेंटीलेटर पर रहे राजनीतिक लोकतंत्र और कभी साँस न ले पाए सामाजिक लोकतंत्र की मौजूदा अवस्था की एक्सरे और पैथोलॉजी रिपोर्ट है। यह पितृसत्तात्मकता (सही शब्द होगा पुरुष सत्तात्मकता) की गलाजत का दलदल है-जिन्हें कथित धर्मग्रंथों ने खूब महिमामण्डित किया है, मनु जैसों की स्मृतियों ने संहिताबद्ध किया है और देश-प्रदेश के सर्वोच्च पदों पर डटे नेताओं और संवैधानिक कहे जाने वाले व्यक्तियों ने अपने मुखारबिन्द से दोहरा दोहरा कर गौरवान्वित किया है। 

नतीजे में यह इतनी संक्रामक है कि जनता के बड़े हिस्से खासकर पुरुषों के विराट बहुमत हिस्से को बिल्कुल भी खराब या गलत नहीं लगती। उनकी खुद की समझदानी के आकार में इतनी फिट बैठती है कि वे इसे सहज और सच्चा मान लेते हैं। इसका रस लेते हैं। यही वजह है कि राहुल गांधी के क्षोभ जताने की टिप्पणी को कमलनाथ ‘यह उनकी निजी राय है’ कहकर टाल देते हैं। भाजपा अपने नेताओं की इस तरह की बातों का संज्ञान तक नहीं लेती। उन्हें पता है कि ‘उनकी जनता’ इस तरह की बातों का बुरा नहीं मानती। इसलिए असली समस्या ये बदजुबानदराज नेता या इस तरह की बातें करने वाले ‘बड़े’ नहीं है।  

सारी समस्या है जनता की वह चेतना, जिसे ये ‘अपनी’ कहते-मानते हैं और उसे अपनी तरह का बनाये रखने में जी-जान से भिड़े रहते हैं। असल सवाल है उस सामाजिक लोकतांत्रिक चेतना की कायमी का, जिसमें एक ऐसी मानवीय चेतना पल्लवित की जाए कि खार और काँटों के लिए जगह ही नहीं बचे। यह अपने आप में होने वाला काम नहीं है। आसान काम तो बिलकुल भी नहीं है।  

इसके लिए सदियों पुराने कूड़े और करकट को झाड़-बुहार-समेट कर आग के हवाले करना होगा, बंजर बना दिए गए सोच-विचार की जमीन को उर्वरा बनाना होगा, अंधविश्वासों और कुरीतियों की झाड़-झंखाड़ साफ करके वैज्ञानिक मानवीय रुझानों के खाद-बीज रोपने होंगे। बोलने-सोचने-समझने की पूरी वर्तनी, उसमे लिखी गई कथा-कहानियाँ, मुहावरे-लोकोक्तियाँ बदलनी होंगी। स्त्री और सामाजिक शोषितों के साथ हुए ऐतिहासिक धतकरम अन्याय थे, यह स्वीकारना होगा। 
 
जो वर्तमान, इतिहास की गलतियों के लिए हाथ जोडक़र माफी मांगता है, वही अपने पाँवों से अच्छे भविष्य की ओर सरपट दौड़ लगाने की क्षमता से परिपूर्ण होता है। और ठीक यही काम है, जो आजादी के बाद भारत की सत्ता में आया शासक वर्ग नहीं कर सका/नहीं कर सकता।

कम्युनिस्टों को छोड़ दें, जिन्होंने हमेशा पितृसत्ता और मनुवाद के सांड़ को सींगों से पकडऩे की कोशिश की है, तो उनके अलावा भारत की राजनीतिक धारा में सिर्फ बाबा साहेब आंबेडकर थे, जिन्होंने लोकतांत्रिक समाज के निर्माण की दिशा में महिला प्रश्न को जरूरी तवज्जोह दी और उसे सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखा। यह बात अलग है कि खुद को उनका अनुयायी मानने वालों ने ही वोट की तराजू का पलड़ा भारी रखने के लिए महिलाओं से जुड़े प्रश्नो की तलवार उठाने वाले अम्बेडकर को गहरे में दफना दिया और स्त्री को शूद्रातिशूद्र बताने वाले मनु का तिलक लगा लिया।  

जाहिर है, यह काम अब लोकतंत्र और संविधान बचाने की लड़ाई लडऩे वालों को अपने हाथ में लेना होगा। कारपोरेट की लूट, जाति-श्रेणीक्रम आधारित सामाजिक शोषण के विरुद्ध लड़ते-लड़ते महिला मुक्ति के सवाल पर भी लडऩा होगा। स्त्री को हेय और दोयम समझने की मानसिकता को झाड़ बाहर करना होगा। अपने अंदर भी और बाहर भी!

(लेखक सीपीएम के मध्यप्रदेश के एक वरिष्ठ नेता हैं, पाक्षिक लोकजतन के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

अन्य पोस्ट

Comments

chhattisgarh news

cg news

english newspaper in raipur

hindi newspaper in raipur
hindi news